श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 868 गोंड महला ५ ॥ नामु निरंजनु नीरि नराइण ॥ रसना सिमरत पाप बिलाइण ॥१॥ रहाउ ॥ नाराइण सभ माहि निवास ॥ नाराइण घटि घटि परगास ॥ नाराइण कहते नरकि न जाहि ॥ नाराइण सेवि सगल फल पाहि ॥१॥ नाराइण मन माहि अधार ॥ नाराइण बोहिथ संसार ॥ नाराइण कहत जमु भागि पलाइण ॥ नाराइण दंत भाने डाइण ॥२॥ नाराइण सद सद बखसिंद ॥ नाराइण कीने सूख अनंद ॥ नाराइण प्रगट कीनो परताप ॥ नाराइण संत को माई बाप ॥३॥ नाराइण साधसंगि नराइण ॥ बारं बार नराइण गाइण ॥ बसतु अगोचर गुर मिलि लही ॥ नाराइण ओट नानक दास गही ॥४॥१७॥१९॥ {पन्ना 868} पद्अर्थ: निरंजनु = (निर+अंजनु) माया की कालिख से परे रखने वाला। नामु नराइण = परमात्मा का नाम। नीरि = (क्रिया) (अपने हृदय में) सींच। रसना = जीभ (से)। बिलाइण = दूर हो जाते हैं।1। रहाउ। घटि घटि = हरेक घट में, हरेक शरीर में। नरकि = नर्क में। न जाहि = नहीं जाते। सेवि = सिमर के।1। अधार = आसरा। बोहिथ = जहाज़। भागि = भाग के। पलाइण = पलायन, दौड़ (लगा देता है)। भाने = (भंजन), तोड़ देता है। दंत डाइण = (डायन = माया) डायन के दाँत।2। सद सद = सदा सदा। बखसिंद = बख्शने वाला। कीने = पैदा कर दिए। को = का।3। साध संगि = गुरू की संगति में। बारंबार = बार बार। बसतु = चीज। अगोचर = (अ+गो+चर। गो = इन्द्रियां। चर = पहुँच) इन्द्रियों की पहुँच से परे। गुर मिलि = गुरू को मिल के। लही = पा ली। दास = दास ने। गही = पकड़ी। ओट = आसरा।4। अर्थ: हे भाई! नारायण का नाम माया की कालिख से बचाने वाला (है, इसको अपने हृदय में) सींच। (ये नाम) जीभ से जपते हुए (सारे) पाप दूर हो जाते हैं।1। रहाउ। हे भाई! सब जीवों में नारायण का निवास है, हरेक शरीर में नारायण (की ज्योति) का ही प्रकाश है। नारायण (का नाम) जपने वाले जीव नर्क में नहीं पड़ते। नारायण की भक्ति करके सारे फल प्राप्त कर लेते हैं।1। हे भाई! नारायण (के नाम) को (अपने) मन में आसरा बना ले, नारायण (का नाम) संसार-समुंद्र में पार लंघाने के लिए जहाज है। नारायण का नाम जपने से जम भाग के परे चला जाता है। नारायण (का नाम माया रूपी) डायन के दाँत तोड़ देता है।2। हे भाई! नारायण सदा ही बख्शनहार है। नारायण (अपने सेवकों के दिल में) सुख-आनंद पैदा करता है, (उनके अंदर अपना) तेज-प्रताप प्रकट करता है। हे भाई! नारायण अपने सेवकों-संतों का माता-पिता (जैसे रखवाला) है।3। हे भाई! जो मनुष्य साध-संगति में टिक के सदा नारायण का नाम जपते हैं, बार-बार उसकी सिफत-सालाह के गीत गाते हैं, वे मनुष्य गुरू को मिल के (वह मिलाप-रूपी कीमती) वस्तु पा लेते हैं जो इन इन्द्रियों की पहुँच से परे है। हे नानक! नारायण के दास सदा नारायण का आसरा लिए रखते हैं।4।17।19। गोंड महला ५ ॥ जा कउ राखै राखणहारु ॥ तिस का अंगु करे निरंकारु ॥१॥ रहाउ ॥ मात गरभ महि अगनि न जोहै ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु न पोहै ॥ साधसंगि जपै निरंकारु ॥ निंदक कै मुहि लागै छारु ॥१॥ राम कवचु दास का संनाहु ॥ दूत दुसट तिसु पोहत नाहि ॥ जो जो गरबु करे सो जाइ ॥ गरीब दास की प्रभु सरणाइ ॥२॥ जो जो सरणि पइआ हरि राइ ॥ सो दासु रखिआ अपणै कंठि लाइ ॥ जे को बहुतु करे अहंकारु ॥ ओहु खिन महि रुलता खाकू नालि ॥३॥ है भी साचा होवणहारु ॥ सदा सदा जाईं बलिहार ॥ अपणे दास रखे किरपा धारि ॥ नानक के प्रभ प्राण अधार ॥४॥१८॥२०॥ {पन्ना 868} पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। राखै = बचाता है। राखणहारु = बचाने की समर्था वाला प्रभू।अंगु = पक्ष। निरंकारु = आकार रहित प्रभू।1। रहाउ। तिस का: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'का' के कारण हटा दी गई है। जोहै = ताकती, दुख देती। न पोहै = अपना प्रभाव नहीं डाल सकता। साध संगि = गुरू की संगति में। कै मुहि = के मुँह में, के सिर ऊपर। छारु = राख।1। कवचु = (कवच) 1. लोहे का कोट, ज़िरह बकतर। 2. तंत्र जो शस्त्रों की मार से बचा सके। संनाहु = संजोअ। दूत = (कामादिक) वैरी। दुसट = दुष्ट। गरबु = अहंकार। जाइ = नाश हो जाता है। सरणाइ = आसरा।2। राइ = राजा, बादशाह। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। खाकू नालि = मिट्टी में।3। है भी = अब भी मौजूद है। साचा = सदा कायम रहने वाला। होवणहारु = आगे को भी कायम रहने वाला। जाई = मैं जाता हूँ। बलिहार = कुर्बान। धारि = धार के, कर के। अधार = आसरा।4। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को रखने में समर्थ प्रभू (कामादिक विकारों से) बचाना चाहता है, प्रभू उस मनुष्य का पक्ष करता है (उसकी सहायता करता है)।1। रहाउ। हे भाई! (जैसे जीव को) माँ के पेट में आग दुख नहीं देती, (वैसे ही प्रभू जिस मनुष्य की सहायता करता है, उसको) काम-क्रोध-लोभ-मोह (कोई भी) अपने दबाव तले नहीं ला सकते। वह मनुष्य गुरू की संगति में टिक के परमात्मा का नाम जपता है, (पर उस) की निंदा करने वाले मनुष्य के सिर पर राख पड़ती है (निंदक बदनामी ही कमाता है)।1। हे भाई! परमात्मा (का नाम) सेवक के लिए (शस्त्रों की मार से बचाने वाला) तंत्र है, संजाअ है (जिस मनुष्य के पास राम-राम का कवच है संजोअ है) उसको (कामादिक) दुष्ट वैरी छू भी नहीं सकते। (पर) जो जो मनुष्य (अपनी ताकत का) गुमान करते हैं, वे (आत्मिक जीवन की ओर से) तबाह हो जाते हैं। ग़रीब का आसरा सेवक का आसरा प्रभू आप ही है।2। हे भाई! जो जो मनुष्य प्रभू-पातशाह की शरण पड़ जाता है, उस सेवक को प्रभू अपने गले से लगा के (दुष्ट दूतों से) बचा लेता है। पर जो मनुष्य (अपनी ही ताकत पर) बड़ा घमण्ड करता है, वह मनुष्य (इन दूतों के मुकाबले के दौरान) एक छिन में ही मिट्टी में मिल जाता है।3। हे भाई! सदा कायम रहने वाला प्रभू अब भी मौजूद है, सदा के लिए मौजूद रहेगा। मैं सदा उस पर सदके जाता हूँ। हे भाई! नानक के प्रभू जी अपने दासों की जिंद के आसरा हैं। प्रभू अपने दास को कृपा करके (विकारों से सदा) बचाता है।4।18।20। गोंड महला ५ ॥ अचरज कथा महा अनूप ॥ प्रातमा पारब्रहम का रूपु ॥ रहाउ ॥ ना इहु बूढा ना इहु बाला ॥ ना इसु दूखु नही जम जाला ॥ ना इहु बिनसै ना इहु जाइ ॥ आदि जुगादी रहिआ समाइ ॥१॥ ना इसु उसनु नही इसु सीतु ॥ ना इसु दुसमनु ना इसु मीतु ॥ ना इसु हरखु नही इसु सोगु ॥ सभु किछु इस का इहु करनै जोगु ॥२॥ ना इसु बापु नही इसु माइआ ॥ इहु अपर्मपरु होता आइआ ॥ पाप पुंन का इसु लेपु न लागै ॥ घट घट अंतरि सद ही जागै ॥३॥ तीनि गुणा इक सकति उपाइआ ॥ महा माइआ ता की है छाइआ ॥ अछल अछेद अभेद दइआल ॥ दीन दइआल सदा किरपाल ॥ ता की गति मिति कछू न पाइ ॥ नानक ता कै बलि बलि जाइ ॥४॥१९॥२१॥ {पन्ना 868} पद्अर्थ: अचरज = हैरान करने वाली। अनूप = उपमा रहित, अद्वितीय, जिस जैसी और कोई चीज ना हो। प्रातमा = जीवात्मा। रहाउ। बाला = बालक। जम जाला = जमों का जाल। जाइ = पैदा होता है। आदि = आरम्भ से। जुगादि = युगों के आरम्भ से।1। उसनु = उष्ण, गरमी, (विकारों की) गर्मी। सीतु = ठंढ। हरखु = हर्ष, खुशी। सोगु = शोक, फिक्र। करनै जोगु = करने की ताकत रखने वाला।2। इस का: 'इसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'का' के कारण हटा दी गई है। माइआ = माँ। अपरंपरु = परे से परे। लेपु = असर। घट घट अंतरि = हरेक शरीर में। सद = सदा। जागै = (विकारों से) सचेत रहता है।3। सकति = माया। ता की = उस (प्रभू) की। छाइआ = छाया, परछाई। गति = आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा, बिक्त। बलि = सदके।4। अर्थ: हे भाई! जीवात्मा उस परमात्मा का रूप है जिसकी सिफत-सालाह की बातें आश्चर्यजनक हैं और बहुत ही अद्वितीय हैं। रहाउ। ( हे भाई! जीवात्मा जिस परमात्मा का रूप है वह ऐसा है कि) ना ये कभी बुड्ढा होता है, ना ही ये कभी बालक (अवस्था में पराधीन) होता है। इसको कोई दुख छू नहीं सकता, जमों का जाल फंसा नहीं सकता। (परमात्मा ऐसा है कि) ना ये कभी मरता है ना कभी पैदा होता है, ये तो आरम्भ से ही, युगों की शुरूवात से ही (हर जगह) व्यापक चला आ रहा है।1। (हे भाई! जीवात्मा जिस परमात्मा का रूप है वह ऐसा है कि) इसको (विकारों की) तपश नहीं सता सकती (चिंता-फिक्र का) पाला नहीं व्याप सकता। ना इसका कोई वैरी है ना मित्र है (क्योंकि इसके बराबर का कोई नहीं है)। कोई खुशी अथवा ग़मी भी इसके ऊपर प्रभाव नहीं डाल सकती। (जगत की) हरेक चीज़ इसी की ही पैदा की हुई है, ये सब कुछ करने के समर्थ है।2। (हे भाई! जीवात्मा जिस परमात्मा का रूप है वह ऐसा है कि) इसका ना कोई पिता है, ना ही इसकी माँ है। यह तो परे से परे है, और सदा अस्तित्व वाला है। पाप और पून्य का भी इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह प्रभू हरेक शरीर के अंदर मौजूद है, और सदा ही सचेत रहता है।3। (हे भाई! जीवात्मा जिस परमात्मा का रूप है) यह बहुत ही बलवान माया उसी की ही परछाई है, ये तीन गुणों वाली माया उसी ने ही पैदा की है। उस प्रभू को (कोई विकार) छल नहीं सकते, भेद नहीं सकते, उसका भेद नहीं पाया जा सकता, वह दया का घर है, वह दीनों पर सदा दया करने वाला है, और, दया कास श्रोत है। वह प्रभू कैसा है और कितना बड़ा है- ये भेद पाया नहीं जा सकता। नानक उस प्रभू से हमेशा ही सदके जाता है।4।19।21। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |