श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गोंड ॥ मोहि लागती तालाबेली ॥ बछरे बिनु गाइ अकेली ॥१॥ पानीआ बिनु मीनु तलफै ॥ ऐसे राम नामा बिनु बापुरो नामा ॥१॥ रहाउ ॥ जैसे गाइ का बाछा छूटला ॥ थन चोखता माखनु घूटला ॥२॥ नामदेउ नाराइनु पाइआ ॥ गुरु भेटत अलखु लखाइआ ॥३॥ जैसे बिखै हेत पर नारी ॥ ऐसे नामे प्रीति मुरारी ॥४॥ जैसे तापते निरमल घामा ॥ तैसे राम नामा बिनु बापुरो नामा ॥५॥४॥ {पन्ना 874}

पद्अर्थ: मोहि = मुझे। तालाबेली = तिलमिली, तिलमिलाहट। गाइ = गाय।1।

मीनु = मछली। तलफै = तड़पती है। बापरो = बेचारा, घबराया हुआ।1। रहाउ।

छूटला = खूँटे से खुल जाता है। बाछा = बछड़ा। चोखता = चूँघता। घूटला = घूँट भरता है।2।

भेटत = मिलते हुए ही। अलखु = जो लखा ना जा सके, जिसके गुणों का थाह नहीं पाया जा सकता।3।

बिखै हेत = विषय विकारों की खातिर।4।

तपते = तपते हैं। निरमल = साफ। घामा = धूप, गर्मी।5।

अर्थ: जैसे बछड़े से विछुड़ के अकेली गाय (घबराती) है, वैसे ही मुझे (भी प्रभू से विछुड़ के) तिलमिलाहट होती है।1।

जैसे पानी के बिना मछली तड़फती है, वैसे ही मैं नामदेव प्रभू के नाम के बिना घबराता हूँ।1। रहाउ।

जैसे (जब) गाय का बछड़ा खूँटे से खुल जाता है तो (गाय के) थन चूँघता है, और मक्खन के घूँट भरता है, वैसे ही जब मुझे नामदेव को सतिगुरू मिला, मुझे अलख प्रभू की सूझ पड़ गई, मुझे ईश्वर मिल गया।2 और 3।

जैसे (विषयी व्यक्ति को) विषय पूर्ति के लिए पराई नारि से प्यार होता है, मुझ नामे को प्रभू से प्यार है।4।

प्रभू के नाम से विछुड़ के मैं नामदेव इस तरह घबराता हूँ, जैसे चमकती धूप में (जीव-जंतु) तपते-तड़पते हैं।5।4।

भाव: प्रीत का स्वरूप- वियोग असहि होता है।

रागु गोंड बाणी नामदेउ जीउ की घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि हरि करत मिटे सभि भरमा ॥ हरि को नामु लै ऊतम धरमा ॥ हरि हरि करत जाति कुल हरी ॥ सो हरि अंधुले की लाकरी ॥१॥ हरए नमसते हरए नमह ॥ हरि हरि करत नही दुखु जमह ॥१॥ रहाउ ॥ हरि हरनाकस हरे परान ॥ अजैमल कीओ बैकुंठहि थान ॥ सूआ पड़ावत गनिका तरी ॥ सो हरि नैनहु की पूतरी ॥२॥ हरि हरि करत पूतना तरी ॥ बाल घातनी कपटहि भरी ॥ सिमरन द्रोपद सुत उधरी ॥ गऊतम सती सिला निसतरी ॥३॥ केसी कंस मथनु जिनि कीआ ॥ जीअ दानु काली कउ दीआ ॥ प्रणवै नामा ऐसो हरी ॥ जासु जपत भै अपदा टरी ॥४॥१॥५॥ {पन्ना 874}

पद्अर्थ: हरि हरि करत = प्रभू का नाम सिमरते हुए। भरमा = भटकना। लै नामु = नाम सिमर। ऊतम = सबसे श्रेष्ठ। हरी = नाश हो जाती है। लाकरी = लकड़ी, डंगोरी, आसरा।1।

हरऐ = हरी को (देखें मेरी 'सुखमनी सटीक' में शब्द 'गुरऐ' की व्याख्या)।1। रहाउ।

हरे परान = प्राण हरे, जान ले ली, मार दिया। थान = जगह। सूआ = तोता। गनिका = वेश्वा। पूतरी = पुतली।2।

पूतना = उस दाई का नाम था जिसको कंस ने गोकुल में कृष्ण जी को मारने के लिए भेजा था; ये स्तनों पर जहर लगा के गई, पर कृष्ण जी ने स्तन मुँह में ले कर इसके प्राण खींच लिए; आखिर मुक्ति भी दे दी। घातनी = मारने वाली। कपट = धोखा, फरेब। द्रोपद सुत = राजा द्रोपद की बेटी, द्रोपदी। सती = नेक स्त्री, जो अपने पति के श्राप से सिला बन गई थी, श्री राम चंद्र जी ने इसको मुक्त किया था।3।

केसी = वह दैंत जिसको कंस ने कृष्ण जी के मारने को लिए गोकुल भेजा था। मथनु = नाश। जिनि = जिसने। काली = एक नाग था जिसे कृष्ण जी ने जमुना से निकाला था। जीअ दानु = प्राण क्षमा करने। प्रणवै = विनती करता है। जासु = जिसको। अपदा = मुसीबत। टरी = टल जाती है।4।

अर्थ: मेरा उस परमात्मा को नमस्कार है, जिसका सिमरन करने से जमों का दुख नहीं रहता।1। रहाउ।

हरी-नाम सिमरने से सभ भटकनें दूर हो जाती हैं; हे भाई! नाम सिमर, यही है सबसे अच्छा धर्म। नाम सिमरने से (नीच और ऊँची) जाति कुल का भेद-भाव दूर हो जाता है। वह हरी-नाम ही मुझ अंधे का आसरा है।1।

प्रभू ने हरणाक्षस (दैत्य) को मारा, अजामल पापी को बैकुंठ में जगह दी। उस हरी का नाम तोते को पढ़ाते हुए वैश्वा भी विकारों से हट गई; वही प्रभू मेरी आँखों की पुतली है।2।

बच्चों को मरने वाली और कपट से भरी हुई पूतना दाई का भी उद्धार हो गया, जब उसने हरी-नाम सिमरा; सिमरन की बरकति से ही द्रोपदी (निरादरी से) बची थी, गौतम की नेक स्त्री का पार उतारा हुआ था, जो (गौतम के श्राप से) शिला बन गई थी।3।

उसी प्रभू ने केसी व कंस का नाश किया था, और काली नाग की जान बख्श दी थी। नामदेव विनती करता है - प्रभू ऐसा (कृपालु बख्शिंद) है कि उसका नाम सिमरने से सब डर और मुसीबतें टल जाती हैं।4।1।5।

भाव: प्रभू का सिमरन सभी धर्मों से श्रेष्ठ धर्म है। सिमरन की बरकति से सब मुसीबतें टल जाती हैं, बड़े-बड़े विकारी भी विकारों से हट जाते हैं।

गोंड ॥ भैरउ भूत सीतला धावै ॥ खर बाहनु उहु छारु उडावै ॥१॥ हउ तउ एकु रमईआ लैहउ ॥ आन देव बदलावनि दैहउ ॥१॥ रहाउ ॥ सिव सिव करते जो नरु धिआवै ॥ बरद चढे डउरू ढमकावै ॥२॥ महा माई की पूजा करै ॥ नर सै नारि होइ अउतरै ॥३॥ तू कहीअत ही आदि भवानी ॥ मुकति की बरीआ कहा छपानी ॥४॥ गुरमति राम नाम गहु मीता ॥ प्रणवै नामा इउ कहै गीता ॥५॥२॥६॥ {पन्ना 874}

नोट: आखिरी पद में संबोधन करके जिस 'मीत' को नामदेव जी इस शबद के द्वारा भैरव, शिव, महामाई आदि की पूजा करने से रोकते हैं वह कोई पंडित प्रतीत होता है, क्योंकि उसका ध्यान उसकी अपनी ही पुस्तक 'गीता' की ओर भी दिलाते हैं।

पद्अर्थ: भैरउ = एक जती का नाम था, सवारी काले कुत्ते की बताई जाती है। शिव की आठ भयानक शक्लों में से एक भैरव की है। इसका मन्दिर जम्मू के आगे दुर्गा के मन्दिर के ऊपर दो मील पर बना हुआ है। सीतला = चेचक (small pox) की देवी, इसकी सवारी गधे की है। खर = गधा। खर बाहनु = गधे की सवारी करने वाला। छार = राख।1।

तउ = तब। रमईआ = सुंदर राम। लै हउ = लाऊँगा। आन = और। बदलावनि = बदले में। दै हउ = दे दूंगा।1। रहाउ।

बरद = बैल (ये शिव जी की सवारी है)। डउरू = डमरू।2।

महा = बड़ी। महा माई = बड़ी माँ, पार्वती। सै = से। होइ = बना के। अउतरै = पैदा होता है।3।

कहीअत = कही जाती है। भवानी = दुर्गा देवी। बरीआ = बारी। छपानी = छुप जाती है।4।

गहु = पकड़, आसरा ले। मीता = हे मित्र पंडित! इउ = इसी तरह ही।5।

अर्थ: जो मनुष्य भैरव की ओर जाता है (भाव, जो भैरव की आराधना करता है) वह (ज्यादा से ज्यादा भैरव जैसा ही) भूत बन जाता है। जो सीतला को आराधता है वह (सीतला की ही तरह) गधे की सवारी करता है और (गधे के साथ) राख ही उड़ाता है।1।

(हे पण्डित!) मैं तो एक सुंदर राम का नाम ही लूँगा, (तुम्हारे) बाकी सारे देवताओं को उस नाम के बदले में दे दूँगा, (अर्थात, प्रभू-नाम के मुकाबले में मुझे तुम्हारे किसी भी देवते की आवश्यक्ता नहीं है)।1। रहाउ।

जो मनुष्य शिव का नाम जपता है वह (ज्यादा से ज्यादा जो कुछ हासिल कर सकता है वह ये है कि शिव का रूप ले के, शिव की सवारी) बैल के ऊपर चढ़ता है और (शिव की ही तरह) डमरू बजाता है।2।

जो मनुष्य पार्वती की पूजा करता है वह मनुष्य नर से नारी हो के जन्म लेता है (क्योंकि पूजा करने वाला अपने पूज्य का रूप ही बन सकता है)।3।

हे भवानी! तू सबका आदि कहलवाती है, पर (अपने भक्तों को) मुक्ति देने के समय तू भी, पता नहीं कहाँ छुपी रहती है (भाव, मुक्ति भवानी के पास भी नहीं है)।4।

सो, नामदेव विनती करता है- हे मित्र (पण्डित!) सतिगुरू की शिक्षा ले के परमात्मा के नाम की ओट ले, (तुम्हारी धर्म-पुस्तक) गीता भी यही उपदेश देती है।5।2।6।

शबद का भाव: पूजा करके ज्यादा से ज्यादा अपने पूज्य का रूप ही बन सकता है। संसार-समुंद्र से मुक्ति दिलानी किसी देवी-देवते के हाथ में नहीं; इसलिए परमात्मा का नाम ही सिमरना चाहिए, प्रभू ही मुक्तिदाता है।

बिलावलु गोंड ॥ आजु नामे बीठलु देखिआ मूरख को समझाऊ रे ॥ रहाउ ॥ पांडे तुमरी गाइत्री लोधे का खेतु खाती थी ॥ लै करि ठेगा टगरी तोरी लांगत लांगत जाती थी ॥१॥ पांडे तुमरा महादेउ धउले बलद चड़िआ आवतु देखिआ था ॥ मोदी के घर खाणा पाका वा का लड़का मारिआ था ॥२॥ पांडे तुमरा रामचंदु सो भी आवतु देखिआ था ॥ रावन सेती सरबर होई घर की जोइ गवाई थी ॥३॥ हिंदू अंन्हा तुरकू काणा ॥ दुहां ते गिआनी सिआणा ॥ हिंदू पूजै देहुरा मुसलमाणु मसीति ॥ नामे सोई सेविआ जह देहुरा न मसीति ॥४॥३॥७॥ {पन्ना 874-875}

नोट: कई विद्वान सज्जनों ने विचार रखा है कि भगत नामदेव जी ने इस शबद में 'हास्य रस' का प्रयोग किया है। पर, सच्चाई बयान करके किसी गलत रास्ते पर जाते को सही रास्ता दिखाना और बात है, और किसी के धार्मिक जजबातों का मजाक उड़ाना ठोकर मारनी बहुत ही दुखद कार्य है। ये बात नहीं मानी जा सकती कि भगत जी इस तरह किसी का दिल दुखा सकते थे, या, ऐसे दुख देने वाले वाक्य को सतिगुरू जी उस 'बाणी बोहिथ' में दर्ज करते जो सिख के जीवन का आसरा है। ये कहना कि हास्य रस के माध्यम से बड़े-बड़े देवताओं के बड़े-बड़े कामों को परमात्मा की महिमा के सामने तुच्छ बताया है, फबता नहीं है। किसी लड़के को मार देना कोई बहुत बड़ा काम नहीं है, अपनी स्त्री गवा लेनी कोई महानता भरा काम नहीं, और टांग तुड़वा लेनी कोई फखर वाला काम नहीं है। फिर, इन 'बड़े कामों' के मुकाबले में परमात्मा के किसी भी बड़े काम का यहाँ कोई वर्णन नहीं है। श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की बाणी को अपने प्राणों का आसरा समझने वाले सिख ने तो ये देखना है कि उसे ये शबद पढ़ते हुए क्या सहारा मिलता है, क्या रौशनी मिलती है। किसी के धार्मिक जज़बातों का मज़ाक उड़ा के उसके दिल को ठोकर मारनी धर्म का मार्ग नहीं हो सकता। हमें इसमें से सच्चाई की किरण की आवश्यक्ता है; हमें इसमें से ऊँची उड़ान की जरूरत है जो हमें भी ऊँचा कर सके। हमने किसी का मज़ाक उड़ा के ये नहीं समझ लेना कि इस शबद में से हमें जीवन-राह मिल गया है।

जो किसी शबद को खिला हुआ सुंदर फूल समझ लें, तो 'रहाउ' की तुक उस फूल का 'मकरंद' होता है। 'रहाउ' में वह केन्द्रिय रम्ज़ हुआ करती है, जिसका विस्तार सारे शबद में किया जाता है। इसी नियम को यदि इस शबद में भी ध्यान से बरतेंगे, तो वह सुगंधि जो इस 'रहाउ-मकरंद' में छुपी हुई है, सारे खिले हुए फूल में से महक देने लग जाएगी, सारी रम्ज़ खुल जाएगी। शबद के तीन बंदों में किसी पांडे को संबोधन कर रहे हैं। सो, 'रहाउ' में प्रयोग किया गया शब्द 'रे' भी उसी पांडे के लिए ही है। इस तुक में पांडे को अपना हाल बताते हैं कि मैंने तो बीठल का दीदार कर लिया। तू तो मूर्ख ही रहा, तुझे दीदार ना हुए। बाकी सारे शबद में पांडे को उसकी खामियां गिना रहे हैं, जिन्होंने उसे बीठल के दर्शन नहीं करने दिए।

यहाँ एक ओर मजेदार बात देखने वाली है। अगर नामदेव जी का 'बीठल' किसी मन्दिर में स्थापित किया हुआ होता, तो उस मन्दिर में रहने वाले 'पांडे' को तो उसके दर्शन, जब वह चाहता, हो सकते थे, क्योंकि पांडा उच्च जाति का था। पर, शूद्र नामदेव को 'बीठल' के दर्शन कैसे हुए? इसे तो शूद्र होने के कारण बल्कि धक्के पड़ सकते थे। पर, दरअसल बात ये है कि नामदेव का 'बीठल' किसी मन्दिर में स्थापित किया हुआ 'बीठल' नहीं था, वह 'बीठल' वह था 'जह देहुरा न मसीति'। क्या अभी भी कोई शक रह जाता है कि भगत नामदेव जी किसी मन्दिर में स्थापित 'बीठल' के पुजारी नहीं थे? वे तो बल्कि मन्दिर में स्थापित 'बीठल' की पूजा करने वाले पांडे को कह रहे हैं कि तू मूर्ख ही रहा, तुझे अभी तक बीठल के दर्शन नहीं हो सके।

पांडे को 'बीठल' के दर्शन क्यों नहीं हो सके? इसका उक्तर शबद के सारे पदों में है। मुख्य बात ये कही है कि पांडा अंधा है और इसकी दोनों आँखें बंद हैं। ज्ञान-दाता गुरू के साथ लगना-ये है आत्मिक तौर पर आँख वाले बंदे की एक आँख। परमात्मा का सही स्वरूप- यह है दूसरी आँख। पांडे ने ज्ञान प्राप्त करने के लिए गायत्री का पवित्र जाप किया, महादेव की ओट ली, श्री रामचंद्र जी के पैरों पर गिरा; पर इनमें से किसी के भी साथ ना जुड़ा किसी पर भी श्रद्धा ना बनाई, बल्कि इनके बारे में ऐसी कहानियाँ घड़ लीं कि पूर्ण श्रद्धा बन ही ना सके। शब्द गायत्री महादेव और रामचंद्र के साथ प्रयोग किए गए शब्द 'तुमरी' और 'तुमरा' खास तौर पर समझने-योग्य हैं। भाव ये है कि हे पांडे! जिस गायत्री आदि को 'तू' अपना ज्ञान-दाता कहता है, उसमें 'तू खुद ही' नुक्स बताए जा रहा है। फिर तेरा सिदक कैसे बंधे? ज्ञान की एक आँख गई। दूसरी का भी यही हाल हुआ। 'बीठल' था, माया से परे और सर्व व्यापक। पर, पांडे ने उसको मन्दिर में कैद कर दिया; सिर्फ उसकी मूर्ति को 'बीठल' समझा जो मन्दिर में थी, संसार में बसता 'बीठल' उसको ना दिखा।

तुर्क इस बात से बचा रहा इसने हज़रत मुहम्मद साहिब में पूरा सिदक बनाया है। पर एक गलती ये भी कर गए, इसने मस्जिद को खुदा का घर समझ लिया है, इसने सिर्फ काबे में ही रॅब को देखने की कोशिश की है। सो, एक आँख से काना रह गया।

गुरू नानक साहिब को ये शबद क्यों भा गया? उन्होंने भगत जी के वतन से क्यों इसे संभाल के ले लिया? अब उपरोक्त विचार के समक्ष उक्तर स्पष्ट है - 1. गुरू (ग्रंथ साहिब) की बाणी सिख के जीवन का आसरा है, पर इसमें कहीं कोई शक नहीं रहना चाहिए कि फलाना शबद तो हमें नहीं जचता; 2. अगर पांडे के महादेव की तरह सिख ने भी अपने प्रीतम को श्राप देने वाला मान लिया; तो जैसे पांडा महादेव को पूजता तो है पर उससे काँपता भी रहता है कि कहीं श्राप ना मिल जाए, सिख का भी यही हाल रहेगा, गुरू के चरणों से रीझ के बलिहार नहीं जा सकेगा, क्योंकि उसे यही डर बना रहेगा कि गुरू गुस्से में आ के श्राप दे सकता है; 3. सिख का पूज्य अकालपुरुख हर जगह विद्यमान है, और सिख का तीर्थ उसका अपना हृदय है, जहाँ नित्य जुड़ के सिख स्नान करता है।

पद्अर्थ: आजु = आज, अब, इसी जनम में। बीठलु = (संस्कृत: विष्ठल One situated at a distance. वि = परे, दूर। स्थल = खड़ा हुआ) वह जो माया के प्रभाव से परे है। रे = हे पांडे! समझाऊ = मैं समझाऊँ। रहाउ।

तुमरी गायत्री = जिसको तुम गायत्री कहते हो और जिसके बाबत श्रद्धा-हीन कहानी भी बना रखी है। गाइत्री = (संस्कृत: गायत्री) = एक बड़ा पवित्र मंत्र जिसका पाठ हरेक ब्राहमण के लिए सवेरे शाम करना आवश्यक है। वह मंत्र इस तरह है: तत्सवितुर्वरेण्य भर्गो देवस्य धीमही धयो यो न: प्रचोदयात्। लोधा = जाटों की जाति का नाम है। ठेगा = डंडा, सोटा। लांगत = लंगड़ा लंगड़ा के।1।

महादेव = शिव। मउले = सफेद। मोदी = भण्डारी। वा का = उसका।2।

सरबर = लड़ाई। जाइ = स्त्री।3।

तुरकू = मुसलमान। जह = जिसका। देहुरा = मन्दिर।4।

अर्थ: हे पांडे! मैंने तो इसी जनम में परमात्मा के दर्शन कर लिए हैं (पर, तू मूर्ख ही रहा, तुझे दर्शन नहीं हुए; आ) मैं (तुझ) मूर्ख को समझाऊँ (कि तुझे दर्शन क्यों नहीं होते)।1। रहाउ।

हे पांडे! (पहली बात तो ये कि जिस गायत्री का तू पाठ करता है उस पर तेरी श्रद्धा नहीं बन सकती, क्योंकि) तेरी गायत्री (वह है जिसके बारे में तू खुद ही कहता है कि एक बार श्राप के कारण ये गाय की जून में आ के) एक लोधे जाट के खेत को चरने चली गई, उसने डंडा मार के लात तोड़ दी तब (से बेचारी) लंगड़ा-लंगड़ा के चलने लगी।1।

हे पांडे! (फिर तू जिस शिव की आराधना करता है उसे ही बड़ा क्रोधी समझता है और कहता है कि गुस्से में आ के वह श्राप दे देता है, भस्म कर देता है। ऐसे शिव से तू प्यार कैसे कर सकता है?) तेरा शिव (तो वह है जिसके बारे में तू कहता है) किसी भण्डारी के घर में उसके लिए भोजन तैयार हुआ, शिव को सफेद बैल पर चढ़ा हुआ जाता देखा, (भाव, तू बताता है कि शिव जी सफेद बैल की सवारी करते थे) (पर, शायद वह भोजन पसंद नहीं आया, शिव जी ने श्राप दे के) उसका लड़का मार दिया।2।

हे पांडे! तेरे श्री रामचंद्र जी भी आते हुए देखे हैं (भाव, जिस श्री रामचंद्र जी की तू उपासना करता है, उनकी बाबत भी तुझसे ऐसा ही कुछ हमने सुना है कि) रावण से उनकी लड़ाई हो गई, क्योंकि वे पत्नी (सीता जी को) गवा बैठे थे।3।

नोट: 'रामायण' और 'उक्तर राम चरित्र' आदि पुस्तकों में कई दूषण भी श्री रामचंद्र जी पर आरोपित किए गए हैं, चाहे वह भक्ति-भाव में लपेटे हुए हैं- बाली को छिप के मारना, एक राक्षणी को मारना, सीता जी को घर से निकाल देना इत्यादिक। ये दूषण लगा के उनमें पूरी श्रद्धा रखनी असंभव हो जाती है।

सो हिन्दू दोनों ही आँखें गवा बैठा है, पर मुसलमान की एक आँख ही खराब हुई है। इन दोनों से ज्यादा समझदार वह व्यक्ति है जिसको (प्रभू की हस्ती का सही) ज्ञान हो गया है। (हिन्दू ने एक आँख तो तब गवाई जब वह अपने ईष्ट के बारे में श्रद्धा-हीन कहानियां घड़ने लग पड़ा; और दूसरी गवाई, जब वह परमात्मा को सिर्फ मन्दिर में बैठा समझ के) मन्दिर को पूजने लग पड़ा, मुसलमान (की हज़रत मुहम्मद साहिब में पूरी श्रद्धा होने के कारण एक आँख तो साबत है पर दूसरी गवा बैठा है, क्योंकि रॅब को सिर्फ मस्जिद में ही जान के) मस्जिद को ही खुदा का घर समझ रहा है। मैं नामदेव उस परमात्मा का सिमरन करता हूँ जिसका ना कोई खास मन्दिर है ना ही मस्जिद।4।3।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh