श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ५ ॥ जिस की तिस की करि मानु ॥ आपन लाहि गुमानु ॥ जिस का तू तिस का सभु कोइ ॥ तिसहि अराधि सदा सुखु होइ ॥१॥ काहे भ्रमि भ्रमहि बिगाने ॥ नाम बिना किछु कामि न आवै मेरा मेरा करि बहुतु पछुताने ॥१॥ रहाउ ॥ जो जो करै सोई मानि लेहु ॥ बिनु माने रलि होवहि खेह ॥ तिस का भाणा लागै मीठा ॥ गुर प्रसादि विरले मनि वूठा ॥२॥ वेपरवाहु अगोचरु आपि ॥ आठ पहर मन ता कउ जापि ॥ जिसु चिति आए बिनसहि दुखा ॥ हलति पलति तेरा ऊजल मुखा ॥३॥ कउन कउन उधरे गुन गाइ ॥ गनणु न जाई कीम न पाइ ॥ बूडत लोह साधसंगि तरै ॥ नानक जिसहि परापति करै ॥४॥३१॥४२॥ {पन्ना 896}

पद्अर्थ: जिस की = जिसकी देह, जिसका दिया हुआ शरीर। करि = कर के, समझ के। मानु = मान ले, यकीन बना। गुमानु = अहंकार। लाहि = दूर कर। सभु कोइ = (सभ कोय), हरेक जीव। अराधि = याद करता रह।1।

तिस की, जिस की: 'तिसु' और 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हट गई है।

काहे = क्यों? भ्रमि = भ्रम में, भुलेखे में। भ्रमहि = तू भटकता है। बिगाने = हे बेगाने बने हुए! परमात्मा से विछुड़े हुए हे जीव! कामि = काम में। पछुताने = पछताए हुए।1। रहाउ।

मानि लेहु = मान ले। रलि = मिल के। भाणा = रजा। प्रसादि = कृपा से। मनि = मन में। वूठा = बसा है।2।

वे परवाहु = बेमुथाज। अगोचरु = (अ+गो+चर। गो = ज्ञान इन्द्रियां। चर = पहुँच) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। ता कउ = उस (प्रभू) को। चिति = चिक्त में। चिति आऐ = चिक्त में बसा। जिसु चिति आऐ = जिस (प्रभू के हमारे) चिक्त में बसने से, अगर वह प्रभू हमारे चिक्त में आ बसे। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। ऊजल = साफ, बेदाग। मुखा = मुँह।3।

उधरे = पार लांघ गए। गाइ = (गाय) गा के। गनणु न जाई = ये लेखा गिना नहीं जा सकता। कीम = (गुण गाने की) कीमत। बूडत = डूबता। लोह = लोहा, कठोर चिक्त व्यक्ति। साधसंगि = गुरू की संगति में। तरै = गाने का उद्यम करता है। जिसहि परापति = जिसको (ये दाति) मिलनी हो।4।

अर्थ: हे प्रभू से विछुड़े हुए जीव! क्यों (अपनत्व के) भुलेखे में पड़ कर भटक रहा है? परमात्मा के नाम के बिना (कोई और चीज किसी के) काम नहीं आती। (ये) मेरा (शरीर है, यह) मेरा (धन है) - ऐसा कह कह के (अनेकों ही जीव) बहुत पछताते हुए चले गए।1। रहाउ।

हे भाई! जिस प्रभू का दिया हुआ (ये शरीर आदि) है, उसीका ही मान। (ये शरीर आदि मेरा है मेरा है) अपना (ये अहंकार दूर कर)। हरेक जीव उसी प्रभू का ही बनाया हुआ है जिसका तू पैदा किया हुआ है। उस प्रभू का सिमरन करने से सदा आत्मिक सुख मिलता है।1।

हे भाई! परमात्मा जो कुछ करता है उसी को ठीक माना कर। (रजा को) माने बिना (मिट्टी में) मिल के मिट्टी हो जाएगा। हे भाई! जिस किसी बंदे को परमात्मा की रजा मीठी लगती है गुरू की किरपा से उसके मन में परमात्मा खुद आ के बसता है।2।

हे मन! जिस परमात्मा को किसी की मुथाजी नहीं, जीव की ज्ञान-इन्द्रियों की जिस तक पहुँच नहीं हो सकती, हे मन! आठों पहर उसको जपा कर। अगर वह परमात्मा (तेरे) चिक्त में आ बसे, तो तेरे सारे दुख नाश हो जाएंगे, इस लोक में और परलोक में तेरा मुँह उज्जवल रहेगा।3।

हे भाई! इस बात का लेखा नहीं किया जा सकता कि परमात्मा के गुण गा गा के कौन-कौन संसार-समुंदर से पार लांघ गए। परमात्मा के गुण गाने का मूल्य नहीं पड़ सकता। लोहे जैसा कठोर-चिक्त व्यक्ति भी गुरू की संगति में रह के पार लांघ जाता है। पर, हे नानक! (गुण गाने का उद्यम वही मनुष्य) करता है जिसको धुर से ही ये दाति प्राप्त हुई हो।4।31।42।

रामकली महला ५ ॥ मन माहि जापि भगवंतु ॥ गुरि पूरै इहु दीनो मंतु ॥ मिटे सगल भै त्रास ॥ पूरन होई आस ॥१॥ सफल सेवा गुरदेवा ॥ कीमति किछु कहणु न जाई साचे सचु अलख अभेवा ॥१॥ रहाउ ॥ करन करावन आपि ॥ तिस कउ सदा मन जापि ॥ तिस की सेवा करि नीत ॥ सचु सहजु सुखु पावहि मीत ॥२॥ साहिबु मेरा अति भारा ॥ खिन महि थापि उथापनहारा ॥ तिसु बिनु अवरु न कोई ॥ जन का राखा सोई ॥३॥ करि किरपा अरदासि सुणीजै ॥ अपणे सेवक कउ दरसनु दीजै ॥ नानक जापी जपु जापु ॥ सभ ते ऊच जा का परतापु ॥४॥३२॥४३॥ {पन्ना 896}

पद्अर्थ: जापि = जपा कर। भगवंत = भगवान (का नाम)। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। मंतु = उपदेश। भै = ('भउ' का बहुवचन) भय। त्रास = डर, सहम।1।

गुरदेवा = सबसे बड़ा देवता, प्रभू। सचु = सदा कायम रहने वाला। साचे कीमति = सदा कायम रहने वाले की कीमत। अलख = जिसका स्वरूप सही बयान ना हो सके।1। रहाउ।

जिस कउ: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'कउ' के कारण हटा दी गई है।

मन = हे मन! नीत = नित्य। सचु सुखु = अटल सुख। सहज = आत्मिक अडोलता। मीत = हे मित्र!।2।

साहिबु = मालिक। अति भारा = गहुत गंभीर। थापि = पैदा कर के। उथापनहारा = नाश करने वाला। जन = दास, सेवक।3।

करि = कर के। सुणीजै = मेहर करके सुनो जी। कउ = को। दीजै = देओ जी। जापी = जपूँ। जा का = जिस (परमात्मा) का। परतापु = तेज, बल।4।

अर्थ: हे भाई! सबसे बड़े देवते प्रभू की सेवा-भक्ति (अवश्य) फलदायक है। वह प्रभू सदा कायम रहने वाला है। उस सदा-स्थिर अलख और अभेव प्रभू का रक्ती भर भी मूल्य बताया नहीं जा सकता।1। रहाउ।

हे भाई! पूरे गुरू ने (जिस मनुष्य को) यह उपदेश दिया कि अपने मन में भगवान का नाम जपा कर, उस मनुष्य के सारे डर-सहम मिट जाते हैं, उसकी हरेक आशा पूरी हो जाती है।1।

हे (मेरे) मन! जो प्रभू खुद सब कुछ करने-योग्य है और औरों से करवा सकता है, उसको सदा सिमरा कर। हे मित्र! उस प्रभू की सदा सेवा-भक्ति किया कर, तू अटल सुख पाएगा, तू आत्मिक अडोलता हासिल कर लेगा।2।

हे भाई! मेरा मालिक प्रभू बहुत गंभीर है, एक छिन में पैदा करके नाश भी कर सकता है। वह प्रभू अपने सेवक का खुद ही रखवाला है, उसके बिना कोई और रक्षा करने वाला नहीं है।3।

जिस परमात्मा का तेज-बल सबसे ऊँचा है (उसके दर पे) हे नानक! (अरदास कर और कह- हे प्रभू!) कृपा करके मेरी आरजू सुन, अपने सेवक को दर्शन दे, मैं (तेरा सेवक) सदा तेरे नाम का जाप जपता रहूँ।4।32।43।

रामकली महला ५ ॥ बिरथा भरवासा लोक ॥ ठाकुर प्रभ तेरी टेक ॥ अवर छूटी सभ आस ॥ अचिंत ठाकुर भेटे गुणतास ॥१॥ एको नामु धिआइ मन मेरे ॥ कारजु तेरा होवै पूरा हरि हरि हरि गुण गाइ मन मेरे ॥१॥ रहाउ ॥ तुम ही कारन करन ॥ चरन कमल हरि सरन ॥ मनि तनि हरि ओही धिआइआ ॥ आनंद हरि रूप दिखाइआ ॥२॥ तिस ही की ओट सदीव ॥ जा के कीने है जीव ॥ सिमरत हरि करत निधान ॥ राखनहार निदान ॥३॥ सरब की रेण होवीजै ॥ आपु मिटाइ मिलीजै ॥ अनदिनु धिआईऐ नामु ॥ सफल नानक इहु कामु ॥४॥३३॥४४॥ {पन्ना 896}

पद्अर्थ: बिरथा = वृथा, व्यर्थ। भरवासा = भरोसा, सहायता की आशा। ठाकुर प्रभ = हे ठाकुर! हे प्रभू! टेक = सहारा। छूटी = खत्म हो गई। अचिंत = चिंता रहित। ठाकुर भेटे = ठाकुर को मिलने से। गुणतास = गुणों का खाजाना।1।

मन = हे मन! होवै पूरा = सफल हो जाएगा। कारजु = (सिमरन करने वाला ये) काम।1। रहाउ।

कारन करन = करने का कारण, किए हुए (जगत) को बनाने वाला। हरि = हे हरी! मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। आनंद हरि रूप = आनंद रूप हरी। दिखाइआ = (गुरू ने) दिखा दिया।2।

सदीव = सदा ही। ओट = आसरा। जा के कीने = जिस (प्रभू) के बनाए हुए। हरि करत = हरि हरि करते हुए, हरी नाम सिमरते हुए। निधान = खजाने। निदान = समाधान, आखिर में।3।

रेण = चरण धूड़। होवीजै = हो जाना चाहिए। आपु = स्वै भाव, अहंकार। मिटाइ = मिटाय, मिटा के। मिलीजै = मिल सकते हैं। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। कामु = काम।4।

अर्थ: हे मेरे मन! सिर्फ परमात्मा का नाम सिमरा कर, सदा परमात्मा के गुण गाया कर। तेरा यह काम जरूर सफल हो जाएगा (भाव, अवश्य फलदायक होगा)।1। रहाउ।

हे मन! दुनिया की मदद की आशा रखनी व्यर्थ है। हे मेरे ठाकुर! हे मेरे प्रभू! (मुझे तो) तेरा ही आसरा है। हे भाई! जो मनुष्य गुणों के खजाने चिंता-रहित मालिक प्रभू को मिल जाता है, (दुनिया से किसी मदद की) हरेक आशा (उसकी) समाप्त हो जाती है।1।

हे प्रभू! इस जगत-रचना को बनाने वाला तू ही है। (मैं तो सदा) तेरे सुंदर चरणों की शरण में रहता हूँ। हे भाई! जिस मनुष्य ने अपने मन में हृदय में सिर्फ उस परमात्मा को ही सिमरा है, (गुरू ने) उसको आनंद-रूप प्रभू के दर्शन करवा दिए हैं।2।

हे मेरे मन! सदा ही उसी प्रभू का आसरा लिए रख, जिसके पैदा किए हुए ये सारे जीव हैं। हे मन! परमात्मा का नाम सिमरते हुए (सारे) खजाने (मिल जाते हैं)। हे मन! (जब और सहारे खत्म हो जाएं, तो) अंत में परमात्मा ही रक्षा कर सकने वाला है।3।

हे मेरे मन! सबके चरणों की धूल बने रहना चाहिए, (अपने अंदर से) अहंकार दूर करके ही परमात्मा को मिला जा सकता है। हे मन! परमात्मा का नाम हर वक्त सिमरना चाहिए। हे नानक! (सिमरन करने का) ये काम अवश्य फल देता है।4।33।44।

रामकली महला ५ ॥ कारन करन करीम ॥ सरब प्रतिपाल रहीम ॥ अलह अलख अपार ॥ खुदि खुदाइ वड बेसुमार ॥१॥ ओुं नमो भगवंत गुसाई ॥ खालकु रवि रहिआ सरब ठाई ॥१॥ रहाउ ॥ जगंनाथ जगजीवन माधो ॥ भउ भंजन रिद माहि अराधो ॥ रिखीकेस गोपाल गुोविंद ॥ पूरन सरबत्र मुकंद ॥२॥ मिहरवान मउला तूही एक ॥ पीर पैकांबर सेख ॥ दिला का मालकु करे हाकु ॥ कुरान कतेब ते पाकु ॥३॥ नाराइण नरहर दइआल ॥ रमत राम घट घट आधार ॥ बासुदेव बसत सभ ठाइ ॥ लीला किछु लखी न जाइ ॥४॥ मिहर दइआ करि करनैहार ॥ भगति बंदगी देहि सिरजणहार ॥ कहु नानक गुरि खोए भरम ॥ एको अलहु पारब्रहम ॥५॥३४॥४५॥ {पन्ना 896-897}

पद्अर्थ: कारन = सबब, मूल। करन = किया हुआ जगत। कारन करन = जगत को पैदा करने वाला। करमु = बख्शिश। करीम = बख्शिश करने वाला। प्रतिपाल = पालना करने वाला। रहीम = रहम करने वाला। अलह = रॅब (प्रभू का मुसलमानी नाम)। अलख = जिसका सही स्वरूप बयान ना हो सके। खुदि = खुद ही। खुदाइ = (खुदाय) मालिक। बेसुमार = गिणती मिणती से परे।1।

ओुं नमो = सर्व व्यापक को नमस्कार (गुरबाणी में इस शब्द को 'उ' से बने हुए 'ਓਂ' अथवा 'ओ' से आरंभ किया गया है। इस प्रकार यहाँ 'उ' अक्षर को दो मात्राएं 'ो' और 'ु' लगा कर बनाया गया है। असल है 'ओं', यहाँ पढ़ना है 'उं' व 'उम')। नमो = नमस्कार। गुसाई = गो+सांई, धरती का मालिक। खालकु = खलकत को पैदा करने वाला। रवि रहिआ = व्यापक है, मौजूद है। सरब = सारे। ठाई = जगहों में।1। रहाउ।

माधो = (मा+धव) माया का पति। अराधो = आराध, सिमरने योग्य। रिद = हृदय। रिखीकेस = इन्द्रियों का मालिक। सरबत्र = सब जगह, सर्वत्र। मुकंद = मुकती दाता।2।

गुोविंद: अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं 'ो' और 'ु' हैं। असल शब्द 'गोविंद' है, यहाँ 'गुविंद' पढ़ना है।

मउला = (अरबी शब्द) निजात (मुक्ति) देने वाला। पैकांबर = पैग़ंबर (पैग़ाम+बर) ईश्वर का संदेश लाने वाला। सेख = शेख। हाकु = हक, न्याय, इन्साफ। करे हाकु = हको हक करता है, न्याय करता है। ते = से। पाकु = (भाव, अलग)।3।

(नोट: शब्द 'हाकु' पुलिंग एकवचन है। शब्द 'हाक' स्त्रीलिंग है, जिसका अर्थ है 'आवाज़'। जैसे, 'जरा हाक दी सभ मति थाकी ऐक न थाकसि माइआ')।

नाराइण = जल में निवास रखने वाला, विष्णु, परमात्मा। नरहर = नरसिंघ। रमत = सब मैं रमा हुआ। घट घट आधार = हरेक के हृदय का आसरा। बासुदेव = (श्री कृष्ण) परमात्मा। ठाइ = ठाय, जगह में। लीला = एक करिश्मा, खेल। लखी न जाइ = बयान नहीं हो सकती।4।

करनैहार = हे पैदा करने वाले! सिरजणहार = हे सृजनहार! नानक = हे नानक! गुरि = गुरू ने। खोऐ = नाश किए। भरम = भुलेखे।5।

अर्थ: हे भगवान! हे धरती के पति! तुझे सर्व-व्यापक को नमस्कार है। तू (सारी) ख़लकत को पैदा करने वाला सब जगह मौजूद है।1। रहाउ।

हे जगत के मूल! हे बख्शिश करने वाले! हे सब जीवों को पालने वाले! हे (सब पर) रहम करने वाले! हे अल्लाह! हे अलख! हे अपार! तू स्वयं ही सब का मालिक है, तू बड़ा बेअंत है।1।

हे जगत के नाथ! हे जगत के जीवन! हे माया के पति! हे (जीवों का हरेक) डर नाश करने वाले! हे हृदय में आराधना के योग्य! हे इन्द्रियों के मालिक! हे गोपाल! हे गोविंद! हे मुक्ति दाते! तू सब जगह व्यापक है।2।

हे मेहरवान! सिर्फ तू ही पीरों-पैगंबरों-शेखों (सबको) निजात देने वाला है। (हे भाई! वही मौला सबके) दिलों का मालिक है, (सबके दिल की जानने वाला वह सदा) न्याय करता है। वह मौला कुरान व अन्य पश्चिमी धार्मिक पुस्तकों के बताए हुए स्वरूप से अलग है।3।

हे भाई! वह दया का श्रोत परमात्मा स्वयं ही नारायण है स्वयं ही नरसिंह है। वह राम सबमें रमा हुआ है, हरेक हृदय का आसरा है। वही बासुदेव है जो सब जगह बस रहा है। उसका खेल बिल्कुल बयान नहीं की जा सकती।4।

हे सब जीवों के रचनहार! हे सृजनहार! मेहर करके दया करके तू स्वयं ही जीवों को अपनी भक्ति देता है अपनी बँदगी देता है। हे नानक! कह- गुरू ने (जिस मनुष्य के) भुलेखे दूर कर दिए, उसको (मुसलमानों का) अल्लाह और (हिन्दुओं का) पारब्रहम एक ही दिखाई दे जाते हैं।5।34।45।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh