श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला १ ॥ जितु दरि वसहि कवनु दरु कहीऐ दरा भीतरि दरु कवनु लहै ॥ जिसु दर कारणि फिरा उदासी सो दरु कोई आइ कहै ॥१॥ किन बिधि सागरु तरीऐ ॥ जीवतिआ नह मरीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ दुखु दरवाजा रोहु रखवाला आसा अंदेसा दुइ पट जड़े ॥ माइआ जलु खाई पाणी घरु बाधिआ सत कै आसणि पुरखु रहै ॥२॥ किंते नामा अंतु न जाणिआ तुम सरि नाही अवरु हरे ॥ ऊचा नही कहणा मन महि रहणा आपे जाणै आपि करे ॥३॥ जब आसा अंदेसा तब ही किउ करि एकु कहै ॥ आसा भीतरि रहै निरासा तउ नानक एकु मिलै ॥४॥ इन बिधि सागरु तरीऐ ॥ जीवतिआ इउ मरीऐ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥३॥ {पन्ना 877}

पद्अर्थ: जितु = जिस में। दरि = दर में। जितु दरि = जिस जगह में। वसहि = (हे प्रभू!) तू बसता है। कवनु दरि = कौन सी जगह? दरा भीतरि दरु = जगहों में जगह, गुप्त जगह। कवनु लहै = कौन ढूँढ सकता है?, कोई विरला ही पा सकता है। फिरा = मैं फिरता हूँ। आइ = आ के। कहै = बताए।1।

किन बिधि = किन तरीकों से? नह मरीअै = मरा नहीं जा सकता।1। रहाउ।

रोहु = रोष, क्रोध। रखवाला = दरबान। अंदेसा = फिक्र, चिंता। पट = भिक्त, तख़्ते। माइआ जलु = माया की चमक। पाणी = विषौ विकारों के पानी में। सत = शांति, सहज अवस्था। आसणि = आसन पर। पुरखु = व्यापक प्रभू।2।

किंते = कितने ही। सरि = बराबर। हरे = हे हरी! उचा = ऊँचा बोल के। आपे = प्रभू आप ही।3।

अंदेसा = सहम, चिंता। किउ करि = कैसे? निरासा = आशा से निर्लिप। तउ = तब।4।

अर्थ: (हमारे और परमात्मा के बीच संसार-समुंद्र दूरियां बनाए हुए है। जब तक संसार-समुंद्र से पार नहीं लांघते, तब तक उसको मिला नहीं जा सकता) संसार-समुंद्र से पार किन तरीकों से लांघें? जीते हुए मरा नहीं जा सकता (और, जब तक जीते हुए मर ना जाएं, तब तक संसार-समुंद्र तैरा नहीं जा सकता)।1। रहाउ।

(संसार-समुंद्र से पार, हे प्रभू!) जिस जगह पर तू बसता है (संसार-समुंद्र में फंसे हुए जीवों से) उस जगह का बयान नहीं किया जा सकता, (माया में ग्रसित जीवों को उस जगह की समझ ही नहीं पड़ सकती), कोई विरला ही जीव उस गुप्त जगह को पा सकता है। (जहाँ प्रभू बसता है) उस जगह की प्राप्ति के लिए मैं (चिरों से) तलाश करता फिरता हूँ, (मेरा मन लोचता है कि) कोई (गुरमुख) आ के मुझे वह जगह बताए।1।

सर्व-व्यापक प्रभू सहज अवस्था के आसन पर (मनुष्य के हृदय में एक ऐसे घर में) बैठा हुआ है (जिसके बाहर) दुख दरवाजा है, क्रोध रखवाला है, आशा और सहम (उस दुख-दरवाजे पर) दो भिक्त (पर्दे) लगे हुए हैं। माया के प्रति आर्कषण उसके चारों तरफ़, जैसे, खाई (खुदी हुई) है (जिसमें विषौ-विकारों का पानी भरा हुआ है, उस) पानी में (मनुष्य का हृदय-) घर बना हुआ है।2।

(एक तरफ जीव माया में घिरे हुए हैं, दूसरी तरफ़, हे प्रभू! चाहे) तेरे कई नाम हैं, पर किसी नाम के द्वारा तेरे सारे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। हे हरी! तेरे बराबर का कोई और नहीं है। (मन के ऐसे भाव) ऊँचे बोल के बताने की भी आवश्यक्ता नहीं है, अंतरात्मे ही टिके रहना चाहिए। सर्व-व्यापक प्रभू सबके दिलों की स्वयं ही जानता है, (सबके अंदर प्रेरक हो के) खुद ही (सब कुछ) कर रहा है।3।

जब तक (जीव के मन में माया की) आशाएं हैं, तब तक सहम-चिंताएं हैं (सहम और फिकर में रह के) किसी भी तरह जीव एक परमात्मा को सिमर नहीं सकता। पर, हे नानक! जब मनुष्य आशाओं में रहता हुआ ही आशाओं से निर्लिप हो जाता है तब (इसको) परमात्मा मिल जाता है।4।

(माया में रहते हुए माया से निर्लिप रहना है, बस!) इन तरीकों से ही संसार-समुंद्र से पार लांघा जा सकता है, और इसी तरह से जीते हुए मरा जाता है।1। रहाउ दूजा।3।

रामकली महला १ ॥ सुरति सबदु साखी मेरी सिंङी बाजै लोकु सुणे ॥ पतु झोली मंगण कै ताई भीखिआ नामु पड़े ॥१॥ बाबा गोरखु जागै ॥ गोरखु सो जिनि गोइ उठाली करते बार न लागै ॥१॥ रहाउ ॥ पाणी प्राण पवणि बंधि राखे चंदु सूरजु मुखि दीए ॥ मरण जीवण कउ धरती दीनी एते गुण विसरे ॥२॥ सिध साधिक अरु जोगी जंगम पीर पुरस बहुतेरे ॥ जे तिन मिला त कीरति आखा ता मनु सेव करे ॥३॥ कागदु लूणु रहै घ्रित संगे पाणी कमलु रहै ॥ ऐसे भगत मिलहि जन नानक तिन जमु किआ करै ॥४॥४॥ {पन्ना 877}

पद्अर्थ:

नोट: जोगी गृहस्ती के दर पर जाकर आवाज मारता है, फिर सिंज्ञी बजाता है और झोली में भिक्षा डलवा लेता है।

सुरति = प्रभू चरणों में ध्यान। सबदु = सदाअ, आवाज, जोगी वाली सदाअ। साखी = साक्षी होना, परमात्मा के साक्षात दर्शन करना। सिंङी = सींग का बाजा जो जोगी बजाता है। लोकु सुणे = (जो प्रभू) सारे जगत की सुनता है, जो प्रभू सारे जगत की सदाअ सुनता है। पतु = पात्र, अपने आप को योग पात्र बनाना। कै ताई = वास्ते। भीखिआ = भिक्षा।1।

बाबा = हे जोगी! जिनि = जिस (गोरख) ने। गोइ = सृष्टि, धरती। उठाली = पैदा की है। करते = पैदा करने वाले को। बार = देर।1। रहाउ।

पाणी पवणि = पानी और पवन (आदि तत्वों के समुदाय) में। बंधि = बाँध के। प्राण = जिंद, जीवात्मा। मुखि = मुखी। दीऐ = दीपक। मरण जीवण कउ = बसने के लिए। ऐते = इतने, ये सारे।2।

सिध = (योग साधना में) पहुँचे हुए जोगी। साधिक = साधना करने वाले। जंगम = शैवमत के जोगी जो सिर पर सांप की शक्ल की रस्सी और धातु का चंद्रमा पहनते हैं और कानों में मुंद्रा की जगह पीतल के फूल मोर के पंखों के साथ सजा के पहनते हैं। बहुतेरे = अनेकों। तिन = उनको। मिला = मैं मिलूँ। कीरति = सिफत सालाह। आखा = मैं कहूँ।3।

रहै = टिका रहता है, गलता नहीं। घ्रित = घी। संगे = साथ। अैसे = इस तरह। किआ करै = कुछ बिगाड़ नहीं सकता।4।

अर्थ: हे जोगी! (मैं भी गोरख का चेला हूँ, पर मेरा) गोरख (सदा जीता-) जागता है। (मेरा) गोरख वह है जिसने सृष्टि पैदा की है, और पैदा करते हुए समय नहीं लगता।1। रहाउ।

(जो प्रभू सारे) जगत को सुनता है (भाव, सारे जगत की सदाअ सुनता है) उसके चरणों में सुरति जोड़नी मेरी सदाअ है, उसको अपने अंदर साक्षात देखना (उसके दर पर) मेरी सिंगी बज रही है। (उसके दर से भिक्षा) मांगने के लिए अपने आप को योग्य पात्र बनाना, (ये) मैंने (कंधे पर) झोली डाली हुई है, ता कि मुझे नाम-भिक्षा मिल जाए।1।

(जिस परमात्मा ने) पानी-पवन (आदि तत्वों) में (जीवों के) प्राण टिका के रख दिए हैं, सूर्य और चंद्रमा मुखी दीए बनाए हैं, बसने के लिए (जीवों को) धरती दी है (जीवों ने उसको भुला के उसके) इतने उपकार बिसार दिए हैं।2।

जगत में अनेकों जंगम-जोगी पीर जोग-साधना में सिद्ध हुए जोगी और अन्य साधन करने वाले देखने में आते हैं, पर मैं तो यदि उन्हें मिलूँगा तो (उनसे मिलके) परमात्मा की सिफत-सालाह ही करूँगा (मेरा जीवन-उद्देश्य यही है) मेरा मन प्रभू का सिमरन ही करेगा।3।

जैसे नमक घी में पड़ा गलता नहीं, जैसे कागज़ घी में रखा गलता नहीं, जैसे कमल फूल पानी में रहने से कुम्हलाता नहीं, इसी तरह, हे दास नानक! भक्त जन परमात्मा के चरणों में मिले रहते हैं, यम उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता।4।4।

रामकली महला १ ॥ सुणि माछिंद्रा नानकु बोलै ॥ वसगति पंच करे नह डोलै ॥ ऐसी जुगति जोग कउ पाले ॥ आपि तरै सगले कुल तारे ॥१॥ सो अउधूतु ऐसी मति पावै ॥ अहिनिसि सुंनि समाधि समावै ॥१॥ रहाउ ॥ भिखिआ भाइ भगति भै चलै ॥ होवै सु त्रिपति संतोखि अमुलै ॥ धिआन रूपि होइ आसणु पावै ॥ सचि नामि ताड़ी चितु लावै ॥२॥ नानकु बोलै अम्रित बाणी ॥ सुणि माछिंद्रा अउधू नीसाणी ॥ आसा माहि निरासु वलाए ॥ निहचउ नानक करते पाए ॥३॥ प्रणवति नानकु अगमु सुणाए ॥ गुर चेले की संधि मिलाए ॥ दीखिआ दारू भोजनु खाइ ॥ छिअ दरसन की सोझी पाइ ॥४॥५॥ {पन्ना 877}

पद्अर्थ: माछिंद्रा = हे माछिंद्र जोगी! वसगति = वश में। पंच = कामरदिक पाँच विकार। जोग कउ पाले = योग का साधन करे, जोग को संभाले।1।

अउधूतु = विरक्त साधू, जिसने माया के प्रभाव को परे हटा दिया है (धू = हिलाना। अव = धू = हिला के परे फेंक देना)। अहि = दिन। निसि = रात। सुंनि = शून्य में। सुंन = वह अवस्था जहाँ माया की ओर से शून्य हो, जहाँ माया के फुरने ना उठें।1। रहाउ।

भिखिआ = भिक्षा। भाइ = भाय, प्रेम में। भाउ = प्रेम। भै = परमात्मा के भय में, डर अदब में। चलै = चले, जीवन गुजारे। संतोखि = संतोष से। संतोखि अमुलै = अमूल्य संतोष से। रूपि = रूप वाला। धिआन रूपि होइ = प्रभू के ध्यान में एक मेक हो के। आसणु पावै = आसन बिछाए। सचि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू में। नामि = नाम में।2।

अंम्रित बाणी = अमर करने वाली वाणी, आत्मिक जीवन देने वाली बाणी। अउधू नीसाणी = विरक्त साधू के लक्षण। निरासु = माया की उम्मीदों से उपराम। वलाऐ = जीवन का समय गुजारे। निहचउ = निश्चय ही, यकीनन, ये बात पक्की समझो।3।

अगमु = वह प्रभू जिस तक मनुष्य की अक्ल की पहुँच ना हो सके। संधि = मिलाप। दीखिआ = दीक्षा, शिक्षा। दरसन = भेख। सोझी पाइ = असलियत समझ लेता है।4।

अर्थ: (हे माछिंद्र! दरअसल) विरक्त वह है जिसे ये समझ आ जाती है कि वह दिन-रात ऐसे आत्मिक ठहराव में बना रहता है जहाँ माया के फुरनों की ओर से शून्य ही शून्य होता है।1। रहाउ।

नानक कहता है- हे माछिंद्र! सुन। (असल विरक्त कामादिक) पाँचों विकारों को अपने वश में किए रखता है (इनके सामने) वह कभी नहीं डोलता। वह विरक्त इस तरह की जीवन-जुगति को संभाल के रखता है, यही है उसका योग-साधन। (इस जुगति से वह) स्वयं (संसार-समुंद्र के विकारों में से) पार लांघ जाता है, और अपनी सारी कुलों को भी पार लंघा लेता है।1।

(हे माछिंद्र! असल विरक्त) परमात्मा के प्यार में भगती में और डर-अदब में जीवन व्यतीत करता है, ये है उसकी (आत्मिक) भिक्षा (जो वह प्रभू के दर से हासिल करता है। इस भिक्षा से उसके अंदर संतोष पैदा होता है, और) उस अमूल्य संतोष से वह तृपत रहता है (भाव, उसको माया की भूखा नहीं व्यापती)। (प्रभू के प्रेम और भगती की बरकति से वह विरक्त) प्रभू के साथ एक-रूप हो जाता है, इस लिव-लीनता का वह (अपनी आत्मा के लिए) आसन बिछाता है। सदा स्थिर रहने वाले प्रभू में, परमात्मा के नाम में वह अपना चिक्त जोड़ता है, यह (उस विरक्त की) ताड़ी है।2।

नानक कहता है- हे माछिंद्र! सुन। विरक्त के लक्षण ये हैं कि उस आत्मिक जीवन देने वाली सिफत-सालाह की बाणी की सहायता से दुनियावी आशाओं में रहता हुआ भी आशाओं से निर्लिप जीवन गुजारता है, और इस तरह, हे नानक! वह यकीनी तौर पर परमात्मा को पा लेता है।3।

नानक विनती करता है- (हे माछिंद्र! असल विरक्त) अपहुँच प्रभू की सिफत-सालाह स्वयं सुनता है और औरों को सुनाता है। (गुरू की शिक्षा पर चल के असल विरक्त) गुरू में अपना आप मिला देता है। गुरू की शिक्षा की आत्मिक खुराक खाता है, गुरू की शिक्षा की दवाई खाता है (जो उसके आत्मिक रोगों का इलाज करती है)। इस तरह उस विरक्त को छह ही भेषों की अस्लियत की समझ आ जाती है (भाव, उसे इन छह भेषों की आवश्यक्ता नहीं रह जाती)।4।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh