श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 893 रामकली महला ५ ॥ रैणि दिनसु जपउ हरि नाउ ॥ आगै दरगह पावउ थाउ ॥ सदा अनंदु न होवी सोगु ॥ कबहू न बिआपै हउमै रोगु ॥१॥ खोजहु संतहु हरि ब्रहम गिआनी ॥ बिसमन बिसम भए बिसमादा परम गति पावहि हरि सिमरि परानी ॥१॥ रहाउ ॥ गनि मिनि देखहु सगल बीचारि ॥ नाम बिना को सकै न तारि ॥ सगल उपाव न चालहि संगि ॥ भवजलु तरीऐ प्रभ कै रंगि ॥२॥ देही धोइ न उतरै मैलु ॥ हउमै बिआपै दुबिधा फैलु ॥ हरि हरि अउखधु जो जनु खाइ ॥ ता का रोगु सगल मिटि जाइ ॥३॥ करि किरपा पारब्रहम दइआल ॥ मन ते कबहु न बिसरु गुोपाल ॥ तेरे दास की होवा धूरि ॥ नानक की प्रभ सरधा पूरि ॥४॥२२॥३३॥ {पन्ना 893} पद्अर्थ: रैणि = रजनि, रात। दिनसु = दिन। जपउ = मैं जपता रहूँ। आगै = परलोक में। पावउ = मैं हासिल करूँ। सोगु = शोक, चिंता। होवी = होगा। न बिआपै = अपना जोर नहीं डाल सकता।1। संतहु = हे संत जनो! ब्रहम गिआनी = परमात्मा से सांझ रखने वाला। ब्रहम गिआनी संतहु = परमात्मा से सांझ रखने वाले हे संत जनो! खोजहु = तलाश करो। बिसम = आश्चर्य। बिसमन बिसम = बहुत ही हैरान करने वाली। बिसमादा = हैरानी करने वाली ये अवस्था। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। परानी = हे प्राणी!।1। रहाउ। गनि = गिन के। मिनि = मिण के, नाप के। बीचारि = बिचार के। को = कोई। सकै न तारि = तैरा न सके। उपाव = ('उपाउ' का बहुवचन) उपाय। सगल = सारे। संगि = साथ। भवजलु = संसार समुंद्र। तरीअै = तैरा जा सकता है। कै रंगि = के प्रेम में रहने से।2। देही = शरीर। धोइ = (धोय), धो के। दुबिधा = दुचिक्तापन, अंदर से और और बाहर से और होना। फैलु = बिखराव, पसारा। अउखधु = दवा। ता का = उस (मनुष्य) का।3। ते = से। कबहु न = कभी भी ना। गुोपाल = हे गोपाल! (असल शब्द है 'गोपाल', यहाँ पढ़ना है 'गुपाल')। होवा = होऊँ, मैं हो जाऊँ। सरधा = तमन्ना, इच्छा। पूरि = पूरी कर।4। अर्थ: परमात्मा के साथ गहरी सांझ रखने वाले हे संतजनो! सदा परमात्मा की खोज करते रहो। हे प्राणी! (सदा) परमात्मा का सिमरन करता रह; (सिमरन की बरकति से) बड़ी ही आश्चर्यजनक आत्मिक अवस्था बन जाएगी, तू सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेगा।1। रहाउ। (हे प्रभू! कृपा कर) मैं दिन-रात हरी का नाम जपता रहूँ, (और इस तरह) परलोक में तेरी हजूरी में जगह प्राप्त कर लूँ। (जो मनुष्य सदा नाम जपता है, उसको) सदा आनंद बना रहता है, उसे कभी चिंता नहीं व्यापती, अहंकार का रोग कभी उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।1। हे संत जनो! सारे ध्यान से अच्छी तरह विचार के देख लो, परमात्मा के नाम के बिना और कोई भी (संसार-समुंद्र से) पार नहीं लंघा सकता। (नाम के बिना) और सारे ही उपाय (मनुष्य के) साथ नहीं जाते (सहायता नहीं करते)। प्रभू के प्रेम-रंग में रंगे रहने से संसार-समुंदर में से पार लांघा जा सकता है।2। (हे संत जनों! तीर्थ आदि पर) शरीर को धोने से (मन की विकारों वाली) मैल दूर नहीं होती, (बल्कि ये) अहंकार अपना दबाव बना लेता है (कि मैं तीर्थ-स्नान करके आया हूँ। व्यक्ति के अंदर) अंदर से और व बाहर से और होने का पसारा पसर जाता है (मनुष्य पाखण्डी हो जाता है)। हे संत जनो! जो मनुष्य परमात्मा के नाम की दवाई खाता है, उसका सारा (मानसिक) रोग दूर हो जाता है।3। हे पारब्रहम! हे दया के घर! (मेरे ऊपर) मेहर कर। हे गोपाल! तू मेरे मन से कभी भी ना बिसर। हे प्रभू! मैं तेरे दासों के चरणों की धूल बना रहूँ- नानक की ये चाहत पूरी कर।4।22।33। रामकली महला ५ ॥ तेरी सरणि पूरे गुरदेव ॥ तुधु बिनु दूजा नाही कोइ ॥ तू समरथु पूरन पारब्रहमु ॥ सो धिआए पूरा जिसु करमु ॥१॥ तरण तारण प्रभ तेरो नाउ ॥ एका सरणि गही मन मेरै तुधु बिनु दूजा नाही ठाउ ॥१॥ रहाउ ॥ जपि जपि जीवा तेरा नाउ ॥ आगै दरगह पावउ ठाउ ॥ दूखु अंधेरा मन ते जाइ ॥ दुरमति बिनसै राचै हरि नाइ ॥२॥ चरन कमल सिउ लागी प्रीति ॥ गुर पूरे की निरमल रीति ॥ भउ भागा निरभउ मनि बसै ॥ अम्रित नामु रसना नित जपै ॥३॥ कोटि जनम के काटे फाहे ॥ पाइआ लाभु सचा धनु लाहे ॥ तोटि न आवै अखुट भंडार ॥ नानक भगत सोहहि हरि दुआर ॥४॥२३॥३४॥ {पन्ना 893} पद्अर्थ: गुरदेव = हे गुरदेव! समरथु = सब ताकतों के मालिक। सो = वह बंदा। जिसु = जिस पर। करमु = बख्शिश।1। तरण = बेड़ी, नाव। प्रभ = हे प्रभू! गही = पकड़ी। मन मेरै = मेरे मन ने। ठाउ = जगह।1। रहाउ। जपि = जप के। जपि जपि = बार बार जप के। जीवा = मैं जीता हूँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। पावउ = मैं प्राप्त करता हूँ। मन ते = मन से। जाइ = चला जाता है। दुरमति = बुरी मति। राचै = रचता है, लीन रहता है। नाइ = नाय, नाम में।2। सिउ = साथ। चरन कमल = कमल फूलों जैसे सुंदर चरण। निरमल = पवित्र। रीति = मर्यादा। भउ = डर। निरभउ = डर रहित परमात्मा। मनि = मन में। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। रसना = जीभ (से)।3। कोटि = करोड़ों। सचा = सदा कायम रहने वाला। लाहे = नफा। तोटि = घाटा। अखुट = कभी ना खत्म होने वाला। भंडार = खजाने। सोहहि = शोभते हैं। दुआर = द्वार, दरवाजे पर।4। अर्थ: हे प्रभू! तेरा नाम (जीवों को संसार-समुंदर से) पार लंघाने के लिए जहाज है। मेरे मन ने एक तेरी ही ओट ली है। हे प्रभू! तेरे बिना मुझे कोई और (आसरे वाली) जगह नहीं सूझती।1। रहाउ। हे सर्व-गुण भरपूर और सबसे बड़े देवते! मैं तेरी शरण आया हूँ। तेरे बिना मुझे कोई और (सहायता करने वाला) नहीं (दिखता)। तू सब ताकतों का मालिक है, तू हर जगह व्यापक परमेश्वर है। वही मनुष्य तेरा ध्यान धर सकता है जिस पर तेरी बख्शिश हो।1। हे मेरे गुरदेव! तेरा नाम जप-जप के मैं (यहाँ) आत्मिक जीवन हासिल कर रहा हूँ, आगे भी तेरी हजूरी में मैं (टिकने के योग्य) जगह प्राप्त कर सकूँगा। हे प्रभू! जो मनुष्य तेरे नाम में लीन होता है, (उसके अंदर से) दुर्मति दूर हो जाती है, उसके मन से दुख-कलेश और (माया के मोह का) अंधेरा चला जाता है।2। (हे भाई! परमात्मा का नाम जपना ही) पूरे गुरू की पवित्र जीवन मर्यादा है (जो मनुष्य ये मर्यादा धारण करता है, उसका) प्यार (परमात्मा के) सुंदर चरणों से बन जाता है। जो मनुष्य अपनी जीभ से आत्मिक जीवन देने वाला नाम नित्य जपता है, डर-रहित प्रभू उसके मन में आ बसता है (इसलिए उसका हरेक) डर दूर हो जाता है।3। हे नानक! परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे परमात्मा के दर पे शोभा पाते हैं। (भक्ति के सदका) उनके पहले करोड़ों जन्मों के (माया के) बँधन काटे जाते हैं (जीव यहाँ जगत में हरी-नाम-धन का व्यापार करने आते हैं। प्रभू की भक्ति करने वाले बंदे) सदा कायम रहने वाला हरी-नाम-धन लाभ कमा लेते हैं (उनके पास इस नाम-धन के) कभी ना खत्म होने वाले खजाने (भर जाते हैं जिनमें) कभी घाटा नहीं पड़ता।4।23।34। रामकली महला ५ ॥ रतन जवेहर नाम ॥ सतु संतोखु गिआन ॥ सूख सहज दइआ का पोता ॥ हरि भगता हवालै होता ॥१॥ मेरे राम को भंडारु ॥ खात खरचि कछु तोटि न आवै अंतु नही हरि पारावारु ॥१॥ रहाउ ॥ कीरतनु निरमोलक हीरा ॥ आनंद गुणी गहीरा ॥ अनहद बाणी पूंजी ॥ संतन हथि राखी कूंजी ॥२॥ सुंन समाधि गुफा तह आसनु ॥ केवल ब्रहम पूरन तह बासनु ॥ भगत संगि प्रभु गोसटि करत ॥ तह हरख न सोग न जनम न मरत ॥३॥ करि किरपा जिसु आपि दिवाइआ ॥ साधसंगि तिनि हरि धनु पाइआ ॥ दइआल पुरख नानक अरदासि ॥ हरि मेरी वरतणि हरि मेरी रासि ॥४॥२४॥३५॥ {पन्ना 893-894} पद्अर्थ: सतु = दान, सेवा। गिआन = परमात्मा से जान पहचान, उच्च आत्मिक जीवन की सूझ। सहज = आत्मिक अडोलता। पोता = पोतह, खजाना। भगता हवालै = भगतों के वश में।1। को = का। भंडार = खजाना। खात = खाते हुए। खरचि = खर्च के। तोटि = कमी। पारावारु = (पार+अवार) परला और उरला छोर।1। रहाउ। निरमोलक = जिसका मूल्य ना पाया जा सके। गुणी = गुणों के मालिक प्रभू। गहीरा = गहरा, समुंद्र। अनहद = अनाहत, बिना बजाए बजने वाली, एक रस जारी रहने वाली। बाणी = सिफत सालाह की रौंअ। पूँजी = राशि, सरमाया। संतन हथि = संतों के हाथ में। कूँजी = कूंजी।2। सुंन = शून्य, फुरनों का अभाव, जहाँ कोई मायावी विचार ना उठें। तह = वहाँ, उस हृदय में। गुफा आसनु = गुफा में ठिकाना। बासनु = वास। संगि = साथ। गोसटि = मिलाप। हरख = खुशी। सोग = ग़म। मरत = मौत।3। करि = कर के। जिसु = जिस मनुष्य को। साध संगि = गुरू की संगति में। तिनि = उस (मनुष्य) ने। दइआल = हे दया के घर प्रभू! नानक अरदासि = नानक की प्रार्थना। वरतणि = हर वक्त इस्तेमाल की जाने वाली चीज़। रासि = पूँजी, सरमाया।4। अर्थ: (हे भाई!) प्यारे प्रभू का खजाना (ऐसा है कि उसको) खुद इस्तेमाल करते हुए और औरों को बाँटते हुए (उसमें) कमी नहीं आती। उस परमातमा के खजाने का अंत नहीं मिलता, उसकी हस्ती का उरला-परला छोर नहीं मिलता।1। रहाउ। (हे भाई! प्यारे प्रभू का खजाना ऐसा है जिसमें उसका) नाम (ही) रतन और जवाहरात हैं, उसमें सत-संतोख और ऊँचे आत्मिक जीवन की सूझ कीमती पदार्थ हैं। वह खजाना सुख, आत्मिक अडोलता व दया के श्रोत हैं। पर, वह खजाना परमात्मा के भक्तों के सुपुर्द होया हुआ है।1। (हे भाई! प्यारे प्रभू का खजाना ऐसा है जिसमें उसका) कीर्तन एक ऐसा हीरा है जिसका मूल्य नहीं पड़ सकता (उस कीर्तन की बरकति से) गुणों के मालिक समुंदर-प्रभू (के मिलाप) का आनंद (प्राप्त होता है)। (कीर्तन की बरकति से पैदा हुई) एक-रस जारी रहने वाली सिफत-सालाह की रौंअ (उस खजाने में मनुष्य के लिए) राशि-पूँजी है। (पर, परमात्मा ने इस खजाने की) कूँजी संतों के हाथ में रखी हुई है।2। (हे भाई! जिस हृदय-घर में वह खजाना आ बसता है) वहाँ ऐसी समाधि बनी रहती है जिसमें कोई मायावी विचार नहीं उठते, (पहाड़ों की कंद्रों की जगह उस हृदय-) गुफा में मनुष्य की सुरति टिकी रहती है, उस हृदय-घर में सिर्फ पूरन परमात्मा का निवास बना रहता है। (जिस भगत के हृदय में वह खजाना प्रगट हो जाता है उस) भगत से प्रभू मिलाप बना लेता है, उस हृदय में खुशी-ग़मी, जनम-मरण (के चक्करों का डर) का कोई असर नहीं होता।3। (पर, हे भाई! सिर्फ) उस मनुष्य ने गुरू की संगति में रह के वह नाम-धन पाया है जिसको प्रभू ने खुद किरपा करके ये धन दिलवाया है। हे दया के श्रोत अकाल-पुरख! (तेरे सेवक) नानक की भी यही आरजू है कि तेरा नाम मेरा सरमाया बना रहे, तेरा नाम मेरी हर वक्त की इस्तेमाल वाली चीज़ बनी रहे।4।24।35। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |