श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 880 ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रामकली महला ३ घरु १ ॥ सतजुगि सचु कहै सभु कोई ॥ घरि घरि भगति गुरमुखि होई ॥ सतजुगि धरमु पैर है चारि ॥ गुरमुखि बूझै को बीचारि ॥१॥ जुग चारे नामि वडिआई होई ॥ जि नामि लागै सो मुकति होवै गुर बिनु नामु न पावै कोई ॥१॥ रहाउ ॥ त्रेतै इक कल कीनी दूरि ॥ पाखंडु वरतिआ हरि जाणनि दूरि ॥ गुरमुखि बूझै सोझी होई ॥ अंतरि नामु वसै सुखु होई ॥२॥ दुआपुरि दूजै दुबिधा होइ ॥ भरमि भुलाने जाणहि दोइ ॥ दुआपुरि धरमि दुइ पैर रखाए ॥ गुरमुखि होवै त नामु द्रिड़ाए ॥३॥ कलजुगि धरम कला इक रहाए ॥ इक पैरि चलै माइआ मोहु वधाए ॥ माइआ मोहु अति गुबारु ॥ सतगुरु भेटै नामि उधारु ॥४॥ सभ जुग महि साचा एको सोई ॥ सभ महि सचु दूजा नही कोई ॥ साची कीरति सचु सुखु होई ॥ गुरमुखि नामु वखाणै कोई ॥५॥ सभ जुग महि नामु ऊतमु होई ॥ गुरमुखि विरला बूझै कोई ॥ हरि नामु धिआए भगतु जनु सोई ॥ नानक जुगि जुगि नामि वडिआई होई ॥६॥१॥ {पन्ना 880} पद्अर्थ: सतजुगि = सतयुग में। कहै = कहता है। सभु कोई = हरेक जीव। कहै सभु कोई = हरेक जीव कहता है, ये आम प्रचलित ख्याल है। घरि घरि = हरेक घर में ('सचु' प्रधान है)। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। पैर है चारि = चार पैरों वाला। (नोट: आम लोगों का ये ख्याल बना हुआ है कि धरती को बैल ने उठाया हुआ है। गुरमति के अनुसार 'धरम' ही जगत का सहारा है। 'धरम' ही धरती का 'बैल' है)। को = कोई विरला। बीचारि = विचार करके।1। जुग चारे = चारों युगों में। नामि = नाम से। जि = जो मनुष्य। नामि = नाम में। लागै = लगता है।1। रहाउ। त्रेतै = त्रेते युग में। कल = कला। वरतिआ = प्रधान हो गया। जाणनि = जानते हैं। सोझी = (अस्लियत की) समझ। अंतरि = हृदय में।2। दुआपरि = द्वापर में। दूजै = द्वैत भाव में। दुबिधा = मेरे तेर। भरमि = भटकना में। भुलाने = गलत रास्ते पर गए। जाणहि = जानते हैं। दोइ = मेर तेर। धरमि = धरम (-बैल) ने। गुरमुखि होवै = (जब मनुष्य) गुरू के सन्मुख होता है। त = तब। द्रिढ़ाऐ = हृदय में पक्का करता है।3। कलजुगि = कलजुग में। इक पैरि = एक पैर से। चलै = (धरम बैल) चलता है। अति गुबारु = घोर अंधेरा। भेटै = मिलता है। नामि = नाम से। उधारु = पार उतारा।4। साचा = सदा कायम रहने वाला। ऐको = एक ही। कीरति = सिफत सालाह। साची कीरति = सदा कायम रहने वाली सिफत सालाह। कोई = जो मनुष्य।5। जुगि जुगि = हरेक युग में। नामि = नाम से।6। जरूरी नोट: शबद का केन्द्रिया भाव 'रहाउ' की पंक्तियों में होता है। सारे शबद में उस केन्द्रिया भाव की व्याख्या होती है। इस शबद के केन्द्रिया भाव को ध्यान से देखें। इस विचार को रद्द किया गया है कि अलग-अलग युग में अलग-अलग कर्म को प्रधानता मिलती है। अर्थ: हे भाई! चारों ही युगों में जीव को (परमात्मा के) नाम में जुड़ने के कारण ही आदर मिलता है। जो भी मनुष्य प्रभू के नाम में सुरति जोड़ता है, उसको विकारों से मुक्ति मिल जाती है। (पर, ये भी याद रखो कि) कोई जीव भी गुरू (की शरण) के बिना (परमात्मा का नाम) प्राप्त नहीं कर सकता।1। रहाउ। हे भाई! ये प्रचलित ख्याल है कि सतियुग में 'सत्य' (बोलने के कर्म को प्रधानता) है, हरेक घर में (सच बोलना ही प्रधान है), और सतियुग में (धरती को सहारा देने वाला) धर्म (-बैल) चार पैरों वाला रहता है (धर्म अपने संपूर्ण स्वरूप वाला होता है)। (पर, हे भाई!) कोई विरला मनुष्य ही गुरू के माध्यम से विचारवान हो के यह समझता है कि (सतियुग में भी) गुरू की शरण पड़ कर ही प्रभू की भक्ति हो सकती है (और सतियुग में भी परमात्मा की भक्ति ही प्रधान कर्म है)।1। (हे भाई ये विचार भी आम प्रचलित है कि) त्रेते युग में एक कला दूर कर दी गई (धरम बैल का एक पैर नकारा हो गया)। (जगत में) पाखण्ड का बोलबाला हो गया, लोग परमात्मा को कहीं दूर बसता समझने लग पड़े। (पर, हे भाई!) जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर (जीवन-युक्ति का) ज्ञान प्राप्त करता है, उसको समझ आ जाती है (कि बनाए हुए त्रेते युग में भी तब ही) सुख मिलता है यदि मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम बसता हो।2। (हे भाई! ये विचार आम प्रचलित है कि) द्वापर युग में लोग द्वैत में फंस गए, लोगों के हृदय में भेदभाव प्रभावी हो गया, भटकन में पड़ कर लोग गलत राह पर चल पड़े, मेर-तेर को ही (अच्छाई) मानने लगे, द्वापर में धरम (बैल) ने (अपने) दो ही पैर टिकाए हुए थे। पर जब मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है तब वह (इस कच्चे ख्याल को त्याग के परमात्मा का) नाम अपने दिल में पक्की तरह बैठाता है।3। (हे भाई! आम तौर पर लोग यही मानते हैं कि) कलियुग में धरम की एक ही कला रह गई है, (धरम-बैल) एक ही पैर के भार पर चलता है, (जगत में) माया (जीव के हृदय में अपना) मोह बढ़ा रही है, (दुनिया में) माया के मोह का घोर अंधकार बना हुआ है। (पर, हे भाई! जिस मनुष्य को) गुरू मिल जाता है, उसको प्रभू के नाम में जोड़ कर (कलियुग में भी माया के घोर अंधेरे से) बचा लेता है।4। हे भाई! सारे युगों में वह परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला है। सब जीवों में भी वह सदा स्थिर प्रभू ही बसता है, उसके बिना कहीं भी कोई और नहीं है। (जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा की) सदा कायम रहने वाली महिमा बसती है, उसको हरेक सुख प्राप्त है। (पर, हाँ) गुरू की शरण पड़ कर ही मनुष्य परमात्मा का नाम जप सकता है।5। हे भाई! सारे युगों में प्रभू का नाम जपना ही (सब कर्मों से) श्रेष्ठ कर्म है- इस बात को कोई वह विरला मनुष्य ही समझता है जो गुरू की शरण पड़ता है। (युग कोई भी हो) वही मनुष्य भगत है जो परमात्मा का नाम जपता है। हे नानक! (ये बात पक्की जान लो कि) हरेक युग में प्रभू के नाम की बरकति से ही आदर मिलता है।6।1। रामकली महला ४ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जे वड भाग होवहि वडभागी ता हरि हरि नामु धिआवै ॥ नामु जपत नामे सुखु पावै हरि नामे नामि समावै ॥१॥ गुरमुखि भगति करहु सद प्राणी ॥ हिरदै प्रगासु होवै लिव लागै गुरमति हरि हरि नामि समाणी ॥१॥ रहाउ ॥ हीरा रतन जवेहर माणक बहु सागर भरपूरु कीआ ॥ जिसु वड भागु होवै वड मसतकि तिनि गुरमति कढि कढि लीआ ॥२॥ रतनु जवेहरु लालु हरि नामा गुरि काढि तली दिखलाइआ ॥ भागहीण मनमुखि नही लीआ त्रिण ओलै लाखु छपाइआ ॥३॥ मसतकि भागु होवै धुरि लिखिआ ता सतगुरु सेवा लाए ॥ नानक रतन जवेहर पावै धनु धनु गुरमति हरि पाए ॥४॥१॥ {पन्ना 880} पद्अर्थ: होवहि = हों। ता = तब। धिआवै = ध्याता है। नामे = नाम में ही। नामि = नाम में। समावै = लीन रहता है।1। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। सद = सदा। प्राणी = हे प्राणी! हिरदै = हृदय में। प्रगासु = उच्च आत्मिक जीवन की रोशनी। लिव = लगन। समाणी = लीनता।1। रहाउ। सागर = समुंद्र, हृदय सरोवर। भरपूर = नाको नाक भरा हुआ। जिसु मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। तिनि = उस (मनुष्य) ने। कढि कढि = (हर वक्त) निकाल के।2। गुरि = गुरू ने। काढि = निकाल के। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। त्रिण = तीला। लाखु = लाख (रुपया)।3। धुरि = धुर से, प्रभू की हजूरी से। सेवा = भगती (में)। पावै = प्राप्त करता है। धनु धनु = भाग्यशाली।4। अर्थ: हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर (गुरू के बताए हुए जीवन राह पर चल कर) सदा परमात्मा की भक्ति किया करो। (भक्ति की बरकति से) हृदय में (ऊँचे आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है, (परमात्मा के चरणों में) सुरति जुड़ जाती है, गुरू के उपदेश से परमात्मा के नाम में लीनता हो जाती है।1। रहाउ। यदि कोई मनुष्य भाग्यशाली हो, यदि किसी मनुष्य की अति भाग्यशाली किस्मत हो जाए, तो वह सदा परमात्मा का नाम सिमरता रहता है। नाम जपने से वह मनुष्य नाम में ही आनंद प्राप्त करता है, प्रभू के नाम में ही लीन रहता है।1। (परमात्मा के गुण, जैसे) हीरे-रतन-जवाहर-मोती हैं। (परमात्मा ने हरेक मनुष्य का) हृदय-सरोवर इनसे लबालब भर रखा है। (पर सिर्फ) उस मनुष्य ने ही गुरू के उपदेश की बरकति से इनको (अंदर छुपे हुओं को) निकाल के संभाल रखा है, जिसके माथे पर बहुत भाग्य जाग उठे हैं।2। (हे भाई!) परमात्मा का नाम रतन जवाहर लाल (जैसा कीमती) है (हरेक मनुष्य के अंदर छुपा हुआ है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, उसको) गुरू ने (उसके अंदर से ही) निकाल के (उसकी) तली पर (रख के) दिखा दिया है। पर अपने मन के पीछे चलने वाले बद्-किस्मत मनुष्य ने वह रतन नहीं पाया, (उसकी जानिब तो) लाख रुपया तीले के पीछे छुपा हुआ है।3। (हे भाई!) अगर धुर-दरगाह से लिखे हुए लेख किसी मनुष्य के माथे पर जाग जाएं तो गुरू उसको प्रभू की भक्ति से जोड़ देता है। हे नानक! (वह मनुष्य अंदर छुपे हुए गुण-रूपी) रतन-जवाहर ढूँढ लेता है, वह मनुष्य भाग्यशाली हो जाता है, गुरू की मति ले के वह मनुष्य परमात्मा का मिलाप हासिल कर लेता है।4।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |