श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 902

रामकली महला ९ ॥ साधो कउन जुगति अब कीजै ॥ जा ते दुरमति सगल बिनासै राम भगति मनु भीजै ॥१॥ रहाउ ॥ मनु माइआ महि उरझि रहिओ है बूझै नह कछु गिआना ॥ कउनु नामु जगु जा कै सिमरै पावै पदु निरबाना ॥१॥ भए दइआल क्रिपाल संत जन तब इह बात बताई ॥ सरब धरम मानो तिह कीए जिह प्रभ कीरति गाई ॥२॥ राम नामु नरु निसि बासुर महि निमख एक उरि धारै ॥ जम को त्रासु मिटै नानक तिह अपुनो जनमु सवारै ॥३॥२॥ {पन्ना 902}

पद्अर्थ: साधो = हे संत जनो! कउन जुगति = कौन सी तरतीब? कीजै = करनी चाहिए। जा ते = जिस (तरतीब) से। दुरमति सगल = सारी दुर्मति। भीजै = भीग जाए।1। रहाउ।

महि = में। उरझि रहिओ है = फसा हुआ है, उलझा हुआ है। गिआना = समझदारी की बात। कउनु नामु = वह कौन सा नाम है? जा कै सिमरै = जिसके सिमरने से। पदु निरबान = वासना रहित दर्जा, वह आत्मिक अवस्था जहाँ माया की वासना छू नहीं सकती।1।

दइआल = दयावान। बात = बातचीत। बताई = कही। मानो = ये मान लो कि। तिह = उस मनुष्य ने। जिह = जिस मनुष्य ने। प्रभ कीरति = प्रभू की सिफत सालाह (का गीत)।2।

नरु = (जो) मनुष्य। निसि = रात। बासरु = दिन। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। उरि धारै = हृदय में टिकाता है। उरि = हृदय में। को = का। त्रासु = डर, सहम। तिह = उस (मनुष्य) का। सवारै = सफल कर लेता है।3।

अर्थ: हे संत जनो! अब (इस मनुष्य जनम में वह) कौन सी तरतीब अपनाई जाए, जिसके करने से (मनुष्य के अंदर की) सारी दुर्मति नाश हो जाए, और (मनुष्य का) मन परमात्मा की भक्ति में रच-मिच जाए?।1। रहाउ।

हे संत-जनो! (आम तौर पर मनुष्य का) मन माया (के मोह) में उलझा रहता है, मनुष्य रक्ती भर भी समझदारी की ये बात नहीं विचारता कि वह कौन सा नाम है जिसका सिमरन करने से जगत वासना-रहित आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।1।

हे भाई! जब संत जन (किसी भाग्यशाली पर) दयावान होते हैं, कृपा करते हैं, तब वह (उस मनुष्य को) ये बात बताते हैं कि- जिस मनुष्य ने परमात्मा की सिफतसालाह का गीत गाना आरम्भ कर दिया, ऐसे समझ लें कि उसने सारे ही धार्मिक कर्म कर डाले।2।

हे नानक! (कह- हे भाई! जो) मनुष्य दिन-रात में एक निमेष मात्र समय के लिए भी परमात्मा का नाम (अपने) हृदय में बसाता है, वह मनुष्य अपना (मानस) जन्म सफल कर लेता है, उस मनुष्य के दिल में से मौत का सहम दूर हो जाता है।3।2।

रामकली महला ९ ॥ प्रानी नाराइन सुधि लेहि ॥ छिनु छिनु अउध घटै निसि बासुर ब्रिथा जातु है देह ॥१॥ रहाउ ॥ तरनापो बिखिअन सिउ खोइओ बालपनु अगिआना ॥ बिरधि भइओ अजहू नही समझै कउन कुमति उरझाना ॥१॥ मानस जनमु दीओ जिह ठाकुरि सो तै किउ बिसराइओ ॥ मुकतु होत नर जा कै सिमरै निमख न ता कउ गाइओ ॥२॥ माइआ को मदु कहा करतु है संगि न काहू जाई ॥ नानकु कहतु चेति चिंतामनि होइ है अंति सहाई ॥३॥३॥८१॥ {पन्ना 902}

पद्अर्थ: प्रानी = हे प्राणी! नाराइन सुधि = परमात्मा की याद। लेहि = (हृदय में) टिकाए रख। छिनु छिनु = एक एक छिन करके। अउध = उम्र। निसि = रात। बासुर = दिन। ब्रिथा = व्यर्थ। देह = शरीर।1। रहाउ।

तरनापो = (तरुण = जवान) जवानी। बिखिअन सिउ = विषियों से। खोइओ = तूने गवा लिया। बालपनु = बाल उम्र। अगिआना = अंजानपना। बिरधि = बुड्ढा। अजहू = अभी भी। कउन कुमति = कौन से कुमति में? उरझाना = उलझा हुआ है।1।

मानस जनमु = मनुष्य जन्म। जिह ठाकुरि = जिस ठाकुर ने। तै = तू (हे प्राणी!)। मुकतु = माया के बँधनों से खलासी। नर = हे मनुष्य! जा कै सिमरै = जिसका सिमरन करने से। निमख = आँख झपकने जितना समय। ता कउ = उस (परमात्मा) को।2।

को = का। मदु = नशा, गुमान। कहा = क्यों? काहू संगि = किसी के भी साथ। चेति = याद करता रह, सिमरता रह। चिंतामनि = परमात्मा, (वह मणि जो हरेक चितवनी पूरी कर देती है। स्वर्ग में माना गया उक्तम पदार्थ)। अंति = आखिरी समय में। होइ है = होगा। सहाई = मददगार।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा की याद हृदय में बसाए रख। (प्रभू की याद के बिना तेरा मनुष्य) शरीर व्यर्थ जा रहा है। दिन-रात एक-एक छिन करके तेरी उम्र घटती जा रही है।1। रहाउ।

(जीव का भी अजब दुर्भाग्य है कि इसने) जवानी (की उम्र) विषौ-विकारों में गवा ली, बाल-उम्र अंजान-पने में (गवा ली। अब) वृद्ध हो गया है, पर अभी भी नहीं समझता। (पता नहीं यह) किस कुमति में फसा पड़ा है।1।

हे प्राणी! जिस ठाकुर प्रभू ने (तुझे) मानस जनम दिया हुआ है, तू उसको क्यों भुला रहा है? हे नर! जिस परमात्मा का नाम सिमरने से माया के बँधनों से निजात मिलती है तू एक निमख मात्र भी उस (की सिफतसालाह) को नहीं गाता।2।

हे प्राणी! तू क्यों माया का इतना गुमान कर रहा है? (ये तो) किसी के साथ भी (आखिर में) नहीं जाती। नानक कहता है- हे भाई! परमात्मा का सिमरन करता रह आखिर में वह तेरा मददगार होगा।3।3।81।

नोट: अंक 81 का वेरवा:
गुरू नानक देव जी के शबद---------------11
गुरू अमरदास देव जी के शबद------------01
गुरू रामदास देव जी के शबद-------------06
गुरू अरजन देव जी के शबद--------------60
गुरू तेग बहादर जी के शबद--------------03
जोड़------------------------------------------81


रामकली महला १ असटपदीआ    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सोई चंदु चड़हि से तारे सोई दिनीअरु तपत रहै ॥ सा धरती सो पउणु झुलारे जुग जीअ खेले थाव कैसे ॥१॥ जीवन तलब निवारि ॥ होवै परवाणा करहि धिङाणा कलि लखण वीचारि ॥१॥ रहाउ ॥ कितै देसि न आइआ सुणीऐ तीरथ पासि न बैठा ॥ दाता दानु करे तह नाही महल उसारि न बैठा ॥२॥ जे को सतु करे सो छीजै तप घरि तपु न होई ॥ जे को नाउ लए बदनावी कलि के लखण एई ॥३॥ जिसु सिकदारी तिसहि खुआरी चाकर केहे डरणा ॥ जा सिकदारै पवै जंजीरी ता चाकर हथहु मरणा ॥४॥ आखु गुणा कलि आईऐ ॥ तिहु जुग केरा रहिआ तपावसु जे गुण देहि त पाईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ कलि कलवाली सरा निबेड़ी काजी क्रिसना होआ ॥ बाणी ब्रहमा बेदु अथरबणु करणी कीरति लहिआ ॥५॥ पति विणु पूजा सत विणु संजमु जत विणु काहे जनेऊ ॥ नावहु धोवहु तिलकु चड़ावहु सुच विणु सोच न होई ॥६॥ कलि परवाणु कतेब कुराणु ॥ पोथी पंडित रहे पुराण ॥ नानक नाउ भइआ रहमाणु ॥ करि करता तू एको जाणु ॥७॥ नानक नामु मिलै वडिआई एदू उपरि करमु नही ॥ जे घरि होदै मंगणि जाईऐ फिरि ओलामा मिलै तही ॥८॥१॥ {पन्ना 902-903}

पद्अर्थ: सोई = वही। चढ़हि = चढ़ते हैं। दिनीअरु = दिनकर, सूरज। सा = वही।

(नोट: सर्वनाम 'सा' स्त्रीलिंग है तथा 'सो' पुलिंग है)।

झुलारे = झूलती है। जुग जीअ खेले = जुग (का प्रभाव) जीवों (के मन) में खेल रहा है। थाव कैसे = जगहों पर कैसे (खेल सकता है) ?

नोट: 'थाव' शब्द 'थाउ' का बहुवचन है।1।

जीवन तलब = जीवन की तलब, स्वार्थ। तलब = जरूरत, इच्छा। निवारि = दूर कर। होवै परवाणा = (न्याय) माना जाता है। धिङाणा = जोर, धक्का, जुल्म। लखण = लक्षण, निशानियाँ। वीचारि = समझ।1। रहाउ।

कितै देसि = किसी भी देश में। तह = वहाँ, उस जगह। उसारि = उसार के, बना के।2।

सतु = ऊँचा आचरन। छीजै = छिजता है, (लोगों की नजरों में) गिरता है। तप घरि = तप के घर में, जिसके घर में तप है, तपस्वी। नाउ = परमात्मा का नाम। ऐई = यही (हैं)।3।

सिकदारी = सरदारी, चौधर। खुआरी = जिल्लत, दुर्गति। केहे = किस लिए? सिकदारै = सिकदार को।4।

आख गुणा = (परमात्मा के) गुण कह। कलि आईअै = (अगर) कलयुग (भी) आया मान लिया जाए। केरा = का। तिहु जुग केरा = तीनों ही युगों का। रहिआ = रह गया है, समाप्त हो गया है। तपावसु = न्याय, प्रभाव। देहि = (हे प्रभू!) तू दे। त पाईअै = तो (ये गुण ही) प्राप्त करने योग्य हैं।1। रहाउ।

कलि = (यही) कलियुग (है)। कल वाली = कलह वाली, झगड़े बढ़ाने वाली। सरा = शरह, धार्मिक कानून। निबेड़ी = निबेंड़ा करने वाली, फैसला देने वाली, न्याय करने वाली। क्रिशना = काला, काले दिल वाला, रिश्वतखोर। करणी = ऊँचा आचरण। कीरति = परमात्मा की सिफत सालाह। लहिआ = (लोगों के मनों से) उतर गए हैं।5।

पूजा = देव पूजा, देवताओं की पूजा। पति = प्रभू पति। सत = ऊँचा आचरण। संजमु = इन्द्रियों को रोकने के यत्न। जत = काम वासना को रोकना। काहे = क्या लाभ? व्यर्थं सुच = पवित्रता।6।

कलि = यह है कलियुग। परवाणु = (जो 'धिङाणा करहि', 'जोर जबरदस्ती' करते है उनके दबाव को) माने जा रहे हैं। रहे = रह गए हैं।7।

ऐदू उपरि = इससे श्रेष्ठ। ओलामा = गिला, शर्मसारी। तही = वहाँ।8।

अर्थ: (हे पण्डित! अपने मन में से) खुद-गर्जी दूर कर (यह स्वार्थ ही कलियुग है। इस खुद-गर्जी के असर तले शक्तिशाली लोग कमजोरों के ऊपर) धक्केशाही करते हैं और (उनकी नजरों में) ये जोर-जबरदस्ती जायज़ समझी जाती है। खुद-गर्जी और दूसरों पर जोर-ज़बर - हे पण्डित! इनको कलियुग के लक्षण समझ।1। रहाउ।

(जिस असल कलियुग का वर्णन हमने किया है उस) कलियुग का प्रभाव ही जीवों के मनों में (खेलें) खेलता है किसी विशेष जगहों पर नहीं खेल सकता (क्योंकि सतियुग त्रेता द्वापर आदि सारे ही समयों में) वही चंद्रमा चढ़ता आया है, वही तारे चढ़ते आ रहे हैं, वही सूरज चमकता आ रहा है, वही धरती है और वही हवा झूलती आ रही है।1।

किसी ने कभी नहीं सुना कि कलियुग किसी खास देश में आया हुआ है, किसी विशेष तीर्थ के पास बैठा हुआ है। जहाँ कोई दानी दान करता है वहाँ भी बैठा हुआ किसी ने सुना नहीं, किसी जगह कलियुग महल बना के नहीं बैठा हुआ।2।

जो कोई मनुष्य अपना आचरण ऊँचा बनाता है तो वह (बल्कि लोगों की नजरों में) गिरता है, अगर कोई तपस्वी होने का दावा करता है तो उसकी इन्द्रियाँ उसके अपने वश में नहीं हैं, अगर कोई परमात्मा का नाम सिमरता है तो (लोगों में बल्कि उसकी) बदनामी होती है। (हे पण्डित! बुरा आचरण, इन्द्रियों का वश में ना होना, प्रभू के नाम से नफ़रत -) ये हैं कलियुग के लक्षण।3।

(पर, ये खुद-गर्जी और कमजोरों पर जोर-ज़बरदस्ती सुखी जीवन का रास्ता नहीं) जिस मनुष्य को दूसरों पर सरदारी मिलती है (और वह कमजोरों पर धक्का करता है) उसकी ही (इस धक्के-जुल्म के कारण आखिर) दुर्गति होती है। नोकरों को (उस दुर्गति से कोई) खतरा नहीं होता। जब उस सरदार के गले में फंदा पड़ता है, तब वह उन नौकरों के हाथों से ही मरता है।4।

(हे पण्डित! तेरे कहने के मुताबिक अगर अब) कलियुग का समय ही आ गया है (तो भी तीर्थ-व्रत आदि कर्म-काण्ड के रास्ते छोड़ के) परमात्मा की सिफत सालाह कर (क्योंकि तेरे धर्म-शस्त्रों के अनुसार कलियुग में सिफत-सालाह ही प्रवान है, और) पहले तीन युगों का प्रभाव अब समाप्त हो चुका है। (सो, हे पण्डित! परमात्मा के आगे ये अरदास कर- हे प्रभू! अगर कृपा करनी है तो अपने) गुणों की बख्शिश कर, यह ही प्राप्त करने योग्य है।1। रहाउ।

(हे पण्डित!) कलियुग ये है (कि मुसलमानी हकूमत में जोर-जबरदस्ती के साथ) झगड़े बढ़ाने वाला इस्लामी कानून ही फैसले करने वाला बना हुआ है, और न्याय करने वाला काजी-हाकम रिश्वतखोर हो चुका है। (जादू-टूणों के प्रचारक) अथर्वेद ब्रहमा की बाणी प्रधान है। ऊँचा आचरण और सिफतसालाह लोगों के मनों से उतर चुके हैं- यही है कलियुग।5।

पति-परमात्मा को बिसार के ये देव-पूजा किस काम की? किसी ऊँचे आचरण से वंचित रह के इस संयम का भी कया लाभ? यदि विकारों से रोकथाम नहीं तो ये जनेऊ भी क्या सँवारता है? (हे पण्डित!) तुम (तीर्थों पे) स्नान करते हो, (शरीर मल मल के) धोते हो, (माथे पर) तिलक लगाते हो (और इसको पवित्र कर्म समझते हो), पर पवित्र आचरण के बिना बाहरी पवित्रता के कोई मूल्य नहीं रह जाते। (दरअसल, ये भुलेखा भी कलियुग ही है)।6।

(इस्लामी हकूमत के धक्के के जोर पर) शरई किताबों और कुरान को मंजूरी (वरीयता) दी जा रही है, पण्डितों के पुराण आदि पुस्तकें (बेमतलब बन के) रह गई हैं। हे नानक! (इस जोर-जबरदस्ती के चलते ही) परमात्मा का नाम 'रहमान' कहा जा रहा है- ये भी, हे पण्डित! कलियुग (के लक्षण) हैं (किसी के धार्मिक विश्वास को ज़बरन दबाना कलियुग का प्रभाव है)। हे पण्डित! हरी एक ही करतार को सब कुछ करने वाला समझ।7।

हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है उसको (लोक-परलोक में) इज्जत मिलती है, नाम जपने से ज्यादा अच्छा और कोई कर्म नहीं है (पंडित तीर्थ व्रत आदि कर्मों को ही सलाहता रहता है)। (परमात्मा हरेक के हृदय में बसता है, उसका नाम भुला के ये समझ नहीं रहती और मनुष्य और-और ही आसरे तलाशता फिरता है) परमात्मा दातार हृदय-घर में हो, और भूला हुआ जीव बाहर देवी-देवताओं आदि से माँगता फिरे, ये दोष जीव के सिर पर ही आता है।8।1।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh