श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ५ ॥ ओअंकारि एक धुनि एकै एकै रागु अलापै ॥ एका देसी एकु दिखावै एको रहिआ बिआपै ॥ एका सुरति एका ही सेवा एको गुर ते जापै ॥१॥ भलो भलो रे कीरतनीआ ॥ राम रमा रामा गुन गाउ ॥ छोडि माइआ के धंध सुआउ ॥१॥ रहाउ ॥ पंच बजित्र करे संतोखा सात सुरा लै चालै ॥ बाजा माणु ताणु तजि ताना पाउ न बीगा घालै ॥ फेरी फेरु न होवै कब ही एकु सबदु बंधि पालै ॥२॥ नारदी नरहर जाणि हदूरे ॥ घूंघर खड़कु तिआगि विसूरे ॥ सहज अनंद दिखावै भावै ॥ एहु निरतिकारी जनमि न आवै ॥३॥ जे को अपने ठाकुर भावै ॥ कोटि मधि एहु कीरतनु गावै ॥ साधसंगति की जावउ टेक ॥ कहु नानक तिसु कीरतनु एक ॥४॥८॥ {पन्ना 885}

पद्अर्थ: ऐकै ओअंकारि = (केवल) एक परमात्मा में। ऐक धुनि = एक ही लगन, हर वक्त की सुरति। ऐकै रागु = एक (परमात्मा की सिफतसालाह) का रागु। अलापै = उचारता है। ऐका देसी = (सिर्फ) एक प्रभू के देश का वासी। ऐकु दिखावै = (औरों को भी) एक प्रभू के दर्शन कराता है। ऐको = एक परमात्मा ही। ऐकि सुरति = एक प्रभू का ही ध्यान। सेवा = भगती। गुर ते = गुरू से। जापै = जपता है।1। रहाउ।

रे = हे भाई! भलो कीरतनीआ = अच्छा कीर्तन। कीरतनीया = कीर्तन करने वाला रासधारी। रमा = सर्व व्यापक। गाउ = गाता है। सुआउ = स्वार्थ।1। रहाउ।

बजित्र = बाजे, साज। संतोखा = सत संतोख दया आदि को। सात सुरा = सात (सा, रे, गा, मा, पा, धा, नी) सुरें। लै = लय, लीनता में, प्रभू चरणों में मगन रह के। चालै = चलता है, काम काज करता है। माणु ताणु = अहंकार, अपनी ताकत का भरोसा। तजि = त्यागता है। ताना = तान पलटा। बीगा = टेढ़ा। पाउ न बीगा घालै = टेढ़ा पैर नहीं रखता, बुरी तरफ नहीं जाता। फेरी = नृत्यकारी के वक्त चक्कर लेना, नाच करते हुए तेजी से घूमना, नृत्य चक्र। फेरु = जनम मरन का चक्कर। बंधि = बंधे, बाँधता है। पालै = पल्ले।2।

नारदी = नारद वाला नृत्य। परहर = परमात्मा। हदूरे = हाजिर नाजिर, अंग संग। घूंघर खड़कु = घुंघरूओं की खड़काहट। विसूर = चिंता फिक्र। सहज अनंद = आत्मिक अडोलता का आनंद। भावै = हाव भाव, कलोल। निरतकारी = नृत्य, नाच, मूर्ति की पूजा के समय नाच। जनमि = जनम में।3।

को = कोई मनुष्य। ठाकुर भावै = परमात्मा को प्यारा लगता है। कोटि मधि = करोड़ों में। जावउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। टेक = शरण। तिसु = उस (साध-संगति) का। ऐक = एक ही टेक, एक ही आसरा।4।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य माया के धंधे छोड़ के, माया का स्वार्थ छोड़ के, सर्व व्यापक परमात्मा के गुण गाता है, वही है सबसे अच्छा रासधारी।1। रहाउ।

(हे भाई! प्रभू के दर पर रास डालने वाला वह मनुष्य) सिर्फ एक परमात्मा (के चरणों) में लिव लगाए रखता है, सिर्फ परमात्मा की सिफतसालाह के गीत गाता रहता है, केवल परमात्मा के चरणों में टिका रहता है, औरों को भी एक परमात्मा का उपदेश करता है, (उस रास-धारिए को) एक परमात्मा हर जगह बसता दिखाई देता है। उसकी सुरति सिर्फ परमात्मा में ही लगी रहती है, वह सिर्फ प्रभू की ही भक्ति करता है। गुरू से (शिक्षा ले के) वह सिर्फ परमात्मा का ही नाम जपता रहता है।1।

(हे भाई! प्रभू के दर का रासधारिया सत्य-) संतोष (आदि गुणों) को पाँच (किस्म के) साज बनाता है, प्रभू के चरणों में लीन रह के वह दुनिया के काम-काज करता है- यही उसके लिए (सा, रे, गा...आदि) सात सुर (का अलाप) हैं। वह मनुष्य अपनी ताकत का भरोसा त्यागता है- यही उसका बाजा (बजाना) है। वह मनुष्य गलत रास्ते पर पैर नहीं रखता- यही उसके लिए तान पल्टी (आलाप) है। वह मनुष्य गुरू के शबद को अपने पल्ले से बाँध के रखता है (हृदय में बसाए रखता है। इस शबद की बरकति से उसको फिर) कभी तनम-मरन के फेरे नहीं रहते- यही (रास डालने के वक्त) उसकी नृत्य-चक्र है।2।

(हे भाई! प्रभू के दर का रासधारिया) परमात्मा को (सदा अपने) अंग-संग जानता है- यह है उसके लिए नारदी-भक्ति वाला नृत्य। (इस तरह) वह (दुनिया के सारे) चिंता-फिक्र त्याग देता है- यही है उसके लिए घुंघरूओं की झनकार। (प्रभू के दर का रासधारिया) आत्मिक अडोलता का सुख पाता है (मानो, वह) नृत्यकारी के तेवर दिखा रहा है। हे भाई! जो भी मनुष्य ये नृत्य करता है, वह जन्मों के चक्कर में नहीं पड़ता।3।

हे भाई! अगर करोड़ों में कोई व्यक्ति अपने परमात्मा को प्यारा लगने लग जाता है, तब वह (प्रभू का) ये कीर्तन गाता है। हे नानक! कह- मैं तो साध-संगति की शरण में पड़ता हूँ, क्योंकि साध-संगति को कीर्तन ही (जिंदगी का) एक मात्र आसरा है।4।8।

रामकली महला ५ ॥ कोई बोलै राम राम कोई खुदाइ ॥ कोई सेवै गुसईआ कोई अलाहि ॥१॥ कारण करण करीम ॥ किरपा धारि रहीम ॥१॥ रहाउ ॥ कोई नावै तीरथि कोई हज जाइ ॥ कोई करै पूजा कोई सिरु निवाइ ॥२॥ कोई पड़ै बेद कोई कतेब ॥ कोई ओढै नील कोई सुपेद ॥३॥ कोई कहै तुरकु कोई कहै हिंदू ॥ कोई बाछै भिसतु कोई सुरगिंदू ॥४॥ कहु नानक जिनि हुकमु पछाता ॥ प्रभ साहिब का तिनि भेदु जाता ॥५॥९॥ {पन्ना 885}

पद्अर्थ: गुसईआ = गोसाई। अलाइ = (अलाय) अल्ला।1।

कारण करण = जगत का कारण, जगत का मूल। करण = जगत। करमु = कृपा, बख्शिश। करीम = कृपा करने वाला। किरपा धारि = कृपा करने वाला। रहीम = रहम करने वाला।1। रहाउ।

नावै = स्नान करता है। तीरथि = तीर्थ पर। हज जाइ = काबे के दर्शन करने जाता है। सिरु निवाइ = (सिर निवाय) सिर झुकाता है, नमाज पढ़ता है।2।

कतेब = कुरान, अंजील आदि पश्चिमी धर्मों के धार्मिक ग्रंथ। ओढै = पहनता है। नील = नीले कपड़े। सुपेद = सफेद कपड़े।3।

तुरकु = मुसलमान। बाछै = मांगता है, चाहता है। भिसतु = बहिष्त, स्वर्ग। सुरगिंदू = स्वर्ग+इन्दू, इन्द्र देवते का स्वर्ग।4।

जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिनि = उस (मनुष्य) ने।5।

अर्थ: हे सारे जगत के मूल! हे बख्शिंद! हे कृपालु! हे रहम करने वाले! (जीवों ने अपनी-अपनी धर्म-पुस्तकों की बोली के अनुसार तेरे अलग-अलग नाम रखे हुए हैं, पर तू सबका सांझा है)।1। रहाउ।

हे भाई! कोई मनुष्य (परमात्मा का नाम) 'राम राम' उचारता है, कोई उसको 'ख़ुदाय खुदाय' कहता है। कोई मनुष्य उसको 'गोसाई' कह के उसकी भक्ति करता है, कोई 'अल्ला' कह के बँदगी करता है।1।

हे भाई! कोई मनुष्य किसी तीर्थ पर स्नान करता है, कोई मनुष्य (मक्के) हज करने के लिए जाता है। कोई मनुष्य (प्रभू की मूर्ति बना के) पूजा करता है, कोई नमाज़ पढ़ता है।2।

हे भाई! कोई (हिन्दू) वेद आदि धर्म-पुस्तक पढ़ता है, कोई (मुसलमान आदि) कुरान अंजील आदि पढ़ता है। कोई (मुसलमान हो के) नीले कपड़े पहनता है, कोई (हिंदू) सफेद वस्त्र पहनता है।3।

हे भाई! कोई मनुष्य कहता है 'मैं मुसलमान हूँ', कोई कहता है 'मैं हिन्दू हूँ'। कोई मनुष्य (परमात्मा से) बहिष्त माँगता है, कोई स्वर्ग मांगता है।4।

हे नानक! कह- जिस मनुष्य ने परमात्मा का हुकम पहचाना है, उसने मालिक प्रभू का भेद पा लिया है (कि उसे कैसे प्रसन्न किया जा सकता है)।5।9।

रामकली महला ५ ॥ पवनै महि पवनु समाइआ ॥ जोती महि जोति रलि जाइआ ॥ माटी माटी होई एक ॥ रोवनहारे की कवन टेक ॥१॥ कउनु मूआ रे कउनु मूआ ॥ ब्रहम गिआनी मिलि करहु बीचारा इहु तउ चलतु भइआ ॥१॥ रहाउ ॥ अगली किछु खबरि न पाई ॥ रोवनहारु भि ऊठि सिधाई ॥ भरम मोह के बांधे बंध ॥ सुपनु भइआ भखलाए अंध ॥२॥ इहु तउ रचनु रचिआ करतारि ॥ आवत जावत हुकमि अपारि ॥ नह को मूआ न मरणै जोगु ॥ नह बिनसै अबिनासी होगु ॥३॥ जो इहु जाणहु सो इहु नाहि ॥ जानणहारे कउ बलि जाउ ॥ कहु नानक गुरि भरमु चुकाइआ ॥ ना कोई मरै न आवै जाइआ ॥४॥१०॥ {पन्ना 885}

पद्अर्थ: पवनै महि = हवा में ही। पवनु = हवा, श्वास। समाइआ = समाया, मिल जाता है। कवन टेक = कौन सा आसरा? भुलेखे के कारण ही।1।

रे = हे भाई! कउनु मूआ = (दरअसल) कोई भी नहीं मरता। ब्रहम गिआनी = ब्रहमज्ञानी, परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालने वाला मनुष्य, गुरमुख, गुरू। मिलि = मिल के। तउ = तो। चलतु = चलित्र, खेल, तमाशा।1। रहाउ।

अगली = आगे घटने वाली। ऊठि = उठ के। सिधाई = चला जाता है। बंध = बँधन। भखलाऐ = बड़ बड़ाता है। अंध = (माया के मोह में) अंधा हुआ मनुष्य।2।

करतारि = करतार ने। हुकमि = (प्रभू के) हुकम में ही। अपारि हुकमि = कभी खत्म ना होने वाले हुकम से (शब्द 'अपारि' और 'हुकमि' एक ही 'कारक' case में हैं)।3।

जो = जिस तरह का। जाणहु = तुम समझते हो। इहु = इस जीवात्मा को। सो इहो = उस तरह का। कउ = को, से। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ। गुरि = गुरू ने। भरमु = भुलेखा। आवै = पैदा होता है। जाइआ = मरता है।4।

अर्थ: हे भाई! (असल में) कोई भी जीवात्मा मरती नहीं, ये बात पक्की है। जो कोई गुरमुख परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है उसको मिल के (बेशक) विचार कर लो, (पैदा होने-मरने वाली तो) ये एक खेल बनी हुई है।1। रहाउ।

(हे भाई! जब हम ये समझते हैं कि कोई प्राणी मर गया है, दरअसल होता यह है कि उसके पँच-तत्वी शरीर में से) श्वास हवा में मिल जाते हैं, (शरीर की) मिट्टी (धरती की) मिट्टी के साथ मिल जाती है, जीवात्मा (सर्व-व्यापक) ज्योति से जा मिलती है। (मरे हुए को) रोने वाला भुलेखे के कारण ही रोता है।1।

(हे भाई! किसी के शरीरिक विछोड़े पर रोने वाला प्राणी उस समय) आगे की (हमेशा) बीतने वाली बात को नहीं समझता कि जो (अब किसी के विछुड़ने पर) रो रहा है (आखिर) उसने भी तो यहाँ से कूच कर जाना है। (हे भाई! जीवों को) भ्रम और मोह के बँधन बँधे हुए हैं, (जीवात्मा और शरीर का मिलाप तो सपने की तरह है, ये आखिर ) सपना हो कर बीत जाता है, माया के मोह में अंधा हुआ जीव (व्यर्थ ही) बड़-बड़ाता है।2।

हे भाई! ये जगत तो करतार ने एक खेल रची हुई है। उस करतार के कभी समाप्त ना होने वाले हुकम में ही जीव यहाँ आते रहते हैं और यहाँ से जाते रहते हैं। वैसे कोई भी जीवात्मा कभी मरती नहीं है, क्योंकि ये मरने-योग्य है ही नहीं। यह जीवात्मा कभी नाश नहीं होती, इसकी अस्लियत जो हमेशा कायम रहने वाली ही हुई।3।

हे भाई! तुम इस जीवात्मा को जिस तरह का समझ रहे हो, वह उस तरह की नहीं है। मैं उस मनुष्य पर से बलिहार जाता हूँ, जिसने इस अस्लियत को समझ लिया है। हे नानक! कह- गुरू ने जिसका भुलेखा दूर कर दिया है, वह जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता, वह बार-बार पैदा होता मरता नहीं।4।10।

रामकली महला ५ ॥ जपि गोबिंदु गोपाल लालु ॥ राम नाम सिमरि तू जीवहि फिरि न खाई महा कालु ॥१॥ रहाउ ॥ कोटि जनम भ्रमि भ्रमि भ्रमि आइओ ॥ बडै भागि साधसंगु पाइओ ॥१॥ बिनु गुर पूरे नाही उधारु ॥ बाबा नानकु आखै एहु बीचारु ॥२॥११॥ {पन्ना 885-886}

पद्अर्थ: तूं जीवहि = तू जीवित रहेगा, तुझे आत्मिक जीवन मिला रहेगा। महा कालु = भयानक आत्मिक मौत।1। रहाउ।

कोटि = करोड़ों। भ्रमि भ्रमि भ्रमि = बार बार भटक भटक के। आइओ = तू (इस मनुष्य जन्म में) आया है। वडै भागि = बड़ी किस्मत से। पाइओ = तूने हासिल किया है। साध संगु = गुरू का साथ।1।

उधारु = (करोड़ों जन्मों से) पार उतारा। बाबा = हे भाई! नानकु आखै = नानक बताता है।2।

अर्थ: हे भाई! गोबिंद (का नाम) जपा कर, सुंदर गोपाल का नाम जपा कर। हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरा कर, (ज्यों ज्यों नाम सिमरेगा) तुझे उच्च आत्मिक दर्जा मिला रहेगा। भयानक आत्मिक मौत (तेरे आत्मिक जीवन को) फिर कभी खत्म नहीं कर सकेगी।1। रहाउ।

हे भाई! (अनेकों किस्म के) करोड़ों जन्मों में भटक के (अब तू मनुष्य जनम में) आया है, (और, यहाँ) बड़ी किस्मत से (तुझे) गुरू का साथ मिल गया है।1।

हे भाई! नानक (तुझे) यह विचार की बात बताता है- पूरे गुरू की शरण पड़े बिना (अनेकों जूनियों से) पार-उतारा नहीं हो सकता।2।11।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh