श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ५ ॥ महिमा न जानहि बेद ॥ ब्रहमे नही जानहि भेद ॥ अवतार न जानहि अंतु ॥ परमेसरु पारब्रहम बेअंतु ॥१॥ अपनी गति आपि जानै ॥ सुणि सुणि अवर वखानै ॥१॥ रहाउ ॥ संकरा नही जानहि भेव ॥ खोजत हारे देव ॥ देवीआ नही जानै मरम ॥ सभ ऊपरि अलख पारब्रहम ॥२॥ अपनै रंगि करता केल ॥ आपि बिछोरै आपे मेल ॥ इकि भरमे इकि भगती लाए ॥ अपणा कीआ आपि जणाए ॥३॥ संतन की सुणि साची साखी ॥ सो बोलहि जो पेखहि आखी ॥ नही लेपु तिसु पुंनि न पापि ॥ नानक का प्रभु आपे आपि ॥४॥२५॥३६॥ {पन्ना 894}

पद्अर्थ: महिमा = वडिआई। न जानहि = नहीं जानते (बहुवचन)। बेद = चारों वेद (बहुवचन)। ब्रहमे = अनेकों ब्रहमा (बहुवचन)। भेद = (परमात्मा के) दिल की बात।1।

गति = हालत। जानै = जानता है। सुणि = सुन के। अवर = औरों से। वखानै = (जगत) बयान करता है।1। रहाउ।

संकर = अनेकों शिव। भेव = भेद। हारे = थक गए। जानै = जानते। मरम = भेद। अलख = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके।2।

अपनै रंगि = अपनी मौज में। करता = करता रहता है। केल = खेल, करिश्मे, तमाशे। बिछोरै = विछोड़ता है। आपे = आप ही। इकि = ('इक' का बहुवचन) अनेक जीव। भरमे = भ्रम में ही। कीआ = पैदा किया हुआ (जगत)। जणाऐ = सूझ देता है।3।

साची साखी = सदा कायम रहने वाली बात। सो = वह कुछ। बोलहि = बोलते हैं (बहुवचन)। पेखहि = देखते हैं। आखी = (अपनी) आँखों से। लेपु = प्रभाव, असर। पुंनि = पुन्य ने। पापि = पाप ने। आपे आपि = अपने जैसा स्वयं ही स्वयं।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा कैसा है - ये बात वह खुद ही जानता है। (जीव) औरों से सुन-सुन के ही (परमात्मा के बारे में) वर्णन करता रहता है।1। रहाउ।

(हे भाई! प्रभू कितना बड़ा है- ये बात) (चारों) वेद (भी) नहीं जानते। अनेकों ब्रहमा भी (उसके) दिल की बात नहीं जानते। सारे अवतार भी उस (परमात्मा के गुणों) का अंत नहीं जानते। हे भाई! पारब्रहम परमेश्वर बेअंत है।1।

(हे भाई!) अनेकों शिव जी परमात्मा के दिल की बात नहीं जानते, अनेकों देवते उसकी खोज करते-करते थक गए। देवियों में से भी कोई उसका भेद नहीं जानती। हे भाई! परमात्मा सबसे बड़ा है, उसके सही स्वरूप का बयान नहीं किया जा सकता।2।

(हे भाई!) परमात्मा अपनी मौज में (जगत के सारे) करिश्मे कर रहा है, प्रभू खुद ही (जीवों को अपने चरणों से) विछोड़ता है, खुद ही मिलाता है। अनेकों जीवों को उसने भटकनों में डाला हुआ है, और अनेकों जीवों को अपनी भक्ति में जोड़ा हुआ है। (ये जगत उसका) अपना ही पैदा किया हुआ है, (इसको वह) खुद ही सूझ बख्शता है।3।

(हे भाई!) संत-जनों के बारे में सच्ची बात सुन। संत जन वह कुछ कहते हैं जो वे अपनी आँखों से देखते हैं। (संतजन कहते हैं कि) उस परमात्मा पर ना किसी पून्य और ना ही किसी पाप ने (कभी अपना) कोई असर किया है। हे भाई! नानक का परमात्मा (अपने जैसा) स्वयं ही स्वयं है।4।25।36।

रामकली महला ५ ॥ किछहू काजु न कीओ जानि ॥ सुरति मति नाही किछु गिआनि ॥ जाप ताप सील नही धरम ॥ किछू न जानउ कैसा करम ॥१॥ ठाकुर प्रीतम प्रभ मेरे ॥ तुझ बिनु दूजा अवरु न कोई भूलह चूकह प्रभ तेरे ॥१॥ रहाउ ॥ रिधि न बुधि न सिधि प्रगासु ॥ बिखै बिआधि के गाव महि बासु ॥ करणहार मेरे प्रभ एक ॥ नाम तेरे की मन महि टेक ॥२॥ सुणि सुणि जीवउ मनि इहु बिस्रामु ॥ पाप खंडन प्रभ तेरो नामु ॥ तू अगनतु जीअ का दाता ॥ जिसहि जणावहि तिनि तू जाता ॥३॥ जो उपाइओ तिसु तेरी आस ॥ सगल अराधहि प्रभ गुणतास ॥ नानक दास तेरै कुरबाणु ॥ बेअंत साहिबु मेरा मिहरवाणु ॥४॥२६॥३७॥ {पन्ना 894}

पद्अर्थ: किछहू काजु = कोई भी (अच्छा) काम। कीओ = किया। जानि = जान के। गिआनि = ज्ञान चर्चा में। सुरति = ध्यान, लगन। सील = अच्छा स्वभाव। न जानउ = मैं नहीं जानता। करम = कर्म काण्ड।1।

ठाकुर = हे ठाकुर! भूलह = (यदि) हम भूलें करते हैं। चूकह = (अगर) हम चूक करते हैं। प्रभ = हे प्रभू!।1। रहाउ।

रिधि = (Supernatural Power) करामाती ताकत जिससे मन-इच्छित पदार्थ प्राप्त किए जा सकते हैं। सिधि = करामाती ताकत। बुधि = ऊँची सूझ बूझ। बिखै = विषौ। बिआधि = (व्याधि) शारीरिक रोग। गाव महि = गाँव में (शब्द 'गाउ' से संबंधक के कारण 'गाव' बन गया है)। टेक = आसरा।2।

जीवउ = मैं जीता हूँ। मनि = मन में। बिस्रामु = विश्राम, धरवास। पाप खंडन = पापों का नाश करने वाला। प्रभ = हे प्रभू! अगनतु = (अ+गनतु) लेखे से परे। जीअ का = जीवात्मा का। जिसहि = जिसको। जणावहि = तू समझ बख्शता है। तिनि = उस मनुष्य ने। तू = तुझे।3।

उपाइओ = (तूने) पैदा किया है। सगल = सारे जीव। अराधहि = आराधना करते हैं, याद करते हैं। गुणतास = गुणों का खजाना। तेरै = तुझसे। साहिबु = मालिक।4।

अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभू! हे मेरे ठाकुर! यदि हम भूलें करते हैं, अगर हम (जीवन-राह में) चूकते हैं, तो भी हे प्रभू! हम तेरे ही हैं, तेरे बिना हमारा और कोई नहीं है।1। रहाउ।

हे प्रभू! मुझे कोई समझ नहीं कि कर्म-काण्ड किस तरह के होते हैं; जपों तपों सील धर्म को भी मैं नहीं जानता। हे प्रभू! ज्ञान-चर्चा में भी मेरी सुरति मेरी मति नहीं टिकती। मैं इस तरह का कोई काम मिथ के नहीं करता।1।

हे मेरे प्रभू! करामाती ताकतों की सूझ-बूझ और रौशनी मेरे अंदर नहीं है। विकारों और रोगों के इस शरीर-पिंड में मेरा बसेरा है। हे मेरे सृजनहार! मेरे मन में सिर्फ तेरे नाम का सहारा है।2।

हे मेरे प्रभू! मेरे मन में (सिर्फ) एक धरवास है कि तेरा नाम पापों का नाश करने वाला है; (तेरा नाम) सुन-सुन के ही मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूँ। प्रभू! तेरी ताकतें गिनी नहीं जा सकतीं, तू ही जीवात्मा देने वाला है। जिस मनुष्य को तू समझ बख्शता है, उसने ही तेरे साथ जान-पहचान डाली है।3।

हे गुणों के खजाने प्रभू! सारे जीव तेरी ही आराधना करते हैं, जिस-जिस जीव को तूने पैदा किया है, उसको तेरी (सहायता की) ही आस है। तेरा दास नानक तुझसे बलिहार जाता है (और कहता है-) तू मेरा मालिक है, तू बेअंत है, तू सदा दया करने वाला है।4।26।37।

भाव: परमात्मा का नाम ही सारे पापों का नाश करने वाला है। कोई कर्म-धर्म, कोई ज्ञान-चर्चा, कोई रिद्धियाँ-सिद्धियाँ इसकी बराबरी नहीं कर सकती।

रामकली महला ५ ॥ राखनहार दइआल ॥ कोटि भव खंडे निमख खिआल ॥ सगल अराधहि जंत ॥ मिलीऐ प्रभ गुर मिलि मंत ॥१॥ जीअन को दाता मेरा प्रभु ॥ पूरन परमेसुर सुआमी घटि घटि राता मेरा प्रभु ॥१॥ रहाउ ॥ ता की गही मन ओट ॥ बंधन ते होई छोट ॥ हिरदै जपि परमानंद ॥ मन माहि भए अनंद ॥२॥ तारण तरण हरि सरण ॥ जीवन रूप हरि चरण ॥ संतन के प्राण अधार ॥ ऊचे ते ऊच अपार ॥३॥ सु मति सारु जितु हरि सिमरीजै ॥ करि किरपा जिसु आपे दीजै ॥ सूख सहज आनंद हरि नाउ ॥ नानक जपिआ गुर मिलि नाउ ॥४॥२७॥३८॥ {पन्ना 894-895}

पद्अर्थ: दइआल = दया का घर। कोटि = करोड़ों। भव = जनम, जन्मों के चक्कर। खंडे = नाश हो जाते हैं। निमख = (निमेष) आँख के झपकने जितना समय। खि्आल = ध्यान। सगल जंत = सारे जीव। मिलिअै प्रभ = प्रभू को मिल सकते हैं। गुर मिलि = गुरू को मिल के। गुर मंत = गुरू का उपदेश (ले के)।1।

को = का। पूरन = सर्व व्यापक। सुआमी = मालिक। घटि घटि = हरेक शरीर में। राता = रमा हुआ।1। रहाउ।

ता की = उस (प्रभू) की। गही = पकड़ी। मन = हे मन! ओट = आसरा। ते = से। छोट = मुक्ति। हिरदै = हृदय में। जपि = जप के। माहि = में।2।

तरण = जहाज। प्राण अधार = जिंद का आसरा। ऊचे ते ऊच = ऊँचे से ऊँचा, सबसे ऊँचा। अपार = (अ+पार) जिसकी हस्ती का परला छोर ना मिल सके, बेअंत।3।

सारु = संभाल, ग्रहण कर। जितु = जिस (मति) के द्वारा। सिमरीजै = सिमरा जा सकता है। करि = कर के। सहज = आत्मिक अडोलता। नाउ = नाम।4।

अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभू सब जीवों को दातें देने वाला है। वह मेरा मालिक परमेश्वर प्रभू सबमें व्यापक है, हरेक शरीर में रमा हुआ है।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा सब जीवों की रक्षा करने में समर्थ है, दया का श्रोत है। अगर आँख फरकने जितने समय के लिए भी उसका ध्यान धरें, तो करोड़ों जन्मों के चक्कर काटे जाते हैं। सारे जीव उसीकी आराधना करते हैं। हे भाई! गुरू को मिल के, गुरू का उपदेश ले के उस प्रभू को मिला जा सकता है।1।

हे मन! जिस व्यक्ति ने उस परमात्मा का आसरा ले लिया, (माया के मोह के) बँधनों से उसकी मुक्ति हो गई। सबसे ऊँचे सुख के मालिक प्रभू को हृदय में जप के मन में खुशियां ही खुशियां बन जाती हैं।2।

हे भाई! परमात्मा का आसरा (संसार-समुंद्र से) पार लंघाने के लिए जहाज़ है। प्रभू के चरणों की ओट आत्मिक जीवन देने वाली है। परमात्मा संत जनों की जिंद का आसरा है, वह सबसे ऊँचा और बेअंत है।3।

हे भाई! वह मति ग्रहण कर, जिससे परमात्मा का सिमरन किया जा सके, (पर वही मनुष्य ऐसी बुद्धि ग्रहण करता है) जिसको प्रभू कृपा करके खुद दे देता है। परमात्मा का नाम सुख आत्मिक अडोलता और आनंद (का श्रोत) है। हे नानक! (जिसने) यह नाम (जपा है) गुरू को मिल के ही जपा है।4।27।38।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh