श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 905 रामकली महला १ ॥ हठु निग्रहु करि काइआ छीजै ॥ वरतु तपनु करि मनु नही भीजै ॥ राम नाम सरि अवरु न पूजै ॥१॥ गुरु सेवि मना हरि जन संगु कीजै ॥ जमु जंदारु जोहि नही साकै सरपनि डसि न सकै हरि का रसु पीजै ॥१॥ रहाउ ॥ वादु पड़ै रागी जगु भीजै ॥ त्रै गुण बिखिआ जनमि मरीजै ॥ राम नाम बिनु दूखु सहीजै ॥२॥ चाड़सि पवनु सिंघासनु भीजै ॥ निउली करम खटु करम करीजै ॥ राम नाम बिनु बिरथा सासु लीजै ॥३॥ अंतरि पंच अगनि किउ धीरजु धीजै ॥ अंतरि चोरु किउ सादु लहीजै ॥ गुरमुखि होइ काइआ गड़ु लीजै ॥४॥ अंतरि मैलु तीरथ भरमीजै ॥ मनु नही सूचा किआ सोच करीजै ॥ किरतु पइआ दोसु का कउ दीजै ॥५॥ अंनु न खाहि देही दुखु दीजै ॥ बिनु गुर गिआन त्रिपति नही थीजै ॥ मनमुखि जनमै जनमि मरीजै ॥६॥ सतिगुर पूछि संगति जन कीजै ॥ मनु हरि राचै नही जनमि मरीजै ॥ राम नाम बिनु किआ करमु कीजै ॥७॥ ऊंदर दूंदर पासि धरीजै ॥ धुर की सेवा रामु रवीजै ॥ नानक नामु मिलै किरपा प्रभ कीजै ॥८॥५॥ {पन्ना 905} पद्अर्थ: हठु = धक्का, जोर। हठु जोगु = जबरन शरीर को दुखी करके मन को एकाग्र करने के यतन (जैसे एक टांग के भार खड़े रहना, बाहें सीधी ऊपर को खड़ी रखना)। निग्रहु = मन के फुरनों को रोकने के यतन। छीजै = दुखी होता है। करि = कर के, करने से। सरि = बराबर। न पूजै = नहीं पहुँचता।1। हरि जन संगु = संत जनों की संगति। जंदारु = डरावना। जोहि नही साकै = छू नहीं सकता। सरपनि = माया सपनी।1। रहाउ। वादु = धार्मिक चर्चा। रागी = रागों में, रंग तमाशों में। भीजै = खुश रहता है। बिखिआ = माया।2। पवनु = सांस। भीजै = (पसीने से) भीग जाता है। निउली करम = आँतों को चक्कर दिलाने का कर्म जिससे पेट साफ रहता है। खटु करम = हठ योग के छे कर्म-धोती, नेत्री, निउली, वसती, त्राटक, कपालभाती। धोती = कपड़े की लीर निगल के मेदे में ले जा के फिर बाहर निकाल लेनी। नेत्री = सूत्र की डोरी नाक की नासिका के रास्ते से डाल के गले में से निकालनी। वसती = बाँस की नर्म सी पोरी गुदा में रख के श्वासों के जोर से पोरी में से पानी चढ़ा के आँतें साफ करनी। त्राटक = आँखों की नजर किसी वस्तु पर टिकानी। कपालभाति = लोहार की धौकणी की तरह सांसे जल्दी जल्दी अंदर बाहर खींचना। बिरथा = व्यर्थ।3। पंच अगनि = कामादिक पाँच विकारों की तपश। धीजै = धारी जाए। सादु = स्वाद, आनंद, सुख। काइआ = शरीर। गढ़ ु = गढ़, किला। लीजै = काबू करना चाहिए।4। भरमीजै = भटकते फिरें। सोच = स्नान। सूचा = पवित्र। किरतु पइआ = किए हुए कर्मों के संस्कार मन में इकट्ठे हो जाने पर। का कउ = किस को?।5। देही = शरीर (को)। थीजै = होती।6। संगति जन = संत जनों की संगति। राचै = रच जाता है, लीन हो जाता है।7। ऊंदर = चूहा। दूंदर = (द्वंद्व) शोर। पासि = एक तरफ, अलग। रवीजै = सिमरना चाहिए।8। अर्थ: हे (मेरे) मन! गुरू की (बताई हुई) सेवा कर, और संत जनों की संगति कर, परमात्मा के नाम का रस पी, (इस तरह) भयानक जम छू नहीं सकेगा और माया-सपनी (मोह का) डंक मार नहीं सकेगी।1। रहाउ। व्रत रखने से, तप करने से, मन को एकाग्र करने के लिए जबरदस्ती शरीर को दुख देने से, मन के विचारों को जबरन रोकने के प्रयत्न करने से, शरीर ही दुखी होता है (इन कष्टों का) मन पर असर नहीं पड़ता। (हठ से किया हुआ) कोई भी कर्म परमात्मा के सिमरन की बराबरी नहीं कर सकता।1। जगत धार्मिक चर्चा (की पुस्तकें) पढ़ता है, दुनिया के रंग-तमाशों में ही खुश रहता है और त्रै-गुणी माया के मोह में फस के जनम मरन के चक्कर में पड़ता है (और इस चर्चा आदि को धार्मिक कर्म समझता है)। परमात्मा का नाम सिमरन के बिना दुख ही सहना पड़ता है।2। हठ-योगी सांसों को (दसम-द्वार में) चढ़ाता है (इतनी मेहनत करता है कि पसीने से उसका) सिंहासन ही भीग जाता है, (आंतों को साफ रखने के लिए) निउली कर्म और (हठ योग के) छे कर्म करता है, पर परमात्मा का नाम-सिमरन के बिना व्यर्थ जीवन जीता है।3। जब तक कामादिक पाँच विकारों की आग अंदर भड़क रही हो, तब तक मन धीरज नहीं धारण कर सकता। जब तक मोह-चोर अंदर बस रहा है आत्मिक आनंद नहीं मिल सकता। गुरू की शरण पड़ के इस शरीर किले को जीतो (इससे बागी हुआ मन वश में आ जाएगा और आत्मिक आनंद मिलेगा)।4। अगर मन में (माया के मोह की) मैल टिकी रहे, तीर्थों पर (स्नान के लिए) भटकते फिरें, इस तरह मन पवित्र नहीं हो सकता (तीर्थ-) स्नान का कोई लाभ नहीं होता। (पर) पिछले किए कर्मों के संस्कारों का संचय (गलत रास्ते की ओर को ही प्रेरणा देता रहता है, इसलिए) किसी को दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता।5। जो लोग अन्न नहीं खाते (इस तरह कोई आत्मिक लाभ भी नहीं कमाते) शरीर को ही कष्ट मिलता है, गुरू को मिले ज्ञान के बिना (माया की ओर से विकारों की) तृप्ति नहीं हो सकती। इस तरह अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य पैदा होता है मरता है, पैदा होता है मरता है (उसका ये चक्र चलता रहता है)।6। हे भाई! गुरू का उपदेश ले के संत जनों की संगति करनी चाहिए। (संगति में रहने से) मन परमात्मा के नाम में लीन रहता है, और इस तरह जनम-मरण का चक्कर नहीं पड़ता। (अगर) परमात्मा का नाम ना सिमरा, तो किसी और हठ-कर्म करने का कोई लाभ नहीं होता।7। चूहे की तरह से अंदर-अंदर से शोर मचाने वाले मन के संकल्प-विकल्प अंदर से निकाल देने चाहिए, परमात्मा के नाम का सिमरन करना चाहिए, यही है धुर से मिली सेवा (जो मनुष्य ने करनी है)। हे नानक! (प्रभू के आगे अरदास कर-) हे प्रभू! मेहर कर, मुझे तेरे नाम की दाति मिले।8।5। रामकली महला १ ॥ अंतरि उतभुजु अवरु न कोई ॥ जो कहीऐ सो प्रभ ते होई ॥ जुगह जुगंतरि साहिबु सचु सोई ॥ उतपति परलउ अवरु न कोई ॥१॥ ऐसा मेरा ठाकुरु गहिर ग्मभीरु ॥ जिनि जपिआ तिन ही सुखु पाइआ हरि कै नामि न लगै जम तीरु ॥१॥ रहाउ ॥ नामु रतनु हीरा निरमोलु ॥ साचा साहिबु अमरु अतोलु ॥ जिहवा सूची साचा बोलु ॥ घरि दरि साचा नाही रोलु ॥२॥ इकि बन महि बैसहि डूगरि असथानु ॥ नामु बिसारि पचहि अभिमानु ॥ नाम बिना किआ गिआन धिआनु ॥ गुरमुखि पावहि दरगहि मानु ॥३॥ हठु अहंकारु करै नही पावै ॥ पाठ पड़ै ले लोक सुणावै ॥ तीरथि भरमसि बिआधि न जावै ॥ नाम बिना कैसे सुखु पावै ॥४॥ जतन करै बिंदु किवै न रहाई ॥ मनूआ डोलै नरके पाई ॥ जम पुरि बाधो लहै सजाई ॥ बिनु नावै जीउ जलि बलि जाई ॥५॥ सिध साधिक केते मुनि देवा ॥ हठि निग्रहि न त्रिपतावहि भेवा ॥ सबदु वीचारि गहहि गुर सेवा ॥ मनि तनि निरमल अभिमान अभेवा ॥६॥ करमि मिलै पावै सचु नाउ ॥ तुम सरणागति रहउ सुभाउ ॥ तुम ते उपजिओ भगती भाउ ॥ जपु जापउ गुरमुखि हरि नाउ ॥७॥ हउमै गरबु जाइ मन भीनै ॥ झूठि न पावसि पाखंडि कीनै ॥ बिनु गुर सबद नही घरु बारु ॥ नानक गुरमुखि ततु बीचारु ॥८॥६॥ {पन्ना 905-906} पद्अर्थ: अंतरि = परमात्मा के ही अंदर। उतभुज = (सृष्टि की) उत्पक्ति। जो कहीअै = जिस भी चीज का नाम लिया जाए। ते = से। जुगह जुगंतरि = जुगों जुगों के अंदर। सचु = सदा स्थिर। परलउ = परलय, नाश।1। गहिर = गहरा, जिसका भेद न पाया जा सके। गंभीरु = बड़े जिगरे वाला। जिनि = जिस (भी मनुष्य) ने। नामि = नाम से। जम तीरु = जम का तीर।1। रहाउ। निरमोलु = जिसका मूल्य ना पाया जा सके। अमरु = अटल। जिहवा = जीभ। घरि दरि = हृदय में। रोलु = भुलेखा।2। इकि = कई लोग। डूगरि = पहाड़ में। असथानु = गुफा आदि जगह (बना के)। पचहि = दुखी होते हैं। किआ = व्यर्थ।3। हठु = (मन की ऐकाग्रता के लिए शरीर पर) जबरदस्ती। ले = ले के। भरमसि = (अगर) भटकता फिरेगा। बिआधि = रोग, कामादि रोग।4। बिंदु = वीर्य। किवै = किसी तरह भी। बिंदु न रहावै = काम वासना से नहीं बचता। नरके = नर्क में। लहै = लेता है, सहता है। जीउ = जिंद, जीवात्मा।5। सिध = योग साधनों में सिद्ध योगी। साधिक = जोग साधना करने वाले। हठि = हठ से। निग्रहि = निग्रह से, इन्द्रियों को रोकने के यतन से। न त्रिपतावहि = नहीं मिटा सकते। भेवा = अंदरूनी विक्षेपता। गहहि = पकड़ते हैं, करते हैं। अभिमान अभेवा = अभिमान का अभाव।6। करमि = कृपा से, मेहर से। सचु = सदा स्थिर। रहउ = मैं रहता हूँ। सु भाउ = (तेरे चरनों का) श्रेष्ठ प्रेम। ते = से। भाउ = प्रेम। जापउ = मैं जपता हूँ (गुरू की शरण पड़ के)।7। गरबु = अहंकार। जाइ = (जाय) दूर होता है। मन भीजै = अगर मन भीग जाए। न पावसि = नहीं प्राप्त करेगा। पाखंडि कीनै = अगर पाखण्ड किया जाय, पाखण्ड करने से। घरु बारु = पक्का ठिकाना, परमात्मा का महल। ततु = जगत का मूल परमात्मा। बीचारु = प्रभू के गुणों की विचार।8। अर्थ: हमारा पालनहार प्रभू बड़ा अथाह है और बड़े जिगरे वाला है। जिस भी मनुष्य ने (उसका नाम) जपा है उसी ने ही आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया है। परमात्मा के नाम में जुड़ने से मौत का डर नहीं व्यापता।1। रहाउ। (वह परमात्मा ऐसा है कि) सृष्टि की उत्पक्ति (की ताकत) उसके अपने अंदर ही है (उत्पक्ति करने वाला) और कोई भी नहीं है। जिस भी चीज का नाम लिया जाए वह परमात्मा से ही पैदा हुई है। वही मालिक युगों-युगों में सदा-स्थिर चला आ रहा है। जगत की उत्पक्ति और जगत का नाश करने वाला (उसके बिना) कोई और नहीं है।1। परमात्मा का नाम (एक ऐसा) रतन है हीरा है जिस का मूल्य नहीं पाया जा सकता (जो किसी कीमत से नहीं मिल सकता); वह सदा-स्थिर रहने वाला मालिक है वह कभी मरने वाला नहीं है, उसके बड़प्पन को तोला नहीं जा सकता। जो जीभ (उस अमर अडोल प्रभू की सिफत सालाह के) बोल बोलती है वह पवित्र है। सिफत सालाह करने वाले बंदे को अंदर-बाहर हर जगह वह सदा स्थिर प्रभू ही दिखता है, इस बारे उसको कोई भुलेखा नहीं होता।2। अनेकों लोग (गृहस्त त्याग के) जंगलों में जा बैठते हैं, पहाड़ में (गुफा आदि) जगह (बना के) बैठते हैं (अपने इस उद्यम का) गुमान (भी) करते हैं, पर परमात्मा का नाम बिसार के वह दुखी (ही) होते हैं। परमात्मा के नाम से वंचित रह के कोई ज्ञान-चर्चा और कोई समाधि किसी अर्थ का नहीं। जो मनुष्य गुरू के रास्ते चलते हैं (और नाम जपते हैं) वह परमात्मा की हजूरी में आदर पाते हैं।3। (जो मनुष्य एकाग्रता आदि वास्ते शरीर पर कोई) जबरदस्ती करता है (और इस उद्यम का) गुमान (भी) करता है, वह परमात्मा को नहीं मिल सकता। जो मनुष्य (लोक-दिखावे की खातिर) धार्मिक पुस्तकें पढ़ता है, पुस्तकें ले के लोगों को (ही) सुनाता है, किसी तीर्थ पर (भी स्नान वास्ते) जाता है (इस तरह) उसका कामादिक रोग दूर नहीं हो सकता। परमात्मा के नाम के बिना कोई मनुष्य आत्मिक आनंद नहीं पा सकता।4। (बनवास, डूगर वास, हठ, निग्रह, तीर्थ स्नान आदि) यतन मनुष्य करता है, ऐसे किसी भी तरीके से काम-वासना रोकी नहीं जा सकती, मन डोलता ही रहता है और जीव नर्क में ही पड़ा रहता है, काम-वासना आदि विकारों में बँधा हुआ जमराज की पुरी में (आत्मिक कलेशों की) सजा भुगतता है। परमात्मा के नाम के बिना जीवात्मा विकारों में जलती-भुजती रहती है।5। अनेकों सिद्ध-साधिक ऋषि-मुनि (हठ निग्रह आदि करते हैं पर) हठ निग्रह से अंदरूनी विक्षेपता को मिटा नहीं सकता। जो मनुष्य गुरू के शबद को अपने विचार-मण्डल में टिका के गुरू की (बताई) सेवा (का उद्यम) ग्रहण करते हैं उनके मन में उनके शरीर में (भाव, इन्द्रियों में) पवित्रता आ जाती है, उनके अंदर अहंकार का अभाव हो जाता है।6। जिस मनुष्य को अपनी मेहर से परमात्मा मिलाता है वह सदा-स्थिर-प्रभू-नाम (की दाति) प्राप्त करता है। (हे प्रभू!) मैं भी तेरी शरण आ टिका हूँ (ताकि तेरे चरणों का) श्रेष्ठ प्रेम (मैं हासिल कर सकूँ)। (जीव के अंदर) तेरी भक्ति तेरा प्रेम तेरी मेहर से ही पैदा होते हैं। हे हरी! (अगर तेरी मेहर हो तो) मैं गुरू की शरण पड़ के तेरे नाम का जाप जपता रहूँ।7। अगर जीव का मन परमात्मा के नाम-रस में भीग जाए तो अंदर से अहंकार दूर हो जाता है, पर (नाम-रस में भीगने की यह दाति) झूठ से अथवा पाखण्ड करके कोई भी नहीं प्राप्त कर सकता। गुरू के शबद के बिना परमात्मा का दरबार नहीं मिल सकता। हे नानक! जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होता है वह जगत के मूल प्रभू को मिल जाता है, वह प्रभू के गुणों की विचार (का स्वभाव) प्राप्त कर लेता है।8।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |