श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 871 गोंड ॥ ना इहु मानसु ना इहु देउ ॥ ना इहु जती कहावै सेउ ॥ ना इहु जोगी ना अवधूता ॥ ना इसु माइ न काहू पूता ॥१॥ इआ मंदर महि कौन बसाई ॥ ता का अंतु न कोऊ पाई ॥१॥ रहाउ ॥ ना इहु गिरही ना ओदासी ॥ ना इहु राज न भीख मंगासी ॥ ना इसु पिंडु न रकतू राती ॥ ना इहु ब्रहमनु ना इहु खाती ॥२॥ ना इहु तपा कहावै सेखु ॥ ना इहु जीवै न मरता देखु ॥ इसु मरते कउ जे कोऊ रोवै ॥ जो रोवै सोई पति खोवै ॥३॥ गुर प्रसादि मै डगरो पाइआ ॥ जीवन मरनु दोऊ मिटवाइआ ॥ कहु कबीर इहु राम की अंसु ॥ जस कागद पर मिटै न मंसु ॥४॥२॥५॥ {पन्ना 871} पद्अर्थ: इहु = यह जो शरीर रूपी मन्दिर में बसने वाला है। मानसु = मनुष्य। देउ = देवता। सेउ = शिव का उपासक। अवधूता = त्यागी। माइ = माँ। इसु = इस की। काहू = किसी का।1। इआ मंदरि महि = इस शरीर घर में। बसाई = बसता है। ता का = उस बसने वाले का।1। रहाउ। गिरही = गृहस्त, परिवार वाला। भीख मंगासी = मंगता। पिंडु = शरीर। रकतू = रक्त। राती = रक्ती भर भी। खाती = क्षत्रिय।2। पति खोवै = इज्जत गवाता है, दुखी होता है।3। प्रसादि = कृपा से। डगरो = (जिंदगी का सही) रास्ता। अंसु = हिस्सा, ज्योति। जस = जैसे। कागद पर = कागज पर लिखी हुई। मंसु = स्याही।4। अर्थ: (हमारे) इस शरीर-रूपी घर में कौन बसता है? उसकी अस्लियत क्या है?- इस बात की तह तक कोई नहीं पहुँच सका।1। रहाउ। (क्या मनुष्य, क्या देवते; क्या जती और क्या शिव-उपासक; क्या जोगी और क्या त्यागी; हरेक में एक वही बसता है; पर फिर भी सदा के लिए) ना ये मनुष्य है ना ये देवता; ना जती है ना शिव-उपासक, ना जोगी है ना त्यागी; ना इसकी कोई माँ है ना ये किसी का पुत्र है।1। (गृहस्ती, उदासी; राजा, कंगाल; ब्राहमण, क्षत्रिय; सब में यही बसता है; फिर भी इनमें रहने के कारण सदा के लिए) ना ये गृहस्ती है ना उदासी, ना ये राजा है ना भिखारी, ना यह ब्राहमण है ना क्षत्रिय, ना इसका कोई शरीर है ना ही इसमें रक्ती भर भी लहू है।2। (तपे, शेख सब में यही है; सब शरीरों में आ के पैदा होता मरता भी प्रतीत होता है, फिर भी सदा के लिए) ना ये कोई तपस्वी है ना कोई शेख है; ना यह पैदा होता है ना मरता है। जो कोई जीव इस (अंदर बसते) को मरता समझ के रोता है वह दुखी ही होता है।3। हे कबीर! कह- (जब से) मैंने अपने गुरू की कृपा से (जिंदगी का सही) रास्ता पा लिया है, मैंने अपने जनम-मरण दोनों समाप्त करवा लिए हैं (भाव, मेरे जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो गया है; अब मुझे समझ आ गई है कि) हमारे अंदर बसने वाला ये परमात्मा की अंश है, और ये दोनों आपस में यूँ जुड़े हुए हैं जैसे कागज़ और (कागज़ पर लिखे हुए अक्षरों की) स्याही।4।2।5। शबद का भाव: परमात्मा हरेक जीव में व्यापक भी है, और सबसे अलग भी है। जीवों की तरह उसको जनम-मरण का चक्कर नहीं है। गोंड ॥ तूटे तागे निखुटी पानि ॥ दुआर ऊपरि झिलकावहि कान ॥ कूच बिचारे फूए फाल ॥ इआ मुंडीआ सिरि चढिबो काल ॥१॥ इहु मुंडीआ सगलो द्रबु खोई ॥ आवत जात नाक सर होई ॥१॥ रहाउ ॥ तुरी नारि की छोडी बाता ॥ राम नाम वा का मनु राता ॥ लरिकी लरिकन खैबो नाहि ॥ मुंडीआ अनदिनु धापे जाहि ॥२॥ इक दुइ मंदरि इक दुइ बाट ॥ हम कउ साथरु उन कउ खाट ॥ मूड पलोसि कमर बधि पोथी ॥ हम कउ चाबनु उन कउ रोटी ॥३॥ मुंडीआ मुंडीआ हूए एक ॥ ए मुंडीआ बूडत की टेक ॥ सुनि अंधली लोई बेपीरि ॥ इन्ह मुंडीअन भजि सरनि कबीर ॥४॥३॥६॥ {पन्ना 871} नोट: राग आसा में शबद 'करवत भला' और बिलावल में शबद 'नित उठि कोरी' के अर्थ करने के वक्त बताया जा चुका है कि शबद का कोई भी हिस्सा कबीर जी की पत्नी व माँ का उचारा हुआ नहीं हो सकता। ये बचन कबीर जी के अपने हैं। इनमें बताया गया है कि बंदगी करने वाले मनुष्य और दुनियादार का जिंदगी का निशाना अलग-अलग होने के कारण दोनों का मेल मुश्किल है। ये बात भी गलत है कि कबीर जी काम करना छोड़ बैठे थे। आखिर, परिवार के निर्वाह के लिए और कौन काम करता था? घर में इतने सत्संगी भी आए रहते थे, परिवार भी था, इन सभी के लिए कबीर जी ही मेहनत करते थे। पर असल बात ये है कि कबीर जी की पत्नी को इन सत्संगियों का नित्य का आना पसंद नहीं था। इस वास्ते मानवीय स्वभाव के अनुसार गिला बढ़ा के किया है। हर कोई ऐसा ही करता है। पद्अर्थ: निखुटी = समाप्त हो गई है। पानि = पाण, आटे की पकी हुई लुग्दी जो सूत पर कपड़ा उनने से पहले लगाई जाती है। कान = काने। फूऐ फाल = तीला तीला हो गए, बिखरे रहते हैं। इआ मुंडीआ सिरि = (मेरे) इस (पति) साधू के सिर पर। चढिबो = चढ़ा हुआ है, सवार है।1। द्रब = द्रव्य, धन। खोई = गवा रहा है। नाक सर = नाक में दम।1। रहाउ। नोट: समस्या ये नहीं थी कि कबीर जी कमाते नहीं थे, बल्कि ये कि सत्संगियों को खिला देते थे। तुरी = कपड़ा बुनने वाले करघे की वह लॅठ (रोलर किस्म का भाग) जिस पर उना हुआ कपड़ा लिपटता जाता है। नारि = नाल, जिसमें धागे की नली डाली जाती है। वा का = (उस कबीर) का। खैबो = खाने लायक। अनदिनु = हर रोज। धापे = तृप्त हुए।2। मंदरि = घर में। बाट = राह पर (भाव, चले आ रहे हैं, आवा जाई लगी रहती है)। साथरु = स्थर, जमीन पर। खाट = चारपाई। पलोसि = हाथ फेर के। कमर = कमर। चाबनु = भुने हुए दाने।3। नोट: यहाँ तक तो दुनियावी गिला-शिकवा है। अगली पंक्तियों में बँदगी करने वाले का दृष्टिकोण है। मुंडीआ = सत्संगी। बूडत की टेक = (संसार समुंद्र में) डूबते हुओं का सहारा। बेपीरि = निगुरी, बे+पीर (के) बिना पीर (अथवा कहें बिना गुरू के)।4। अर्थ: (मेरा) ये (पति) साधू सारा (कमाया हुआ) धन गवाए जा रहा है (इसके सत्संगियों की) आवा-जाई से मेरे नाक में जान आई हुई है (नाक में दम किया हुआ है)।1। रहाउ। (इसको घर के काम-काज का कोई फिकर ही नहीं, अगर) ताणी के धागे टूटे पड़े हैं (तो टूटे पड़े रहते हैं), अगर पाण (लुग्दी, अरारोट मिश्रण) खत्म हो गया है (तो खत्म ही पड़ा है)। दरवाजे पर (बगैर संभाले) काने चमकते रहते हैं (जो इस्तेमाल ही नहीं किए जा रहे हैं); बेचारे फूए (कुच) तीला तीला हो रहे हैं; (पता नहीं इस साधू का क्या बनेगा), इस साधु के सिर पर मौत सवार हो गई प्रतीत होती है।1। तुरी और नाल (के इस्तेमाल) का इसे कोई चिंता ही नहीं, (भाव, कपड़ा बुनने का इसे कोई ख्याल ही नहीं है), इसका मन सदा राम-नाम में लगा रहता है, (घर में) लड़की-लड़कों के खाने के लिए कुछ भी नहीं (रहता) पर इसके सत्संगी हर रोज आ के तृप्त हो के (खुब खा के) जाते हैं।2। (नोट: शिकायत यही है कि संभाल नहीं सकता। काम करना छोड़ा नहीं है)। अगर एक-दो साधू (हमारे) घर बैठे हैं और एक-दो चले भी आ रहे हैं, (हर वक्त आवाजाही लगी रहती है), हमें जमीन पर सोना पड़ता है, उनको चारपाई मुहईआ की जाती है। वे साधू कमर से पोथियाँ लटकाए सिरों पर हाथ फेरते चले आते हैं (कई बार उनके बेवक्त आ जाने पर) हमें तो भुने हुए दाने ही चबाने पड़ते हैं, उन्हें रोटियाँ मिलती हैं।3। हे कबीर! (कह- इन सत्संगियों से ये प्यार इसलिए है कि) सत्संगियों के दिल आपस में मिले हुए हैं, और ये सत्संगी (संसार-समुंद्र के विकारों में) डूबते हुओं का सहारा हैं। हे अंधी निगुरी लोई! सुन, तू भी इन सत्संगियों की शरण पड़।4।3।6। नोट: इसी ही राग के शबद नंबर 8 को ध्यान से पढ़ें। कबीर जी जानते हैं कि गृहस्ती के लिए धन कमाना जरूरी है, ता कि अपना व घर आए सज्जनों की उदर-पूर्ति कर सकें। अपनी रोजी-रोटी का भार औरों पर डाल देना - ना ये शिक्षा गुरू नानक देव जी की है, और ना ही कबीर जी की, जिनकी ये बाणी इतने प्यार से संभाल के लाए थे। हाँ, एक बात अगले ही शबद नंबर 7 में कबीर जी ने साफ़ बताई है कि वे माया को अपना सब कुछ जिंद-जान बनाने को तैयार नहीं थे। गोंड ॥ खसमु मरै तउ नारि न रोवै ॥ उसु रखवारा अउरो होवै ॥ रखवारे का होइ बिनास ॥ आगै नरकु ईहा भोग बिलास ॥१॥ एक सुहागनि जगत पिआरी ॥ सगले जीअ जंत की नारी ॥१॥ रहाउ ॥ सोहागनि गलि सोहै हारु ॥ संत कउ बिखु बिगसै संसारु ॥ करि सीगारु बहै पखिआरी ॥ संत की ठिठकी फिरै बिचारी ॥२॥ संत भागि ओह पाछै परै ॥ गुर परसादी मारहु डरै ॥ साकत की ओह पिंड पराइणि ॥ हम कउ द्रिसटि परै त्रखि डाइणि ॥३॥ हम तिस का बहु जानिआ भेउ ॥ जब हूए क्रिपाल मिले गुरदेउ ॥ कहु कबीर अब बाहरि परी ॥ संसारै कै अंचलि लरी ॥४॥४॥७॥ {पन्ना 871} पद्अर्थ: खसम = पति, मालिक, मनुष्य। नारि = माया। ईहा = यहाँ, इस जीवन में।1। गलि = गले में। सोहै = सुंदर लगता है। बिखु = जहर। बिगसै = खुश रहता है। पखिआरी = वैश्वा। ठिठकी = धिक्कारी हुई।2। ओह = वह माया। मारहु = (संतों की) मार से। पिंड पराइणि = शरीर का आसरा, जिंद जान। द्रिसटि परै = दिखाई देती है। त्रखि = तीखी, भयानक।3। भेउ = भेद। बाहरि परी = मन में से निकल गई है। अंचलि = पल्ले। लरी = लगी।4। अर्थ: (ये माया) एक एैसी सोहागन नारि है जिसको सारा जगत प्यार करता है, सारे जीव-जंतु इसको अपनी स्त्री बना के रखना चाहते हैं (अपने वश में रखना चाहते हैं)।1। रहाउ। (पर इस माया को स्त्री बना के रखने वाला) मनुष्य (आखिर) मर जाता है, ये (माया) पत्नी (उसके मरने पर) रोती भी नहीं, क्योंकि इसका रखवाला (पति) कोई पक्ष और बन जाता है (सो, ये कभी भी विधवा नहीं होती)। (इस माया का) रखवाला मर जाता है, मनुष्य यहाँ इस माया के भोगों (में मस्त रहने) के कारण आगे (अपने लिए) नर्क बना लेता है।1। इस सोहागनि नारी के गले में हार शोभा देता है (भाव, जीवों का मन-मोहनें के लिए सदा सजी-धजी सुंदर बनी रहती है)। (इस को देख-देख के) जगत खुश होता है, पर संतों को ये जहर (जैसी) लगती है। वेश्वा (की तरह) सदा श्रृंगार किए रहती है, पर संतों द्वारा धिक्कारी हुई बेचारी (संतों से) परे-परे ही फिरती है।2। (ये माया) भाग के संतों की शरण पड़ने की कोशिश करती है, पर (संतों पर) गुरू की मेहर होने के कारण (ये संतों की) मार से डरती है (इस वास्ते नजदीक नहीं आती)। ये माया प्रभू से टूटे हुए लोगों की जिंद-जान बनी रहती है, पर मुझे (तो) ये भयानक डायन दिखती है।3। जब मेरे सतिगुरू जी मेरे पर दयालु हुए और मुझे मिल गए, तब से मैंने इस माया के भेद को पा लिया है। हे कबीर! अब तू बेशक कह- मुझसे तो यह माया परे हट गई है, और संसारी जीवों के पल्ले जा लगी है।4।4।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |