श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ५ ॥ सगल सिआनप छाडि ॥ करि सेवा सेवक साजि ॥ अपना आपु सगल मिटाइ ॥ मन चिंदे सेई फल पाइ ॥१॥ होहु सावधान अपुने गुर सिउ ॥ आसा मनसा पूरन होवै पावहि सगल निधान गुर सिउ ॥१॥ रहाउ ॥ दूजा नही जानै कोइ ॥ सतगुरु निरंजनु सोइ ॥ मानुख का करि रूपु न जानु ॥ मिली निमाने मानु ॥२॥ गुर की हरि टेक टिकाइ ॥ अवर आसा सभ लाहि ॥ हरि का नामु मागु निधानु ॥ ता दरगह पावहि मानु ॥३॥ गुर का बचनु जपि मंतु ॥ एहा भगति सार ततु ॥ सतिगुर भए दइआल ॥ नानक दास निहाल ॥४॥२८॥३९॥ {पन्ना 895}

पद्अर्थ: सगल सिआनप = सारी चतुराईयाँ, ऐसे विचार कि तू बड़ा समझदार है। सेवक साजि = सेवक की मर्यादा से, सेवक बन के। आपु = स्वै भाव। मन चिंदे = मन के चितवे हुए। पाइ = (पाय) पाता है।1।

सावधान = (स+अवधान) अवधान सहित, ध्यान सहित। गुर सिउ = गुरू के साथ। मनसा = मन का फुरना। पावहि = तू प्राप्त करेगा। निधान = खजाना।1। रहाउ।

जानै = जानता। निरंजनु = (निर+अंजनु) माया रहित प्रभू को। न जानु = ना समझ। मिली = मिलता है। मानु = आदर।2।

टेक = आसरा। टेक टिकाइ = आसरा ले। लाहि = दूर कर के। मागु = मांग। निधानु = खजाना।3।

मंतु = मंत्र, उपदेश। जपि = जपा कर। सार = श्रेष्ठ। ततु = अस्लियत। निहाल = प्रसन्न।4।

अर्थ: हे भाई! अपने गुरू के उपदेश की तरफ, पूरा ध्यान रखा कर, तेरी (हरेक) आशा पूरी हो जाएगी, तेरा (हरेक) मन का फुरना पूरा हो जाएगा। अपने गुरू से तू सारे खजाने हासिल कर लेगा।1। रहाउ।

हे भाई! इस तरह के सारे ख्याल छोड़ दे कि (संसार-समुंद्र से पार लांघने के लिए) तू बड़ा समझदार है, सेवक वाली भावना से (गुरू के दर पर) सेवा किया कर। (जो मनुष्य गुरू के दर पर) अपना सारा स्वै भाव मिटा देता है, वही मन के चितवे हुए फल पा लेता है।1।

हे भाई! गुरू उस माया रहित निर्लिप प्रभू को ही (हर जगह) जानता है, प्रभू के बिना और किसी को (अलग हस्ती) नहीं जानता, (इस वास्ते गुरू को) निरा मनुष्य का रूप ही ना समझ। (गुरू के दर पर उसी मनुष्य को) आदर मिलता है जो (अपनी समझदारी का) अहंकार छोड़ देता है।2।

हे भाई! प्रभू के रूप गुरू का ही ओट-आसरा पकड़, अन्य (आसरों की) सभी आशाएं (मन में से) दूर कर दे। (गुरू के दर से ही) परमात्मा का नाम खजाना मांगा कर, तब ही तू प्रभू की हजूरी में आदर-सत्कार प्राप्त करेगा।3।

हे भाई! गुरू का बचन, गुरू का शबद-मंत्र (सदा) जपा कर, यही बढ़िया भक्ति है, यही है भक्ति की अस्लियत। हे नानक! जिन मनुष्यों पर सतिगुरू जी दयावान होते हैं, वह दास सदा निहाल अवस्था (चढ़दीकला) में रहते हैं।4।28।39।

रामकली महला ५ ॥ होवै सोई भल मानु ॥ आपना तजि अभिमानु ॥ दिनु रैनि सदा गुन गाउ ॥ पूरन एही सुआउ ॥१॥ आनंद करि संत हरि जपि ॥ छाडि सिआनप बहु चतुराई गुर का जपि मंतु निरमल ॥१॥ रहाउ ॥ एक की करि आस भीतरि ॥ निरमल जपि नामु हरि हरि ॥ गुर के चरन नमसकारि ॥ भवजलु उतरहि पारि ॥२॥ देवनहार दातार ॥ अंतु न पारावार ॥ जा कै घरि सरब निधान ॥ राखनहार निदान ॥३॥ नानक पाइआ एहु निधान ॥ हरे हरि निरमल नाम ॥ जो जपै तिस की गति होइ ॥ नानक करमि परापति होइ ॥४॥२९॥४०॥ {पन्ना 895}

पद्अर्थ: होवै = जो कुछ प्रभू की रजा अनुसार हो रहा है। सोई = उसी को। भल = भला। मानु = मान। तजि = छोड़। रैनि = रात। गाउ = गाता रह। सुआउ = जीवन मनोरथ। पूरन = पूर्ण, ठीक।1।

संत हरि जपि = संत प्रभू का नाम जपता रह। मंतु = मंत्र, शबद। निरमल = पवित्र।1। रहाउ।

भीतरि = अपने अंदर। नमसकारि = सिर झुकाया कर। भवजलु = संसार समुंदर।2।

देवनहार = सब कुछ देने की ताकत वाला। पारावार = पार+अवार, परला उरला छोर। जा कै घरि = जिस (प्रभू) के घर में। सरब = सारे। निदान = आखिर को, जब और सारी आशाएं समाप्त हो जाएं।3।

जो = जो मनुष्य। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। करमि = (प्रभू की) कृपा से।4।

तिस की: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! ये ख्याल छोड़ दे कि गुरू की अगुवाई के बिना संसार-समुंदर से पार लांघने के लिए तू बहुत समझदार और चतुर है। गुरू का पवित्र शबद-मंत्र जपा कर, (शांति के श्रोत) संत-हरी का नाम जपा कर और (इस तरह) आत्मिक आनंद (सदा) ले।1। रहाउ।

हे भाई! जो कुछ प्रभू की रजा में हो रहा है उसी को भला मान, अपनी (समझदारी) का गुमान छोड़ दे। दिन-रात हर वक्त परमात्मा के गुण गाता रह; बस! यही है ठीक जीवन-मनोरथ।1।

हे भाई! एक परमात्मा की (सहायता की) आस अपने मन में टिकाए रख, परमात्मा का पवित्र नाम सदा जपता रह; गुरू के चरणों पर अपना सिर झुकाए रख, (इस तरह) तू संसार-समुंद्र से पार लांघ जाएगा।2।

(हे भाई! ये याद रख कि) दातें देने वाला प्रभू (सब कुछ) देने के समर्थ है, उसका अंत नहीं पड़ सकता, उसका इस पार उस पार का छोर नहीं मिल सकता। हे भाई! जिस प्रभू के घर में सारे खजाने मौजूद हैं, वही आखिर रक्षा करने के योग्य है।3।

हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा के पवित्र नाम का ये खजाना पा लिया, जो मनुष्य इस नाम को (सदा) जपता है उसकी उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है। पर, हे नानक! ये नाम-खजाना परमात्मा की मेहर से ही मिलता है।4।29।40।

रामकली महला ५ ॥ दुलभ देह सवारि ॥ जाहि न दरगह हारि ॥ हलति पलति तुधु होइ वडिआई ॥ अंत की बेला लए छडाई ॥१॥ राम के गुन गाउ ॥ हलतु पलतु होहि दोवै सुहेले अचरज पुरखु धिआउ ॥१॥ रहाउ ॥ ऊठत बैठत हरि जापु ॥ बिनसै सगल संतापु ॥ बैरी सभि होवहि मीत ॥ निरमलु तेरा होवै चीत ॥२॥ सभ ते ऊतम इहु करमु ॥ सगल धरम महि स्रेसट धरमु ॥ हरि सिमरनि तेरा होइ उधारु ॥ जनम जनम का उतरै भारु ॥३॥ पूरन तेरी होवै आस ॥ जम की कटीऐ तेरी फास ॥ गुर का उपदेसु सुनीजै ॥ नानक सुखि सहजि समीजै ॥४॥३०॥४१॥ {पन्ना 895}

पद्अर्थ: दुलभ = दुर्लभ, जो मुश्किल से मिली हैं। देह = शरीर। सवारि = सवार ले, सफल कर ले। हारि = हार के। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। बेला = समय।1।

गाउ = गाता रह। हलतु = ये लोक। पलतु = परलोक। होहि = हो जाए। सुहेले = आसान। धिआउ = ध्यान धरा कर।1। रहाउ।

जापु = भजन कर। सगल = सारा। संतापु = दुख कलेश। सभि = सारे। चीत = चिक्त।2।

ते = से। सिमरनि = सिमरन के द्वारा। उधारु = पार उतारा।3।

कटीअै = काटीजाती है। सुनीजै = सुनना चाहिए। सुखि = सुख में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समीजै = टिक जाना है।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के गुण गाया कर, आश्चर्य-रूप अकाल-पुरख का ध्यान धरा कर, (इस तरह तेरा) ये लोक (और तेरा) परलोक दोनों सुखी हो जाएंगे।1। रहाउ।

(हे भाई! परमात्मा के गुण गा के) इस मानस शरीर को सफल कर ले जो बड़ी मुश्किल से मिलता है, (सिफत-सालाह की बरकति से यहाँ से मानस जनम की बाजी) हार के दरगाह में नहीं जाएगा; तुझे इस लोक में और परलोक में शोभा मिलेगी। (परमात्मा की सिफतसालाह) तुझे आखिरी वक्त भी (माया के मोह के बँधनों से) छुड़ा लेगी।1।

(हे भाई!) उठते-बैठते (हर वक्त) परमात्मा का नाम जपा कर, (नाम की बरकति से) सारा दुख कलेश मिट जाता है। (नाम जपने से तेरे) सारे वैरी (तेरे) मित्र बन जाएंगे, तेरा अपना मन (वैर आदि से) पवित्र हो जाएगा।2।

(हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरना ही) सारे कामों से अच्छा काम है, सारे धर्मों से यही बढ़िया धर्म है। हे भाई! परमात्मा का सिमरन करने से तेरा पार उतारा हो जाएगा। (सिमरन की बरकति से) अनेकों जन्मों (के विकारों की मैल) का भार उतर जाता है।3।

(हे भाई! सिमरन करते हुए) तेरी (हरेक) आशा पूरी हो जाएगी, तेरी जमों वाली फाही (भी) काटी जाएगी। हे नानक! (कह- हे भाई!) गुरू का (ये नाम-सिमरन का) उपदेश (सदा) सुनना चाहिए, (इसकी बरकति से) आत्मिक सुख में आत्मिक अडोलता में टिका जाता है।4।30।41।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh