श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 872 गोंड ॥ ग्रिहि सोभा जा कै रे नाहि ॥ आवत पहीआ खूधे जाहि ॥ वा कै अंतरि नही संतोखु ॥ बिनु सोहागनि लागै दोखु ॥१॥ धनु सोहागनि महा पवीत ॥ तपे तपीसर डोलै चीत ॥१॥ रहाउ ॥ सोहागनि किरपन की पूती ॥ सेवक तजि जगत सिउ सूती ॥ साधू कै ठाढी दरबारि ॥ सरनि तेरी मो कउ निसतारि ॥२॥ सोहागनि है अति सुंदरी ॥ पग नेवर छनक छनहरी ॥ जउ लगु प्रान तऊ लगु संगे ॥ नाहि त चली बेगि उठि नंगे ॥३॥ सोहागनि भवन त्रै लीआ ॥ दस अठ पुराण तीरथ रस कीआ ॥ ब्रहमा बिसनु महेसर बेधे ॥ बडे भूपति राजे है छेधे ॥४॥ सोहागनि उरवारि न पारि ॥ पांच नारद कै संगि बिधवारि ॥ पांच नारद के मिटवे फूटे ॥ कहु कबीर गुर किरपा छूटे ॥५॥५॥८॥ {पन्ना 872} पद्अर्थ: ग्रिहि = घर में। जा कै ग्रिहि = जिसके घर में। सोभा = माया। रे = हे भाई! पहीआ = राही, पांधी, अभ्यागत। खूधे = भूखे। वा कै अंतरि = उस गृहस्ती के मन में भी। संतोखु = खुशी, धरवास। सोहागनि = यह सदा पति वती रहने वाली माया। दोखु = दोश, एैब।1। धनु = मुबारक। पवीत = पवित्र।1। रहाउ। किरपन = कंजूस। पूती = पुत्री। सेवक तजि = प्रभू के भक्तों को छोड़ के। ठाढी = खड़ी। दरबारि = दर पर।2। पग = पैरों में। नेवर = झांजरें। बेगि = जल्दी।3। लीआ = वश किए हुए हैं। दस अठ = अठारह। रस = प्यार। बेधे = भेदे हुए। भूपति = राजे (भू = धरती। पति = मालिक)। छेधे = छेद किए हुए।4। उरवारि = इस पार। पांच कै संगि = पाँचों के साथ। नारद = (ब्रहमा के मन से पैदा हुए दस पुत्रों में से एक का नाम नारद था। देवताओं और मनुष्यों में झगड़े डलवाना उसका शौक था) ज्ञान-इन्द्रियां जो माया के प्रभाव में आ के मनुष्य के आत्मिक जीवन में गड़बड़ डालते हैं। बिध वारि = (विध = penatration, भेदना) बिध वारी, भेदने वाली, मिली हुई। मिटवे = मिट्टी के बर्तन। फूटे = टूट गए।5। अर्थ: सदा पति-वती रहने वाली माया धन्य है, (ये बुरी नहीं) बड़ी पवित्र है, (इसके बिना) बड़े-बड़े तपस्वियों के मन (भी) डोल जाते हैं (भाव, अगर शरीर के निर्वाह के लिए माया ना मिले तो तपस्वी भी घबरा जाते हैं)।1। रहाउ। हे भाई! जिस मनुष्य के घर में (घर की सुंदरता) माया नहीं है, उस घर में आए पांधी (मेहमान) भूखे चले जाते हैं, उस घर के मालिक के हृदय में भी धरवास नहीं बनता। सो, माया के बिना गृहस्त पर गिला आता है।1। पर ये माया कंजूसों की बेटी बन के रहती है, (भाव, कंजूस इकट्ठी किए जाता है, इस्तेमाल नहीं करता) प्रभू के सेवकों के बिना और सभी को इसने अपने वश में किया हुआ है। भगत-जन के दर पर खड़ी (पुकारती है कि) मैं तेरी शरण आई हूँ, मुझे बचा ले।2। माया बहुत सुंदर है। इसके पैरों में, मानो, झांझरें छन-छन कर रही हैं। (वैसे) जब तक मनुष्य के अंदर जिंद है तब तक ही इसके साथ रहती है नहीं तो (भाव, प्राण के निकलते ही) ये भी नंगे पैर उठ भागती है (भाव, उसी वक्त साथ छोड़ जाती है)।3। इस माया ने सारे जगत के जीवों को वश में किया हुआ है, अठारह पुराण पढ़ने वाले और तीर्थों पर जाने वालों को भी मोह लिया है, ब्रहमा, विष्णु और शिव (जैसे देवते) इसने भेद रखे हैं, सभ राजे-महाराजे भी इसने छेद डाले हैं।4। ये माया बड़े पसारे वाली है, इसका अंत नहीं पाया जा सकता; पाँचों ही ज्ञान-इन्द्रियों के साथ घुल-मिल के रहती है। पर, हे कबीर! तू कह- मैं सतिगुरू की कृपा से इस (की मार) से बच गया हूँ, क्योंकि मेरी पाँचों ही इन्द्रियों के बर्तन टूट चुके हैं (भाव, ज्ञान-इन्द्रियों पर इस माया का प्रभाव नहीं पड़ता)।5।5।8। गोंड ॥ जैसे मंदर महि बलहर ना ठाहरै ॥ नाम बिना कैसे पारि उतरै ॥ कु्मभ बिना जलु ना टीकावै ॥ साधू बिनु ऐसे अबगतु जावै ॥१॥ जारउ तिसै जु रामु न चेतै ॥ तन मन रमत रहै महि खेतै ॥१॥ रहाउ ॥ जैसे हलहर बिना जिमी नही बोईऐ ॥ सूत बिना कैसे मणी परोईऐ ॥ घुंडी बिनु किआ गंठि चड़्हाईऐ ॥ साधू बिनु तैसे अबगतु जाईऐ ॥२॥ जैसे मात पिता बिनु बालु न होई ॥ बि्मब बिना कैसे कपरे धोई ॥ घोर बिना कैसे असवार ॥ साधू बिनु नाही दरवार ॥३॥ जैसे बाजे बिनु नही लीजै फेरी ॥ खसमि दुहागनि तजि अउहेरी ॥ कहै कबीरु एकै करि करना ॥ गुरमुखि होइ बहुरि नही मरना ॥४॥६॥९॥ {पन्ना 872} पद्अर्थ: मंदर = घर। बलहर = शतीरी, (छत बनाने के लिए उपयोग किए जाने वाले लकड़ी के) बल्ले। ठाहरै = टिकता। कुंभ = घड़ा। साधू = गुरू। अबगतु = अविगत, गति के बिना, मुक्ति के बिना, बुरे हाल ही।1। जारउ = मैं जला दूँ। तिसै = उस (नाम) को। तन मन = तन से मन से, पूरी तरह। रमत रहै = आनंद लेता रहे। महि खेतै = खेतै महि, शरीर में ही, शारीरिक भोगों में ही।1। रहाउ। हलहर = हलधर, किसान। जिमी = ज़मीन। मणी = मणके। गंठि = गाँठ।2। बिंब = पानी। घोर = घोड़ा। दरवार = प्रभू का दर।3। नही लीजै फेरी = नाच नहीं हो सकता। खसमि = पति ने। अउहेरी = (संस्कृत: अवहेलित, disregarded, rejected) दुत्कार दी। करना = करने योग्य काम। बहुरि = दोबारा, फिर।4। अर्थ: मैं उस (मन) को जला डालूँ जो उस प्रभू को नहीं सिमरता और सदा शारीरिक भोगों में ही खचित रहता है।1। रहाउ। जैसे घर में शतीर (बाला) है (बाले के बिना घर की छत) नहीं टिक सकती, वैसे ही प्रभू के नाम के बिना (मनुष्य का मन संसार-समुंद्र के बवण्डर में से) पार नहीं लांघ सकता। जैसे घड़े के बिना पानी नहीं टिक सकता, वैसे ही गुरू के बिना (मनुष्य का मन नहीं टिकता और व्यक्ति दुनिया से) बुरे हाल ही जाता है।1। जैसे किसान के बिना जमीन नहीं बीजी जा सकती, सूतर के बिना मणके परोए नहीं जा सकते, घुंडी के बिना गाँठ नहीं लगाई जा सकती, वैसे ही गुरू की शरण के बिना मनुष्य बुरे हाल ही जाता है।2। जैसे माता-पिता (के मेल) के बिना बालक पैदा नहीं होता, पानी के बिना कपड़े नहीं धुलते, घोड़े के बिना मनुष्य असवार नहीं कहलवा सकता, वैसे ही गुरू के बिना प्रभू के दर की प्राप्ति नहीं होती।3। साजों के बिना जैसे नृत्य नहीं हो सकता (वैसे ही पति के बिना स्त्री सोहागनि नहीं हो सकती) दोहागनि (बुरे स्वभाव वाली स्त्री) को पति ने त्याग के सदा दुत्कारा ही होता है। कबीर कहता है- एक ही करनेयोग्य कार्य कर, गुरू के सन्मुख हो (और नाम सिमर) बार-बार पैदा होना-मरना नहीं पड़ेगा।4।6।9। गोंड ॥ कूटनु सोइ जु मन कउ कूटै ॥ मन कूटै तउ जम ते छूटै ॥ कुटि कुटि मनु कसवटी लावै ॥ सो कूटनु मुकति बहु पावै ॥१॥ कूटनु किसै कहहु संसार ॥ सगल बोलन के माहि बीचार ॥१॥ रहाउ ॥ नाचनु सोइ जु मन सिउ नाचै ॥ झूठि न पतीऐ परचै साचै ॥ इसु मन आगे पूरै ताल ॥ इसु नाचन के मन रखवाल ॥२॥ बजारी सो जु बजारहि सोधै ॥ पांच पलीतह कउ परबोधै ॥ नउ नाइक की भगति पछानै ॥ सो बाजारी हम गुर माने ॥३॥ तसकरु सोइ जि ताति न करै ॥ इंद्री कै जतनि नामु उचरै ॥ कहु कबीर हम ऐसे लखन ॥ धंनु गुरदेव अति रूप बिचखन ॥४॥७॥१०॥ {पन्ना 872} पद्अर्थ: कूटनु = 1. (संस्कृत: कूट = झूठ, ठॅगी, फरेब), ठॅगी, फरेबी, दल्ला; 2. कूटने वाला। छूटै = बच जाता है। कसवटी लावै = परखता रहे, पड़ताल करता रहे।1। संसार = हे संसार! हे लोगो! बीचार = अर्थ, भाव,अलग अलग भाव।1। रहाउ। नाचनु = (संस्कृत: नर्तक a dancer) कंजर। मन सिउ = मन से। झूठि = झूठ में। पतीअै = पतीजता। पूरै ताल = ताल पूरी करता है, नाचने में सहायता के लिए ताल देता है, मन को आत्मिक उमाह में लाने के यत्न करता है। मन = मन का।2। बजारी = बाजारों में घूमने वाला, मसखरा। बजारहि = शरीर रूपी बाजार को। पांच पलीता = पाँचो पलीत हुई अपवित्र हुई इन्द्रियों को। परबोधै = जगाता है। नउ नाइक = नौखण्ड पृथ्वी के मालिक। हम = मैं।3। तसकरु = चोर। ताति = ईष्या। इंद्री कै जतनि = इंद्री को वश में करने के यत्न, इन्द्री को वश करके। बिचखन = समझदार।4। अर्थ: हे जगत के लोगों! तुम 'कूटन' किस को कहते हो? सब शब्दों के अलग-अलग भाव हो सकते हैं।1। रहाउ। (तुम 'कूटन' ठॅग को कहते हो, पर) कूटन वह भी है जो अपने मन को मारता है और जो मनुष्य अपने मन को मारता है वह जमों की मार से बच जाता है। जो मनुष्य बार-बार मन को मार के (फिर उसकी) जाँच-पड़ताल करता रहता है, वह (अपने मन को कूटने वाला) 'कूटन' मुक्ति हासिल कर लेता है।1। (तुम 'नाचन' कंजर को कहते हो, पर हमारे विचार के अनुसार) 'नाचन' वह है जो (शरीर के साथ नहीं) मन से नाचता है, झूठ में नहीं पतीजता, सच से पतीजता है, मन को आत्मिक उमाह में लाने का यतन करता है। ऐसे 'नाचन' के मन का रखवाला (प्रभू स्वयं बनता है)।2। (तुम 'बाजारी' मसखरे को कहते हो, पर) 'बाजारी' वह है जो अपने शरीर रूपी बाजार को पड़तालता है (आत्मावलोकन, आत्म चिंतन करता है), पाँचों ही बिगड़ी हुई ज्ञान-इन्द्रियों को जगाता है, नौ-खण्ड धरती के मालिक-प्रभू की बँदगी करने की जाच सीखता है। हम ऐसे 'बाजारी' को बड़ा (श्रेष्ठ) मनुष्य मानते हैं।3। (तुम 'तस्कर' चोर को कहते हो, पर) तस्कर वह है जो तात (ईष्या को अपने मन में से चुरा ले जाता है) नहीं करता, जो इन्द्रियों को वश में करके प्रभू का नाम सिमरता है। हे कबीर! जिसकी बरकति से मैंने ये लक्षण (गुण) प्राप्त किए हैं, मेरा वह गुरू, सुंदर, समझदार व धन्यता का पात्र है। नोट: यह कुदरती बात थी कि उच्च जाति वाले लोग कबीर जी से नफ़रत करें और उन्हें अपशब्दों भरे नामों से याद करें। पर कबीर जी पर किसी की ईष्या का असर नहीं होता। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |