श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 890 रामकली महला ५ ॥ करि संजोगु बनाई काछि ॥ तिसु संगि रहिओ इआना राचि ॥ प्रतिपारै नित सारि समारै ॥ अंत की बार ऊठि सिधारै ॥१॥ नाम बिना सभु झूठु परानी ॥ गोविद भजन बिनु अवर संगि राते ते सभि माइआ मूठु परानी ॥१॥ रहाउ ॥ तीरथ नाइ न उतरसि मैलु ॥ करम धरम सभि हउमै फैलु ॥ लोक पचारै गति नही होइ ॥ नाम बिहूणे चलसहि रोइ ॥२॥ बिनु हरि नाम न टूटसि पटल ॥ सोधे सासत्र सिम्रिति सगल ॥ सो नामु जपै जिसु आपि जपाए ॥ सगल फला से सूखि समाए ॥३॥ राखनहारे राखहु आपि ॥ सगल सुखा प्रभ तुमरै हाथि ॥ जितु लावहि तितु लागह सुआमी ॥ नानक साहिबु अंतरजामी ॥४॥१३॥२४॥ {पन्ना 890} पद्अर्थ: करि = कर के, बना के। संजोगु = मिलाप, (जिंद और शरीर के) मिलाप (का समय)। काछि = कछ के, नाप के (जैसे कोई दर्जी कपड़ा माप कतर के कमीज वगैरा बनाता है)। संगि = साथ। इआना = बेसमझ जीव। राचि रहिओ = परचा रहता है। प्रतिपारै = पालता है। सारि = सार ले के। समारै = संभाल करता है। ऊठि = उठ के।1। सभु = सारा (आडंबर)। झूठु = नाशवंत। परानी = हे प्राणी! उतरसि = उतरेगी। करम धरम = निहित धार्मिक कर्म। सभि = सारे। फैलु = पसारा, खिलारा। पचारै = परचावा करने से। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। रोइ = रो के, दुखी हो के।2। पटल = पर्दा, माया का पर्दा। सोधे = विचारने से। सगल = सारे। सो = वह बंदा। जपाऐ = जपने की प्रेरणा करता है। से = वह लोग। सूखि = सुख में।3। राखनहारे = हे रक्षा करने के समर्थ प्रभू! प्रभ = हे प्रभू! हाथि = हाथ में। जितु = जिस (काम) में। लावहि = तू लगाता है, तू जोड़ता है। तितु = उस (काम) में। लागह = हम जीव लग पड़ते हैं। सुआमी = हे मालिक! नानक = हे नानक! अंतरजामी = दिल की जानने वाला।4। अर्थ: (जैसे कोई दर्जी कपड़ा नाप-काट के मनुष्य के शरीर के लिए कमीज वगैरह बनाता है वैसे ही परमात्मा ने जिंद और शरीर के) मिलाप (का अवसर) बना के (जीवात्मा के लिए शरीर-चोली) नाप-काट के बना दी। उस (शरीर-चोली) के साथ बेसमझ जीव उलझा रहता है। सदा इस शरीर को पालता-पोसता रहता है, और सदा इसकी सांभ-संभाल करता रहता है। अंत के समय जीव (इसको छोड़ के) उठ चलता है।1। हे जीव! परमात्मा के नाम के बिना यह सारा आडंबर नाशवंत है। हे प्राणी! जो लोग परमात्मा के भजन के बिना और पदार्थों के साथ मस्त रहते हैं, वह सारे माया (के मोह) में ठगे जाते हैं।1। रहाउ। (हे भाई! माया के मोह की यह) मैल तीर्थों पर स्नान करके नहीं उतरेगी। (तीर्थ-स्नान आदि ये) सारे (मिथे हुए) धार्मिक कर्म अहंकार का पसारा ही हैं। (तीर्थ-स्नान कर्मों के द्वारा अपने धार्मिक होने की बाबत) लोगों तसल्ली कराने से उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती। परमात्मा के नाम से वंचित जीव (यहाँ से) दुखी हो हो के ही जाएंगे।2। (हे भाई!) परमात्मा के नाम के बिना (माया के मोह का) पर्दा नहीं टूटेगा। सारे ही शास्त्र और स्मृतियाँ विचारने से भी (ये पर्दा दूर नहीं होगा)। (जो लोग नाम जपते हैं) उनको (मनुष्य जीवन के) सारे फल प्राप्त होते हैं, वह लोग (सदा) आनंद में टिके रहते हैं। पर वही सख्श नाम जपता है जिसको प्रभू स्वयं नाम जपने के लिए प्रेरित करता है।3। हे सबकी रक्षा करने के समर्थ प्रभू! तू खुद ही (माया के मोह से हम जीवों की) रक्षा कर सकता है। हे प्रभू! सारे सुख तेरे अपने हाथ में हैं। हे मालिक प्रभू! तू जिस काम में (हमें) लगाता है, हम उसी काम में लग पड़ते हैं। हे नानक! (कह-) मालिक प्रभू सबके दिलों की जानने वाला है।4।13।24। रामकली महला ५ ॥ जो किछु करै सोई सुखु जाना ॥ मनु असमझु साधसंगि पतीआना ॥ डोलन ते चूका ठहराइआ ॥ सति माहि ले सति समाइआ ॥१॥ दूखु गइआ सभु रोगु गइआ ॥ प्रभ की आगिआ मन महि मानी महा पुरख का संगु भइआ ॥१॥ रहाउ ॥ सगल पवित्र सरब निरमला ॥ जो वरताए सोई भला ॥ जह राखै सोई मुकति थानु ॥ जो जपाए सोई नामु ॥२॥ अठसठि तीरथ जह साध पग धरहि ॥ तह बैकुंठु जह नामु उचरहि ॥ सरब अनंद जब दरसनु पाईऐ ॥ राम गुणा नित नित हरि गाईऐ ॥३॥ आपे घटि घटि रहिआ बिआपि ॥ दइआल पुरख परगट परताप ॥ कपट खुलाने भ्रम नाठे दूरे ॥ नानक कउ गुर भेटे पूरे ॥४॥१४॥२५॥ {पन्ना 890} पद्अर्थ: सोई = उसी को ही। जाना = जान लिया है। असमझु मनु = अंजान मन। साध संगि = गुरू की संगति में। पतीआना = पतीज जाता है। ते = से। चूका = हट गया। ठहराइआ = ठहराया, टिका लिया। सति = सदा कायम रहने वाला प्रभू। ले = लेकर। समाइआ = समाया, लीन हो गया।1। सभु रोगु = सारा रोग। आगिआ = आज्ञा, हुकम, रजा। मानी = मान ली। महा पुरख का संगु = गुरू का मिलाप।1। रहाउ। वरताऐ = वरताता है, कराता है। जह = जहाँ। मुकति = विकारों से मुक्ति। मुकति थानु = विकारों से बचाने वाली जगह।2। अठसठि = अढ़सठ (६८)। पग = चरण, पैर। धरहि = धरते हैं। साध = भले मनुष्य। तह = वहाँ। बैकुंठु = सचखंड। उचरहि = उचारे हैं। सरब = सारे। पाईअै = पाते हैं। गाईअै = गाते हैं।3। आपे = आप ही। घटि = हृदय में। घटि घटि = हरेक घट में। रहिआ बिआपि = बस रहा है, भरपूर है। परताप = तेज। कपट = किवाड़, दरवाजे। भ्रम = भटकना। नाठे = भाग गए। कउ = को। गुर पूरे = पूरे गुरू जी। भेटे = मिल गए।4। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को गुरू का मिलाप हो जाता है, प्रभू की रजा उसको मीठी लगने लग जाती है, उसका सारा दुख सारे रोग दूर हो जाते हैं।1। रहाउ। (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू का मिलाप हो जाता है, वह) सदा-स्थिर-प्रभू (का नाम) ले कर उस सदा-स्थिर प्रभू में लीन रहता है (गुरू की कृपा से प्रभू-चरणों में) टिकाया हुआ उसका मन डोलने से हट जाता है, उसका (पहला) बेसमझ मन गुरू की संगति में पतीज जाता है; जो कुछ परमात्मा करता है उसी को ही वह सुख समझता है।1। (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू का मिलाप हो जाता है, गुरू) उससे परमात्मा का नाम ही सदा जपाता है; (गुरू) जहाँ उसको रखता है वही उसके लिए विकारों से मुक्ति की जगह होती है; उस मनुष्य के सारे उद्यम पवित्र होते हैं उसके सारे काम निर्मल होते हैं, जो कुछ परमात्मा करता है, उस मनुष्य को वही वही काम भले लगते हैं।2। (हे भाई!) जहाँ गुरमुखि व्यक्ति (अपने) पैर रखते हैं वह स्थान अढ़सठ तीर्थ समझो, (क्योंकि) जहाँ संतजन परमात्मा का नाम उचारते हैं वह जगह सचखंड बन जाती है। जब गुरमुखों के दर्शन किए जाते हैं तब सारे आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाते हैं, (गुरमुखों की संगति में) सदा परमात्मा के गुण गाए जा सकते हैं, सदा प्रभू की सिफतसालाह गाई जा सकती है।3। (हे भाई!) नानक को पूरे गुरू जी मिल गए हैं, (अब नानक को दिखाई दे रहा है कि) परमात्मा खुद ही हरेक शरीर में मौजूद है, दया के श्रोत अकाल-पुरख का तेज-प्रताप प्रत्यक्ष (हर जगह दिखाई दे रहा है); (गुरू की कृपा से मन के) किवाड़ खुल गए हैं, और, सारे भरम कहीं दूर भाग गए हैं।4।14।24। रामकली महला ५ ॥ कोटि जाप ताप बिस्राम ॥ रिधि बुधि सिधि सुर गिआन ॥ अनिक रूप रंग भोग रसै ॥ गुरमुखि नामु निमख रिदै वसै ॥१॥ हरि के नाम की वडिआई ॥ कीमति कहणु न जाई ॥१॥ रहाउ ॥ सूरबीर धीरज मति पूरा ॥ सहज समाधि धुनि गहिर ग्मभीरा ॥ सदा मुकतु ता के पूरे काम ॥ जा कै रिदै वसै हरि नाम ॥२॥ सगल सूख आनंद अरोग ॥ समदरसी पूरन निरजोग ॥ आइ न जाइ डोलै कत नाही ॥ जा कै नामु बसै मन माही ॥३॥ दीन दइआल गुोपाल गोविंद ॥ गुरमुखि जपीऐ उतरै चिंद ॥ नानक कउ गुरि दीआ नामु ॥ संतन की टहल संत का कामु ॥४॥१५॥२६॥ {पन्ना 890-891} पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। जाप = देवताओं को प्रसन्न करने के लिए विशेष मंत्र पढ़ने। ताप = धूणियों आदि से शरीर को कष्ट देने। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। सुर गिआन = देवाताओं वाली सूझ बूझ। रसै = रस लेता है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। निमख = (निमेष) आँख फड़कने जितना समय। रिदै = हृदय में।1। वडिआई = महानता।1। रहाउ। सूर बीर = शूरवीर, बहादर। सहज = आत्मिक अडोलता। धुनि = लगन। गहिर = गहरी। मुकतु = विकारों से आजाद। ता के = उस (मनुष्य) के। काम = काम। जा कै रिदै = जिसके हृदय में।2। सगल = सारे। अराग = रोगों से रहत। समदरसी = सबको एक जैसी निगाह से देखने वाला। सम = बराबर। दरसी = दर्शी, देखने वाला। निरजोग = निर्लिप। कत = कहीं भी।3। जपीअै = जपना चाहिए। चिंद = चिंता। गुरि = गुरू ने।4। गुोपाल: अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द 'गोपाल' है यहाँ 'गुपाल' पढ़ना है। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम की महत्वता बयान नहीं की जा सकती, हरी-नाम का मूल्य नहीं आँका जा सकता।1। रहाउ। (हे भाई!) गुरू के द्वारा (जिस मनुष्य के) हृदय में आँख झपकने जितने समय के लिए भी हरी-नाम बसता है, वह (मानो) अनेकों रूपों-रंगों और मायावी पदार्थों का रस लेता है। उस व्यक्ति की देवताओं वाली सूझ-बूझ हो जाती है, उसकी बुद्धि (ऊँची हो जाती है) वह रिद्धियों-सिद्धियों (का मालिक हो जाता है); करोड़ों जपों-तपों (का फल उसके अंदर) आ बसता है।1। (हे भाई !) वह मनुष्य (विकारों के मुकाबले में) शूरवीर व बहादुर है, सम्पूर्ण बुध्दि व धैर्य का स्वामी है। सदा आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, प्रभू में उसकी गहरी लगन टिकी रहती है। वह सदैव विकारों से आजाद रहता है। उसके सारे काम सफलहो जाते हैं, जिसके हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है।2। (हे भाई!) जिस मनुष्य के मन में हरी-नाम आ बसता है, वह कहीं भटकता नहीं, कहीं डोलता नहीं, (माया के प्रभाव से वह) पूरी तौर पर निर्लिप रहता है, सब में परमात्मा की एक ज्योति देखता है, उसको सारे सुख-आनंद प्राप्त रहते हैं, वह (मानसिक) रोगों से बचा रहता है।3। (हे भाई!) गुरू की शरण पड़ कर दीनों पर दया करने वाले गोपाल गोविंद का नाम जपना चाहिए, (जो मनुष्य जपता है, उसकी) चिंता-फिक्र दूर हो जाती है। (हे भाई! मुझे) नानक को गुरू ने प्रभू का नाम बख्शा है, संत जनों की टहल (की दाति) दी है। (हरी-नाम का सिमरन ही) गुरू का (बताया हुआ) काम है।4।15।26। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |