श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला १ ॥ जगु परबोधहि मड़ी बधावहि ॥ आसणु तिआगि काहे सचु पावहि ॥ ममता मोहु कामणि हितकारी ॥ ना अउधूती ना संसारी ॥१॥ जोगी बैसि रहहु दुबिधा दुखु भागै ॥ घरि घरि मागत लाज न लागै ॥१॥ रहाउ ॥ गावहि गीत न चीनहि आपु ॥ किउ लागी निवरै परतापु ॥ गुर कै सबदि रचै मन भाइ ॥ भिखिआ सहज वीचारी खाइ ॥२॥ भसम चड़ाइ करहि पाखंडु ॥ माइआ मोहि सहहि जम डंडु ॥ फूटै खापरु भीख न भाइ ॥ बंधनि बाधिआ आवै जाइ ॥३॥ बिंदु न राखहि जती कहावहि ॥ माई मागत त्रै लोभावहि ॥ निरदइआ नही जोति उजाला ॥ बूडत बूडे सरब जंजाला ॥४॥ भेख करहि खिंथा बहु थटूआ ॥ झूठो खेलु खेलै बहु नटूआ ॥ अंतरि अगनि चिंता बहु जारे ॥ विणु करमा कैसे उतरसि पारे ॥५॥ मुंद्रा फटक बनाई कानि ॥ मुकति नही बिदिआ बिगिआनि ॥ जिहवा इंद्री सादि लुोभाना ॥ पसू भए नही मिटै नीसाना ॥६॥ त्रिबिधि लोगा त्रिबिधि जोगा ॥ सबदु वीचारै चूकसि सोगा ॥ ऊजलु साचु सु सबदु होइ ॥ जोगी जुगति वीचारे सोइ ॥७॥ तुझ पहि नउ निधि तू करणै जोगु ॥ थापि उथापे करे सु होगु ॥ जतु सतु संजमु सचु सुचीतु ॥ नानक जोगी त्रिभवण मीतु ॥८॥२॥ {पन्ना 903}

पद्अर्थ: परबोधहि = तू जगाता है, तू उपदेश करता है (हे जोगी!)। मढ़ी = शरीर। बधावहि = (पाल पाल के) बढ़ाता है, मोटा करता है। आसणु = मन का आसन, चिक्त की अडोलता। काहे = कैसे? कामणि = स्त्री। हित कारी = प्रेम करने वाला। अउधूती = त्यागी। संसारी = गृहस्ती।1।

जोगी = हे योगी! बैसि रहहु = बैठा रह, स्वै स्वरूप में टिका रह, मन को टिकाओ। दुबिधा = दुचिक्तापन, दूसरे आसरे की ताक। भागै = दूर हो जाए। लाज न लागै = शर्म ना उठानी पड़े।1। रहाउ।

आपु = अपने आप को। न चीनहि = तू नहीं पहचानता। लागी = लगी हुई। निवरै = दूर हो। परतापु = तपश, तृष्णा आग। सबदि = शबद में। मन भाइ = (मन भाय) मन के प्रेम से। सहज वीचारी = सहज का विचारवान हो के, अडोल आत्मिक अवस्था की सूझ वाला हो के। भिखिआ = (परमात्मा के दर से नाम की) भिक्षा। खाइ = (खाय) खाता है ।2।

(नोट: शब्द 'खाहि' व 'खाय' का फर्क याद रखने योग्य है)

भसम = राख। चढ़ाइ = (चढ़ाय) चढ़ा के। सहहि = तू सहता है। डंडु = दण्ड, सजा। खापरु = खप्पर, हृदय। फूटै = टूट जाता है, अडोलता नहीं रह जाती। भीख = नाम की भिक्षा। भाइ = (प्रभू के) प्रेम से। बंधनि = बंधन में।3।

बिंदु = वीर्य। माई = माया। त्रै = (माया के) तीन गुणों में। लोभावहि = तू ग्रसा हुआ है। उजाला = प्रकाश। बूडत बूडे = डूबता डूब गया।4।

खिंथा = गोदड़ी। बटूआ = थाट, बनावट। नटूआ = मदारी। अगनि = तृष्णा की आग। जारे = जलाती है। करमा = बख्शिश, मेहर। उतरसि = उतरेगा।4।

फटक = कच्चा। कानि = कान में। गिआनि = ज्ञान में। बिगिआनि = ज्ञानहीनता में। बिदिआ = आत्मिक विद्या। बिदिआ बिगिआनी = आत्मिक विद्या की सूझ के बिना। सादि = स्वाद में, चस्के में। लुोभाना = फसा हुआ। नीसाना = निशान, लक्षण।6।

(नोट: अक्षर 'ल' के साथ दो मात्राएं- 'ु' और 'ो'। असल शब्द 'लोभाना' है, यहाँ 'लुभाना' पढ़ना है)।

त्रिबिधि = माया की तीन किस्मों में, तीन गुणों में। लोगा = साधारण जगत। जोगा = जोगी, जोगाधारी। सोगा = चिंता। ऊजलु होइ = पवित्र हो जाता है। जुगति = जीवन की युक्ति।7।

पहि = पास। नउनिध = नो खजाने, नौ खजानों का मालिक प्रभू। उथापे = नाश करता है। सचु = सदा स्थिर प्रभू। सुचीतु = पवित्र हृदय वाला।8।

अर्थ: हे जोगी! अपने मन को प्रभू चरणों में जोड़ (इस तरह) अन्य आसरों को तलाशने की झाक का दुख दूर हो जाएगा। घर-घर (माँगने की) शर्म भी नहीं उठानी पड़ेगी।1। रहाउ।

(हे जोगी!) तू जगत को उपदेश करता है (इस उपदेश के बदले में घर-घर भिक्षा माँग के अपने) शरीर को (पाल-पाल के) मोटा कर रहा है। (दर-दर भटकने से) मन की अडोलता गवा के तू सदा अडोल परमात्मा को कैसे मिल सकता है? जिस मनुष्य को माया की ममता लगी हो माया का मोह चिपका हो जो स्त्री का भी प्रेमी हो वह ना त्यागी रहा ना गृहस्ती बना।1।

(हे जोगी! तू लोगों को सुनाने के लिए) भजन गाता है पर अपने आत्मिक जीवन को नहीं देखता। (तेरे अंदर माया की) तपश लगी हुई है (लोगों को गीत सुनाने से) ये कैसे दूर हो? जो मनुष्य मन के प्यार से गुरू के शबद में लीन होता है, वह अडोल आत्मिक अवस्था की सूझ वाला हो के (परमात्मा के दर से नाम की) भिक्षा (ले के) खाता है।2।

(हे जोगी!) तू (अपने शरीर पर) राख मल के (त्यागी होने का,) पाखण्ड करता है (पर तेरे अंदर) माया का मोह (प्रबल) है। (अंतरात्मे) तू जम की सजा भुगत रहा है। जिस मनुष्य का हृदय-खप्पर टूट जाता है (भाव, माया के मोह के कारण जिसका हृदय अडोल नहीं रह जाता) उसमें (नाम की) भिक्षा नहीं ठहर सकती जो (प्रभू चरणों में जुड़ के) प्रेम के द्वारा ही मिलती है। ऐसा मनुष्य माया की जंजीर में बँधा हुआ जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।3।

हे जोगी! तू काम-वासना से अपने आप को नहीं बचाता, पर (फिर भी लोगों से) जती कहलवा रहा है। माया माँगते-माँगते तू (खुद) त्रैगुणी माया में फस रहा है। जिस मनुष्य के अंदर कठोरता हो उसके हृदय में परमात्मा की ज्योति का प्रकाश नहीं हो सकता, (सहजे-सहजे) डूबता-डूबता वह (माया के) सारे जंजालों में डूब जाता है।4।

(हे जोगी!) गुदड़ी आदिक का बहुत आडंबर रचा के तू (दिखावे के लिए) धार्मिक पहरावा कर रहा है, पर तेरा ये आडम्बर उस मदारी के तमाशे की तरह है जो (लोगों से पैसा कमाने के लिए) झूठा खेल ही खेलता है (भाव, जो कुछ वह दिखाता है वह दरअसल नज़र का धोखा ही होता है)। जिस मनुष्य को तृष्णा और चिंता की आग अंदर ही अंदर से जला रही हो, वह परमात्मा की मेहर के बिना (आग के इस शोले से) पार नहीं लांघ सकता।5।

(हे जोगी!) तूने काँच की मुँद्राएं बनाई हुई हैं और हरेक कान में डाली हुई हैं, पर आत्मिक विद्या की सूझ के बिना (अंदर बसते) माया के मोह से खलासी नहीं हो सकती। जो मनुष्य जीभ और इन्द्रियों के चस्के में फसा हुआ हो (वह देखने में तो मनुष्य है, पर असल में) पशू है, (बाहरी दिखावे के त्यागी भेष से) उसका ये पशू-वृति का (अंदरूनी स्वभाव) लक्षण मिट नहीं सकता।6।

(हे जोगी! खिंथा, मुंद्रों आदि से त्यागी नहीं बन जाते। शबद के बिना जैसे) साधारण जगत त्रैगुणी माया में ग्रसा हुआ है वैसे ही (भेष धारण करने वाला) जोगी है। जो मनुष्य गुरू के शबद को अपनी सोच-मण्डल में बसाता है, (माया के मोह से पैदा होने वाली) उसकी चिंता मिट जाती है। वही मनुष्य पवित्र हो सकता है जिसके हृदय में सदा-स्थिर प्रभू और उसकी सिफतसालाह का शबद बसता है, वही असल जोगी है वही जीवन की जुगति को समझता है।7।

(हे जोगी!) तू सब कुछ कर सकने में समर्थ परमात्मा को समझ, सारी दुनिया की माया का मालिक वह प्रभू तेरे अंदर बसता है। वह खुद ही जगत-रचना करके खुद ही नाश करता है, जगत में वही कुछ होता है जो वह प्रभू करता है।

हे नानक! उसी जोगी के अंदर जत है, सत है, संजम है उसी का हृदय पवित्र है जिसके अंदर सदा-स्थिर प्रभू बसता है, वह जोगी तीन भवनों का मित्र है (उस जोगी को सारा जगत प्यार करता है)।8।2।

रामकली महला १ ॥ खटु मटु देही मनु बैरागी ॥ सुरति सबदु धुनि अंतरि जागी ॥ वाजै अनहदु मेरा मनु लीणा ॥ गुर बचनी सचि नामि पतीणा ॥१॥ प्राणी राम भगति सुखु पाईऐ ॥ गुरमुखि हरि हरि मीठा लागै हरि हरि नामि समाईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ माइआ मोहु बिवरजि समाए ॥ सतिगुरु भेटै मेलि मिलाए ॥ नामु रतनु निरमोलकु हीरा ॥ तितु राता मेरा मनु धीरा ॥२॥ हउमै ममता रोगु न लागै ॥ राम भगति जम का भउ भागै ॥ जमु जंदारु न लागै मोहि ॥ निरमल नामु रिदै हरि सोहि ॥३॥ सबदु बीचारि भए निरंकारी ॥ गुरमति जागे दुरमति परहारी ॥ अनदिनु जागि रहे लिव लाई ॥ जीवन मुकति गति अंतरि पाई ॥४॥ अलिपत गुफा महि रहहि निरारे ॥ तसकर पंच सबदि संघारे ॥ पर घर जाइ न मनु डोलाए ॥ सहज निरंतरि रहउ समाए ॥५॥ गुरमुखि जागि रहे अउधूता ॥ सद बैरागी ततु परोता ॥ जगु सूता मरि आवै जाइ ॥ बिनु गुर सबद न सोझी पाइ ॥६॥ अनहद सबदु वजै दिनु राती ॥ अविगत की गति गुरमुखि जाती ॥ तउ जानी जा सबदि पछानी ॥ एको रवि रहिआ निरबानी ॥७॥ सुंन समाधि सहजि मनु राता ॥ तजि हउ लोभा एको जाता ॥ गुर चेले अपना मनु मानिआ ॥ नानक दूजा मेटि समानिआ ॥८॥३॥ {पन्ना 903-904}

पद्अर्थ: खटु = छे (चक्र)।

नोट: योग मत के अनुसार शरीर के छह चक्र हैं जिनमें से श्वास हो के दसम द्वार तक पहुँचता है: 1. मूला धार (गुदा मण्डल का चक्र); 2. स्वाधिष्ठान (लिंग की जड़ में); 3. मणिपुर चक्र (नाभि के पास); 4. अनाहत (दिल में); 5. विसुद्ध चक्र (गले में); 6. आज्ञा चक्र ( आँखों के भवरों के बीच)।

मटु = (जोगियों का) मठ। देही = शरीर। धुनि = लगन। बाजै = बजता है। अनहदु = बिना बजाए, एक रस। सचि = सदा स्थिर हरी में।1।

गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। नामि = नाम में।1। रहाउ।

बिवरजि = रोक के। भेटै = मिलता है। मेलि = संगति में। निरमोलकु = जिसका मूल्य ना पाया जा सके। तितु = उस (नाम) में। राता = रंगा हुआ। धीरा = टिक गया।2।

जम = मौत। जंदारु = अवैड़ा, भयानक। मोहि = मुझे। सोहि = सोहे, शोभा देता है।3।

बीचारि = विचार के, सोच मण्डल में ला के। निरंकारी = निरंकार वाले। परहारी = दूर कर दी। अनदिनु = हर रोज। जागि = सचेत रह के। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।4।

अलिपत = निर्लिप। निरारे = निराले, निर्मोह। तसकर = चोर। पंच = (कामादिक) पाँच। संघारे = मार दिए। रहउ = मैं रहता हूँ।5।

अउधूता = त्यागी। ततु = जगत का मूल प्रभू। मरि = आत्मिक मौत मर के।6।

अनहद = एक रस। वजै = बजता है, प्रभाव डाले रखता है। अविगत = (अव्यक्त) अदृष्ट प्रभू। तउ = तब। जा = जब। निरबानी = वासना रहित।7।

सुंन समाधि = वह एकाग्र अवस्था जहाँ माया का कोई विचार ना चले, जहाँ मायावी विचार शून्य रहे। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में। तजि = त्याग के। हउ = अहंकार। दूजा = प्रभू के बिना और झाक। मेटि = मिटा के।8।

अर्थ: हे प्राणी! परमात्मा की भक्ति करने से आत्मिक आनंद मिलता है। गुरू की शरण पड़ने से परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है, और परमात्मा के नाम में लीन हो जाया जाता है।1। रहाउ।

(हे जोगी! गुरू की शरण पड़ कर) मेरा छे-चक्रिय शरीर ही (मेरे लिए) मन बन गया है और (इस मन में टिक के) मेरा मन बैरागी हो गया है। गुरू का शबद मेरे मन में टिक गया है, परमात्मा के नाम की लगन मेरे अंदर जाग उठी है। (मेरे अंदर) गुरू का शबद एक-रस (अखण्ड निरंतर) प्रबल प्रभाव डाल रहा है, और उसमें मेरा मन मस्त हो रहा है। गुरू की बाणी की बरकति से (मेरा मन) सदा-स्थिर प्रभू के नाम में जुड़ गया है।1।

जिस मनुष्य को गुरू मिलता है गुरू उसको संगति से मिलाता है और वह माया का मोह रोक के प्रभू-नाम में लीन हो जाता है। परमात्मा का नाम (मानो, एक) रतन है (एक ऐसा) हीरा है जिसका मूल्य नहीं आँका जा सकता। (गुरू की शरण पड़ के) मेरा मन भी उस नाम में रंगा गया है उस नाम में टिक गया है।2।

(गुरू के द्वारा) परमात्मा की भक्ति करने से मौत का डर दूर हो जाता है, अहंकार-रोग, माया की ममता वाला रोग (मन को) नहीं चिपकता। (गुरू की कृपा से) भयानक जम भी मुझे नहीं छूता (क्योंकि) परमात्मा का पवित्र नाम मेरे हृदय में सुशोभित है।3।

गुरू के शबद को सोच-मण्डल में टिका के परमात्मा के ही (सेवक) हो जाना है, मन में गुरू की शिक्षा प्रबल हो जाती है और दुर्मति दूर हो जाती है। जो मनुष्य प्रभू-चरणों में सुरति जोड़ के हर वक्त (माया के हमलों की ओर से) सचेत रहते हैं, वे अपने अंदर वह ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेते हैं जिससे (वे) माया में कार्य-व्यवहार करते हुए भी (उन्हें) माया के बँधनों से आजाद कर देती है।4।

(गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा की भक्ति करने वाले लोग) शरीर-गुफा के अंदर ही माया से निर्लिप रहते हैं माया के प्रभाव से अलग रहते हैं। गुरू के शबद द्वारा वे कामादिक पाँच चोरों को मार लेते हैं। (गुरू की शरण पड़ कर सिमरन करने वाला सख्श) अपने मन को पराए घर की ओर जा के डोलने नहीं देता।

(गुरू की कृपा से ही सिमरन करके) मैं अडोल आत्मिक अवस्था मेंएक रस लीन रहता हूँ।5।

असल त्यागी वही है जो गुरू की शरण पड़ कर (सिमरन के द्वारा माया के हमलों की ओर से) सचेत रहता है। जो मनुष्य जगत के मूल परमात्मा को अपने हृदय में परोए रखता है वह सदा ही (माया से) वैरागवान रहता है।

जगत माया के मोह की नींद में (परमात्मा की याद की ओर से) सोया रहता है, और, आत्मिक मौत सहेड़ के जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है। (माया की नींद में सोए हुए को) गुरू के शबद के बिना ये समझ नहीं पड़ती।7।

(जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा की भक्ति करता है उसका) मन उस एकाग्रता में टिका रहता है जहाँ माया के विचारों की शून्यता बनी रहती है (अफुर अवस्था, सुंन समाधि) और (मन) अडोल आत्मिक अवस्था (के रंग) में रंगा जाता है। अहंकार और लोभ को त्याग के वह मनुष्य एक परमात्मा के साथ ही गहरी सांझ डाले रखता है।

हे नानक! गुरू की शरण पड़े हुए सिख का अपना मन गुरू की शिक्षा में पतीज जाता है, वह परमात्मा के बिना और झाक मिटा के परमात्मा में ही लीन रहता है।8।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh