श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 891 रामकली महला ५ ॥ बीज मंत्रु हरि कीरतनु गाउ ॥ आगै मिली निथावे थाउ ॥ गुर पूरे की चरणी लागु ॥ जनम जनम का सोइआ जागु ॥१॥ हरि हरि जापु जपला ॥ गुर किरपा ते हिरदै वासै भउजलु पारि परला ॥१॥ रहाउ ॥ नामु निधानु धिआइ मन अटल ॥ ता छूटहि माइआ के पटल ॥ गुर का सबदु अम्रित रसु पीउ ॥ ता तेरा होइ निरमल जीउ ॥२॥ सोधत सोधत सोधि बीचारा ॥ बिनु हरि भगति नही छुटकारा ॥ सो हरि भजनु साध कै संगि ॥ मनु तनु रापै हरि कै रंगि ॥३॥ छोडि सिआणप बहु चतुराई ॥ मन बिनु हरि नावै जाइ न काई ॥ दइआ धारी गोविद गुोसाई ॥ हरि हरि नानक टेक टिकाई ॥४॥१६॥२७॥ {पन्ना 891} पद्अर्थ: बीज मंत्रु = मूल मंत्र, सबसे श्रेष्ठ मंत्र। आगै = परलोक में। सोइआ = सोया हुआ।1। जपला = जपा। ते = से। हिरदै = हृदय में। परला = पड़ा। पारि तरला = पार लांघ गया।1। रहाउ। निधानु = खजाना। मन = हे मन! अटल = कभी ना टलने वाला। छूटहि = समाप्त हो जाते हैं। पटल = पर्दे। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। निरमल = पवित्र। जीउ = जीवात्मा, जिंद।2। सोधत = बिचारते हुए। सोधि = विचार के। छुटकारा = माया से निजात। साध कै संगि = गुरू की संगति में। रापै = रंगा जाता है। रंगि = प्रेम रंग में।3। मन = हे मन! जाइ न = दूर नहीं होती। काई = (fungal) जाला। गुोसाई = (असल शब्द 'गोसाई' है यहाँ 'गुसाई' पढ़ना है)। टेक = आसरा।4। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य ने) परमात्मा ( के नाम) का जाप किया, (जिस मनुष्य के) हृदय में गुरू की कृपा से (परमात्मा का नाम) आ बसता है, वह संसार-समुंद्र से पार लांघ गया।1। रहाउ। (हे भाई!) परमात्मा की सिफत (के गीत) गाया करो (परमात्मा को वश में करने का) यह सबसे श्रेष्ठ मंत्र है। (कीर्तन की बरकति से) परलोक में निआसरे जीवों को भी आसरा मिल जाता है। (हे भाई!) पूरे गुरू के चरणों में पड़ा रह, इस तरह कई जन्मों से (माया के मोह की) नींद में सोया हुआ तू जाग पड़ेगा।1। हे मन! परमात्मा का नाम कभी ना समाप्त होने वाला खजाना है, इसको सिमरते रहो, तब ही तेरे माया (के मोह) के पर्दे फटेंगे। हे मन! गुरू का शबद आत्मिक जीवन देने वाला रस है, इसको पीता रह, तब ही तेरी जीवात्मा पवित्र होगी।2। हे मन! हमने बहुत विचार-विचार करके ये निर्णय निकाला है कि परमात्मा की भक्ति के बिना (माया के मोह से) खलासी नहीं हो सकती। प्रभू की वह भगती गुरू की संगति में (प्राप्त होती है। जिसको प्राप्त होती है, उसका) मन और तन परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा जाता है।3। हे मन! (अपनी) समझदारी और बहती चतुराई को छोड़ दे। (जैसे काई लगने के कारण जमीन में पानी नहीं जा पाता, वैसे ही अहंकार के कारण गुरू के उपदेश का असर नहीं होता), परमात्मा के नाम के बिना ये (अहंकार रूपी) काई दूर नहीं होती। हे नानक! (कह-) जिस मनुष्य पर धरती का पति प्रभू दया करता है, वह मनुष्य परमात्मा के नाम का आसरा लेता है।4।16।17। रामकली महला ५ ॥ संत कै संगि राम रंग केल ॥ आगै जम सिउ होइ न मेल ॥ अह्मबुधि का भइआ बिनास ॥ दुरमति होई सगली नास ॥१॥ राम नाम गुण गाइ पंडित ॥ करम कांड अहंकारु न काजै कुसल सेती घरि जाहि पंडित ॥१॥ रहाउ ॥ हरि का जसु निधि लीआ लाभ ॥ पूरन भए मनोरथ साभ ॥ दुखु नाठा सुखु घर महि आइआ ॥ संत प्रसादि कमलु बिगसाइआ ॥२॥ नाम रतनु जिनि पाइआ दानु ॥ तिसु जन होए सगल निधान ॥ संतोखु आइआ मनि पूरा पाइ ॥ फिरि फिरि मागन काहे जाइ ॥३॥ हरि की कथा सुनत पवित ॥ जिहवा बकत पाई गति मति ॥ सो परवाणु जिसु रिदै वसाई ॥ नानक ते जन ऊतम भाई ॥४॥१७॥२८॥ {पन्ना 891} पद्अर्थ: संत कै संगि = गुरू की संगति में। रंग = प्यार। केल = खेल। आगै = परलोक में। सिउ = साथ। अहंबुधि = अहंकार वाली अकल। दुरमति = बुरी अकल। सगली = सारी।1। पंडित = हे पण्डित! करम कांड = तीर्थ स्नान आदि मिथे हुए धार्मिक कामों का सिलसिला। न काजै = काम नहीं आते। कुसल = सुख आनंद। सेती = साथ। घरि = घर में, प्रभू चरणों में।1। रहाउ। जसु = सिफत सालाह। निधि = खजाना। साभ = सब सारे। नाठा = भाग गया। घरि महि = हृदय घर में ही। संत प्रसादि = गुरू संत की कृपा से। कमल = हृदय का कमल फूल। बिगसाइआ = खिल उठा।2। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। होऐ = प्राप्त हो गए। निधान = खजाने। मनि = मन में। पूरा = सारे गुणों से भरपूर प्रभू। पाइ = (पाय) पा के। मागन = (जजमान से) मांगने के लिए। काहे = क्यों?।3। सुनत = सुनते हुए। पवित = पवित्र। जिहवा = जीभ (से)। बकत = उचारते हुए। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। मति = अच्छी बुद्धि। जिसु रिदै = जिसके हृदय में। ते जन = वे लोग। भाई = हे भाई! ।4। अर्थ: हे पण्डित! तीर्थ-स्नान आदि मिथे हुए धार्मिक कामों के सिलसिले का अहंकार तेरे किसी काम नहीं आएगा। हे पण्डित! परमात्मा का नाम (जपा कर, परमात्मा के) गुण गाया कर, (इस तरह) तू आनंद से (जीवन व्यतीत करता हुआ प्रभू-चरनों वाले असल) घर में जा पहुँचेगा।1। रहाउ। हे पण्डित! गुरू की संगति में रह के परमात्मा के प्रेम का खेल खेला कर, आगे परलोक में तेरा जमों से सामना नहीं होगा। (जो मनुष्य ये उद्यम करता है उसकी) अहंकार वाली बुद्धि का नाश हो जाता है, उसके अंदर से सारी दुर्मति समाप्त हो जाती है।1। हे पण्डित! जिस व्यक्ति ने परतात्मा की सिफतसालाह का खजाना पा लिया, उसके सारे मनोरथ पूरे हो गए, उसका (सारा) दुख दूर हो गया, उसके हृदय-घर में सुख आ बसा, संत-गुरू की कृपा से उसके हृदय का कमल-पुष्प खिल उठा।2। (हे पण्डित! तू जजमानों से दान माँगता फिरता है, पर) जिस मनुष्य ने (गुरू से) परमात्मा का नाम-रत्न-दान पा लिया है, उसको (मानो) सारे ही खजाने मिल गए, मन में पूर्ण-प्रभू को पाकर के उसके अंदर संतोख पैदा हो गया, फिर वह बार-बार (जजमानों से) माँगने क्यों जाएगा?।3। हे नानक! (कह-हे पण्डित!) परमात्मा की सिफत-सालाह की बातें सुनने से (जीवन) पवित्र हो जाता है, जीभ से उचारने से उच्च आत्मिक अवस्था और सद्बुद्धि प्राप्त हो जाती है। हे पण्डित! जिस मनुष्य के हृदय में (गुरू, परमात्मा की सिफत-सालाह) बसा देता है वह मनुष्य (परमात्मा के दर पर) कबूल हो जाता है। हे भाई! प्रभू की सिफत-सालाह करने वाले वह बंदे ऊँचे जीवन वाले बन जाते हैं।4।17।28। रामकली महला ५ ॥ गहु करि पकरी न आई हाथि ॥ प्रीति करी चाली नही साथि ॥ कहु नानक जउ तिआगि दई ॥ तब ओह चरणी आइ पई ॥१॥ सुणि संतहु निरमल बीचार ॥ राम नाम बिनु गति नही काई गुरु पूरा भेटत उधार ॥१॥ रहाउ ॥ जब उस कउ कोई देवै मानु ॥ तब आपस ऊपरि रखै गुमानु ॥ जब उस कउ कोई मनि परहरै ॥ तब ओह सेवकि सेवा करै ॥२॥ मुखि बेरावै अंति ठगावै ॥ इकतु ठउर ओह कही न समावै ॥ उनि मोहे बहुते ब्रहमंड ॥ राम जनी कीनी खंड खंड ॥३॥ जो मागै सो भूखा रहै ॥ इसु संगि राचै सु कछू न लहै ॥ इसहि तिआगि सतसंगति करै ॥ वडभागी नानक ओहु तरै ॥४॥१८॥२९॥ {पन्ना 891-892} पद्अर्थ: गहु करि = पूरे ध्यान से। पकरी = पकड़ी। हाथि = हाथ में। करी = की। साथि = साथ। कहु = कह। नानक = हे नानक! जउ = जब। तिआगि दई = छोड़ दी। ओह = (स्त्रीलिंग) वह (माया)।1। संतहु = हे संत जनो! निरमल = पवित्र। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। भेटत = मिलते ही। उधार = पार उतारा।1। रहाउ। कउ = को। मानु = आदर। आपस ऊपरि = अपने आप पर। गुमानु = मान, अहंकार। मनि = मन में से। परहरै = त्याग देता है, दूर कर देता है। सेवकि = दासी (बन के)।2। मुखि = मुँह से। बेरावै = परचाती है। अंति = आखिर को। ठगावै = धोखा करती है। इकतु = एक में। इकति ठउर = (किसी) एक जगह में। कही = कहीं भी। उनि = उस ने। राम जनी = संत जनों ने। जनी = जनीं, जनों नें। खंड खंड = टुकड़े टुकड़े।3। सो = वह मनुष्य। इसु संगी = इस (माया) के साथ। रचै = मस्त रहता है। इसहि = इस (माया के मोह) को। ओहु = वह मनुष्य (पुलिंग)।4। अर्थ: हे संत जनो! जीवन को पवित्र करने वाली ये विचार सुनो- परमात्मा के नाम के बिना ऊँची आत्मिक अवस्था बिल्कुल ही नहीं होती, (पर, नाम गुरू से ही मिलता है) पूरा गुरू मिलने से (माया के मोह से मुक्ति हो के) पार-उतारा हो जाता है।1। रहाउ। (हे संत जनो! जिस मनुष्य ने इस माया को) बड़े ध्यान से भी पकड़ा, उसके भी हाथ में ना आई, जिसने (इससे) बड़ा प्यार भी किया, उसके साथ भी मिल के ये ना चली (साथ ना निभा सकी)। हे नानक! कह- जब किसी मनुष्य ने इसको (मन से) छोड़ दिया, तब ये उसके चरणों में आ पड़ी।1। हे संत जनो! जब कोई मनुष्य उस (माया) को आदर देता है (संभाल-संभाल के रखने का यत्न करता है) तब वह अपने ऊपर बहुत मान करती है (रूठ-रूठ के भाग जाने का प्रयत्न करती है)। पर जब कोई मनुष्य उसको अपने मन से उतार देता है, तब वह उसकी दासी बन के सेवा करती है।2। हे संत जनो! (वह माया हरेक प्राणी को) मुँह से परचाती है, पर आखिर धोखा दे जाती है; किसी एक जगह वह कतई नहीं टिकती। उस माया ने अनेकों ब्रहमण्डों (के जीवों) को अपने मोह में फसाया हुआ है। पर संत जनों ने (उसके मोह को) टुकड़े-टुकड़े कर दिया है।3। हे संत जनो! जो मनुष्य (हर वक्त माया की मांग ही) मांगता रहता है, वह तृप्त नहीं होता, (उसकी भूख उसकी तृष्णा कभी खत्म नहीं होती), जो मनुष्य इस माया (के मोह) में ही मस्त रहता है, उसको (आत्मिक जीवन के धन में से) कुछ नहीं मिलता। पर हे नानक! इस (माया के मोह) को छोड़ के जो मनुष्य भले लोगों की संगति करता है, वह बहुत भाग्यशाली मनुष्य (माया के मोह की रुकावटों से) पार लांघ जाता है।4।18।29। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |