श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 869 गोंड महला ५ ॥ संतन कै बलिहारै जाउ ॥ संतन कै संगि राम गुन गाउ ॥ संत प्रसादि किलविख सभि गए ॥ संत सरणि वडभागी पए ॥१॥ रामु जपत कछु बिघनु न विआपै ॥ गुर प्रसादि अपुना प्रभु जापै ॥१॥ रहाउ ॥ पारब्रहमु जब होइ दइआल ॥ साधू जन की करै रवाल ॥ कामु क्रोधु इसु तन ते जाइ ॥ राम रतनु वसै मनि आइ ॥२॥ सफलु जनमु तां का परवाणु ॥ पारब्रहमु निकटि करि जाणु ॥ भाइ भगति प्रभ कीरतनि लागै ॥ जनम जनम का सोइआ जागै ॥३॥ चरन कमल जन का आधारु ॥ गुण गोविंद रउं सचु वापारु ॥ दास जना की मनसा पूरि ॥ नानक सुखु पावै जन धूरि ॥४॥२०॥२२॥६॥२८॥ पद्अर्थ: कै = से। जाउ = जाऊँ, जाता हूँ। बलिहारै = कुर्बान। कै संगि = की संगति में। गाउ = मैं गाता हूँ। संत प्रसादि = संत जनों की कृपा से। किलविख = पाप। वडभागी = बड़े भाग्यों वाले लोग।1। जपत = जपते हुए। बिघनु = रुकावट। न विआपै = अपना जोर नहीं डाल सकता। जापै = (हर जगह बसता) दिखाई देता है।1। रहाउ। दइआल = दयावान। साधू जन = गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलने वाले सेवक। रवाल = चरण धूल। तन ते = शरीर से। जाइ = चला जाता है। मनि = मन में। आइ = आ के।2। सफलु = कामयाब। परवाणु = कबूल। ता का = उस (मनुष्य) का। निकटि = नजदीक। करि = कर के। निकटि करि = नजदीक बसता। जाणु = समझ ले। भाइ = प्रेम से (भाउ = प्रेम)। कीरतनि = कीर्तन में। सोइआ = सोया हुआ, गाफल होया हुआ।3। आधारु = आसरा। रउं = रवउं, मैं (भी) याद करता रहूँ। सचु = सदा स्थिर। मनसा = मन की कामना। पूरि = पूरी करता है। जन धूरि = सेवक के चरणों की धूल में।4। अर्थ: हे भाई! गुरू की कृपा से प्यारा प्रभू (हर जगह बसता) दिखाई देने लगता है, (इसलिए) प्रभू का नाम जपते हुए (किसी किस्म का) कोई बिघ्न (नाम जपने वाले पर) अपना जोर नहीं डाल सकता।1। रहाउ। (हे भाई! गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलने वाले) संत जनों से मैं बलिहार जाता हूँ, उन संत जनों की संगति में रह के मैं (भी) परमात्मा के गुण गाता हूँ। हे भाई! संत जनों की कृपा से सारे पाप दूर हो जाते हैं। बहुत भाग्यशाली लोग ही संत जनों की शरण पड़ते हैं।1। हे भाई! परमात्मा जब (किसी मनुष्य पर) दयावान होता है, (तो उस मनुष्य को) गुरू के (बताए हुए राह पर चलने वाले) सेवकों के चरणों की धूल बनाता है। परमात्मा का अमूल्य नाम उस मनुष्य के मन में आ बसता है, उसके शरीर में से काम चला जाता है क्रोध चला जाता है।2। हे भाई! परमातमा को (हर वक्त अपने) नजदीक बसता समझ (जो मनुष्य परमात्मा को अपने पास बसता समझता है) उसकी जिंदगी कामयाब हो जाती है (प्रभू के दर पर) कबूल हो जाती है। वह मनुष्य भक्ति-भाव से प्रभू की सिफत-सालाह में लग जाता है, और अनेकों जन्मों से (माया की गहरी नींद का) सोया हुआ जाग उठता है।3। हे भाई! परमात्मा के सुंदर चरण (गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलने वाले) सेवकों (की जिंदगी) का आसरा बन जाते हैं। मैं भी (सेवकों की संगति की बरकति से) परमात्मा के गुण गाता हूँ, (इसी उद्यम को जिंदगी का) सदा कायम रहने वाला व्यापार समझता हूँ। हे नानक! परमात्मा अपने सेवकों के मन की कामना पूरी करता है। (प्रभू का सेवक) संत जनों की चरण-धूड़ में आत्मिक आनंद प्राप्त करता है।4।20।22।6।28। अंकों का वेरवा: रागु गोंड असटपदीआ महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ करि नमसकार पूरे गुरदेव ॥ सफल मूरति सफल जा की सेव ॥ अंतरजामी पुरखु बिधाता ॥ आठ पहर नाम रंगि राता ॥१॥ गुरु गोबिंद गुरू गोपाल ॥ अपने दास कउ राखनहार ॥१॥ रहाउ ॥ पातिसाह साह उमराउ पतीआए ॥ दुसट अहंकारी मारि पचाए ॥ निंदक कै मुखि कीनो रोगु ॥ जै जै कारु करै सभु लोगु ॥२॥ संतन कै मनि महा अनंदु ॥ संत जपहि गुरदेउ भगवंतु ॥ संगति के मुख ऊजल भए ॥ सगल थान निंदक के गए ॥३॥ सासि सासि जनु सदा सलाहे ॥ पारब्रहम गुर बेपरवाहे ॥ सगल भै मिटे जा की सरनि ॥ निंदक मारि पाए सभि धरनि ॥४॥ जन की निंदा करै न कोइ ॥ जो करै सो दुखीआ होइ ॥ आठ पहर जनु एकु धिआए ॥ जमूआ ता कै निकटि न जाए ॥५॥ जन निरवैर निंदक अहंकारी ॥ जन भल मानहि निंदक वेकारी ॥ गुर कै सिखि सतिगुरू धिआइआ ॥ जन उबरे निंदक नरकि पाइआ ॥६॥ सुणि साजन मेरे मीत पिआरे ॥ सति बचन वरतहि हरि दुआरे ॥ जैसा करे सु तैसा पाए ॥ अभिमानी की जड़ सरपर जाए ॥७॥ नीधरिआ सतिगुर धर तेरी ॥ करि किरपा राखहु जन केरी ॥ कहु नानक तिसु गुर बलिहारी ॥ जा कै सिमरनि पैज सवारी ॥८॥१॥२९॥ {पन्ना 869} पद्अर्थ: करि नमसकार = सिर झुका कर। सफल = फल देने वाली, जीवन मनोरथ पूरा करने वाली। सफल मूरति = वह गुरू जिसका दर्शन जीवन उद्देश्य पूरा करता है। जा की = जिस (गुरू) की। सेव = सेवा, शरण। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला प्रभू। पुरखु = सर्व व्यापक। बिधाता = पैदा करने वाला। नाम रंगि = (प्रभू के) नाम के रंग में। राता = रंगा हुआ।1। कउ = को। राखनहार = बचाने वाला।1। रहाउ। उमराउ = अमीर। पतीआऐ = तसल्ली कर देता है, प्रीत बना देता है। दुसट = बुरे। मारि = आत्मिक मौत मार के। पचाऐ = दुखी करता है। कै मुखि = के मुँह में। रोगु = (निंदा की) बीमारी। जै जैकारु = (हर वक्त) शोभा। सभु लोगु = सारा जगत।2। कै मनि = के मन में। जपहि = जपते हैं। भगवंतु = भाग्यों वाला। संगति के मुख = गुरू के पास रहने वाले सेवकों के मुँह। ऊजल = उज्जवल, रौशन।3। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। सलाहे = उपमा करता है। बेपरवाह = बेमुथाज। भै = (शब्द 'भउ' का बहुवचन)। जा की = जिस (गुरू) की। सभि = सारे। पाऐ धरनि = धरती पर डाल देता है, नीच आचरण के गड्ढे में फेंक देता है। मारि = मार के, दुत्कार के।4। कोइ = कोई भी मनुष्य। जनु = प्रभू का सेवक। ऐकु = एक प्रभू को। ता कै निकटि = उसके नजदीक।5। जन = प्रभू के सेवक (शब्द 'जनु' और 'जन' में फर्क देखें)। भल मानहि = सब का भला मांगते हैं। वेकारी = विकारों में बुरा चितवने के कुकर्मों में। कै सिखि = के सिख ने। उबरे = बच जाते हैं। नरकि = नर्क में।6। साजन = हे सज्जन! सति = सत्य, अटल, सदा कायम रहने वाला। वरतहि = बरतते हैं, घटित होता है। दुआरे = द्वार, दर पर। सु = वह (मनुष्य)। सरपर = अवश्य।7। नीधरिआ = निआसरों को। धर = आसरा। सतिगुर = हे गुरू! राखहु = तू रखता है। कै सिमरनि = के सिमरन ने। पैज = लाज।8। अर्थ: हे भाई! गुरू गोबिंद (का रूप) है, गुरू गोपाल (का रूप) है, जो अपने सेवकों को (निंदा आदि से) बचाने योग्य है।1। रहाउ। हे भाई! पूरे सतिगुरू के आगे सदा सिर झुकाया कर, उसका दर्शन जीवन-मनोरथ पूरा करता है, उसकी शरण पड़ने से जीवन सफल हो जाता है। हे भाई! गुरू उस प्रभू के नाम के रंग में रंगा रहता है जो हरेक के दिल की जानने वाला है, जो सबमें व्यापक है और जो सबको पैदा करने वाला है।1। हे भाई! गुरू जिन मनुष्यों के अंदर परमात्मा के प्रति प्यार दृढ़ कर देता है वे आत्मिक मण्डल में शाह-पातशाह व अमीर बन जाते हैं। दुष्टों-अहंकारियों को (अपने दर से) दुत्कार के दर-दर भटकने के राह पर डाल देता है। (सेवक की) निंदा करने वाले मनुष्य के मुँह में (निंदा करने की) बीमारी ही बन जाती है, सारा जगत (उस मनुष्य की) सदा शोभा करता है (जो गुरू की शरण पड़ा रहता है)।2। हे भाई! (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़े रहते हैं, उन) संत-जनों के मन में बड़ा आत्मिक आनंद बना रहता है, संत जन गुरू को भगवान को अपने हृदय में बसाए रखते हैं। गुरू के पास रहने वाले सेवक के मुँह (लोक-परलोक में) रौशन हो जाते हैं पर निंदा करने वाले मनुष्य के (लोक-परलोक) सभी जगहें हाथों से निकल जाते हैं।3। (हे भाई! गुरू की शरण पड़ने वाला) सेवक अपने हरेक सांस के साथ परमात्मा और बेमुथाज (बेपरवाह) गुरू की सिफल-सालाह करता रहता है। हे भाई! जिस गुरू की शरण पड़ने से सारे डर-सहम दूर हो जाते हैं, वह गुरू सेवकों की निंदा करने वाले लोगों को (अपने दर से) दुत्कार के नीच आचरण के गड्ढे में फेंक देता है (भाव, निंदकों को गुरू का दर पसंद नहीं आता। नतीजतन, वे गुरू दर से टूट के निंदा में पड़ के अपने आचरण में दिन-ब-दिन नीच से नीच होते चले जाते हैं)।4। (इसलिए, हे भाई!) गुरू के सेवक की निंदा किसी भी मनुष्य को करनी ही नहीं चाहिए। जो भी मनुष्य (भले लोगों की) निंदा करता है, वह स्वयं दुखी रहता है। गुरू का सेवक तो हर वक्त एक परमात्मा का ध्यान धरे रखता है, जम-राज भी उसके नजदीक नहीं फटकता।5। हे भाई! गुरू के सेवक किसी के साथ बैर नहीं रखते, पर उनकी निंदा करने वाले मनुष्य उनका बुरा चितवने और कुकर्मों में फंसे रहते हैं। हे भाई! गुरू के सिख ने तो सदा अपने गुरू (के चरणों) में सुरति जोड़ी होती है। (इसलिए) सेवक तो (निंदा आदि के नर्क में से) बच निकलते हैं, पर निंदक (अपने आप को इस) नर्क में डाले रखते हैं।6। हे मेरे सज्जन! हे प्यारे मित्र! सुन (मैं तुझे वह) अटल नियम (बताता हूँ जो) परमात्मा के दर पर (सदा) घटित होते हैं। (वह अटल नियम ये है कि) मनुष्य जिस तरह का कर्म करता है वैसा ही फल पा लेता है। अहंकारी मनुष्य की जड़ अवश्य काटी जाती है।7। हे सतिगुरू! निआसरे लोगों को तेरा ही आसरा है। तू मेहर करके अपने सेवकों की लाज स्वयं रखता है। हे नानक! कह- मैं उस गुरू से सदके जाता हूँ जिसकी ओट चितारने ने मेरी इज्जत रख ली (और, मुझे निंदा आदि से बचा के रखा)।8।1।29। नोट: ये एक ही अष्टपदी है, पर शीर्षक में शब्द 'असटपदीयां' (बहुवचन) दर्ज है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |