श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ५ ॥ भेटत संगि पारब्रहमु चिति आइआ ॥ संगति करत संतोखु मनि पाइआ ॥ संतह चरन माथा मेरो पउत ॥ अनिक बार संतह डंडउत ॥१॥ इहु मनु संतन कै बलिहारी ॥ जा की ओट गही सुखु पाइआ राखे किरपा धारी ॥१॥ रहाउ ॥ संतह चरण धोइ धोइ पीवा ॥ संतह दरसु पेखि पेखि जीवा ॥ संतह की मेरै मनि आस ॥ संत हमारी निरमल रासि ॥२॥ संत हमारा राखिआ पड़दा ॥ संत प्रसादि मोहि कबहू न कड़दा ॥ संतह संगु दीआ किरपाल ॥ संत सहाई भए दइआल ॥३॥ सुरति मति बुधि परगासु ॥ गहिर ग्मभीर अपार गुणतासु ॥ जीअ जंत सगले प्रतिपाल ॥ नानक संतह देखि निहाल ॥४॥१०॥२१॥ {पन्ना 889}

पद्अर्थ: भेटत = मिलते हुए। संगि = साथ। चिति = चिक्त में। करत = करते हुए। मनि = मन में। पउत = पड़ा रहे। डंडउत = नमसकार।1।

कै = से। बलिहारी = कुर्बान। जा की = जिन की। गही = पकड़ी। धारी = धार के।1। रहाउ।

धोइ = (धोय) धो के। पीवा = पीऊँ। पेखि = देख के। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूँ। रासि = पूँजी, सरमाया।2।

पड़दा = लाज, इज्जत। प्रसादि = कृपा से। मोहि = मुझे। कढ़दा = चिंता फिकर, झोरा। संगु = साथ। सहाई = मददगार।3।

परगासु = प्रकाश। गहिर = गहरा। गंभीर = जिगरे वाला। गुण तासु = गुणों का खजाना। निहाल = प्रसन्न, खुश।4।

अर्थ: हे भाई! मेरा ये मन संतजनों से सदके जाता है, जिनका आसरा ले के मैंने (आत्मिक) आनंद हासिल किया है। संत जन कृपा करके (विकार आदि से) रक्षा करते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! संत जनों से मिलते हुए परमात्मा (मेरे) चिक्त में आ बसा है, संतजनों की संगति करते हुए मैंने मन में संतोष पा लिया है। (प्रभू मेहर करे) मेरा माथा संत जनों के चरणों में पड़ा रहे, मैं अनेकों बार संतजनों को नमस्कार करता हूँ।1।

हे भाई! (यदि प्रभू कृपा करे तो) मैं संत जनों के चरण धो-धो के पीता रहॅूँ, संत जनों के दर्शन कर-कर के मुझे आत्मिक जीवन मिलता रहता है। मेरे मन में संत जनों की सहायता का धरवास बना रहता है, संत जनों की संगति ही मेरे वास्ते पवित्र सरमाया है।2।

हे भाई! संत जनों ने (विकार आदि से) मेरी इज्जत बचा ली है, संतजनों की कृपा से मुझे कभी भी कोई चिंता-फिकर नहीं व्यापता। कृपा के श्रोत परमात्मा ने खुद ही संत जनों का साथ बख्शा है। जब संत जन मददगार बनते हैं, तो प्रभू दयावान हो जाता है।3।

(हे भाई! संत जनों की संगति की बरकति से मेरी) सुरति में, मति में, बुद्धि में (आत्मिक जीवन की) रौशनी हो जाती है। हे नानक! अथाह, बेअंत, गुणों का खजाना, और सारें जीवों की पालना करने वाला परमात्मा (अपने) संत जनों को देख के रोम-रोम खुश हो जाता है।4।10।21।

रामकली महला ५ ॥ तेरै काजि न ग्रिहु राजु मालु ॥ तेरै काजि न बिखै जंजालु ॥ इसट मीत जाणु सभ छलै ॥ हरि हरि नामु संगि तेरै चलै ॥१॥ राम नाम गुण गाइ ले मीता हरि सिमरत तेरी लाज रहै ॥ हरि सिमरत जमु कछु न कहै ॥१॥ रहाउ ॥ बिनु हरि सगल निरारथ काम ॥ सुइना रुपा माटी दाम ॥ गुर का सबदु जापि मन सुखा ॥ ईहा ऊहा तेरो ऊजल मुखा ॥२॥ करि करि थाके वडे वडेरे ॥ किन ही न कीए काज माइआ पूरे ॥ हरि हरि नामु जपै जनु कोइ ॥ ता की आसा पूरन होइ ॥३॥ हरि भगतन को नामु अधारु ॥ संती जीता जनमु अपारु ॥ हरि संतु करे सोई परवाणु ॥ नानक दासु ता कै कुरबाणु ॥४॥११॥२२॥ {पन्ना 889}

पद्अर्थ: तेरै काजि = तेरे काम में। ग्रिह = घर। बिखै जंजालु = मायावी पदार्थों का झमेला। इसट = प्यारे। जाणु = याद रख, समझ ले। छलै = छल ही। संगि तेरै = तेरे साथ।1।

मीता = हे मित्र! लाज = इज्जत।1। रहाउ।

सगल = सारे। निरारथ = व्यर्थ। रुपा = चाँदी। दाम = रुपए। ईहा ऊहा = इस लोक में परलोक में। ऊजल = रौशन।2।

करि = कर के। किन ही = किसी ने ही ('किनि' की 'नि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)।3।

अधारु = आसरा। संती = संतों ने। अपारु = अमूल्य। हरि संतु = हरी का संत। ता कै = उससे।4।

अर्थ: हे मित्र! परमात्मा के नाम के गुण (इस वक्त) गा ले। परमात्मा का नाम सिमरने से ही (लोक-परलोक में) तेरी इज्जत बनी रह सकती है। परमात्मा का नाम सिमरने से ही यमराज भी कुछ नहीं कहता।1। रहाउ।

हे मित्र! ये घर, हे हकूमत, ये धन (इनमें से कोई भी) तेरे (आत्मिक जीवन के) किसी काम नहीं आ सकता। मायावी पदार्थों के झमेले भी तुझे आत्मिक जीवन का लाभ नहीं दे सकते। याद रख कि ये सारे प्यारे मित्र (तेरे वास्ते) छल रूप ही हैं। सिर्फ परमात्मा का नाम ही तेरे साथ साथ निभा सकता है।1।

हे मित्र! परमात्मा के नाम के बिना सारे काम व्यर्थ (हो जाते हैं)। (अगर परमात्मा का नाम नहीं सिमरता, तो) सोना, चाँदी, रुपया-पैसे (तेरे वास्ते) मिट्टी (के समान) है। हे मित्र! गुरू का शबद याद करता रहा कर, तेरे मन को आनंद मिलेगा, इस लोक में और परलोक में तू सुर्खरू होगा।2।

हे मित्र! तेरे से पहले हो चुके सभी लोग माया के धंधे कर-कर के थकते रहे, किसी ने भी ये धंधे सिरे नहीं चढ़ाए (किसी की भी तृष्णा खत्म नहीं हुई)। जो कोई विरला मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है, उसकी आशा पूरी हो जाती है (उसकी तृष्णा खत्म हो जाती है)।3।

हे मित्र! परमात्मा के भक्तों के लिए परमात्मा का नाम ही जीवन का आसरा होता है, तभी तो संत जनों ने ही अमूल्य मानस जनम की बाजी जीती है। परमात्मा का संत जो कुछ करता है, वह (परमात्मा की नजरों में) कबूल होता है। हे नानक! (कह- मैं) दास उससे बलिहार जाता हॅू।4।11।22।

रामकली महला ५ ॥ सिंचहि दरबु देहि दुखु लोग ॥ तेरै काजि न अवरा जोग ॥ करि अहंकारु होइ वरतहि अंध ॥ जम की जेवड़ी तू आगै बंध ॥१॥ छाडि विडाणी ताति मूड़े ॥ ईहा बसना राति मूड़े ॥ माइआ के माते तै उठि चलना ॥ राचि रहिओ तू संगि सुपना ॥१॥ रहाउ ॥ बाल बिवसथा बारिकु अंध ॥ भरि जोबनि लागा दुरगंध ॥ त्रितीअ बिवसथा सिंचे माइ ॥ बिरधि भइआ छोडि चलिओ पछुताइ ॥२॥ चिरंकाल पाई द्रुलभ देह ॥ नाम बिहूणी होई खेह ॥ पसू परेत मुगध ते बुरी ॥ तिसहि न बूझै जिनि एह सिरी ॥३॥ सुणि करतार गोविंद गोपाल ॥ दीन दइआल सदा किरपाल ॥ तुमहि छडावहु छुटकहि बंध ॥ बखसि मिलावहु नानक जग अंध ॥४॥१२॥२३॥ {पन्ना 889-890}

पद्अर्थ: सिंचहि = तू इकट्ठा करता है, तू जोड़ता जाता है। दरबु = द्रव्य, धन। देहि = तू देता है। लोग = लोगों को। तेरै काजि = तेरे काम में। अवरा जोग = औरों के लिए। करि = कर के। होइ अंध = अंधा हो के। वरतहि = तू बर्तता है, तू व्यवहार करता है। जेवड़ी = रस्सी, फंदा। तू = तुझे। आगै = परलोक में। बंध = बँधा हुआ।1।

ताति = ईष्या, जलन। मूढ़े = हे मूर्ख! ईहा = इस लोक में। माते = मस्त हुए। उठि = उठ के। संगि = साथ। राचि रहिओ तू = तू मस्त हो रहा है। विडाणी = बेगानी।1। रहाउ।

बिवसथा = उम्र (में)। अंध = अंजान, बेसमझ। भरि जोबनि = भरे जोबन में, भरी जवानी में। दुरगंध = गंदे कामों में, विकारों में। त्रितीआ बिवसथा = उम्र के तीसरे हिस्से में, जवानी गुजर जाने पर। सिंचे = एकत्र करता है। माइ = माया। पछुताइ = पछता के।2।

चिरंकाल = काफी समय उपरांत। दुलभ = मुश्किल से मिलने वाली। देह = शरीर। बिहूणी = बिना, खाली। खेह = राख। ते = से। बुरी = खराब। मुगध = मुग्ध, मूर्ख। तिसहि = उस (प्रभू) को। जिनि = जिस प्रभू ने। सिरी = पैदा की।3।

करतार = हे करतार! दइआल = हे दया के घर! तुमहि = तू (खुद) ही। छुटकहि = छूटते हैं, टूटते हैं। बंध = बँधन। बखसि = मेहर करके।4।

अर्थ: (हे मूर्ख!) तू धन इकट्ठा किए जा रहा है, (और धन जोड़ने के प्रयास में) लोगों को दुख देता है। (मौत आने पर ये धन) तेरे काम नहीं आएगा, औरों (के बरतने के) लायक रह जाएगा। (हे मूर्ख! इस धन का) माण करके (इस धन के नशे में) अंधा हो के तू (लोगों से) व्यवहार करता है। (जब) मौत का फंदा (तेरे गले में पड़ा, उस फंदे में) बँधे हुए को तुझे परलोक में (ले जाएंगे, और धन यहीं रह जाएगा)।1।

हे मूर्ख! दूसरों से ईष्या करनी छोड़ दे। हे मूर्ख! इस दुनिया में (पक्षियों की तरह ही) सिर्फ रात भर के लिए ही बसना है। माया में मस्त हुए हे मूर्ख! (यहाँ से आखिर) उठ के तूने चले जाना है, (पर) तू (इस जगत-) सपने में व्यस्त हुआ पड़ा है।1। रहाउ।

बाल उम्र में जीव बेसमझ बालक बना रहता है, भरी-जवानी में विकारों में लगा रहता है, (जवानी गुजर जाने पर) उम्र के तीसरे पड़ाव में माया जोड़ने लग जाता है, (आखिर जब) बुड्ढा हो जाता है तो अफसोस करते हुए (संचित किए हुए धन को) छोड़ के (यहाँ से) चला जाता है।2।

(हे भाई!) बड़े चिरों बाद जीव को ये दुर्लभ मानुख देह मिलती है, पर नाम से वंचित रह के ये शरीर मिट्टी हो जाता है। (नाम के बिना, विकारों के कारण) मूर्ख जीव की ये देही पशुओं और प्रेतों से भी बुरी (समझें)। जिस परमात्मा ने (इसकी) ये मनुष्य देह बनाई उसको कभी याद नहीं करता।3।

हे नानक! (कह-) बेचारे जीव भी क्या करें? हे करतार! हे गोबिंद! हे गोपाल! हे दीनों पर दया करने वाले! हे सदा ही कृपा के श्रोत! तू खुद ही जीवों के माया के बँधन तोड़े तब ही टूट सकते हैं। हे करतार! (माया के मोह में) अंधे हुए इस जगत को तूने खुद ही मेहर करके (अपने चरणों में) जोड़े रख।4।12।23।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh