श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ५ ॥ सेवकु लाइओ अपुनी सेव ॥ अम्रितु नामु दीओ मुखि देव ॥ सगली चिंता आपि निवारी ॥ तिसु गुर कउ हउ सद बलिहारी ॥१॥ काज हमारे पूरे सतगुर ॥ बाजे अनहद तूरे सतगुर ॥१॥ रहाउ ॥ महिमा जा की गहिर ग्मभीर ॥ होइ निहालु देइ जिसु धीर ॥ जा के बंधन काटे राइ ॥ सो नरु बहुरि न जोनी पाइ ॥२॥ जा कै अंतरि प्रगटिओ आप ॥ ता कउ नाही दूख संताप ॥ लालु रतनु तिसु पालै परिआ ॥ सगल कुट्मब ओहु जनु लै तरिआ ॥३॥ ना किछु भरमु न दुबिधा दूजा ॥ एको एकु निरंजन पूजा ॥ जत कत देखउ आपि दइआल ॥ कहु नानक प्रभ मिले रसाल ॥४॥४॥१५॥ {पन्ना 887}

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। मुखि = मुँह में। वेद = प्रकाश स्वरूप प्रभू का। निवारी = दूर की है। कउ = को, से। हउ = मैं। सद = सदा। बलिहारी = कुर्बान।1।

सतिगुर = हे गुरू! बाजे = बज रहे हैं। अनहद = एक रस, लगातार। तूरे = बाजे।1। रहाउ।

महिमा = वडिआई। गहिर = गहरी। गंभीर = गहरी। होइ निहालु = पूरन तौर पर प्रसन्न हो जाता है। देइ = (देय) देता है। धीर = धीरज। राइ = (राय) प्रभू पातशाह ने। बहुरि = फिर, दोबारा। न पाइ = (न पाय) नही पड़ता।2।

जा कै अंतरि = जिसके अंदर। ता कउ = उस (मनुष्य) को। संताप = कलेश। तिसु पालै = उसके पल्ले में। तिसु पालै परिआ = उसको मिल जाता है।3।

भरमु = भटकना। दुबिधा = दुचिक्ता पन। दूजा = मेर तेर। निरंजन = (निर+अंजन। अंजन = माया के मोह की कालिख) माया के प्रभाव से परे रहने वाला। जत कत = जिधर किधर, हर तरफ। देखउ = देखूँ। रसाल = (रस+आलय) आनंद का श्रोत।4।

अर्थ: हे सतिगुरू! तूने मेरे सारे काम सिरे चढ़ा दिए हैं (तेरी मेहर से मैं बे-गर्ज हो गया हूँ)। हे सतिगुरू! (अब ऐसा प्रतीत हो रहा है, जैसे मेरे अंदर) एक-रस (खुशी के) बाजे बज रहे हैं।1। रहाउ।

हे भाई! मैं उस गुरू से सदा सदके जाता हूँ, जिसने (मेरे अंदर से) सारी चिंता खुद (मेहर करके) दूर कर दी है, जिसने प्रकाश-रूप प्रभू का आत्मिक जीवन देने वाला नाम (जपने के लिए) मेरे मुँह में दिया है, जिसने (मुझे अपना) सेवक (बना के) अपनी (इस) सेवा में लगाया है।1।

हे भाई! जिस परमात्मा की महिमा बेअंत अथाह है, वह जिस (मनुष्य) को धैर्य बख्शता है, वह व्यक्ति रोम-रोम प्रसन्न हो जाता है। वह प्रभू-पातशाह जिस मनुष्य के (माया के) बँधन काट देता है, वह मनुष्य दोबारा जन्मों के चक्र में नहीं पड़ता।2।

हे भाई! परमात्मा खुद जिस मनुष्य के हृदय में अपना प्रकाश करता है, उसको कोई दुख-कलेश छू नहीं सकता। उस मनुष्य को प्रभू का नाम-लाल मिल जाता है, नाम-रतन मिल जाता है। वह मनुष्य अपने सारे परिवार को (भी अपने साथ) लेकर संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है।3।

हे भाई! जो मनुष्य सिर्फ एक माया से निर्लिप प्रभू की बँदगी करता है, उसको कोई भटकना नहीं रहती, उसके अंदर दुचिक्ता-पन नहीं रह जाता, उसके दिल में मेर-तेर नहीं होती। हे नानक! कह- (गुरू की कृपा से मुझे) आनंद के श्रोत प्रभू जी मिल गए हैं, अब मैं जिधर-किधर देखता हूँ, मुझे वह दया का घर प्रभू ही दिखाई दे रहा है।4।4।15।

रामकली महला ५ ॥ तन ते छुटकी अपनी धारी ॥ प्रभ की आगिआ लगी पिआरी ॥ जो किछु करै सु मनि मेरै मीठा ॥ ता इहु अचरजु नैनहु डीठा ॥१॥ अब मोहि जानी रे मेरी गई बलाइ ॥ बुझि गई त्रिसन निवारी ममता गुरि पूरै लीओ समझाइ ॥१॥ रहाउ ॥ करि किरपा राखिओ गुरि सरना ॥ गुरि पकराए हरि के चरना ॥ बीस बिसुए जा मन ठहराने ॥ गुर पारब्रहम एकै ही जाने ॥२॥ जो जो कीनो हम तिस के दास ॥ प्रभ मेरे को सगल निवास ॥ ना को दूतु नही बैराई ॥ गलि मिलि चाले एकै भाई ॥३॥ जा कउ गुरि हरि दीए सूखा ॥ ता कउ बहुरि न लागहि दूखा ॥ आपे आपि सरब प्रतिपाल ॥ नानक रातउ रंगि गोपाल ॥४॥५॥१६॥ {पन्ना 887}

पद्अर्थ: ते = से। तन ते = शरीर में से। छुटकी = खत्म हो गई। धारी = धार ली। अपनी धारी = ये मान लिया कि ये शरीर मेरा बना रहेगा। आगिआ = आज्ञा, रजा। करै = करता है। मनि मेरै = मेरे मन में। तां = तब। नैनहु = आँखों से, प्रत्यक्ष।1।

मोहि = मैं। रे = हे भाई! बलाइ = (बलाय) चिपकी हुई बिपता। त्रिसन = माया की लालच की आग। निवारी = दूर कर दी है। ममता = अपनत्व, माया का मोह। गुरि पूरै = पूरे गुरू ने।1। रहाउ।

करि = करके। गुरि = गुरू ने। बीस बिसुऐ = बीस बिसवे, सोलह आने, पूरी तौर पर।2।

जो जो = जो जो प्राणी। सगल = सारे जीवों में। दूतु = दोखी, दुश्मन। बैराई = वैरी। गलि = गले से। मिलि = मिल के।3।

तिस के: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'को' के कारण हटा दी गई है।

जा कउ = जिस (मनुष्य) को। बहुरि = दोबारा। रातउ = रंगा हुआ (अन्न पुरख एक वचन)। रंगि = रंग में।4।

अर्थ: हे भाई! अब मैंने (आत्मिक जीवन की मर्यादा) समझ ली है, मेरे अंदर से (चिरों से चिपकी हुई ममता की) डायन निकल गई है। पूरे गुरू ने मुझे (जीवन की) सूझ बख्श दी है। (मेरे अंदर से) माया के लालच की आग बुझ गई है, गुरू ने मेरा माया का मोह दूर कर दिया है।1। रहाउ।

(हे भाई! गुरू की किरपा से) मेरे शरीर में से ये भुलेखा समाप्त हो गया है कि ये शरीर मेरा है, ये शरीर मेरा है। अब मुझे परमात्मा की रजा मीठी लगने लग गई है। जो कुछ परमात्मा करता है, वह (अब) मेरे मन को मीठा लग रहा है। (इस आत्मिक तब्दीली का) ये आश्चर्यजनक तमाशा मैंने प्रत्यक्ष देख लिया है।1।

(हे भाई! गुरू ने मेहर करके मुझे अपनी शरण में रखा हुआ है। गुरू ने प्रभू के चरण पकड़ा दिए हैं। अब जब मेरा मन पूरे तौर पर ठहर गया है, (टिक गया है), मुझे गुरू और परमात्मा एक-रूप दिखाई दे रहे हैं।2।

(हे भाई! गुरू की किरपा से मुझे दिखाई दे गया है कि) सारे ही जीवों में मेरे परमात्मा का निवास है, (इसलिए) जो जो जीव परमात्मा ने पैदा किया है, मैं हरेक का सेवक बन गया हूँ। मुझे कोई भी जीव अपना वैरी दुश्मन नहीं दिखता। अब मैं सबके गले से मिलकर चलता हूँ (जैसे हम) एक ही पिता (के पुत्र) भाई हैं।3।

हे नानक! जिस मनुष्य को गुरू ने प्रभू ने (ये) सुख दे दिए, उस पर दुख दोबारा अपना जोर नहीं डाल सकते। (उसको ये दिखाई दे जाता है कि) परमात्मा स्वयं ही सबकी पालना करने वाला है। वह मनुष्य सृष्टि के रक्षक प्रभू के प्रेम-रंग में रंगा रहता है।4।5।16।

रामकली महला ५ ॥ मुख ते पड़ता टीका सहित ॥ हिरदै रामु नही पूरन रहत ॥ उपदेसु करे करि लोक द्रिड़ावै ॥ अपना कहिआ आपि न कमावै ॥१॥ पंडित बेदु बीचारि पंडित ॥ मन का क्रोधु निवारि पंडित ॥१॥ रहाउ ॥ आगै राखिओ साल गिरामु ॥ मनु कीनो दह दिस बिस्रामु ॥ तिलकु चरावै पाई पाइ ॥ लोक पचारा अंधु कमाइ ॥२॥ खटु करमा अरु आसणु धोती ॥ भागठि ग्रिहि पड़ै नित पोथी ॥ माला फेरै मंगै बिभूत ॥ इह बिधि कोइ न तरिओ मीत ॥३॥ सो पंडितु गुर सबदु कमाइ ॥ त्रै गुण की ओसु उतरी माइ ॥ चतुर बेद पूरन हरि नाइ ॥ नानक तिस की सरणी पाइ ॥४॥६॥१७॥ {पन्ना 887-888}

पद्अर्थ: ते = से। मुख ते = मुँह से। टीका सहित = अर्थों समेत। हिरदै = हृदय में। रहत = रहिणी, आचरण। करि = कर के। द्रिढ़ावै = दृढ़ कराता है, पक्का निश्चय दिलवाता है।1।

पंडित = हे पंडित! बीचारि = सोच मण्डल में टिकाए रख, मन में बसाए रख। निवारि = दूर कर।1। रहाउ।

आगै = अपने सामने। राखिओ = रखा हुआ है। सालगिरामु = ठाकुर की मूर्ति। दह दिस = दसों दिशाओं में। चरावै = माथे पर लगाता है। पाई = पैरों पर। पाइ = (पाय) पड़ता है। पचारा = परचाने का काम। अंधु = अंधा मनुष्य ।2।

खटु करमा = शास्त्रों में बताए हुए छे धार्मिक कर्म (दान देना और लेना, यज्ञ करना और करवाना, विद्या पढ़नी और पढ़ानी)। अरु = अते। भागठि = भाग्यशाली मनुष्य, धनाढ। ग्रिहि = घर में। बिभूत = धन। मीत = हे मित्र!।3।

सबदु कमाइ = (शबद कमाय) शबद के अनुसार जीवन ढालता है। ओसु = उस मनुष्य की। उतरी = उतर जाती है। त्रै गुण की माइ = तीन गुण वाली माया। चतुर = चार। नाइ = (नाय) नाम में। पाइ = (पाय) पड़ता है।4।

तिस की: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे पण्डित! वेद (आदि धर्म-पुस्तकों के उपदेश) को (अपने) मन में बसाए रख, और अपने मन का गुस्सा दूर कर दे।1। रहाउ।

(जो मनुष्य धर्म-पुस्तकों को) मुंह से अर्थों समेत पढ़ता है, पर उसके हृदय में परमात्मा नहीं बसता, ना ही उसका रहन-सहन बेदाग़ है, और लोगों को (धर्म-पुस्तकों का) उपदेश करता है (और उपदेश) करके उनके मन में (वह उपदेश) पक्की तरह दृढ़ करवाता है, पर अपना ये बताया हुआ उपदेश खुद नहीं कमाता (उसको पण्डित नहीं कहा जा सकता)।1।

(आत्मिक जीवन से) अंधा (मनुष्य) सालिग्राम की मूर्ति अपने आगे रख लेता है, पर उसका मन दसों दिशाओं में भटक रहा है। अंधा (मनुष्य अपने माथे पर) तिलक लगाता है, (मूर्ति के) पैरों पर (भी) पड़ता है। पर ये सब कुछ वह सिर्फ दुनिया को रिझाने के लिए ही करता है।2।

(आत्मिक जीवन से अंधा मनुष्य शास्त्रों में बताए हुए) छे धार्मिक कर्म करता है, (देव पूजा करने के लिए उसने ऊन आदि का) आसन (भी रखा हुआ है, पूजा करने के वक्त) धोती (भी पहनता है), किसी धनाढ के घर (जा के) सदा (अपनी धार्मिक) पुस्तक भी पढ़ता है, (उसके घर बैठ के) माला फेरता है, (फिर उस धनाढ से) धन-पदार्थ माँगता है - हे मित्र! इस तरीके से कोई मनुष्य कभी संसार-समुंद्र से पार नहीं हुआ।3।

वह मनुष्य (ही) पण्डित है जो गुरू के शबद के अनुसार अपना जीवन ढालता है। तीन गुणों वाली ये माया उस मनुष्य पर अपना जोर नहीं डाल सकती। उसकी बाबत तो परमात्मा के नाम में (ही) चारों वेद पूरी तरह से आ जाते हैं। हे नानक! (कह- कोई भाग्यशाली मनुष्य) उस (पण्डित) की शरण पड़ता है।4।6।17।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh