श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ५ ॥ कोटि जनम के बिनसे पाप ॥ हरि हरि जपत नाही संताप ॥ गुर के चरन कमल मनि वसे ॥ महा बिकार तन ते सभि नसे ॥१॥ गोपाल को जसु गाउ प्राणी ॥ अकथ कथा साची प्रभ पूरन जोती जोति समाणी ॥१॥ रहाउ ॥ त्रिसना भूख सभ नासी ॥ संत प्रसादि जपिआ अबिनासी ॥ रैनि दिनसु प्रभ सेव कमानी ॥ हरि मिलणै की एह नीसानी ॥२॥ मिटे जंजाल होए प्रभ दइआल ॥ गुर का दरसनु देखि निहाल ॥ परा पूरबला करमु बणि आइआ ॥ हरि के गुण नित रसना गाइआ ॥३॥ हरि के संत सदा परवाणु ॥ संत जना मसतकि नीसाणु ॥ दास की रेणु पाए जे कोइ ॥ नानक तिस की परम गति होइ ॥४॥३५॥४६॥ {पन्ना 897}

पद्अर्थ: कोटि = करोड़। जपत = जपते हुए। संताप = दुख कलेश। चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। मानि = मन में। महा बिकार = बड़े बड़े अैब। ते = से। सभि = सारे।1।

को = का। गाउ = गाया कर। प्राणी = हे प्राणी! अकथ = पूरे तौर पर ना बताई जा सकने वाली। साची = अटल, सदा टिकी रहने वाली। पूरन = सर्व व्यापक। जोति = रूह, जिंद, जीवात्मा। जोती = जोति रूप हरी में।1। रहाउ।

त्रिसना = प्यास, लालच। सभ = सारी। संत प्रसादि = गुरू संत की कृपा से। रैनि = (रजनि), रात। सेव = सेवा भक्ति। नीसानी = लक्षण।2।

जंजाल = माया के मोह के बँधन। देखि = देख के। निहाल = प्रसन्न, उच्च आत्मिक अवस्था वाले। परा पूरबला = बड़े ही पुराने, पहले जन्मों के। करमु = किया हुआ काम, भाग्य। बणि आइआ = फब गया। रसना = जीभ (से)।3।

संत = भक्ति करने वाले। परवाणु = कबूल। मसतकि = माथे पर। नीसाणु = निशान, परवानगी की चिन्ह। रेणु = चरण धूड़ ('रेणु' और 'रैणि' का फर्क स्मरणीय है)। कोइ = (कोय) कोई मनुष्य। परम = सबसे ऊँची। गति = आत्मिक अवस्था।

तिस की: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे प्राणी! सृष्टि के पालनहार प्रभू की सिफतसालाह के गीत गाया करो। जो मनुष्य सर्व-व्यापक प्रभू की अटल और कभी ना खत्म करने वाली सिफत सालाह करता रहता है, उसकी जीवात्मा प्रभू की ज्योति में लीन रहती है।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए कोई दुख-कलेश छू नहीं सकते, (पिछले) करोड़ों जन्मों के किए हुए पाप भी नाश हो जाते हैं। हे प्राणी! जिस मनुष्य के मन में गुरू के सोहणे चरण आ बसते हैं, उसके शरीर के बड़े-बड़े विकार (भी) सारे नाश हो जाते हैं।1।

हे प्राणी! गुरू-संत की कृपा से जिस मनुष्य ने नाश-रहित प्रभू का नाम जपा, उसके अंदर से (माया की) तृष्णा (माया की) भूख सब नाश हो जाती है (क्योंकि उस से प्रभू का मिलाप हो जाता है, और,) प्रभू के मिलाप का (बड़ा) लक्षण ये है कि वह दिन-रात (हर वक्त) प्रभू की सेवा-भक्ति करता रहता है।2।

हे भाई! जिन पर प्रभू जी दयावान होते हैं, उनके माया के मोह के बँधन टूट जाते हैं; गुरू का दर्शन करके वह सदा चढ़दीकला में रहते हैं। उनके पूर्बले जन्मों का किया हुआ काम उनका मददगार बनता है (उनके किए हुए पूर्बले कर्मों के संस्कार जाग उठते हैं)। अपनी जीभ से वह सदा प्रभू के गुण गाते हैं।3।

हे भाई! प्रभू की भक्ति करने वाले बंदे (प्रभू की हजूरी में) सदा आदर-सत्कार पाते हैं। उन संत-जनों के माथे पर (नूर चमकता है, जो, मानो, प्रभू दर पर परवानगी का) चिन्ह है। हे नानक! ऐसे प्रभू-सेवक के चरणों की धूड़ अगर कोई मनुष्य प्राप्त कर ले, तो उसकी बहुत उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है।4।34।46।

रामकली महला ५ ॥ दरसन कउ जाईऐ कुरबानु ॥ चरन कमल हिरदै धरि धिआनु ॥ धूरि संतन की मसतकि लाइ ॥ जनम जनम की दुरमति मलु जाइ ॥१॥ जिसु भेटत मिटै अभिमानु ॥ पारब्रहमु सभु नदरी आवै करि किरपा पूरन भगवान ॥१॥ रहाउ ॥ गुर की कीरति जपीऐ हरि नाउ ॥ गुर की भगति सदा गुण गाउ ॥ गुर की सुरति निकटि करि जानु ॥ गुर का सबदु सति करि मानु ॥२॥ गुर बचनी समसरि सुख दूख ॥ कदे न बिआपै त्रिसना भूख ॥ मनि संतोखु सबदि गुर राजे ॥ जपि गोबिंदु पड़दे सभि काजे ॥३॥ गुरु परमेसरु गुरु गोविंदु ॥ गुरु दाता दइआल बखसिंदु ॥ गुर चरनी जा का मनु लागा ॥ नानक दास तिसु पूरन भागा ॥४॥३६॥४७॥ {पन्ना 897}

पद्अर्थ: जाईअै = जाना चाहिए। हिरदै = हृदय में। धरि = धर के। संत = गुरू के दर के सत्संगी। मसतकि = माथे पर। दुरमति = खोटी मति। जाइ = (जाय) दूर हो जाती है।1।

जिसु भेटतु = जिस (गुरू) को मिल के। सभु = हर जगह। भगवान = हे भगवान!।1। रहाउ।

कीरति = शोभा। जपीअै = जपना चाहिए। गाउ = गाते रहो। सुरति = ध्यान, लगन। निकटि = नजदीक। जानु = समझ। सति = सदा कायम रहने वाला, सच्चा। मानु = मान।2।

समसरि = बराबर, एक सा। बचनी = बचनों के द्वारा, बचनों पर चल के। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। मनि = मन में। सबदि = शबद से। राजे = तृप्त हो जाता है। सभि = सारे। काजे = ढक जाते हैं।3।

चरनी = चरणों में। जा का = जिस (मनुष्य) का। दास तिसु = उस दास के।4।

अर्थ: हे सभ गुणों वाले भगवान! (मेरे पर) कृपा कर (मुझे वह गुरू मिला) जिस गुरू को मिलने से (मन में से) अहंकार दूर हो जाता है, और पारब्रहम प्रभू हर जगह दिख जाता है।1। रहाउ।

(हे भाई! गुरू के) सुंदर चरणों का ध्यान हृदय में धर के (गुरू के) दर्शन से सदके जाना चाहिए (दर्शनों की खातिर स्वै भाव कुर्बान कर देना चाहिए)। (हे भाई! गुरू के दर पर रहने वाले) संत-जनों की चरण-धूड़ माथे पर लगाया कर, (इस तरह) अनेकों जन्मों की खोटी मति की मैल उतर जाती है।1।

हे भाई! सदा परमात्मा का नाम जपना चाहिए- यही है गुरू की शोभा (करनी)। हे भाई! सदा प्रभू के गुण गाया कर- यही है गुरू की भगती। हे भाई! परमात्मा को सदा अपने नजदीक बसता समझ- यही है गुरू के चरणों में ध्यान धरना। हे भाई! गुरू के शबद को (सदा) सच्चा करके मान।2।

हे भाई! गुरू के बचनों के द्वारा (सारे) सुख-दुख एक समान प्रतीत होने लगते हैं, माया की तृष्णा माया की भूख कभी अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। गुरू के शबद के द्वारा मन में संतोख पैदा हो जाता है, (मन) तृप्त हो जाता है। परमात्मा का नाम जप के सारे पर्दे ढके जाते हैं (लोक-परलोक में इज्जत बन जाती है)।3।

हे भाई! गुरू परमात्मा (का रूप) है, गुरू गोबिंद (का रूप) है। गुरू दातार (प्रभू का रूप) है, गुरू दया के श्रोत बख्शणहार प्रभू (का रूप) है। हे नानक! जिस मनुष्य का मन गुरू के चरणों में टिक जाता है, उस दास के पूरे भाग्य जाग उठते हैं।4।36।47।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh