श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु गोंड बाणी रविदास जीउ की घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मुकंद मुकंद जपहु संसार ॥ बिनु मुकंद तनु होइ अउहार ॥ सोई मुकंदु मुकति का दाता ॥ सोई मुकंदु हमरा पित माता ॥१॥ जीवत मुकंदे मरत मुकंदे ॥ ता के सेवक कउ सदा अनंदे ॥१॥ रहाउ ॥ मुकंद मुकंद हमारे प्रानं ॥ जपि मुकंद मसतकि नीसानं ॥ सेव मुकंद करै बैरागी ॥ सोई मुकंदु दुरबल धनु लाधी ॥२॥ एकु मुकंदु करै उपकारु ॥ हमरा कहा करै संसारु ॥ मेटी जाति हूए दरबारि ॥ तुही मुकंद जोग जुग तारि ॥३॥ उपजिओ गिआनु हूआ परगास ॥ करि किरपा लीने कीट दास ॥ कहु रविदास अब त्रिसना चूकी ॥ जपि मुकंद सेवा ताहू की ॥४॥१॥ {पन्ना 875}

पद्अर्थ: मुकंद = (संस्कृत: मुकुन्द मुकुं ददाति इति = One who gives salvation) मुक्ति दाता प्रभू। संसार = हे संसार! हे लोगो! अउहार = (संस्कृत: अवहार्य = to be taken away) नाशवंत (भाव, व्यर्थ जाने वाला)।1।

जीवत = जीते हुए, सारी उम्र। मरत = मरने के वक्त भी । ता के = उस मुकंद के।1। रहाउ।

प्रानं = जिंद, आसरा। मसतकि = माथे पर। नीसानं = निशान, नूर। सेव मुकंद = मुकंद की सेवा। बैरागी = वैरागवान। दुरबल = कमजोर को, निर्धन को। लाधी = (मुझे) मिल गई।2।

उपकारु = मेहर, भलाई। कहा करै = कुछ बिगाड़ नहीं सकता। दरबारि = दरबारी, प्रभू की हजूरी में बसने वाले। जोग जुग = जुगों जुगों में। तारि = तारनहार।3।

परगास = प्रकाश। कीट = कीड़े, निमाणे। चूकी = समाप्त हो गई। ताहू की = उस मुकंद की ही। जपि = जपूँ, मैं जपता हूँ।4।

अर्थ: माया के बँधनों से मुक्ति देने वाले प्रभू की बंदगी करने वाले को सदा ही आनंद बना रहता है, क्योंकि वह जीवित ही प्रभू को सिमरता है और मरते हुए भी उसी को याद करता है (सारी उम्र ही प्रभू को याद रखता है)।1। रहाउ।

हे लोगो! मुक्ति दाते प्रभू को हमेशा सिमरते रहो, उसके सिमरन के बिना ये शरीर व्यर्थ ही चला जाता है। मेरा तो माता-पिता ही वह प्रभू ही है, वही दुनिया के बँधनों से मेरी रक्षा कर सकता है।1।

प्रभू का सिमरन मेरे प्राणों (का आसरा बन गए) हैं, प्रभू को सिमर के मेरे माथे के भाग्य जाग उठे हैं; प्रभू की भगती (मनुष्य को) वैरागवान कर देती है, मुझ गरीब को प्रभू का नाम ही धन प्राप्त हो गया है।2।

यदि एक परमात्मा मुझ पर मेहर करे, तो (मुझे चमार-चमार कहने वाले ये) लोग मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। हे प्रभू! (तेरी भक्ति ने) मेरी (नीच) जाति (वाली आत्मिक हीनता भरी अवस्था को मेरे अंदर से) मिटा दिया है, क्योंकि मैं सदा तेरे दर पर रहता हूँ; तू ही सदा मुझे (दुनिया के बँधनों व मजबूरियों, मुथाजियों से) पार लंघाने वाला है।3।

(प्रभू की बँदगी से मेरे अंदर) आत्मिक जीवन की सूझ पैदा हो गई है, प्रकाश हो गया है। मेहर करके मुझ निमाने दास को प्रभू ने अपना बना लिया है। हे रविदास! कह- अब मेरी तृष्णा खत्म हो गई है, मैं अब प्रभू को सिमरता हूँ, नित्य प्रभू की ही भक्ति करता हूँ।4।1।

शबद का भाव: परमात्मा का सिमरन किया करो। सिमरन नीचों को ऊँचा बना देता है, तृष्णा समाप्त कर देता है।

गोंड ॥ जे ओहु अठसठि तीरथ न्हावै ॥ जे ओहु दुआदस सिला पूजावै ॥ जे ओहु कूप तटा देवावै ॥ करै निंद सभ बिरथा जावै ॥१॥ साध का निंदकु कैसे तरै ॥ सरपर जानहु नरक ही परै ॥१॥ रहाउ ॥ जे ओहु ग्रहन करै कुलखेति ॥ अरपै नारि सीगार समेति ॥ सगली सिम्रिति स्रवनी सुनै ॥ करै निंद कवनै नही गुनै ॥२॥ जे ओहु अनिक प्रसाद करावै ॥ भूमि दान सोभा मंडपि पावै ॥ अपना बिगारि बिरांना सांढै ॥ करै निंद बहु जोनी हांढै ॥३॥ निंदा कहा करहु संसारा ॥ निंदक का परगटि पाहारा ॥ निंदकु सोधि साधि बीचारिआ ॥ कहु रविदास पापी नरकि सिधारिआ ॥४॥२॥११॥७॥२॥४९॥ जोड़ु ॥ {पन्ना 875}

पद्अर्थ: अठसठि = अढ़सठ (६८)। दुआदस सिला = बारह शिवलिंग (सोमनाथ, बद्रीनाथ, केदार, बिषोश्वर, रामेश्वर, नागेश्वर, बैजनाथ, भीमशंकर आदि)। कूप = कूआँ। तटा = (नडाग) तालाब।1।

नोट: सालग्राम की पूजा विष्णु की पूजा है। 'सिला' की पूजा शिव की पूजा है।

केसै करे = नहीं तैर सकता। सरपर = जरूर।1। रहाउ।

कुलखेति = कुलक्षेत्र (कुरुक्षेत्र तीर्थ) पर (जा के)। ग्रहन करै = ग्रहण (के समय पर स्नान) करे। अरपै = भेटा करे, दान करे। स्रवनी = कानों से।2।

प्रसाद = भोजन, ठाकुरों का भोग। मंडपि = जगत में। बिगारि = बिगाड़ के। सांढै = सवारे। हांढै = भटकता है।3।

कहा = क्यों? परगटि = प्रगटे, प्रकट हो जाता है। पहारा = दुकान, (ठॅग की) दुकान। सोधि साधि = अच्छी तरह विचार के। "कहु, रविदास! सोधि साधि बीचारिआ, पापी निंदकु नरकि सिधारिआ" = अनवै।4।

अर्थ: साधू गुरमुखि की निंदा करने वाला मनुष्य (जगत की गिरावटों में से) पार नहीं लांघ पाता, यकीन जानिए वह सदा नर्क में ही पड़ा रहता है।1। रहाउ।

यदि कोई मनुष्य अढ़सठ तीर्थों का स्नान (भी) करे, और बारहों शिवलिंगों की पूजा भी करे, अगर (लोगों के भले के लिए) कूएं तालाब (आदि) बनवाए; पर अगर वह (गुरमुखों की) निंदा करता है, तो उसकी यह सारी मेहनत व्यर्थ जाती है।1।

यदि कोई मनुष्य कुरुक्षेत्र पर (जा के) ग्रहण (का स्नान) करे, गहनों समेत अपनी पत्नी (ब्राहमणों को) दान कर दे, सारी स्मृतियाँ ध्यान से सुने; पर अगर वह भले लोगों की निंदा करता है, तो इन सारे कामों का कोई लाभ नहीं।2।

यदि कोई मनुष्य ठाकुरों को कई तरह के भोग लगाए, भूमि का दान करे (जिसके कारण) जगत में उसकी प्रसिद्धि हो, (और) यदि वह अपना नुकसान करके भी दूसरों के काम सवारे, तो भी अगर वह भले लोगों की निंदा करता है तो वह कई जूनियों में भटकता है।3।

हे दुनिया के लोगो! तुम (संतों की) निंदा क्यों करते हो? (भले ही बाहर से कई तरह के धार्मिक कर्म करे, पर यदि कोई मनुष्य संत की निंदा करता है तो सारे धार्मिक कर्म एक ठॅगी ही हैं, और) निंदक की ये ठॅगी भरी दुकान की पोल खुल जाती है। हे रविदास! हमने अच्छी तरह विचार के देख लिया है कि संत का निंदक कुकर्मी रहता है और नर्क में पड़ा रहता है।4।2।11।7।2।49।

नोट: गोंड राग के शबदों का वेरवा-
महला ४---------------06
महला ५---------------22
अष्टपदी महला ५----01
कबीर जी--------------11
नामदेव जी------------07
रविदास जी ----------02
कुल जोड़--------------49


भाव: गुरमुखों के निंदक का कोई भी धार्मिक उद्यम उस निंदक का उद्धार नहीं कर सकता।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh