श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 904 रामकली महला १ ॥ साहा गणहि न करहि बीचारु ॥ साहे ऊपरि एकंकारु ॥ जिसु गुरु मिलै सोई बिधि जाणै ॥ गुरमति होइ त हुकमु पछाणै ॥१॥ झूठु न बोलि पाडे सचु कहीऐ ॥ हउमै जाइ सबदि घरु लहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ गणि गणि जोतकु कांडी कीनी ॥ पड़ै सुणावै ततु न चीनी ॥ सभसै ऊपरि गुर सबदु बीचारु ॥ होर कथनी बदउ न सगली छारु ॥२॥ नावहि धोवहि पूजहि सैला ॥ बिनु हरि राते मैलो मैला ॥ गरबु निवारि मिलै प्रभु सारथि ॥ मुकति प्रान जपि हरि किरतारथि ॥३॥ वाचै वादु न बेदु बीचारै ॥ आपि डुबै किउ पितरा तारै ॥ घटि घटि ब्रहमु चीनै जनु कोइ ॥ सतिगुरु मिलै त सोझी होइ ॥४॥ गणत गणीऐ सहसा दुखु जीऐ ॥ गुर की सरणि पवै सुखु थीऐ ॥ करि अपराध सरणि हम आइआ ॥ गुर हरि भेटे पुरबि कमाइआ ॥५॥ गुर सरणि न आईऐ ब्रहमु न पाईऐ ॥ भरमि भुलाईऐ जनमि मरि आईऐ ॥ जम दरि बाधउ मरै बिकारु ॥ ना रिदै नामु न सबदु अचारु ॥६॥ इकि पाधे पंडित मिसर कहावहि ॥ दुबिधा राते महलु न पावहि ॥ जिसु गुर परसादी नामु अधारु ॥ कोटि मधे को जनु आपारु ॥७॥ एकु बुरा भला सचु एकै ॥ बूझु गिआनी सतगुर की टेकै ॥ गुरमुखि विरली एको जाणिआ ॥ आवणु जाणा मेटि समाणिआ ॥८॥ जिन कै हिरदै एकंकारु ॥ सरब गुणी साचा बीचारु ॥ गुर कै भाणै करम कमावै ॥ नानक साचे साचि समावै ॥९॥४॥ {पन्ना 904-905} पद्अर्थ: साहा = (सु+अहर) शुभ दिन, अच्छा महूरत। गणहि = गिनता है (हे पांडे!)। ऐकंकारु = परमात्मा। सोई = वही मनुष्य। बिधि = तरीका। त = तो।1। पाडे = हे पण्डित! सबदि = गुरू के शबद द्वारा। घरु = आत्मिक आनंद का ठिकाना।1। रहाउ। गणि = गिन के। जोतकु = ज्योतिष। कांडी = जनम पत्री। सभसै ऊपरि = सारी विचारों से श्रेष्ठ। बदउ न = मैं नहीं मानता। छारु = राख।2। सैला = पत्थर, पत्थर की मूर्तियां। गरबु = अहंकार। सारथि = सारथी, रथवाह, जीवन रथ को चलाने वाला। किरतारथि = सफल करने वाला।3। वादु = झगड़ा, चर्चा। कोइ = कोई विरला।4। सहसा = सहम। जीअै = जीवात्मा को। भेटे = मिले। पुरबि = पूर्बले समय में।5। मरि = आत्मिक मौत मर के। दरि = दर पर। बाधउ = बंधा हुआ। मरै = आत्मिक मौत मरता है। बिकारु = व्यर्थ। अचारु = आचरण।6। इकि = ('इक' का बहुवचन) कई। मिसर = मिश्रा, ब्राहमण। आधारु = आसरा। को जनु = कोई विरला मनुष्य। आपारु = अद्वितीय।7। सचु = सदा स्थिर प्रभू। टेकै = टेक रख के, आसरा ले के। गिआनी = हे ज्ञानी! विरली = विरलों ने ही। मेटि = मिटा के।8। सरब गुणी = सारे गुणों के मालिक। साचा = सदा स्थिर प्रभू। बीचारु = सोच मंडल का धुरा, सुरति का निशाना। साचि = सदा स्थिर प्रभू में।9। अर्थ: हे पण्डित! (अपनी आजीविका की खातिर जजमानों को खुश करने के लिए विवाह आदि के समय में शुभ-महूरत आदि ढूँढने का) झूठ ना बोल। सच बोलना चाहिए। जब गुरू के शबद में जुड़ के (अंदर ही) अहंकार दूर हो जाता है तब वह घर (सहज ही) मिल जाता है (जहाँ आत्मिक और सांसारिक सारे पदार्थ मिलते हैं)।1। रहाउ। हे पण्डित! तू (विवाह आदि समयों में जजमानों के लिए) शुभ-लगन गिनता है, पर तू ये विचार नहीं करता कि शुभ-समय बनाने, ना बनाने वाला परमात्मा (स्वयं ही) है। जिस मनुष्य को गुरू मिल जाए वह जानता है (कि विवाह आदि का समय किस) ढंग (से शुभ बन सकता है)। जब मनुष्य को गुरू की शिक्षा प्राप्त हो जाए तब वह परमात्मा की रजा को समझ लेता है (और रज़ा को समझना ही शुभ-महूरत का मूल है)।1। (पण्डित) ज्योतिष (के लेखे) गिन-गिन के (किसी जजमान के पुत्र की) जनम-पत्री बनाता है, (ज्योतिष का हिसाब खुद) पढ़ता है और (जजमान को) सुनाता है पर अस्लियत को नहीं पहचानता। (शुभ-महूरत आदि के) सारे विचारों से उक्तम श्रेष्ठ विचार ये है कि मनुष्य गुरू के शबद को मन में बसाए। मैं (गुरू-शबद के मुकाबले में शुभ-महूरत व जनम-पत्री आदि किसी) और बात की परवाह नहीं करता, और सारी विचारें व्यर्थ हैं।2। (हे पण्डित!) तू (तीर्थ आदि पर) स्नान करता है (शरीर मल-मल के) धोता है, और पत्थर (के देवी-देवते) पूजता है, पर परमात्मा के नाम-रंग में रंगे जाए बिना (मन विकारों से) सदा मैला रहता है। (हे पण्डित!) जीवात्मा को विकारों से निजात दिलाने वाले और जीवन को सफल करने वाले परमात्मा का नाम जप, (नाम जप के) अहंकार दूर करने से (जीवन-रथ का) रथ-वाह (सारथी) प्रभू मिल जाता है।3। (पण्डित) वेद (आदिक धर्म-पुस्तकों) को (जीवन की अगुवाई के लिए) नहीं बिचारता, (अर्थ व कर्म-काण्ड आदि की) बहस को ही पढ़ता है (इस तरह संसार-समुंद्र की विकार-लहरों में डूबा रहता है), जो मनुष्य खुद डूबा रहे वह अपने (गुजर चुके) बुर्जुगों को (संसार-समुंदर में से) कैसे पार लंघा सकता है? कोई विरला मनुष्य ही पहचानता है कि परमात्मा हरेक शरीर में मौजूद है। जिस मनुष्य को गुरू मिल जाए, उसको ये (बात) समझ में आ जाती है।4। जैसे जैसे शुभ-अशुभ-महूरतों के लेखे गिनते रहें वैसे-वैसे जीवात्मा को हमेशा सहम का रोग लगा रहता है। जब मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है तब इसको आत्मिक आनंद मिलता है। पाप-अपराध करके भी जब हम परमात्मा की शरण आते हैं, तो परमात्मा हमारे पूर्बले कर्मों के अनुसार गुरू को मिला देता है (और गुरू सही जीवन-राह दिखाता है)।5। जब तक गुरू की शरण ना आएं तब तक परमात्मा नहीं मिलता, भटकना में गलत रास्ते पड़ के आत्मिक मौत ले के बार-बार जनम में आते रहते हैं। (गुरू की शरण के बिना जीव) जम के दर से बँधा हुआ व्यर्थ ही आत्मिक मौत मरता है, उसके हृदय में ना प्रभू का नाम बसता है ना गुरू का शबद बसता है, ना ही उसका अच्छा आचरण बनता है।6। अनेकों (कुलीन और विद्वान ब्राहमण) अपने आप को पांधे-पण्डित व मिश्र कहलवाते हैं, पर परमात्मा के बिना और ही आसरों की झाक में गलतान रहते हैं, परमात्मा दर-घर नहीं पा सकते। करोड़ों में से कोई ही वह व्यक्ति अद्वितीय है जिसको गुरू की कृपा से परमात्मा का नाम जिंदगी का आसरा मिल गया है।7। हे पण्डित! अगर तू ज्ञानवान बनता है तो गुरू का आसरा-परना ले के ये बात समझ ले कि (जगत में) चाहे कोई भला है चाहे बुरा है हरेक में सदा-स्थिर प्रभू ही मौजूद है। उन विरले लोगों ने हर जगह एक परमात्मा को ही व्यापक समझा है जो गुरू की शरण पड़े हैं। (गुरू-शरण की बरकति से) वे अपना जनम-मरण मिटा के प्रभू-चरणों में लीन रहते हैं।8। (गुरू की कृपा से) जिन मनुष्यों के हृदय में एक परमात्मा बसता है, सारे जीवों का मालिक सदा-स्थिर-प्रभू उनकी सुरति का हमेशा उद्देश्य बना रहता है। हे नानक! जो मनुष्य गुरू की रज़ा में चल के (अपने) सारे काम करता है (और शुभ-अशुभ महूरतों के वहम में नहीं पड़ता) वह सदा-स्थिर-परमात्मा में लीन रहता है (और उसको आत्मिक व सांसारिक पदार्थ उस दर से मिलते रहते हैं)।9।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |