श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला १ ॥ सागर महि बूंद बूंद महि सागरु कवणु बुझै बिधि जाणै ॥ उतभुज चलत आपि करि चीनै आपे ततु पछाणै ॥१॥ ऐसा गिआनु बीचारै कोई ॥ तिस ते मुकति परम गति होई ॥१॥ रहाउ ॥ दिन महि रैणि रैणि महि दिनीअरु उसन सीत बिधि सोई ॥ ता की गति मिति अवरु न जाणै गुर बिनु समझ न होई ॥२॥ पुरख महि नारि नारि महि पुरखा बूझहु ब्रहम गिआनी ॥ धुनि महि धिआनु धिआन महि जानिआ गुरमुखि अकथ कहानी ॥३॥ मन महि जोति जोति महि मनूआ पंच मिले गुर भाई ॥ नानक तिन कै सद बलिहारी जिन एक सबदि लिव लाई ॥४॥९॥ {पन्ना 878-879}

पद्अर्थ: सागरु = समुंद्र। सागर महि = समुंद्र में।

(नोट: शब्द 'सागरु' और 'सागर' के जोड़ों में फर्क देखें। क्यों है ये फर्क?)।

कवणु = कोई विरला। उतभुज चलत = उतभुज (आदि चार खाणियों के द्वारा उत्पक्ति) का तमाशा। करि = कर के, बना के। चीनै = पहचानता है। आपे = (प्रभू) खुद ही। ततु = अस्लियत।1।

कोई = कोई विरला। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। तिस ते = उस से, उस परमात्मा से, उस परमात्मा की सिफत सालाह से। मुकति = विकारों से मुक्ति। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। होई = हो जाती है।1। रहाउ।

रैणि = रात। दिनीअरु = दिनकर, सूरज। उसन = ऊष्णता, गर्मी। सीत = ठंढ। बिधि = तरीका, जुगति। ता की = उस (परमात्मा) की। गति = हालत। मिति = माप, मर्यादा। ता की गति मिति = वह परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा है।2।

ब्रहम गिआनी = हे ब्रहम के ज्ञान वाले! हे परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाले! धुनि = सिफत सालाह के शबद। धिआनु = सुरति। अकथ कहानी = अकथ की कहानी, बेअंत प्रभू की सिफत सालाह। गुरमुखि = गुरू के द्वारा।3।

पंच = पाँचों ज्ञानेन्द्रियां। गुर भाई = एक ही गुरू वाले। मिले = इकट्ठे हो गए, एक जगह टिक गए, भटकने से हट गए। तिन कै = उनसे। सद = सदा। ऐक सबदि = एक प्रभू की सिफत सालाह की बाणी में।4।

अर्थ: (जैसे) समुंद्र में बूँदें हैं (जैसे) बूँदों में समुंद्र व्यापक है (वैसे ही सारे जीव-जंतु परमात्मा में जीते हैं और सारे जीवों में परमात्मा व्यापक है) उत्भुज (आदि चार खाणियों- अण्डज, जेरज, सेतज व उत्भुज- के द्वारा उत्पक्ति) का तमाशा रच के प्रभू स्वयं ही देख रहा है, और स्वयं ही इस अस्लियत को समझता है - कोई विरला मनुष्य ही इस भेद को जान पाता है और विधि (के विधान) को समझता है।1।

उस (सरब-सृजनहार के सर्व-व्यापक प्रभू की सिफत-सालाह) की बरकति से मनुष्य को विकारों से मुक्ति प्राप्त होती है और सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल होती है- ऐसा ज्ञान कोई विरला (गुरमुखि) ही विचारता है।1। रहाउ।

दिन (की रौशनी) में रात (का अंधकार) लीन हो जाता है, रात (के अंधेरे) में सूरज (का प्रकाश) खत्म हो जाता है। यही हालत है गर्मी की और ठंड की (कभी गर्मी और कभी ठंड, कहीं गर्मी है तो कहीं ठंड) - (ये सारी खेल उस परमात्मा की कुदरत की है)। वह परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा है (परमात्मा के बिना) कोई और नहीं जानता। गुरू के बिना ये समझ नहीं आती (कि अकाल-पुरख बेअंत है और अकथनीय है)।2।

हे परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाले! देख आश्चर्यजनक खेल कि मनुष्य के वीर्य से सि्त्रयां पैदा होती हैं और सि्त्रयों से मनुष्य पैदा होते हैं। परमात्मा की प्रकृति की कहानी बयान नहीं हो सकती। पर, जो मनुष्य गुरू के बताए हुए मार्ग पर चलता है वह प्रभू की सिफतसालाह की बाणी में अपनी सुरति जोड़ता है और उस सुरति में से परमात्मा के साथ जान-पहचान बना लेता है।3।

हे नानक! (कह-) मैं उन गुरमुखों पर से बलिहार जाता हूँ जिन्होंने परमात्मा की सिफत-सालाह की बाणी में सुरति जोड़ी है। उनके मन में अकाल-पुरख की ज्योति प्रकट हो जाती है, परमात्मा की याद में उनका मन सदा लीन रहता है, उनकी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ एक-ईष्ट वाली हो के भटकने से हट जाती हैं।4।9।

रामकली महला १ ॥ जा हरि प्रभि किरपा धारी ॥ ता हउमै विचहु मारी ॥ सो सेवकि राम पिआरी ॥ जो गुर सबदी बीचारी ॥१॥ सो हरि जनु हरि प्रभ भावै ॥ अहिनिसि भगति करे दिनु राती लाज छोडि हरि के गुण गावै ॥१॥ रहाउ ॥ धुनि वाजे अनहद घोरा ॥ मनु मानिआ हरि रसि मोरा ॥ गुर पूरै सचु समाइआ ॥ गुरु आदि पुरखु हरि पाइआ ॥२॥ सभि नाद बेद गुरबाणी ॥ मनु राता सारिगपाणी ॥ तह तीरथ वरत तप सारे ॥ गुर मिलिआ हरि निसतारे ॥३॥ जह आपु गइआ भउ भागा ॥ गुर चरणी सेवकु लागा ॥ गुरि सतिगुरि भरमु चुकाइआ ॥ कहु नानक सबदि मिलाइआ ॥४॥१०॥ {पन्ना 879}

पद्अर्थ: जा = जब। प्रभि = प्रभू ने। ता = तब। सेवकि = दासी। गुर सबदी = गुरू के शबद में जुड़ के। बीचारी = विचारवान, अच्छे बुरे की परख करने योग्य।1।

जनु = दास। प्रभ भावै = प्रभू को प्यारा लगता है। अहि = दिन। निसि = रात। लाज = लोक लाज। छोडि = छोड़ के।1। रहाउ।

धुनि = ध्वनि, आवाज, मीठी सुर। अनहद = (अन हद, अन हत, बिना बजाए बजने वाले) एक रस, लगातार। घोरा = गंभीर। रसि = रस में, आनंद में। मोरा = मेरा। गुर पूरै = पूरे गुरू से। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू।2।

सभि = सारे। नाद = जोगियों सिंगी आदि बाजे। बेद = हिन्दू मत की धर्म पुस्तक। सारिगपाणी = परमात्मा। तह = वहाँ, उस आत्मिक अवस्था में। गुर मिलिआ = (जो मनुष्य) गुरू को मिल गया।3।

जह = जिस हृदय में। आपु = स्वै भाव। गुरि = गुरू ने। सतिगुरि = सतिगुरू ने। भरमु = भटकना। सबदि = गुरू के शबद में।4।

अर्थ: परमात्मा का वह सेवक परमात्मा को प्यारा लगता है जो लोक-लाज (अहंकार) छोड़ के दिन-रात हर वक्त परमात्मा की भक्ति करता है, परमात्मा के गुण गाता है।1। रहाउ।

(पर, लोक-लाज छोड़नी कोई आसान खेल नहीं) जब हरी प्रभू ने खुद (किसी जीव पर) मेहर की, तब ही जीव ने अपने अंदर से अहंम को दूर किया। गुरू के शबद में जुड़ के जो (जीवात्मा-) दासी विचारवान हो गई (और अपने अंदर से लोकलाज मार सकी) वह दासी परमात्मा को अच्छी लगने लगी।1।

(मेरे पर गुरू ने मेहर की, मेरा मन गुरू के शबद में जुड़ा, अंदर ऐसा आनंद बना, मानो,) एक-रस बज रहे बाजों की गंभीर मीठी सुर सुनाई देने लग पड़ी। मेरा मन परमात्मा की सिफतसालाह के स्वाद में मगन हो गया है। पूरे गुरू के द्वारा सदा-स्थिर रहने वाला प्रभू (मेरे मन में) रच गया है, मुझे सबसे बड़ी हस्ती वाला सबका आदि सबमें व्यापक प्रभू मिल गया है।2।

गुरू की बाणी से जिस मनुष्य का मन परमात्मा (के प्यार) में रंगा जाता है उसको जोगियों के सिंगी आदि सारे बाजे व हिन्दू मत के वेद आदि धर्म-पुस्तकें सब गुरू की बाणी में ही आ जाते हैं ( भाव, गुरूबाणी के मुकाबले उसे इन चीजों की आवश्यक्ता नहीं रह जाती)। (जिस आत्मिक अवस्था में वह पहुँचता है) वहाँ सारे तीर्थ-स्नान, सारे व्रत और तप भी उसे मिले हुए के बराबर हो जाते हैं। जो मनुष्य गुरू को मिल जाता है उसको परमात्मा (संसार-समुंद्र में से) पार लंघा लेता है।3।

जिस हृदय में से स्वै भाव दूर हो गया, वहाँ से और सब डर-सहम भाग गए, वह सेवक गुरू के चरणों में लीन हो गया। हे नानक! कह- जिस मनुष्य को गुरू ने अपने शबद में जोड़ लिया, उसकी (माया आदि की सारी) भटकना गुरू ने दूर कर दी।4।10।

रामकली महला १ ॥ छादनु भोजनु मागतु भागै ॥ खुधिआ दुसट जलै दुखु आगै ॥ गुरमति नही लीनी दुरमति पति खोई ॥ गुरमति भगति पावै जनु कोई ॥१॥ जोगी जुगति सहज घरि वासै ॥ एक द्रिसटि एको करि देखिआ भीखिआ भाइ सबदि त्रिपतासै ॥१॥ रहाउ ॥ पंच बैल गडीआ देह धारी ॥ राम कला निबहै पति सारी ॥ धर तूटी गाडो सिर भारि ॥ लकरी बिखरि जरी मंझ भारि ॥२॥ गुर का सबदु वीचारि जोगी ॥ दुखु सुखु सम करणा सोग बिओगी ॥ भुगति नामु गुर सबदि बीचारी ॥ असथिरु कंधु जपै निरंकारी ॥३॥ सहज जगोटा बंधन ते छूटा ॥ कामु क्रोधु गुर सबदी लूटा ॥ मन महि मुंद्रा हरि गुर सरणा ॥ नानक राम भगति जन तरणा ॥४॥११॥ {पन्ना 879}

पद्अर्थ: छादनु = कपड़ा। मागतु भागै = मांगता फिरता है। खुधिआ = भूख। दुसट = बुरी, चंदरी। आगै = परलोक। पति = इज्जत। खोई = गवा ली। जनु कोई = कोई विरला मनुष्य।1।

जोगी जुगति = असल जोगी की रहत बहत। सहज = अडोलता, शांति। सहज घरि = शांति के घर में। द्रिसटि = नज़र, निगाह। ऐको करि = एक परमात्मा को ही व्यापक मान के। भीखिआ = भिक्षा (से)। भाइ = (भाय) प्रेम से। भाखिआ भाइ = प्रभू प्यार की भिक्षा से। सबदि = (गुरू के) शबद में (जुड़ के)। त्रिपतासै = (आत्मिक) भूख मिटाता है, अघाता है।1। रहाउ।

पंच बैल = (पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, जैसे) पाँच बैल हैं। गडीआ देह = शरीर गड्डा। धारी = आसरा दिया हुआ है, चला रहे हैं। राम कला = (सर्व व्यापक) प्रभू की सक्ता से, जब तक सर्व व्यापक प्रभू की ज्योति मौजूद है। निबहै = कायम रहती है, बनी रहती है। पति = इज्जत, आदर। धर = धुरा, आसरा। सिर भारि = सिर के बल पर (हो जाता है), गिर पड़ता है, नकारा हो जाता है। बिखरि = बिखर के, सक्ताहीन हो के। जरी = (गाड़ी) जल जाती है। मंझ = बीच के, गड्डे में के, गड्डे में लदे हुए। भारि = भार तले।2।

जोगी = हे जोगी! सम = बराबर, एक सा। सोग = किसी की मौत आदि का ग़म, निराशा भरा दुख। बिओग = विछोड़े में विरह, मिलने के चाहत, आशा से मिला हुआ दुख। भुगति = चूरमा, जोगियों का भण्डारा, भोजन। गुर सबदि = गुरू के शबद से। असथिरु = स्थिर, ठहरा हुआ, टिका हुआ। कंधु = शरीर, (इन्द्रियां)।3।

जगोटा = कमर पर बाँधा हुआ ऊन का रस्सा, ऊन की रस्सियों का गूंद के बनाया हुआ रस्सा जो फकीर कमर के चारों तरफ बाँधते हैं।4।

अर्थ: असल जोगी की रहिणी-बहिणी ये है कि वह अडोलता के घर में टिका रहता है (उसका मन सदा शांत रहता है)। वह समानता की नजर से (सब जीवों में) एक परमात्मा को ही रमा हुआ देखता है, गुरू के शबद में जुड़ के वह प्रेम-भिक्षा से अपनी (आत्मिक) भूख मिटाता है (अपने मन को तृष्णा से बचाए रखता है)।1। रहाउ।

(पर, जो जोगी) अन्न-वस्त्र (ही) मांगता फिरता है, यहाँ चंदरी भूख (की आग) में जलता रहता है (कोई आत्मिक पूँजी तो बनाता नहीं, इसलिए) आगे (परलोक में भी) दुख पाता है। जिस (जोगी) ने गुरू की मति नहीं ली उसने दुमर्ति में लग के अपनी इज्जत गवा ली।

कोई-कोई (भाग्यशाली) मनुष्य गुरू की शिक्षा पर चल कर परमात्मा की भक्ति का लाभ कमाता है।1।

मानस शरीर, जैसे, एक छोटी सी गाड़ी है, जिसको पाँच (ज्ञान-इन्द्रियों रूपी) बैल चला रहे हैं। जब तक इसमें सर्व-व्यापक प्रभू की ज्योति-सक्ता मौजूद है, इसका सारा आदर बना रहता है। (जैसे) जब गाड़ी का धुरा टूट जाता है तो गाड़ी सिर के बल उलट जाती है (नकारा हो जाती है), उसकी लकड़ियां बिखर जाती हैं (उसके अंग अलग-अलग हो जाते हैं), वह अपने ऊपर लदे हुए भार के तले ही दबा हुआ सड़-गल जाता है (वैसे ही जब गुरू-शबद की अगुवाई के बिना ज्ञान-इन्द्रियां मनमानी करने लगती हैं, मानस जीवन की सहज बढ़िया चाल उलट-पलट हो जाती है, सिमरन रूपी धुरा टूट जाता है, आत्मिक जीवन गिर पड़ता है, अपने ही किए कुकर्मों के भार तले मनुष्य जीवन की तबाही हो जाती है)। (जोगी इस भेद को समझने की जगह जोग-मति की जगोटा व मुंद्रें आदि बाहरी चिन्हों तक ही सीमित रह जाता है)।2।

हे जोगी! तू गुरू के शबद को समझ (उस शबद की अगुवाई में) दुख-सुख को, निराशा भरे ग़म और आशा भरे दुख को एक-समान बर्दाश्त करने (की जाच सीख)। गुरू के शबद में जुड़ के प्रभू के नाम को चिक्त में बसा- ये तेरा भण्डारा बने (ये तेरी आत्मा की खुराक बने)। निरंकार का नाम जप, (इसकी बरकति से) ज्ञान-इन्द्रियाँ डोलने से बची रहेंगी।3।

जिस जोगी ने मन की अडोलता को अपने कमर से बाँधने वाला ऊन का रस्सा बना लिया है, वह माया के बँधनों से बच गया है; गुरू के शबद में जुड़ के उसने काम-क्रोध आदि को अपने वश में कर लिया है। जो जोगी परमात्मा की शरण पड़ा रहता है उसने (कानों में मुंद्राएं पहनने की जगह) मन में मुंद्राएं पहन ली हैं (मन को विकारों से बचा लिया है)। हे नानक! (संसार-समुंद्र के विकारों की बाढ़ में से) वही मनुष्य पार लांघते हैं जो परमात्मा की भक्ति करते हैं।4।11।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh