श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला १ घरु १ चउपदे

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

कोई पड़ता सहसाकिरता कोई पड़ै पुराना ॥ कोई नामु जपै जपमाली लागै तिसै धिआना ॥ अब ही कब ही किछू न जाना तेरा एको नामु पछाना ॥१॥ न जाणा हरे मेरी कवन गते ॥ हम मूरख अगिआन सरनि प्रभ तेरी करि किरपा राखहु मेरी लाज पते ॥१॥ रहाउ ॥ कबहू जीअड़ा ऊभि चड़तु है कबहू जाइ पइआले ॥ लोभी जीअड़ा थिरु न रहतु है चारे कुंडा भाले ॥२॥ मरणु लिखाइ मंडल महि आए जीवणु साजहि माई ॥ एकि चले हम देखह सुआमी भाहि बलंती आई ॥३॥ न किसी का मीतु न किसी का भाई ना किसै बापु न माई ॥ प्रणवति नानक जे तू देवहि अंते होइ सखाई ॥४॥१॥ {पन्ना 876}

पद्अर्थ: सहसा किरता = मगधी प्राक्रित भाषा में बौध व जैन ग्रंथ। जपमाली = माला। धिआना = समाधि। अब ही कब ही = अब भी और कभी भी।1।

(नोट: 'सहसा किरता' शब्द 'संस्कृत' का प्राक्रित रूप है 'सहसाकिरता')

न जाणा = मैं नहीं जानता, मुझे समझ नहीं। हरे = हे हरी! गते = गती, आत्मिक हालत। कवन गते = कौन सी आत्मिक हालत? (भाव, निम्न आत्मिक हालत)। पते = हे पति!।1। रहाउ।

ऊभि = ऊँचा, आकाश में। जाइ = जाता है। पइआले = पाताल में। थिरु = टिका हुआ। कुंडा = तरफ। भाले = तलाशता है।2।

मंडल = जगत, दुनिया। साजहि = सजाते हैं, बनाते हैं। माई = हे माँ! ऐकि = अनेकों जीव! चले = चले आ रहे हैं। देखह = हम देखते हैं, हमारी आँखों के सामने। सुआमी = हे प्रभू! भाहि = आग। बलंती आई = जल रही है।3।

किसै = किसी का। प्रणवति = विनती करता है। देवहि = (नाम की दाति) दे। सखाई = मित्र, सहायक।4।

अर्थ: हे हरी! मुझे ये समझ नहीं थी कि (तेरे नाम के बिना) मेरी आत्मिक अवस्था नीचे चली जाएगी। हे प्रभू! मैं मूर्ख हूँ, अज्ञानी हूँ, (पर) तेरी शरण आया हूँ। हे प्रभू पति! मेहर कर (मुझे अपना नाम बख्श, और) मेरी इज्जत रख ले।1। रहाउ।

हे प्रभू! (तेरा नाम बिसार के) कोई मनुष्य मगधी प्राक्रित में लिखे हुए (संस्कृत के) बौध व जैन ग्रंथ पढ़ रहा है, कोई (तुझे भुला के) पुराण आदि पढ़ता है, कोई (किसी देवी-देवते को सिद्ध करने के लिए) माला से (देवते के) नाम का जाप करता है, कोई समाधि लगाए बैठा है। पर हे प्रभू! मैं सिर्फ तेरे नाम को पहचानता हूँ (तेरे नाम से ही सांझ डालता हूँ), मैं कभी भी (तेरे नाम के बिना) कोई और उद्यम (ऐसा) नहीं समझता (जो आत्मिक जीवन को ऊँचा कर सके)।1।

(तेरे नाम को बिसार के जीव लोभ में फंस जाता है) कभी (जब माया मिलती है धन मिलता है) जीव (बड़ा ही खुश होता है, मानो) आकाश में जा चढ़ता है, कभी (जब धन की कमी हो जाती है, तब बहुत डावाँडोल हो जाता है, जैसे) पाताल में जा गिरता है। लोभ-वश हुआ जीव अडोल-चिक्त नहीं रह सकता, चारों तरफ (माया की) तलाश करता फिरता है।2।

हे माँ! जीव जगत में (ये लेख माथे पर) लिखा के लाते हैं (कि) मौत (अवश्य आएगी, पर तुझे बिसार के यहाँ सदा) जीते रहने की विउंते बनाते हैं। हे मालिक प्रभू! हमारी आँखों के सामने ही अनेकों जीव (यहाँ से) चलते जा रहे हैं, (मौत की) आग जल रही है (इसमें सबके शरीर भस्म हो जाने हैं, पर नाम से टूट के जीव हमेशा जीवन ही लोचते फिरते हैं)।3।

हे प्रभू! ना किसी का कोई मित्र, ना किसी का कोई भाई, ना किसी का कोई पिता ना किसी की माँ (आखिर में कोई किसी का साथ नहीं निभा सकता)। नानक (तेरे दर पर) विनती करता है- यदि तू (अपने नाम की दाति) दे, तो (सिर्फ यही) आखिर में सहायक हो सकता है।4।1।

रामकली महला १ ॥ सरब जोति तेरी पसरि रही ॥ जह जह देखा तह नरहरी ॥१॥ जीवन तलब निवारि सुआमी ॥ अंध कूपि माइआ मनु गाडिआ किउ करि उतरउ पारि सुआमी ॥१॥ रहाउ ॥ जह भीतरि घट भीतरि बसिआ बाहरि काहे नाही ॥ तिन की सार करे नित साहिबु सदा चिंत मन माही ॥२॥ आपे नेड़ै आपे दूरि ॥ आपे सरब रहिआ भरपूरि ॥ सतगुरु मिलै अंधेरा जाइ ॥ जह देखा तह रहिआ समाइ ॥३॥ अंतरि सहसा बाहरि माइआ नैणी लागसि बाणी ॥ प्रणवति नानकु दासनि दासा परतापहिगा प्राणी ॥४॥२॥ {पन्ना 876}

पद्अर्थ: सरब = सभ जीवों में। पसरि रही = व्यापक है। देखा = मैं देखूँ। जह जह = जहाँ जहाँ। नरहरी = हे परमात्मा!।1।

तलब = ख्वाहिशें, बढ़ी हुई जरूरतें। सुआमी = हे मालिक प्रभू! कूपि = कूएं में। गाडिआ = फसा हुआ, गिरा हुआ। किउ करि = किस तरीके से? किसी तरह भी नहीं।1। रहाउ।

घट = हृदय। भीतरि = अंदर। काहे नाही = क्यों नहीं, अवश्य। सार = संभाल। चिंत = चिंता, ध्यान। माही = में।2।

अंधेरा = माया के अंधे कूएं का अंधकार।3।

सहसा = सहम। नैणी = आँखों में। लागसि = अगर लगती रही। बाणी = सुंदरता की खींच। प्राणी = हे जीव! परतापहिगा = दुखी होगा।4।

अर्थ: हे मालिक प्रभू! मेरी जिंदगी की बढ़ती हुई ख्वाहिशें दूर कर। मेरा मन माया के अंधे कूएं में फंसा है, (तेरी सहायता के बिना) मैं इसमें से किसी भी तरह से पार नहीं लांघ सकता।1। रहाउ।

हे परमात्मा! सभ जीवों में तेरी ज्योति चमक रही है (पर मुझे नहीं दिखती क्योंकि मैं माया के अंधे कूएं में गिरा हुआ हूँ। मेहर कर, मुझे अंध-कूप में से निकाल ता कि) जिधर-जिधर मैं देखूँ उधर-उधर (मुझे तू ही दिखे)।1।

जिन लोगों के हृदय में परमात्मा की ज्योति प्रकट हो जाती है, उनको बाहर भी (हर जगह) जरूर वही दिखाई देता है (उनको ये यकीन बन जाता है कि) मालिक-प्रभू उनकी सदा संभाल करता है, उसके मन में सदा (उनकी संभाल की) चिंता है।2।

परमात्मा स्वयं ही सब जीवों के नजदीक बस रहा है, स्वयं ही (इनसे अलग) दूर भी है। प्रभू स्वयं सब जीवों में व्यापक है। यदि मुझे गुरू मिल जाए तो मेरा माया के अंध-कूप वाला अंधकार दूर हो जाए। फिर मैं जिधर-जिधर देखूँ उधर-उधर ही परमात्मा व्यापक दिखाई दे जाए।3।

प्रभू के सेवकों का सेवक नानक विनती करता है- हे जीव! जब तलक तेरी आँखों को बाहरी (दिखाई दे रही) माया की सुंदरता आकर्षित कर रही है, तब तलक तेरे अंदर सहम बना रहेगा और तू सदा दुखी रहेगा।4।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh