श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 866 गोंड महला ५ ॥ गुर के चरन कमल नमसकारि ॥ कामु क्रोधु इसु तन ते मारि ॥ होइ रहीऐ सगल की रीना ॥ घटि घटि रमईआ सभ महि चीना ॥१॥ इन बिधि रमहु गोपाल गुोबिंदु ॥ तनु धनु प्रभ का प्रभ की जिंदु ॥१॥ रहाउ ॥ आठ पहर हरि के गुण गाउ ॥ जीअ प्रान को इहै सुआउ ॥ तजि अभिमानु जानु प्रभु संगि ॥ साध प्रसादि हरि सिउ मनु रंगि ॥२॥ जिनि तूं कीआ तिस कउ जानु ॥ आगै दरगह पावै मानु ॥ मनु तनु निरमल होइ निहालु ॥ रसना नामु जपत गोपाल ॥३॥ करि किरपा मेरे दीन दइआला ॥ साधू की मनु मंगै रवाला ॥ होहु दइआल देहु प्रभ दानु ॥ नानकु जपि जीवै प्रभ नामु ॥४॥११॥१३॥ {पन्ना 866} पद्अर्थ: नमसकारि = प्रणाम कर, सिर झुका। ते = से, में से। होइ रहीअै = हो के रहना चाहिए। रीना = चरण धूल। घटि घटि = हरेक घट में। घट = शरीर। सभ महि = सब में। चीना = पहचाना।1। बिधि = तरीका। रमहु = सिमरो। जिंदु = जान (जिंदु' स्त्रीलिंग है, पर इसकी शक्ल पुलिंग वाली है)।1। रहाउ। गुोबिंद: अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं हैं- 'ो' और 'ु'। असल शब्द है 'गोबिंद', यहां पढ़ना है 'गुबिंदु' । गाउ = गाया करो। को = का। सुआउ = उद्देश्य, मनोरथ। तजि = त्याग के। संगि = (अपने) साथ। साध प्रसादि = गुरू की कृपा से। सिउ = से। रंगि = रंगि ले, जोड़े रख।2। जिनि = जिस (प्रभू) ने। तूं = तुझे। जानु = सांझ डाल। पावै = प्राप्त करता है। मानु = आदर। निहालु = प्रसन्न। रसना = जीभ (से)।3। तिस कउ: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'कउ' के कारण हटा दी गई है। दीन दइआल = हे दीनों पर दया करने वाले! साधू = गुरू। रवाला = चरण धूल। प्रभ = हे प्रभू! जपि = जप के। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। प्रभ नामु = प्रभू का नाम।4। अर्थ: हे भाई! इस शरीर को, इस धन को, प्रभू की कृपा समझो, इस प्राण को (भी) प्रभू का ही दिया हुआ समझो। इस तरह सृष्ट के पालक गोबिंद का नाम जपते रहो।1। रहाउ। हे भाई! (अपने) गुरू के चरणों पर अपना सिर रखा करो। (गुरू की कृपा से अपने) इस शरीर में से काम और क्रोध (आदि विकारों) को मार डालो। हे भाई! सबके चरणों की धूल हो के रहना चाहिए। हरेक शरीर में सुंदर राम को बसता देख।1। हे भाई! आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा के गुण गाते रहा करो। तेरी जिंद-जान का (संसार में) यही (सबसे बड़ा) उद्देश्य है। अहंकार दूर करके प्रभू को अपने अंग-संग बसता समझ। गुरू की कृपा से अपने मन को परमात्मा (के प्रेम-रंग) से रंग ले।2। हे भाई! जिस परमात्मा ने तुझे पैदा किया है उससे सांझ बनाए रख। (जो मनुष्य ये उद्यम करता है वह) आगे प्रभू की हजूरी में आदर हासिल करता है। हे भाई! जीभ से परमात्मा का नाम जपते हुए मन-तन पवित्र हो जाता है, मन खिला रहता है, शरीर भी प्रफुल्लित रहता है।3। हे दीनों पर दया करने वाले मेरे प्रभू! (मेरे पर) मेहर कर। (मेरा) मन गुरू के चरणों की धूल माँगता है। हे प्रभू (नानक पर) दयावान हो और ये ख़ैर डाल कि (तेरा दास) नानक, हे प्रभू! तेरा नाम जप के आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहे।4।11।13। गोंड महला ५ ॥ धूप दीप सेवा गोपाल ॥ अनिक बार बंदन करतार ॥ प्रभ की सरणि गही सभ तिआगि ॥ गुर सुप्रसंन भए वड भागि ॥१॥ आठ पहर गाईऐ गोबिंदु ॥ तनु धनु प्रभ का प्रभ की जिंदु ॥१॥ रहाउ ॥ हरि गुण रमत भए आनंद ॥ पारब्रहम पूरन बखसंद ॥ करि किरपा जन सेवा लाए ॥ जनम मरण दुख मेटि मिलाए ॥२॥ करम धरम इहु ततु गिआनु ॥ साधसंगि जपीऐ हरि नामु ॥ सागर तरि बोहिथ प्रभ चरण ॥ अंतरजामी प्रभ कारण करण ॥३॥ राखि लीए अपनी किरपा धारि ॥ पंच दूत भागे बिकराल ॥ जूऐ जनमु न कबहू हारि ॥ नानक का अंगु कीआ करतारि ॥४॥१२॥१४॥ {पन्ना 866} पद्अर्थ: धूप दीप = (मूर्ति की आरती के समय थाल में) धूप धुखाना दीए जलाना। सेवा = भगती। बंदन = नमस्कार। गही = पकड़ी। तिआगि = छोड़ के। सुप्रसंन = बहुत खुश। वडभागि = बड़ी किस्मत से।1। गाईअै = गाना चाहिए।1। रहाउ। रमत = सिमरते हुए। बखसंद = बख्शिश करने वाला। करि = कर के। मेटि = मिटा के।2। करम धरम = (तीर्थ, व्रत, मूर्ति-पूजा आदि) कर्म जिनको धर्म समझा गया है। ततु गिआनु = असल ज्ञान। साध संगि = गुरू की संगति में। जपीअै = जपना चाहिए। सागर = (संसार) समुंद्र। तरि = पार लांघ। बोहिथ = जहाज। कारण करण = जगत का मूल। कारण = मूल, वसीला। करण = जगत।3। धारि = धार के, कर के। दूत = वैरी। बिकराल = डरावने। जूअै = जूए में। हारि = हार के, हारता है। अंगु = पक्ष। नानक का अंगु = हे नानक! जिसका पक्ष। करतारि = करतार ने।4। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा का दिया हुआ ये सारा शरीर है, ये प्राण हैं और ये धन है, उसकी सिफत सालाह आठों पहर (हर वक्त) करनी चाहिए।1। रहाउ। (हे भाई! कर्म-काण्डी लोग देवी-देवताओं की पूजा करते हैं, उनके आगे धूप धुखाते हैं और दीए जलाते हैं, पर) जिस मनुष्य पर अहो-भाग्य से गुरू मेहरवान हो जाए, वह (धूप-दीप आदि वाली) सारी क्रिया छोड़ के प्रभू का आसरा लेता है, परमात्मा के दर पे हर वक्त सिर झुकाना, परमात्मा की भक्ति करनी ही उस मनुष्य के लिए 'धूप-दीप' की क्रिया है।1। हे भाई! परमात्मा मेहर करके अपने सेवकों को अपनी भक्ति में जोड़ता है, उनके जनम से ले के मरने तक के सारे दुख मिटा के उनको अपने चरणों में मिला लेता है। सर्व-व्यापक बख्शिंद परमात्मा के गुण गाते हुए अंदर आनंद बना रहता है।2। हे भाई! गुरू की संगति में टिक के परमात्मा का नाम जपते रहना चाहिए, यही है धार्मिक कर्म और यही है असल ज्ञान। हे भाई! सबके दिल की जानने वाले और जगत के पैदा करने वाले परमात्मा के चरणों को जहाज बना के इस संसार-समुंद्र से पार हो।3। हे भाई! प्रभू अपनी मेहर करके जिन की रक्षा करता है, (कामादिक) पाँचों डरावने वैरी उनसे परे भाग जाते हैं। हे नानक! जिस भी मनुष्य का पक्ष परमात्मा ने किया है, वह मनुष्य (विकारों के) जूए में अपना जीवन कभी नहीं गवाता।4।12।14। गोंड महला ५ ॥ करि किरपा सुख अनद करेइ ॥ बालक राखि लीए गुरदेवि ॥ प्रभ किरपाल दइआल गुोबिंद ॥ जीअ जंत सगले बखसिंद ॥१॥ तेरी सरणि प्रभ दीन दइआल ॥ पारब्रहम जपि सदा निहाल ॥१॥ रहाउ ॥ प्रभ दइआल दूसर कोई नाही ॥ घट घट अंतरि सरब समाही ॥ अपने दास का हलतु पलतु सवारै ॥ पतित पावन प्रभ बिरदु तुम्हारै ॥२॥ अउखध कोटि सिमरि गोबिंद ॥ तंतु मंतु भजीऐ भगवंत ॥ रोग सोग मिटे प्रभ धिआए ॥ मन बांछत पूरन फल पाए ॥३॥ करन कारन समरथ दइआर ॥ सरब निधान महा बीचार ॥ नानक बखसि लीए प्रभि आपि ॥ सदा सदा एको हरि जापि ॥४॥१३॥१५॥ {पन्ना 866} पद्अर्थ: करि = कर के। करेइ = करता है। बालक = (अपने) बच्चों को। गुरदेवि = गुरदेव ने, सबसे बड़े प्रभू ने। किरपाल = कृपा के घर। सगलै = सारे। बखसिंद = बख्शने वाला।1। गुोबिंद: अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं हैं- 'ो' और 'ु'। असल शब्द है 'गोबिंद', यहां पढ़ना है 'गुबिंद' । प्रभ = हे प्रभू! जपि = जप के। निहाल = प्रसन्न।1। रहाउ। अंतरि = अंदर। घट घट अंतरि = हरेक शरीर में। सरब समाही = तू सभी में समाया हुआ है। हलतु = (अत्र) यह लोक। पलतु = (परत्र) परलोक। सवारै = संवार देता है। पतित पावन = विकारियों को निर्मल जीवन वाले बनाने वाला। प्रभ = हे प्रभू! बिरदु = मूल स्वभाव। तुमारै = तुम्हारै, तेरे घर में।2। अउखध = दवाईयां। कोटि = करोड़ों। सोग = चिंता फिक्र। मन बांछत = मन मांगे।3। करन कारन = जगत को पैदा करने वाला। करन = जगत। दइआर = दयालु। निधान = खजाना। महा बीचार = प्रभू के गुणों के ऊँचे विचार। प्रभि = प्रभू ने।4। अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! (हम जीव) तेरे ही आसरे हैं। हे पारब्रहम! (तेरा नाम) ज पके सदा खिले रहा जा सकता है।1। रहाउ। हे भाई! उस सबसे बड़े प्रभू ने (सदा ही शरण पड़े अपने) बच्चों की रक्षा की है, मेहर करके (उनके हृदय में) आनंद पैदा करता है। हे भाई! गोबिंद प्रभू कृपा का घर है, दया का श्रोत है, सारे ही जीवों पर बख्शिश करने वाला है।1। हे प्रभू! तेरे जैसा दया का श्रोत (जगत में) और कोई दूसरा नहीं है। तू हरेक शरीर में मौजूद है, तू सारे जीवों में व्यापक है। हे भाई! प्रभू अपने सेवक का ये लोक और परलोक सुंदर बना देता है। हे प्रभू! तेरे घर में यही बिरद है (तेरा मूल स्वभाव है) कि तू विकारियों को निर्मल जीवन वाला बना देता है।2। हे भाई! गोबिंद का नाम सिमरा कर, ये नाम ही करोड़ों दवाईयों (के बराबर) है। हे भाई! भगवान का नाम जपना चाहिए, ये नाम (सबसे बढ़िया) तंत्र और मंत्र है। जो मनुष्य इस नाम को सिमरता है, उसके सारे रोग सारी चिंता-फिक्रें मिट जाते हैं। वह मनुष्य सारे ही मन मांगे फल प्राप्त कर लेता है।3। हे भाई! परमात्मा जगत का मूल है, सब ताकतों का मालिक है, दया का श्रोत है। उसके उच्च गुणों का विचार करना ही (जीव के लिए) सारे खजाने हैं। हे नानक! प्रभू ने खुद ही अपने सेवकों पर सदा बख्शिश की है। हे भाई! सदा ही उस एक परमात्मा का नाम जपा कर।4।13।15। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |