श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गोंड महला ५ ॥ हरि हरि नामु जपहु मेरे मीत ॥ निरमल होइ तुम्हारा चीत ॥ मन तन की सभ मिटै बलाइ ॥ दूखु अंधेरा सगला जाइ ॥१॥ हरि गुण गावत तरीऐ संसारु ॥ वड भागी पाईऐ पुरखु अपारु ॥१॥ रहाउ ॥ जो जनु करै कीरतनु गोपाल ॥ तिस कउ पोहि न सकै जमकालु ॥ जग महि आइआ सो परवाणु ॥ गुरमुखि अपना खसमु पछाणु ॥२॥ हरि गुण गावै संत प्रसादि ॥ काम क्रोध मिटहि उनमाद ॥ सदा हजूरि जाणु भगवंत ॥ पूरे गुर का पूरन मंत ॥३॥ हरि धनु खाटि कीए भंडार ॥ मिलि सतिगुर सभि काज सवार ॥ हरि के नाम रंग संगि जागा ॥ हरि चरणी नानक मनु लागा ॥४॥१४॥१६॥ {पन्ना 867}

पद्अर्थ: मीत = हे मित्र! निरमल = पवित्र। मिटै = मिट जाती है। बलाइ = बिपता। सगला = सारा। जाइ = जाय, दूर हो जाता है।1।

गावत = गाते हुए। तरीअै = उद्धार हो जाता है। वडभागी = बड़े भाग्यों से। पुरखु = सर्व व्यापक प्रभू। अपारु = अ+पारु, बेअंत।1। रहाउ।

गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। पछाणु = सांझ डाल।2।

तिस कउ: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'कउ' के कारण हटा दी गई है।

संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। मिटहि = मिट जाते हैं (मिटै = एक वचन)। उनमाद = (उन्माद = madness, insanity) झल्लापन। मंत = मंत्र, उपदेश।3।

खाटि = कमा के। भंडार = खजाने। मिलि सतिगुर = गुरू को मिल के। सभि = सारे। नाम रंग संगि = नाम के प्रेम से। संगि = साथ।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुण गाते-गाते संसार (-समुंद्र से) पार लांघा जाता है, (भाग्य जाग उठते हैं) बहुत भाग्यों से सर्व-व्यापक बेअंत प्रभू मिल जाता है।1। रहाउ।

हे मेरे मित्र! परमात्मा का नाम सदा जपा कर, (नाम की बरकति से) तेरा मन पवित्र हो जाएगा। (हे मित्र! नाम जपने से) मन की शरीर की हरेक बिपता मिट जाती है, हरेक दुख दूर हो जाता है, (माया के मोह का) सारा अंधेरा समाप्त हो जाता है।1।

हे मेरे मित्र! जो मनुष्य सृष्टि के पालनहार प्रभू की सिफतसालाह के गीत गाता रहता है, उसको मौत का डर छू नहीं सकता, उस मनुष्य का दुनिया में आना सफल हो जाता है। (हे मित्र! तू भी) गुरू की शरण पड़ कर अपने मालिक प्रभू के साथ जान-पहचान बनाए रख।2।

(हे मित्र! जो मनुष्य) गुरू की कृपा से परमात्मा के गुण गाता रहता है, (उसके अंदर से) काम-क्रोध (आदि) उन्माद खत्म हो जाते हैं। (हे मित्र! तू भी) पूरे गुरू का सच्चा उपदेश ले के भगवान को सदा अपने अंग-संग बसता समझा कर।3।

हे नानक! गुरू को मिल के जिस मनुष्य ने हरी-नाम-धन कमा के खजाने भर लिए, उसने अपने सारे ही काम सँवार लिए। हरी-नाम के प्रेम की बरकति से उसका मन जाग उठता है ( काम-क्रोध आदि विकारों से वह सचेत रहता है) उसका मन परमात्मा के चरणों में जुड़ा रहता है।4।14।16।

गोंड महला ५ ॥ भव सागर बोहिथ हरि चरण ॥ सिमरत नामु नाही फिरि मरण ॥ हरि गुण रमत नाही जम पंथ ॥ महा बीचार पंच दूतह मंथ ॥१॥ तउ सरणाई पूरन नाथ ॥ जंत अपने कउ दीजहि हाथ ॥१॥ रहाउ ॥ सिम्रिति सासत्र बेद पुराण ॥ पारब्रहम का करहि वखिआण ॥ जोगी जती बैसनो रामदास ॥ मिति नाही ब्रहम अबिनास ॥२॥ करण पलाह करहि सिव देव ॥ तिलु नही बूझहि अलख अभेव ॥ प्रेम भगति जिसु आपे देइ ॥ जग महि विरले केई केइ ॥३॥ मोहि निरगुण गुणु किछहू नाहि ॥ सरब निधान तेरी द्रिसटी माहि ॥ नानकु दीनु जाचै तेरी सेव ॥ करि किरपा दीजै गुरदेव ॥४॥१५॥१७॥ {पन्ना 867}

पद्अर्थ: भव = संसार। सागर = समुंद्र। बोहिथ = जहाज। सिमरत = सिमरते हुए। मरण = मौत, आत्मिक मौत। रमत = जपते हुए। पंथ = रास्ता। महा बीचार = (प्रभू के गुणों का) विचार जो सब विचारों से उक्तम है। मंथ = नाश करने वाला।1।

तउ = तेरी। नाथ = हे नाथ! दीजहि = दिए जाने चाहिए (बहुवचन)।1। रहाउ।

करहि = करते हैं। रामदास = (दक्षिण में) बैरागियों का एक संप्रदाय जो नृत्यकारी करते हैं। मिति = अंदाजा, अंत।2।

करण पलाह = (करुणा प्रलाप) तरले, कीरने। अलख = जिसका सही स्वरूप समझ में नहीं आ सकता। तिलु = रक्ती भर भी। देइ = देता है। केई केइ = केई केय, कोई कोई, विरले, दुर्लभ।3।

मोहि निरगुण = मैं गुणहीन में। सरब निधान = सारे खजाने। द्रिसटी = दृष्टि, नजर, निगाह। नानकु जाचै = नानक मांगता है (नानक = हे नानक!)। गुरदेव = हे सबसे बड़े देव!।4।

अर्थ: हे सारे गुणों से भरपूर पति-प्रभू! मैं तेरी शरण आया हूँ। (मुझे) अपने पैदा किए गरीब सेवक को कृपा करके अपना हाथ पकड़ा।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा के चरण संसार समुंद्र से पार लांघने के लिए जहाज़ हैं। परमात्मा का नाम सिमरने से बार-बार (आत्मिक) मौत नहीं होती। प्रभू के गुण गाने से जमों का रास्ता नहीं पकड़ना पड़ता। (परमात्मा के गुणों की) विचार जो अन्य सारी विचारों से उक्तम है (कामादिक) पाँच वैरियों का नाश कर देती है।1।

हे भाई! स्मृतियां, शास्त्र, वेद, पुराण (आदि सारी धर्म-पुस्तकें) परमात्मा के गुणों का बयान करते हैं। जोगी-जती, वैश्णव साधु, (नृतकारी करने वाले) बैरागी भगत भी प्रभू के गुणों का विचार करते हैं, पर उस अविनाशी प्रभू का कोई भी अंत नहीं पा सकता।2।

हे भाई! शिव जी व अन्य अनेकों देवते (उस प्रभू का अंत तलाशने के लिए) तरले लेते हैं, पर उसके स्वरूप को रक्ती भर भी नहीं समझ सकते। उस प्रभू का स्वरूप सही तरीके से बयान नहीं किया जा सकता, उस प्रभू का भेद नहीं पाया जा सकता।3।

हे प्रभू! (मैं तो हूँ नाचीज़। भला मैं तेरा अंत कैसे पा सकता हूँ?) मुझ गुणहीन में कोई भी गुण नहीं है। (हाँ,) तेरी मेहर की निगाह में सारे खजाने हैं (जिस पर नज़र करता है, उसको प्राप्त हो जाते हैं)। हे सबसे बड़े देव! (तेरा दास) गरीब नानक (तुझसे) तेरी भक्ति माँगता है। मेहर कर के ये ख़ैर डाल।4।15।17।

गोंड महला ५ ॥ संत का लीआ धरति बिदारउ ॥ संत का निंदकु अकास ते टारउ ॥ संत कउ राखउ अपने जीअ नालि ॥ संत उधारउ ततखिण तालि ॥१॥ सोई संतु जि भावै राम ॥ संत गोबिंद कै एकै काम ॥१॥ रहाउ ॥ संत कै ऊपरि देइ प्रभु हाथ ॥ संत कै संगि बसै दिनु राति ॥ सासि सासि संतह प्रतिपालि ॥ संत का दोखी राज ते टालि ॥२॥ संत की निंदा करहु न कोइ ॥ जो निंदै तिस का पतनु होइ ॥ जिस कउ राखै सिरजनहारु ॥ झख मारउ सगल संसारु ॥३॥ प्रभ अपने का भइआ बिसासु ॥ जीउ पिंडु सभु तिस की रासि ॥ नानक कउ उपजी परतीति ॥ मनमुख हार गुरमुख सद जीति ॥४॥१६॥१८॥ {पन्ना 867}

पद्अर्थ: लीआ = (अरबी शब्द 'लईन' = जिस पर लाहनत दी हो) धिक्कारा हुआ। बिदारउ = मैं चीर दूँ। धरति बिदारउ = मैं धरती को जड़ से उखाड़ दूँ। अकास ते = आकाश से, ऊँचे मरतबे से। टारउ = टालूँ, मैं फेंक दूँ। कउ = को। राखउ = रखूँ, मैं रक्षा करता हूँ। जीअ नालि = जिंद के साथ। उधारउ = उद्धार करूँ, मैं बचा लेता हूँ। ततकालि = तत्काल, उसी वक्त। तालि = ताली बजने जितने समय में।1।

सोई = वही (मनुष्य)। जि = जो। भावै राम = राम को अच्छा लगता है। संत गोबिंद कै = संत और परमात्मा के अंदर। ऐकै = एक समान।1। रहाउ।

कै ऊपरि = के ऊपर। देइ = देती है। कै संगि = के साथ। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। प्रतिपालि = प्रतिपाले, रक्षा करता है। दोखी = वैरी, बुरा चितवने वाला। टालि = टालता है, फेंक देता है।2।

पतनु = नाश, गिरावट। जिस कउ = ('जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'कउ' के कारण हटा दी गई है)। मारउ = (हुकमी भविष्यत, अन्न पुरख, एक वचन) बेशक मारे। झख मारउ = बेशक झखें मारे।3।

तिस का: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'का' के कारण हटा दी गई है।

बिसासु = विश्वास, भरोसा। जिंदु = प्राण। पिंडु = शरीर। रासि = राशि, सरमाया। कउ = को। परतीति = प्रतीति, यकीन, निश्चय। मनमुख = अपने मन की ओर मुँह रखने वाला, मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। गुरमुख = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। जीति = जीत।4।

तिस की: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा को प्यारा लगने लगता है, वही है संत। संत के हृदय और गोबिंद के मन एक समान ही काम करने लगते हैं।1। रहाउ।

(हे भाई! तभी तो परमात्मा कहता है-) जिस मनुष्य को संत धिक्कार दे, मैं उसकी जड़ें उखाड़ देता हूँ। संत की निंदा करने वाले को मैं ऊँचे मरतबे से नीचे गिरा देता हूँ। संत को सदा मैं अपनी जीवात्मा के साथ रखता हूँ। (किसी भी बिपता से) संत को मैं तुरंत उसी वक्त बचा लेता हूँ।1।

हे भाई! प्रभू अपना हाथ (अपने) संत के ऊपर रखता है, प्रभू अपने संत के साथ दिन-रात (हर वक्त) बसता है। प्रभू अपने संतों की (उनकी) हरेक सांस के साथ रक्षा करता है। संत का बुरा माँगने वाले को प्रभू राज-पाट से (भी) नीचे गिरा देता है।2।

हे भाई! कोई भी मनुष्य किसी संत की निंदा ना किया करे। जो भी मनुष्य निंदा करता है, वह आत्मिक जीवन से गिर जाता है। करतार खुद जिस मनुष्य की रक्षा करता है, सारा संसार (उसका नुकसान करने के लिए) बेशक झखें मारता फिरे (उसका कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता)।3।

हे भाई! जिस मनुष्य को अपने प्रभू पर भरोसा बन जाता है (उसको ये निश्चय हो जाता है कि) ये जीवात्मा और ये शरीर सब कुछ उस प्रभू की दी हुई ही राशि पूँजी है। हे भाई! नानक के दिल में भी ये विश्वास बन चुका है कि अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (जीवन की बाज़ी) हार जाता है, गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य को सदा जीत प्राप्त होती है।4।16।18।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh