श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला १ ॥ हम डोलत बेड़ी पाप भरी है पवणु लगै मतु जाई ॥ सनमुख सिध भेटण कउ आए निहचउ देहि वडिआई ॥१॥ गुर तारि तारणहारिआ ॥ देहि भगति पूरन अविनासी हउ तुझ कउ बलिहारिआ ॥१॥ रहाउ ॥ सिध साधिक जोगी अरु जंगम एकु सिधु जिनी धिआइआ ॥ परसत पैर सिझत ते सुआमी अखरु जिन कउ आइआ ॥२॥ जप तप संजम करम न जाना नामु जपी प्रभ तेरा ॥ गुरु परमेसरु नानक भेटिओ साचै सबदि निबेरा ॥३॥६॥ {पन्ना 878}

पद्अर्थ: हम = मैं। डोलत = डोल रहा हूँ, डर रहा हूँ। बेड़ी = जिंदगी की नौका। पवणु = हवा (का बुल्ला), माया की आंधी। मतु जाई = कहीं डूब ना जाए। सनमुख आऐ = (हे गुरू!) तेरे सामने आया हूँ, तेरे दर पर आया हूँ। सिध भेटण कउ = परमात्मा को मिलने के लिए। निहचउ = जरूर। देहि वडिआई = सिफत सालाह (की दाति) दे।1।

गुर = हे गुरू! पूरन = सर्व व्यापक। हउ = मैं। बलिहारिआ = कुर्बान।1। रहाउ।

अरु = और। ऐकु सिधु = एक परमात्मा। परसत पैर = चरण छू के। सिझत = सफल हो जाते हैं। सुआमी = मालिक प्रभू के। अखरु = उपदेश, शिक्षा।2।

ना जाना = मैं नहीं पहचानता, मैं ज्यादा नहीं समझता। जपी = मैं जपता हूँ। भेटिओ = मिल गया। सबदि = (गुरू के) शबद से। निबेड़ा = (सारे किए कर्मों का) लेखा निबड़ जाता है।3।

अर्थ: (संसार-समुंद्र की विकारों की लहरों में से) उद्धार करने वाले हे गुरू! मुझे (इन लहरों में से) पार लंघा ले। सदा कायम रहने वाले और सर्व-व्यापक परमात्मा की भक्ति (की दाति) मुझे दे। मैं तुझसे सदके जाता हूँ।1। रहाउ।

(हे गुरू!) मेरी जिंदगी की बेड़ी पापों से भरी हुई है, माया का झक्खड़ झूल रहा है, मुझे डर लग रहा है कि कहीं (मेरी बेड़ी) डूब ना जाए। (अच्छा हूँ बुरा हूँ) परमात्मा को मिलने के लिए (प्रभू के चरणों में जुड़ने के वास्ते) मैं शर्म उतार के तेरे दर पर आ गया हूँ। हे गुरू! मुझे अवश्य सिफत-सालाह की दाति दे।1।

जिनको गुरू का उपदेश मिल जाता है वे मालिक-प्रभू के चरण छू के (जिंदगी की बाज़ी में) कामयाब हो जाते हैं, वे एक परमात्मा को अपने चिक्त में बसाते हैं, वही हैं दरअसल, सिद्ध, साधिक, जोगी और जंगम।2।

हे प्रभू! (जन्मों-जन्मांतरों से किए कर्मों का लेखा निपटाने के लिए) मैं किसी जप तप संजम वगैरा धार्मिक कर्म को संपूर्ण नहीं समझता। मैं तेरा नाम ही सिमरता हूँ।

हे नानक! जिसको गुरू मिल जाता है उसको परमात्मा मिल जाता है (क्योंकि) गुरू के सच्चे शबद से उसके जन्मों-जन्मांतरों के किए कर्मों का लेखा निबड़ जाता है।3।6।

रामकली महला १ ॥ सुरती सुरति रलाईऐ एतु ॥ तनु करि तुलहा लंघहि जेतु ॥ अंतरि भाहि तिसै तू रखु ॥ अहिनिसि दीवा बलै अथकु ॥१॥ ऐसा दीवा नीरि तराइ ॥ जितु दीवै सभ सोझी पाइ ॥१॥ रहाउ ॥ हछी मिटी सोझी होइ ॥ ता का कीआ मानै सोइ ॥ करणी ते करि चकहु ढालि ॥ ऐथै ओथै निबही नालि ॥२॥ आपे नदरि करे जा सोइ ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोइ ॥ तितु घटि दीवा निहचलु होइ ॥ पाणी मरै न बुझाइआ जाइ ॥ ऐसा दीवा नीरि तराइ ॥३॥ डोलै वाउ न वडा होइ ॥ जापै जिउ सिंघासणि लोइ ॥ खत्री ब्राहमणु सूदु कि वैसु ॥ निरति न पाईआ गणी सहंस ॥ ऐसा दीवा बाले कोइ ॥ नानक सो पारंगति होइ ॥४॥७॥ {पन्ना 878}

नोट: कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि को हिन्दू सि्त्रयां आटे के दीए बना के तुलहे पर चढ़ कर नदी में तैराती हैं।

पद्अर्थ: सुरती = जिस में सुरति जोड़ी जाती है, परमातमा। ऐतु = इस (मनुष्य जन्म) में। करि = बना। तुलहा = नदी पार करने के लिए रस्सों से बँधा हुआ लकड़ी की शतीरियों आदि का गॅठा। जेतु = जिस (तुलहे) से। भाहि = आग, ब्रहमाग्नि, ईश्वरीय ज्योति। अहि = दिन। निसि = रात। अथकु = ना थकने वाला, लगातार।1।

नीरि = पानी पर। जितु दीवै = जिस दीए से। सभ सोझी पाइ = (सब सोझी पाय) सब कुछ दिखाई दे सके।1। रहाउ।

सोझी = समझ, बुद्धि। ता की = उस (मिट्टी) का बनाया हुआ (दीया)। मानै = प्रवान करता है, मानता है। सोइ = (सोय) वह परमात्मा। करणी = उच्च आचरण। ते = से। चकहु = चॅक से (चॅक है कुम्हार का लकड़ी का बना हुआ चक्का, जिस पर वह मिट्टी के बर्तन बनाता है)। करि = (चॅक) बना के।2।

गुरमुखि = गुरू की ओर मुँह करके, गुरू के बताए हुए राह पर चल के। तितु = उसमें। घटि = हृदय में। निहचलु = टिका हुआ। मरै न = डूबता नहीं।3।

वाउ = हवा। न वडा होइ = (न वडा होय) बुझता नहीं। जापै = दिखाई दे जाता है। जिउ = ज्यों का त्यों, प्रत्यक्ष। सिंघासन पर, हृदय तख़्त पर। लोइ = (लोय) (दीपक की) लौ से। कि = चाहे। निरति = निर्णय, गिनती। गणी = अगर मैं गिनूँ। सहंस = हजारों (जातियां)। कोइ = (कोय) कोई भी मनुष्य, किसी भी जाति का मनुष्य। पारंगति = (संसार समुंद्र से) पार लंघा सकने वाली आत्मिक अवस्था वाला। गति = आत्मिक अवस्था। पारंगति = वह जिसकी आत्मिक अवस्था पार लंघाने वाली हो गई है।4।

अर्थ: ( हे भाई!) तू पानी पर ऐसा दीया तैरा जिस दीपक से (जिस दीपक के प्रकाश से) तुझे जीवन-यात्रा की सारी गुंझलों की समझ पड़ जाए।1। रहाउ।

(पहले तो) इस मनुष्य-जन्म में परमात्मा (के चरणों) में सुरति जोड़नी चाहिए। शरीर को (विकारों के भार से बचा के हल्का फूल कर ले, ऐसे शरीर को) तुलहा बना, जिस (शरीर) की सहायता से तू (संसार-समुंद्र की विकारों की लहरों में से) पार लांघ सकेगा। तेरे (अपने) अंदर ब्रहमाग्नि (ब्रहम+अग्नि, ईश्वरीय ज्योति) है, उसको (संभाल के) रख, (इस तरह तेरे अंदर) दिन-रात लगातार (ज्ञान का) दीया जलता रहेगा।1।

(अगर सही जीवन-जुगति को समझने वाली) सद्-बुद्धि की मिट्टी हो, उस मिट्टी का बना हुआ दीया परमात्मा स्वीकार करता है। (हे भाई!) ऊँचे आचरण (की लकड़ी) से (चक्का) बना के (उस) चक्के से (दीया) घड़। यह दीया इस लोक में और परलोक में तेरा साथ निभाएगा (जीवन-राह में तेरी राहबरी करेगा)।2।

जब प्रभू खुद ही मेहर की नज़र करता है तब मनुष्य (इस आत्मिक दीए के भेद को) समझ लेता है, पर समझता कोई विरला है जो गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलता है। ऐसे मनुष्य के हृदय में (ये आत्मिक) दीया टिका (रह के जलता रहता) है। (यह आत्मिक जीवन की रौशनी देने वाला दीया) ना पानी में डूबता है और ना ही किसी चीज से बुझाया जा सकता है।

हे भाई! तू भी ऐसा ही (आत्मिक जीवन देने वाला) दीया (रोजाना जीवन की नदी के) पानी में तैरा।3।

(फिर कितने ही विकारों के) तूफान आएं, ये (आत्मिक जीवन देने वाला दीया) डोलता नहीं, यह (आत्मिक दीया) बुझता नहीं। (इस दीए की) (रौशनी से) हृदय-सिंहासन पर बैठा हुआ परमात्मा प्रत्यक्ष दिखाई देने लगता है।

कोई क्षत्रिय हो, ब्राहमण हो, शूद्र हो, चाहे वैश्य हो, (सिर्फ ये चार वर्ण ही नहीं) यदि मैं हजारों ही जातियाँ गिनता जाऊँ जिनकी गिनती का लेखा खत्म ही ना हो सके- (इन वर्ण-जातियों में पैदा हुए) जो भी जीव इस तरह का (आत्मिक प्रकाश देने वाला) दीया जगाएगा, हे नानक! उसकी आत्मिक अवस्था ऐसी बन जाएगी कि वह संसार-समुंद्र की लहरों में से सही-सलामत पार लांघ जाएगा।4।7।

रामकली महला १ ॥ तुधनो निवणु मंनणु तेरा नाउ ॥ साचु भेट बैसण कउ थाउ ॥ सतु संतोखु होवै अरदासि ॥ ता सुणि सदि बहाले पासि ॥१॥ नानक बिरथा कोइ न होइ ॥ ऐसी दरगह साचा सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ प्रापति पोता करमु पसाउ ॥ तू देवहि मंगत जन चाउ ॥ भाडै भाउ पवै तितु आइ ॥ धुरि तै छोडी कीमति पाइ ॥२॥ जिनि किछु कीआ सो किछु करै ॥ अपनी कीमति आपे धरै ॥ गुरमुखि परगटु होआ हरि राइ ॥ ना को आवै ना को जाइ ॥३॥ लोकु धिकारु कहै मंगत जन मागत मानु न पाइआ ॥ सह कीआ गला दर कीआ बाता तै ता कहणु कहाइआ ॥४॥८॥ {पन्ना 878}

नोट: किसी राजा बादशाह के दरबार में कोई सवाली जाता है तो पहले सिर झुकाता है, फिर कोई भेटा पेश करता है। तब राज-दरबार में उसे बैठने के लिए जगह मिलती है, आदर मिलता है।

पद्अर्थ: तुध नो = तुझे, तेरे आगे। निवणु = सिर झुकाना। मंनणु = पतीजना, गहरी सांझ डालनी। साचु = सिफत सालाह। बैसण कउ = बैठने के लिए। सतु = दान, सेवा। सुणि = सुन के। सदि = बुला के।1।

बिरथा = खाली।1। रहाउ।

पोता = खजाना। करमु = बख्शिश। पसाउ = प्रसाद, कृपा। चाउ = चाव। भांडै = बर्तन में, हृदय में। भाउ = प्रेम। तितु = उस में। तितु भांडै = उस हृदय में। धुरि = धुर से, अपने दर से। तै = तू। कीमति = कद्र। पाइ छोडी = (पाय छोडी) डाल दी है।2।

जिनि = जिस (परमात्मा) ने। सो = वही परमात्मा। कीमति = कद्र। धरै = (जीव के हृदय में) टिकाता है। गुरमुखि = जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होता है।3।

लोकु = जगत। धिकारु = धिक्कार। मागत = मांगते हुए। मानु = इज्जत। सह कीआ = पति प्रभू की। तै ता = तू स्वयं ही। कहणु = बोल।4।

अर्थ: हे नानक! परमात्मा की दरगाह ऐसी है, वही सदा कायम रहने वाला परमात्मा खुद भी ऐसा है कि (उसकी हजूरी में पहुँच के) कोई (सवाली) खाली नहीं मुड़ता।1। रहाउ।

(हे प्रभू!) तेरे नाम से गहरी सांझ डालनी तेरे आगे सिर झुकाना है, तेरी सिफत-सालाह (तेरे दर पर मंजूर होने वाली) भेट है (जिसकी बरकति से तेरी हजूरी में) बैठने के लिए जगह मिलती है।

(हे भाई!) जब मनुष्य संतोष रखता है, (दूसरों की) सेवा करता है (और इस जीवन-मर्यादा में रह के प्रभू-दर से) अरदास करता है, तब (अरदास) सुन के (सवाली को) बुला के प्रभू अपने पास बैठाता है।1।

हे प्रभू! जिस मनुष्य पर तेरी मेहर हो जिस पर तू बख्शिश करे उसको तेरे नाम का खजाना मिलता है। मुझ मंगते की भी यही तमन्ना है कि तू मुझे अपने नाम की दाति दे (ता कि मेरे हृदय में तेरे चरणों का प्यार पैदा हो)।

हे प्रभू! सिर्फ उस हृदय में तेरे चरणों का प्रेम पैदा होता है जिसमें तूने खुद ही अपने दर से इस प्रेम की कद्र डाल दी है।2।

जिस परमात्मा ने यह जगत रचना बनाई, जीवों के हृदय में प्रेम की खेल भी वह खुद ही खेलता है। जीवों के दिल में अपने नाम की कद्र भी वह खुद ही टिकाता है।

परमात्मा गुरू के माध्यम से (जीव के हृदय में) प्रकट होता है, (जिसके अंदर प्रकट होता है उसे ये समझ आ जाती है कि परमात्मा खुद ही जीव-रूप हो के जगत में आता है और फिर चला जाता है, उसके बिना) ना कोई आता है और ना ही कोई जाता है।3।

(जब कोई भिखारी किसी से कुछ मांगता है, तो आमतौर पर) भिखारी को जगत धिक्कारता ही है, मांगने वाले को आदर नहीं मिला करता। पर, हे पति प्रभू! तूने अपने उदार-चिक्त होने की बातें और अपने दर की मर्यादा की बातें कि तेरे दर से कोई ख़ाली नहीं जाता तूने खुद ही मेरे मुँह से कहलवाई हैं (तेरे दर पर सवाली को आदर भी मिलता है और मुँह-मांगी मुरादें भी)।4।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh