श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ५ ॥ कोटि बिघन नही आवहि नेरि ॥ अनिक माइआ है ता की चेरि ॥ अनिक पाप ता के पानीहार ॥ जा कउ मइआ भई करतार ॥१॥ जिसहि सहाई होइ भगवान ॥ अनिक जतन उआ कै सरंजाम ॥१॥ रहाउ ॥ करता राखै कीता कउनु ॥ कीरी जीतो सगला भवनु ॥ बेअंत महिमा ता की केतक बरन ॥ बलि बलि जाईऐ ता के चरन ॥२॥ तिन ही कीआ जपु तपु धिआनु ॥ अनिक प्रकार कीआ तिनि दानु ॥ भगतु सोई कलि महि परवानु ॥ जा कउ ठाकुरि दीआ मानु ॥३॥ साधसंगि मिलि भए प्रगास ॥ सहज सूख आस निवास ॥ पूरै सतिगुरि दीआ बिसास ॥ नानक होए दासनि दास ॥४॥७॥१८॥ {पन्ना 888}

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। बिघन = रुकावटें। नेरि = नजदीक। ता की = उसकी। चेरि = चेरी, दासी। पानीहार = पानी भरने वाले। मइआ करतार = (मया करतार) करतार की दया।1।

सहाई = मददगार। उआ कै = उसके घर में। सरंजाम = सफल (फारसी)।1। रहाउ।

कीता = पैदा किया हुआ जीव। कउनु = क्या बेचारा? कीरी = कीड़ी। भवनु = जगत। महिमा = वडिआई। केतक = कितनी? बरन = बयान की जाए। बलि बलि = सदके, कुर्बान।2।

तिन ही = तिनि ही, उस मनुष्य ने ही ('तिनि' की 'नि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। तिनि = उस ने। कलि महि = (भाव) जगत में। ठाकुरि = ठाकुर ने। मानु = आदर।3।

साध संगि = गुरू की संगति में। मिलि = मिल के। प्रगास = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। सहज निवास = आत्मिक अडोलता का ठिकाना। सूख निवास = सुखों का श्रोत। आस निवास = आशाओं का पूरक। सतिगुरि = सतिगुरू ने। बिसास = विश्वास, भरोसा, निश्चय। दासनि दास = दासों के दास।4।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का मददगार परमात्मा (खुद) बनता है, उसके घर में (उसके) अनेकों उद्यम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! जिस मनुष्य पर करतार की मेहर होती है, (जगत के) अनेकों विकार उसका पानी भरने वाले बन जाते हैं (उस पर अपना जोर नहीं डाल सकते), अनेकों (तरीकों से मोहने वाली) माया उसकी दासी बनी रहती है, (जीवों की जिंदगी के राह में आने वाली) करोड़ों रुकावटें उसके नजदीक नहीं आती।1।

हे भाई! करतार जिस मनुष्य की रक्षा करता है, उसका पैदा किया हुआ जीव उस मनुष्य का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। (अगर करतार की मेहर हो, तो) कीड़ी (भी) सारे जगत को जीत लेती है। हे भाई! उस करतार की बेअंत महिमा है। कितनी बयान की जाए? उसके चरणों से सदा बलिहार जाना चाहिए।2।

हे भाई! जिस मनुष्य को मालिक प्रभू ने आदर बख्शा, वही असल भगत है, वही जगत में जाना-माना जाता है। उसी मनुष्य ने जप किया समझो, उसी मनुष्य ने तपसाधा जानो, उसी मनुष्य ने समाधि लगाई समझो, उसी मनुष्य ने अनेकों किस्म के दान दिए जानो (वही असल जपी है, वही असल तपी है, वही असल जोगी है, वही असल दानी है)।3।

हे नानक! पूरे गुरू ने जिन मनुष्यों को ये बात दृढ़ करवा दी कि परमात्मा आत्मिक अडोलता और सुखों का श्रोत है, परमात्मा ही सब की आशाएं पूरी करने वाला है, गुरू की संगति में मिल के उन मनुष्यों के अंदर आत्मिक जीवन का प्रकाश हो जाता है, वह मनुष्य प्रभू के दासों के दास बने रहते हैं।4।7।18।

रामकली महला ५ ॥ दोसु न दीजै काहू लोग ॥ जो कमावनु सोई भोग ॥ आपन करम आपे ही बंध ॥ आवनु जावनु माइआ धंध ॥१॥ ऐसी जानी संत जनी ॥ परगासु भइआ पूरे गुर बचनी ॥१॥ रहाउ ॥ तनु धनु कलतु मिथिआ बिसथार ॥ हैवर गैवर चालनहार ॥ राज रंग रूप सभि कूर ॥ नाम बिना होइ जासी धूर ॥२॥ भरमि भूले बादि अहंकारी ॥ संगि नाही रे सगल पसारी ॥ सोग हरख महि देह बिरधानी ॥ साकत इव ही करत बिहानी ॥३॥ हरि का नामु अम्रितु कलि माहि ॥ एहु निधाना साधू पाहि ॥ नानक गुरु गोविदु जिसु तूठा ॥ घटि घटि रमईआ तिन ही डीठा ॥४॥८॥१९॥ {पन्ना 888}

पद्अर्थ: काहू लोग = किसी प्राणी को। भोग = फल मिलता है। बंध = बंधन। आवनु जावनु = जनम मरन का चक्र। धंध = धंधे।1।

अैसी = ऐसी (जीवन जुगति)। जनी = जनों ने। परगासु = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। बचनी = बचनों से।1। रहाउ।

कलतु = कलत्र, स्त्री। मिथिआ = नाशवंत। बिसथार = (मोह का) विस्तार, पसारा। हैवर = बढ़िया घोड़े। गैवर = बढ़िया हाथी। सभि = सारे। कूर = झूठ, नाशवंत। होइ जासी = हो जाएगा। धूर = मिट्टी।2।

भरमि = भटकना में। भूले = गलत रास्ते पड़े हुए। बादि = व्यर्थ। रे = हे भाई! हरख = हर्ष, खुशी। देह = शरीर। साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। इव ही = इसी तरह। बिहानी = बीत जाती है।3।

अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। कलि माहि = जगत में। निधाना = खजाना। साधू' = गुरू। पासि = पास। तूठा = प्रसन्न हुआ। घटि घटि = हरेक शरीर में। तिन ही = उस ने ही ('तिनि' की 'नि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)।4।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरू के बचनों पर चल के (जिन मनुष्यों के अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया, उन संत जनों ने (जीवन-जुगति को) इस तरह समझा है।1। रहाउ।

(हे भाई! उन संत जनों ने यूँ समझा है कि अपनी मुश्किल के बारे में) किसी और प्राणी को दोष नहीं देना चाहिए। मनुष्य जो कर्म कमाता है, उसी का ही फल भोगता है। अपने किए कर्मों (के संस्कारों) के अनुसार मनुष्य खुद ही (माया के) बंधनों में (जकड़ा रहता है), माया के धंधों के कारण जनम-मरण का चक्र बना रहता है।1।

हे भाई! शरीर, धन, पत्नी- (मोह के ये सारे) पसारे नाशवान हैं। बढ़िया घोड़े, बढ़िया हाथी- ये भी नाशवान हैं। दुनियां की बादशाहियाँ, रंग-तमाशे और सुंदर नुहारें- ये भी सारे झूठे पसारे हैं। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना हरेक चीज़ मिट्टी हो जाएगी।2।

हे भाई! जिन पदार्थों की खातिर मनुष्य भटकना में पड़ कर जीवन के गलत रास्ते पर पड़ जाते हैंऔर व्यर्थ माण करते हैं, वह सारे पसारे किसी के साथ नहीं जा सकते। कभी खुशी में, ग़मी में, (ऐसे ही) शरीर बुड्ढा हो जाता है। परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य की उम्र इस तरह से ही बीत जाती है।3।

हे भाई! जगत में परमात्मा का नाम ही आत्मिक जीवन देने वाला (पदार्थ) है। ये खजाना गुरू के पास है। हे नानक! जिस मनुष्य पर गुरू प्रसन्न होता है, परमात्मा प्रसन्न होता है, उसी मनुष्य ने सुंदर प्रभू को हरेक शरीर में देखा है।4।8।19।

रामकली महला ५ ॥ पंच सबद तह पूरन नाद ॥ अनहद बाजे अचरज बिसमाद ॥ केल करहि संत हरि लोग ॥ पारब्रहम पूरन निरजोग ॥१॥ सूख सहज आनंद भवन ॥ साधसंगि बैसि गुण गावहि तह रोग सोग नही जनम मरन ॥१॥ रहाउ ॥ ऊहा सिमरहि केवल नामु ॥ बिरले पावहि ओहु बिस्रामु ॥ भोजनु भाउ कीरतन आधारु ॥ निहचल आसनु बेसुमारु ॥२॥ डिगि न डोलै कतहू न धावै ॥ गुर प्रसादि को इहु महलु पावै ॥ भ्रम भै मोह न माइआ जाल ॥ सुंन समाधि प्रभू किरपाल ॥३॥ ता का अंतु न पारावारु ॥ आपे गुपतु आपे पासारु ॥ जा कै अंतरि हरि हरि सुआदु ॥ कहनु न जाई नानक बिसमादु ॥४॥९॥२०॥ {पन्ना 888-889}

पद्अर्थ: पंच सबद = पाँच किस्मों के साज़ (तंती, चमड़े, धात, घड़ा व फूक मार के बजाने वाले = ये पांच)। तह = उस आत्मिक अवस्था में। नाद = आवाज़। पूरन नाद = घनघोर आवाज। अनहद = बिना बजाए बज रहे, अनहत्। बिसमाद = हैरानी पैदा करने वाली अवस्था। केल = आत्मिक आनंद, कलोल। केल करहि = आत्मिक आनंद पाते हैं। निरजोग = निर्लिप।1।

सहज = आत्मिक अडोलता। भवन = असथान। साधसंगि = गुरू की संगति में। बैसि = बैठ के। तह = उस अवस्था में। सोग = शोक।1। रहाउ।

ऊहा = वहाँ, उस आत्मिक अवस्था में। केवल = सिर्फ। ओहु बिस्राम = वह आत्मिक ठिकाना। भाउ = प्रेम। आधारु = आसरा। निहचल = ना डोलने वाला। बेसुमारु = बेशुमार, अंदाजे से परे।2।

डिगि = गिर के। कतहु = किसी भी ओर। धावै = दौड़ता, भटकता। गुर प्रसादि = गुरू की कृपा से। महलु = ऊँचा आत्मिक ठिकाना। भै = ('भउ' का बहुवचन)। सुंन = शून्य। समाधि = जुड़ी हुई सुरति। सुंन समाधि = वह जुड़ी हुई सुरति जिसमें मायावी फुरने नहीं उठते (शून्य अवस्था)।3।

पारावारु = पार+अवारु, इस पार का उस पार का किनारा। आपे = खुद ही। गुपतु = गुप्त, सबसे छुपा हुआ। पासारु = (जगत रूप) पसारा। जा कै अंतरि = जिस मनुष्य के हृदय में। नानक = हे नानक! बिसमादु = विस्माद, आश्चर्य।4।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू की संगति में बैठ के (परमात्मा के) गुण गाते रहते हैं,वह मनुष्य आत्मिक अडोलता, आत्मिक सुख आनंद की अवस्था हासिल कर लेते हैं। उस आत्मिक अवस्था में कोई रोग, कोई ग़म, कोई जनम-मरण का चक्कर नहीं व्यापता।1। रहाउ।

हे भाई! उस आत्मिक अवस्था में (ऐसा प्रतीत होता है जैसे) पाँच किस्मों के साजों की घनघोर आवाज़ हो रही है, (जैसे मनुष्य के अंदर) एक-रस बाजे बज रहे हैं। वह अवस्था आश्चर्य और हैरानी पैदा करने वाली होती है। (हे भाई! साध-संगति की बरकति से) निर्लिप और सर्व-व्यपाक प्रभू के संतजन (उस अवस्था में पहुँच के) आत्मिक आनंद लेते रहते हैं।1।

हे भाई! उस आत्मिक अवस्था में (पहुँचे हुए संत जन) सिर्फ (हरी-) नाम सिमरते रहते हैं। पर, ऐसी उच्च आत्मिक अवस्था विरले मनुष्यों को हासिल होती है। हे भाई! उस अवस्था में प्रभू-प्रेम ही मनुष्य की आत्मिक खुराक हो जाती है, आत्मिक जीवन के लिए मनुष्य को सिफत्सालाह का सहारा होता है। हे भाई! उस आत्मिक अवस्था का आसन (माया के आगे) कभी डोलता नहीं। वह अवस्था कैसी है- इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।2।

हे भाई! उस अवस्था में पहुँचा हुआ मनुष्य (माया के मोह में) गिर के डाँवाडोल नहीं होता, (उस ठिकाने को छोड़ के) किसी और के पास नहीं भटकता। पर कोई विरला मनुष्य गुरू की कृपा से वह ठिकाना हासिल करता है। वहाँ दुनियां की भटकनें, दुनियां के डर, माया का मोह, माया के जाल- ये कोई भी छू नहीं सकते। कृपा के श्रोत प्रभू में मनुष्य की ऐसी सुरति जुड़ती है कि कोई भी मायावी विचार नजदीक नहीं फटकता।3।

हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के नाम का स्वाद टिक जाता है, उसको यह जगत-पसारा उस प्रभू का अपना ही रूप दिखता है, इस जगत-पसारे में वह प्रभू खुद ही छुपा हुआ दिखता है, जिसका अंत नहीं पाया जा सकता, जिसके स्वरूप का इसपार-उस पार का किनारा नहीं दिख सकता। हे नानक! हरी के नाम के स्वाद का बयान नहीं किया जा सकता। वह स्वाद अद्भुत ही होता है।4।9।20।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh