श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 873 गोंड ॥ धंनु गुपाल धंनु गुरदेव ॥ धंनु अनादि भूखे कवलु टहकेव ॥ धनु ओइ संत जिन ऐसी जानी ॥ तिन कउ मिलिबो सारिंगपानी ॥१॥ आदि पुरख ते होइ अनादि ॥ जपीऐ नामु अंन कै सादि ॥१॥ रहाउ ॥ जपीऐ नामु जपीऐ अंनु ॥ अ्मभै कै संगि नीका वंनु ॥ अंनै बाहरि जो नर होवहि ॥ तीनि भवन महि अपनी खोवहि ॥२॥ छोडहि अंनु करहि पाखंड ॥ ना सोहागनि ना ओहि रंड ॥ जग महि बकते दूधाधारी ॥ गुपती खावहि वटिका सारी ॥३॥ अंनै बिना न होइ सुकालु ॥ तजिऐ अंनि न मिलै गुपालु ॥ कहु कबीर हम ऐसे जानिआ ॥ धंनु अनादि ठाकुर मनु मानिआ ॥४॥८॥११॥ {पन्ना 873} पद्अर्थ: धंनु = (संस्कृत: धन्य = 1- Bestowing wealth 2- wealthy, rich 3- good] excellent] virtuous 4- blessed, fortunate, lucky) भाग्यशाली, सुंदर, गुणवान। गुपाल = धरती को पालने वाला प्रभू। गुरदेव = सतिगुरू। अनादि = अंन आदि, अनाज। कवलु = हृदय। टहकेव = टहक पड़ता है, खिल उठता है। जिन = जिन्होंने। मिलिबो = मिलेगा। सारिंग पानी = धनुषधारी प्रभू।1। आदि पुरख = परमात्मा। अंन कै सादि = अन्न के स्वाद के साथ, अन्न खाते हुए।1। रहाउ। अंभ = पानी। वंनु = रंग। अपनी = अपनी (इज्जत)।2। रंड = रंडियां, विधवाएं। बकते = कहते हैं। दूधाधारी = दूध+आधारी, दूध के आसरे रहने वाले, सिर्फ दूध पी के जीवन निर्वाह करने वाले। गुपती = छुप के। वटिका = (संस्कृत: a kind of cake or bread made of rice and mash) चावल और माँह की बनी हुई पिन्नी व रोटी।3। तजीअै अंनि = अगर अनाज त्यागा जाए, अन्न त्याग से।4। अर्थ: (हे भाई!) अनाज (जिसको त्यागने में तुम भक्ति समझते हो) परमात्मा से ही पैदा होता है, और परमात्मा का नाम भी अन्न खा के ही जपा जा सकता है।1। रहाउ। सो, धन्य है धरती का पालनहार प्रभू (जो अन्न पैदा करता है), धन्य है सतिगुरू (जो ऐसे प्रभू की समझ बख्शता है), और धन्य है अन्न जिससे भूखे मनुष्य का हृदय (फूल की तरह) खिल उठता है। वे संत भी भाग्यशाली हैं जिन्हें ये बात समझ आ गई है (कि अन्न निंदनीय नहीं है और अन्न खा के प्रभू का सिमरन करते हैं), उनको परमात्मा मिलता है।1। (इसलिए) प्रभू का नाम सिमरना चाहिए और अनाज को भी प्यार करना चाहिए (भाव, अन्न पर तर्क करने की जगह अन्न को ऐसे सहजे-सहजे प्रीत से खाएं जैसे अडोल हो के प्यार से नाम सिमरना है)। (देखिए, जिस पानी को रोजाना प्रयोग करते हो, उसी) पानी की संगति से इस अन्न का कैसा सुंदर रंग निकलता है! (यदि पानी के प्रयोग से कोई पाप नहीं तो अन्न से नफ़रत क्यों?)। जो मनुष्य अन्न से तर्क करते है वे हर जगह अपनी इज्जत गवाते हैं (भाव, अन्न का त्याग कोई ऐसा काम नहीं जिसे दुनिया पसंद करे)।2। जो लोग अन्न छोड़ देते हैं और (वे) पाखण्ड करते हैं, वे (उन बेमतलब की औरतों की तरह हैं जो) ना सोहगनें हैं ना ही विधवा। (अन्न छोड़ने वाले साधू,) लोगों में कहते-फिरते हैं, हम निरा दूध पी के ही निर्वाह करते हैं, पर चोरी-चोरी सारी की सारी वटिका ही खाते हैं।3। अन्न के बगैर सुकाल नहीं हो सकता, अन्न के छोड़ने से ईश्वर नहीं मिलता। हे कबीर! (बेशक) कह-हमें ये यकीन है कि अन्न बड़ा ही सुंदर (व उक्तम) पदार्थ है जिसको खाने से (सिमरन करके) हमारा मन परमात्मा के साथ जुड़ता है।4।8।11। रागु गोंड बाणी नामदेउ जी की घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ असुमेध जगने ॥ तुला पुरख दाने ॥ प्राग इसनाने ॥१॥ तउ न पुजहि हरि कीरति नामा ॥ अपुने रामहि भजु रे मन आलसीआ ॥१॥ रहाउ ॥ गइआ पिंडु भरता ॥ बनारसि असि बसता ॥ मुखि बेद चतुर पड़ता ॥२॥ सगल धरम अछिता ॥ गुर गिआन इंद्री द्रिड़ता ॥ खटु करम सहित रहता ॥३॥ सिवा सकति स्मबादं ॥ मन छोडि छोडि सगल भेदं ॥ सिमरि सिमरि गोबिंदं ॥ भजु नामा तरसि भव सिंधं ॥४॥१॥ {पन्ना 873} पद्अर्थ: असुमेध = (संस्कृत: अश्वमेध: अश्व: प्रधानतया मेध्यते हिस्यतेऽत्र) वैदिक युग में संतान के लिए राजे यह यज्ञ किया करते थे। बाद में वे राजे भी करने लगे जो आस-पास के रजवाड़ों में सबसे बड़ा कहलवाना चाहते थे। एक घोड़ा सजा के उसे शूरवीरों की निगरानी में एक साल के लिए छोड़ दिया जाता था; जिस रजवाड़े के राज से घोड़ा गुजरे, वह राजा या तो लड़े या ईन माने। साल के उपरांत जब वह घोड़ा वापस अपने राज में आता तो यज्ञ किया जाता था। ऐसे 100 यज्ञ करने पर इन्द्र की पदवी मिल जाती थी। तभी ये ख्याल बना हुआ है कि इन्द्र इन यज्ञों के राह अवरोध खड़े किया करता था। तुला = तुल के बराबर का। प्राग = प्रयाग, हिन्दू तीर्थ, (इस शहर का नाम आजकल इलाहाबाद है)।1। गइआ = गया, हिन्दू तीर्थ, जो हिन्दू दीया बाती के कारण मर जाए उसकी अंतिम क्रिया गया जा के करवाई जाती है। पिंडु = चावल व जौ के आटे के पेड़े जो पित्रों के नमिक्त मणसे जाते हैं। असि = बनारस के पास बहती नदी का नाम है। मुखि = मुँह से। चतुर = चार।2। अछिता = (संस्कृत: अक्षर) संयुक्त। द्रिढ़ता = वश में रखे। खटु करम = छे कर्म (विद्या पढ़ना और पढ़ाना, यज्ञ करना और करवाना, दान लेना व देना)।3। सिवा सकति संबाद = शिव और पार्वती की परस्पर बातचीत, रामायण। रामायण की सारी वार्ता, शिव जी ने पार्वती को ये वार्ता घटित होने से पहले ही सुनाई बताई जाती है। भेद = (प्रभू से) दूरी रखने वाले काम। तरसि = तैरेगा। भव सिंध = भव सागर, संसार समुंद्र।4। अर्थ: अगर कोई मनुष्य अश्वमेध यज्ञ करे, अपने बराबर का तोल के (सोना चाँदी आदि) दान करे, और प्रयाग आदि तीर्थों पर स्नान करे।1। तो भी ये सारे काम प्रभू के नाम की, परमात्मा के सिफत सालाह की बराबरी नहीं कर सकते। सो, हे मेरे आलसी मन! अपने प्यारे प्रभू को सिमर।1। रहाउ। यदि मनुष्य गया (आदि) तीर्थ पर जाकर पित्रों के नमिक्त पिंड भराए, यदि काशी के साथ बहती असि नदी के तट पर बसता हो, अगर मुँह से चारों वेद (ज़बानी) पढ़ता हो।2।; अगर मनुष्य सारे धर्म-कर्म करता हो, अपने गुरू की शिक्षा ले के इन्द्रियों को काबू में रखता हो, अगर ब्राहमणों वाले खट-करम सदा ही करता रहे,।3।; रामायण (आदि) का पाठ - हे मेरे मन! ये सारे करम छोड़ दे, त्याग दे, ये सभ प्रभू से दूरियां बढ़ाने वाले ही हैं। हे नामदेव! गोबिंद का भजन कर, (प्रभू का) नाम सिमर, (नाम सिमरने से ही) संसार-समुंद्र से पार होगा।4।1। भाव: यज्ञ, दान, तीर्थ स्नान आदि कोई भी कर्म सिमरन की बराबरी नहीं कर सकता। देखें रामकली राग में नामदेव जी का शबद नंबर 4। गोंड ॥ नाद भ्रमे जैसे मिरगाए ॥ प्रान तजे वा को धिआनु न जाए ॥१॥ ऐसे रामा ऐसे हेरउ ॥ रामु छोडि चितु अनत न फेरउ ॥१॥ रहाउ ॥ जिउ मीना हेरै पसूआरा ॥ सोना गढते हिरै सुनारा ॥२॥ जिउ बिखई हेरै पर नारी ॥ कउडा डारत हिरै जुआरी ॥३॥ जह जह देखउ तह तह रामा ॥ हरि के चरन नित धिआवै नामा ॥४॥२॥ {पन्ना 873} पद्अर्थ: नाद = आवाज, घंडेहेड़े की आवाज़, हिरन को पकड़ने के लिए घड़े पर खाल मढ़ के बनाया हुआ साज़, इसकी आवाज़ हिरन को मोह लेती है। भ्रमे = भटकता है, दौड़ता है। मिरगाए = मृग, हिरन। वा को = उस (नाद) का।1। हेरउ = मैं देखता हूँ। अनत = और तरफ (अन्यत्र)। न फेरउ = मैं नहीं फेरता।1। रहाउ। मीना = मछलियाँ। पसूआरा = (पशुहारिन्) माहीगीर, झीवर, मछुआरा। गढते = घड़ते हुए। हिरै = हेरै, ध्यान से देखता है, ढूँढता है।2। बिखई = विषयी मनुष्य। हेरै = देखता है। डारत = फेंकते हुए। हिरै = हेरै, देखता कि कौन सी सोट पड़ी है।3। जह जह = जिधर जिधर।4। नोट: 'रहाउ' की तुक में वर्णन है कि मैं राम को 'हेरता हूँ' देखता हूँ, इस तरह और विचारों को भुला के मैं उसे ढूंढता हूँ, जैसे हिरन, मछुआरा, विषयी व्यक्ति आदि। जुआरी कोड़ियाँ फेंक के उन्हें चुराता नहीं, बल्कि ध्यान से देखता है कि कौड़ी फेंक के कौन सा दाव लगा है। सो, यहाँ शब्द 'हिरै' शब्द 'हेरै' की जगह प्रयोग किया गया है। इसी तरह 'हिरै सुनारा' का भाव है 'हेरै सुनारा'। ये सारे दृष्टांत 'हेरन' (देखने, ढूँढने) के ही संबंध में हैं। अर्थ: मैं अपने प्यारे प्रभू की याद छोड़ के किसी और तरफ अपने चिक्त को नहीं जाने देता, मैं भी प्रभू को यूं ही देखता हूँ।1। रहाउ। जैसे हिरन (अपना आप भुला के) नाद के पीछे दौड़ता है, प्राण दे देता है पर उसे उस नाद का ध्यान नहीं बिसरता।1।; जैसे माहीगीर मछलियों की ओर देखता है, जैसे सोना घड़ते हुए सोनारा (सोने की ओर ध्यान से) देखता है।2।; जैसे विषयी मनुष्य पराई नारि की ओर ध्यान से देखता है, जैसे (जुआ खेलने के वक्त) जुआरी कौड़ी फेंक के ध्यान से देखता है (कि कौन सा दांव पड़ा है)।3। मैं नामदेव भी (इन्हीं की तरह) सदा अपने प्रभू को (एक मन एक चिक्त हो के) सिमरता हूँ और जिधर देखता हूँ प्रभू को ही देखता हूँ (मेरी सुरति सदा प्रभू में ही रहती है)।4।2। भाव: प्रभू के साथ ऐसी प्रीति होनी चाहिए कि ख़ुद को ही भूल जाएं, सुरति सदा प्रभू में रहे। गोंड ॥ मो कउ तारि ले रामा तारि ले ॥ मै अजानु जनु तरिबे न जानउ बाप बीठुला बाह दे ॥१॥ रहाउ ॥ नर ते सुर होइ जात निमख मै सतिगुर बुधि सिखलाई ॥ नर ते उपजि सुरग कउ जीतिओ सो अवखध मै पाई ॥१॥ जहा जहा धूअ नारदु टेके नैकु टिकावहु मोहि ॥ तेरे नाम अविल्मबि बहुतु जन उधरे नामे की निज मति एह ॥२॥३॥ {पन्ना 873} पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। रामा = हे राम! (नोट: नामदेव जी जिसको 'बाप बीठुला' कह रहे हैं उसी को 'राम' कह के पुकारते हैं, सो, किसी 'बीठुल-मूर्ति की ओर इशारा नहीं है, परमात्मा के आगे अरदास है। धु्रव व नारद का संबंध किसी बीठुल-मूर्ति के साथ नहीं हो सकता)। तरिबे न जानउ = मैं तैरना नहीं जानता। दे = दे, पकड़ा।1। रहाउ। ते = से। सुर = देवते। निमख मै = आँख फरकने के वक्त में। मै = में, महि, माहि। सतिगुर बुधि सिखलाई = गुरू की सिखाई हुई मति से। उपजि = पैदा हो के। अवखध = दवाई। पाई = पा लूँ।1। जहा जहा = जिस अवस्था में। टेके = टिकाए हैं, स्थित किए हैं। नैकु = (संस्कृत; नैकश, Repeatedly, often. न ऐकश: not once) सदा। मोहि = मुझे। अविलंब = आसरा। अविलंबि = आसरे से। उधरे = (संसार समुंद्र के विकारों से) बच गए। निज मति = अपनी मति, पक्का निश्चय।2। अर्थ: हे मेरे राम! मुझे (संसार समुंद्र से) तार ले, बचा ले। हे मेरे पिता प्रभू! मुझे अपनी बाँह पकड़ा, मैं तेरा अंजान सेवक हूँ, मैं तैरना नहीं जानता। रहाउ। (हे बीठल पिता! मुझे भी गुरू से मिला दे) गुरू से मिली हुई बुद्धि की बरकति से आँख झपकने जितने समय में ही मनुष्य से देवता बन जाया जाता है, हे पिता! (मेहर कर) मैं भी वह दवाई हासिल कर लूँ जिससे मनुष्यों से पैदा हो के (भाव, मनुष्य जाति में से हो के) स्वर्ग को जीता जा सकता है (भाव, स्वर्ग की भी परवाह नहीं रहती)।1। हे मेरे राम! तूने जिस-जिस आत्मिक ठिकाने पर धु्रव और नारद (जैसे भक्तों) को पहुँचाया है, मुझे (भी) सदा के लिए पहुँचा दे, मेरा नामदेव का ये पक्का विश्वास है कि तेरे नाम के आसरे बेअंत जीव (संसार-समुंद्र के विकारों से) बच निकलते हैं।2।3। भाव: प्रभू से नाम-सिमरन की मांग। नाम की बरकति से स्वर्ग की भी लालसा नहीं रहती। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |