श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 892 रामकली महला ५ ॥ आतम रामु सरब महि पेखु ॥ पूरन पूरि रहिआ प्रभ एकु ॥ रतनु अमोलु रिदे महि जानु ॥ अपनी वसतु तू आपि पछानु ॥१॥ पी अम्रितु संतन परसादि ॥ वडे भाग होवहि तउ पाईऐ बिनु जिहवा किआ जाणै सुआदु ॥१॥ रहाउ ॥ अठ दस बेद सुने कह डोरा ॥ कोटि प्रगास न दिसै अंधेरा ॥ पसू परीति घास संगि रचै ॥ जिसु नही बुझावै सो कितु बिधि बुझै ॥२॥ जानणहारु रहिआ प्रभु जानि ॥ ओति पोति भगतन संगानि ॥ बिगसि बिगसि अपुना प्रभु गावहि ॥ नानक तिन जम नेड़ि न आवहि ॥३॥१९॥३०॥ {पन्ना 892} पद्अर्थ: आतमरामु = सर्व व्यापक आत्मा। रामु = सब में रमा हुआ। सरब महि = सबमें। पेखु = देख। पूरन = पूरे तौर पर। पूरि रहिआ = व्यापक है। अमोलु = जिसका मूल्य ना पाया जा सके।1। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। परसादि = कृपा से। होवहि = (अगर) हो। तउ = तब, तो। पाईअै = प्राप्त करते हैं। बिनु जिहवा = जीभ (नाम जपे) बिना। किआ = क्या।1। रहाउ। अठ दस = अठारह। बेद = चार वेद। सुने कह = कहाँ सुन सकता है? कोटि = करोड़ों (सूर्य)। अंधेरा = (जिसकी आँखों के आगे) अंधेरा है, अंधा। संगि = साथ। रचै = मस्त रहता है। बुझावै = समझ देता। कितु बिधि = किस तरीके से? बुझै = समझ सके।2। जानणहारु = जान सकने वाला। जानि रहिआ = हर वक्त जानता है। ओतु = उना हुआ। प्रोत = परोया हुआ। ओति पोति = जैसे उना हुआ परोया हुआ हो, ताने पेटे में। संगानि = संग, साथ। बिगसि = खिल के, खुश हो के। गावहि = (जो लोग) गाते हैं। तिन नेड़ि = उनके नजदीक। जम = धर्मराज के दूत (बहुवचन)।3। अर्थ: (हे भाई! संत जनों की संगति में टिका रह, और) संत-जनों की मेहर से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीया कर। पर ये अमृत तब ही मिलता है यदि (मनुष्य के) बड़े भाग्य हैं। इस नाम को जीभ से जपे बिना कोई (इस अमृत-नाम का) क्या स्वाद जान सकता है?।1। रहाउ। (हे भाई!) सर्व-व्यापक परमात्मा को सब जीवों में (बसता) देख। एक परमात्मा ही पूर्ण तौर पर सबमें मौजूद है। हे भाई! हरी-नाम एक एैसा रतन है जिसका मूल्य नहीं पाया जा सकता, यह रत्न जिसके हृदय में बस रहा है, उसके साथ सांझ डाल। (दुनिया के सारे पदार्थ बेगाने हो जाते हैं, ये हरी-नाम ही) तेरी अपनी चीज है, तू खुद ही इस चीज को पहचान।1। (पर हे भाई!) बहरा मनुष्य अठारह पुराण और चार वेद कैसे सुन सकता है? अंधे व्यक्ति को करोड़ों सूरजों की रौशनी भी नहीं दिखाई देती। पशु का प्यार घास से ही होता है, पशु घास से ही खुश रहता है। (जीव माया के मोह में पड़ कर अंधा-बहरा हुआ रहता है, पशू के समान हो जाता है, इसको अपने-आप हरी-नाम की समझ नहीं पड़ सकती, और) जिस मनुष्य को परमात्मा स्वयं समझ ना बख्शे, वह किसी तरह भी समझ नहीं सकता।2। हे भाई! सबके दिल की जानने वाला परमात्मा हमेशा हरेक के दिल की जानता है। वह अपने भक्तों से इस तरह मिला रहता है जैसे ताना-पेटा। हे नानक! जो मनुष्य खुश हो-हो के अपने प्रभू (के गुणों) को गाते रहते हैं, जम दूत उनके नजदीक नहीं आते।3।19।30। रामकली महला ५ ॥ दीनो नामु कीओ पवितु ॥ हरि धनु रासि निरास इह बितु ॥ काटी बंधि हरि सेवा लाए ॥ हरि हरि भगति राम गुण गाए ॥१॥ बाजे अनहद बाजा ॥ रसकि रसकि गुण गावहि हरि जन अपनै गुरदेवि निवाजा ॥१॥ रहाउ ॥ आइ बनिओ पूरबला भागु ॥ जनम जनम का सोइआ जागु ॥ गई गिलानि साध कै संगि ॥ मनु तनु रातो हरि कै रंगि ॥२॥ राखे राखनहार दइआल ॥ ना किछु सेवा ना किछु घाल ॥ करि किरपा प्रभि कीनी दइआ ॥ बूडत दुख महि काढि लइआ ॥३॥ सुणि सुणि उपजिओ मन महि चाउ ॥ आठ पहर हरि के गुण गाउ ॥ गावत गावत परम गति पाई ॥ गुर प्रसादि नानक लिव लाई ॥४॥२०॥३१॥ {पन्ना 892} पद्अर्थ: दीनो = दिया। रासि = पूँजी। निरास = निर+आस, आशा के बिना, उपराम चिक्त। बितु = धन। बंधि = रुकावट। गाऐ = गाता है।1। गबाजे = बजते हैं, बज पड़े। अनहद = बिना बजाए, एक रस। रसकि = आनंद से। गावहि = गाते हैं। गुरदेवि = गुरदेव ने। निवाजा = मेहर की, निवाजश की।1। रहाउ। पूरबला = पहले जनम का। भाग = अच्छी किस्मत। सोइआ = सोया, सोए हुए। गिलानि = ग्लानि, नफरत। कै संगि = की संगत में। रातो = रंगा हुआ। कै रंगि = के प्रेम रंग में।2। घाल = मेहनत। करि = कर के। प्रभि = प्रभू ने। बूडत = डूब रहा।3। सुणि = सुन के। सुणि सुणि = बार बार सुन के। उपजिओ = पैदा हुआ। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। गुर प्रसादि = गुरू की किरपा से। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: (हे भाई! जिन मनुष्यों पर) अपने (प्यारे) गुरदेव ने मेहर की, हरी के वह सेवक बड़े आनंद से हरी के गुण गाते रहते हैं। उनके अंदर (इस तरह खिलाव बना रहता है, जैसे उनके अंदर) एक-रस बाजे बज रहे हैं।1। रहाउ। (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू ने परमात्मा का) नाम दे दिया, (उसका जीवन) पवित्र बना दिया। (जिसको गुरू ने) हरी-नाम-धन राशि पूँजी (बख्शी, दुनिया वाला) ये धन (देख के), वह (इस दुनियावी धन की लालच में नहीं फसता और) उपराम-चिक्त रहता है। (गुरू ने जिस मनुष्य के जीवन-राह में से माया के मोह की) रुकावट काट दी, उसको उसने परमात्मा की भक्ति में जोड़ दिया, वह मनुष्य (सदा) परमात्मा की भगती करता है, (सदा) परमात्मा के गुण गाता रहता है। (हे भाई!) गुरू की संगति में (रहने से मनुष्य के अंदर से दूसरों के लिए) नफरत दूर हो जाती है, मनुष्य का मन और तन परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा जाता है। (गुरू की संगति की बरकति से माया के मोह की नींद में से) कई जन्मों से सोया हुआ (मन) जाग जाता है, (संगति के सदका) उसका पहले जन्मों के अच्छे भाग्य मिलने का सबब आ बनता है।2। (हे भाई! गुरू की संगति में रहने से जिस मनुष्य पर) प्रभू ने कृपा की, दया की, उसको दुखों में डूबते को (प्रभू ने बाँह से पकड़ कर) बचा लिया, प्रभू ने उसकी की हुई सेवा नहीं देखी, कोई मेहनत नहीं देखी, (दुखों से) बचाने में समर्था वाले ने दया के श्रोत से उसकी रक्षा की।3। हे नानक! (गुरू की संगति में रह के परमात्मा की सिफत सालाह) बार-बार सुन के (जिस मनुष्य के) मन में (सिफत-सालाह करने का) चाव पैदा हो गया, वह आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा के गुण गाने लग पड़ा। (गुण) गाते हुए उसने सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर ली। गुरू की कृपा से उसने (प्रभू के चरणों में) सुरति जोड़ ली।4।20।31। रामकली महला ५ ॥ कउडी बदलै तिआगै रतनु ॥ छोडि जाइ ताहू का जतनु ॥ सो संचै जो होछी बात ॥ माइआ मोहिआ टेढउ जात ॥१॥ अभागे तै लाज नाही ॥ सुख सागर पूरन परमेसरु हरि न चेतिओ मन माही ॥१॥ रहाउ ॥ अम्रितु कउरा बिखिआ मीठी ॥ साकत की बिधि नैनहु डीठी ॥ कूड़ि कपटि अहंकारि रीझाना ॥ नामु सुनत जनु बिछूअ डसाना ॥२॥ माइआ कारणि सद ही झूरै ॥ मनि मुखि कबहि न उसतति करै ॥ निरभउ निरंकार दातारु ॥ तिसु सिउ प्रीति न करै गवारु ॥३॥ सभ साहा सिरि साचा साहु ॥ वेमुहताजु पूरा पातिसाहु ॥ मोह मगन लपटिओ भ्रम गिरह ॥ नानक तरीऐ तेरी मिहर ॥४॥२१॥३२॥ {पन्ना 892-893} पद्अर्थ: कउडी = तुच्छ सी चीज। बदलै = बदले में, की खातिर। छोडि जाइ = जो साथ छोड़ जाती है। ताहू का = उसी (माया) का ही। संचै = इकट्ठी करता है। होछी = तुच्छ सी। टेडउ = टेढ़ी, अकड़ अकड़ के।1। अभागे = हे भाग्यहीन! तै = तुझे। लाज = शर्म। सुख सागर = सुखों का समुंद्र। माही = में।1। रहाउ। कउरा = कड़वा। बिखिआ = माया। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। साकत = ईश्वर से टूटा हुआ मनुष्य। बिधि = हालत। नैनहु = आँखों से। कूड़ी = झूठ में, नाशवंत पदार्थ में। कपटि = कपट में। रीझाना = रीझता है, खुश होता है। जनु = जैसे कि। बिदूअ = बिच्छू। डसाना = डंक मार गया।2। सद ही = सदा ही। कारणि = की खातिर। झूरै = चिंता करता रहता है। मनि = मन में। मुखि = मुँह से। तिसु सिउ = उस से। गवारु = मूर्ख।3। सिरि = सिर पर। साचा = सदा कायम रहने वाला। वेमुहताजु = जिसको किसी की मुथाजी नहीं, किसी से गर्ज नहीं। मगन = मस्त, डूबा हुआ। लपटिओ = चिपका हुआ। गिरह = गाँठ। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे बद्-नसीब (साकत)! तुझे (कभी ये) शर्म नहीं आती कि जो सर्व-व्यापक परमात्मा सारे सुखों का समुंद्र है उसको तू अपने मन में याद नहीं करता।1। रहाउ। (परमात्मा का नाम अमूल्य रत्न है, इसके मुकाबले में माया कौड़ी के बराबर है; पर साकत मनुष्य) कौड़ी की खातिर (कीमती) रतन को छोड़ देता है, उसी की ही प्राप्ति का यत्न करता है जो साथ छोड़ जाती है, उसी (माया) को ही इकट्ठी करता रहता है जिसकी पूछ-प्रतीति थोड़ी सी ही है, माया के मोह में फंसा हुआ (साकत) अकड़-अकड़ के चलता है।1। (हे भाई!) रॅब से टूटे हुए मनुष्य की (बुरी) हालत (हमने) देखी है, इसको आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (अमृत) कड़वा लगता है और माया मीठी लगती है। (साकत हमेशा) नाशवंत पदार्थ में, ठॅगी (करने) में और अहंकार में ही खुश रहता है। परमात्मा का नाम सुनते ही ऐसे होता है जैसे इसको बिच्छू डस गया हो।2। (हे भाई! साकत मनुष्य) सदा ही माया की खातिर चिंता-फिक्र करता रहता है, यह कभी भी अपने मन में अपने मुँह से परमात्मा की सिफॅतसालाह नहीं करता। जो परमात्मा सब दातें देने वाला है, जिसको किसी का डर-भय नहीं है, जो शरीरों की कैद से परे है, उससे यह मूर्ख साकत कभी प्यार नहीं डालता।3। हे नानक! (कह- हे प्रभू!) तू सब शाहों से बड़ा और सदा कायम रहने वाला शाह है, तुझे किसी की मुथाजी नहीं, तू सब ताकतों का मालिक बादशाह है। (तेरा पैदा किया हुआ जीव सदा माया के) मोह में डूबा हुआ (माया के साथ ही) चिपका रहता है, (इसके मन में) भटकना ही बनी रहती है। (हे प्रभू! इस संसार-समुंद्र में से) तेरी मेहर से ही पार हुआ जा सकता है।4।21।32। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |