श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 906 रामकली महला १ ॥ जिउ आइआ तिउ जावहि बउरे जिउ जनमे तिउ मरणु भइआ ॥ जिउ रस भोग कीए तेता दुखु लागै नामु विसारि भवजलि पइआ ॥१॥ तनु धनु देखत गरबि गइआ ॥ कनिक कामनी सिउ हेतु वधाइहि की नामु विसारहि भरमि गइआ ॥१॥ रहाउ ॥ जतु सतु संजमु सीलु न राखिआ प्रेत पिंजर महि कासटु भइआ ॥ पुंनु दानु इसनानु न संजमु साधसंगति बिनु बादि जइआ ॥२॥ लालचि लागै नामु बिसारिओ आवत जावत जनमु गइआ ॥ जा जमु धाइ केस गहि मारै सुरति नही मुखि काल गइआ ॥३॥ अहिनिसि निंदा ताति पराई हिरदै नामु न सरब दइआ ॥ बिनु गुर सबद न गति पति पावहि राम नाम बिनु नरकि गइआ ॥४॥ खिन महि वेस करहि नटूआ जिउ मोह पाप महि गलतु गइआ ॥ इत उत माइआ देखि पसारी मोह माइआ कै मगनु भइआ ॥५॥ करहि बिकार विथार घनेरे सुरति सबद बिनु भरमि पइआ ॥ हउमै रोगु महा दुखु लागा गुरमति लेवहु रोगु गइआ ॥६॥ सुख स्मपति कउ आवत देखै साकत मनि अभिमानु भइआ ॥ जिस का इहु तनु धनु सो फिरि लेवै अंतरि सहसा दूखु पइआ ॥७॥ अंति कालि किछु साथि न चालै जो दीसै सभु तिसहि मइआ ॥ आदि पुरखु अपर्मपरु सो प्रभु हरि नामु रिदै लै पारि पइआ ॥८॥ मूए कउ रोवहि किसहि सुणावहि भै सागर असरालि पइआ ॥ देखि कुट्मबु माइआ ग्रिह मंदरु साकतु जंजालि परालि पइआ ॥९॥ जा आए ता तिनहि पठाए चाले तिनै बुलाइ लइआ ॥ जो किछु करणा सो करि रहिआ बखसणहारै बखसि लइआ ॥१०॥ जिनि एहु चाखिआ राम रसाइणु तिन की संगति खोजु भइआ ॥ रिधि सिधि बुधि गिआनु गुरू ते पाइआ मुकति पदारथु सरणि पइआ ॥११॥ दुखु सुखु गुरमुखि सम करि जाणा हरख सोग ते बिरकतु भइआ ॥ आपु मारि गुरमुखि हरि पाए नानक सहजि समाइ लइआ ॥१२॥७॥ {पन्ना 906-907} पद्अर्थ: बउरे = हे कमले जीव! मरण = मौत। रस भोग = रसों के भोग। तेता = उतना ही। विसारि = भुला के। भवजलि = जनम मरण के चक्कर में।1। गरबि = अहंकार में। गइआ = फस गया। कनिक = सोना। कामनी = स्त्री। सिउ = साथ। हेतु = मोह। की = क्यों? भरमि = भटकना में।1। रहाउ। संजमु = संयम, इन्द्रियों को रोकने का उद्यम। सतु = ऊँचा आचरण। जतु = काम वासना से बचाव। पे्रत पिंजर महि = (विकारों के कारण) अपवित्र हुए शरीर पिंजर में। कासटु = काष्ठ, लकड़ी, लकड़ी की तरह सूखा हुआ, कोमल भावों से वंचित। बादि = व्यर्थ। जाइआ = (जाया) जन्मा।2। लालचि = लालच में। आवत जावत = माया की खातिर दौड़ते भागते। गइआ = (व्यर्थ) गया। जा = जब। धाइ = दौड़ के, दौड़ते हुए आ के। गहि = पकड़ के। मुखि काल = काल के मुँह में।3। अहि = दिन। निसि = रात। ताति = ईरखा, जलन। सरब = सारे जीवों पर। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत।4। नटूआ = सवांगी, मदारी। जिउ = जैसे। गलतु = गलतान। इत उत = इधर उधर, हर तरफ।5। विथार = विस्तार, पसारे। घनेरे = बहुत। भरमि = भटकना में। गुर मति = गुरू की शिक्षा।6। संपति = सम्पक्ति, धन। साकत मनि = साकत के मन में, माया ग्रसित जीव के मन में। फिरि = दोबारा। सहसा = सहम।7। अंति कालि = आखिरी समय, उस समय जब उम्र का अंतिम समय आ जाता है। तिसहि = उस परमात्मा की ही। मइआ = दया। लै = ले के।8। किसहि = किसको? असरालि = डरावना। सागर असरालि = डरावने सागर में। देखि = देख के। जंजालि = जंजाल में। परालि = पराली (जैसा) निकम्मा।9। तिनहि = उस (परमात्मा) ने ही। पठाहे = भेजे। तिनै = उसी (हरी) ने ही।10। जिनि = जिस (जिस जीव) ने। रसाइणु = रस+आयन, रसों का घर, सारे आनंद देने वाला। खोजु = भेद की समझ। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। ते = से। मुकति पदारथ = (नाम का) सरमाया जो विकारों से और माया के मोह से मुक्ति दिलवाता है।11। सम = बराबर, एक जैसा। सोग = चिंता, अफसोस। बिरकतु = विरक्त, निर्लिप। आपु = स्वै भाव को। मारि = मार के। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में।12। अर्थ: (हे जीव!) अपना शरीर और धन देख के तू अहंकार में आया रहता है। सोने और स्त्री से तू मोह बढ़ाए जा रहा है। तू क्यों परमात्मा का नाम बिसार रहा है, और, क्यों भटकना में पड़ रहा है?।1। रहाउ। हे पागल जीव! जैसे तू (जगत में) आया है वैसे ही (यहाँ से) चला भी जाएगा, जैसे तुझे जनम मिला है वैसे ही मौत भी हो जाएगी (यहाँ किसी भी हालत में सदा बैठे नहीं रहना)। ज्यों-ज्यों तू दुनिया के रसों को भोग भोगता है, त्यों-त्यों उतना ही (तेरे शरीर को और आत्मा को) दुख-रोग चिपक रहा है। (इन भोगों में मस्त हो के) परमात्मा का नाम बिसार के तू जनम-मरण के चक्कर में पड़ा समझ।1। (हे जीव! तूने अपने आप को) काम-वासना से नहीं बचाया, तूने ऊँचा आचरण नहीं बनाया, तूने इन्द्रियों को बुरी तरफ से रोकने का प्रयत्न नहीं किया, तूने मीठा स्वभाव नहीं बनाया। (विकारों के कारण) अपवित्र हुए शरीर पिंजर में तू लकड़ी (की तरह सूखा हुआ कठोर-दिल) हो चुका है। तेरे अंदर ना दूसरों की भलाई का ख्याल है, ना दूसरों की सेवा की तमन्ना है, ना आचरणिक पवित्रता है, ना ही कोई संयम है। साध-संगति से दूर रह के तेरा मानस जनम व्यर्थ जा रहा है।2। (हे जीव!) तू माया की लालच में लगा हुआ है, परमात्मा का नाम तूने भुला दिया है। माया की खातिर दौड़ते-भागते तेरा जीवन (व्यर्थ) चला जाता है। जब अचनचेत जम आ के तुझे केसों से पकड़ के पटका के मारेगा, काल के मुँह में पहुँचे हुए तुझको (सिमरन की) सुरति नहीं आ सकेगी।3। दिन-रात तू पराई निंदा करता है, दूसरों के साथ ईरखा करता है। तेरे हृदय में ना परमात्मा का नाम है और ना ही सब जीवों के लिए दया-प्यार । गुरू के शबद के बिना ना तू ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर सकेगा ना ही (लोक-परलोक की) इज्जत। परमात्मा के नाम से टूट के तू नर्क में ही पड़ा हुआ है।4। (हे जीव! माया की खातिर) तू छिन-पल में तू स्वांगी की तरह कई रूप धारण करता है। तू मोह में पापों में गलतान हुआ पड़ा है। हर तरफ़ माया का प्सारा देख के तू माया के मोह में मस्त हो रहा है।5। (हे पागल जीव!) तू विकारों की खातिर अनेकों पसारे पसारता है गुरू के शबद की लगन के बिना तू (विकारों की) भटकना में भटकता है। तुझे अहंकार का बड़ा रोग बड़ा दुख चिपका हुआ है। अगर तू चाहता है ये रोग दूर हो जाए तो गुरू की शिक्षा ले।6। माया-ग्रसित जीव जब सुखों को और धन को आता देखता है तो इसके मन में अहंकार पैदा होता है। पर जिस परमात्मा का दिया हुआ ये शरीर और धन है वह दोबारा वापस ले लेता है। माया-ग्रसित जीव को सदा यही सहम खाए जाता है।7। (हे जीव! ये शरीर, ये धन, ये सोना, ये स्त्री) जो कुछ दिखाई दे रहा है, ये सब कुछ उस परमात्मा की मेहर सदका ही मिला हुआ है, पर आखिरी वक्त में इनमें से भी (किसी के) साथ नहीं जा सकता। (दुनिया के ये पदार्थ देने वाला) वह परमात्मा सारे जगत का मूल है, सब में व्यापक है, बेअंत है। जो मनुष्य उसका नाम अपने हृदय में टिकाता है, वह (संसार-समुंद्र की मोह की लहरों में से) पार लांघ जाता है।8। (हे साकत जीव! मरना तो सबने है, फिर तू अपने किसी) मरे हुए सन्बंधी को रोता है और (रो-रो के) किस को सुनाता है? (परमात्मा की याद से टूट के) तू बड़े भयानक (डरावने) संसार-समुंदर में गोते खा रहा है। माया-ग्रसित जीव अपने परिवार को, धन को, सुंदर घरों को देख-देख के निकम्मे जंजाल में फसा हुआ है।9। हम जीव जब संसार में आते हैं तो उस परमात्मा ने ही हमको भेजा होता है, यहाँ से जाते हैं तब भी उसी ने बुलावा भेजा होता है। जो कुछ वह प्रभू करना चाहता है वह कर रहा है। (हम जीव उसकी रजा को भूल जाते हैं, पर) वह बख्शनहार है वह माफ कर देता है।10। (हे जीव!) परमात्मा का नाम सारे रस देने वाला है, जिस-जिस बंदे ने ये नाम-रस चख लिया है उनकी संगति में रहने से इस भेद की समझ आता है। गुरू की शरण पड़ कर गुरू से ही परमात्मा का नाम-पदार्थ मिलता है, इस नाम में ही सब करामाती ताकतें हैं, ऊँची बुद्धि है, सही जीवन-राह की सूझ है, और इस नाम से ही माया के मोह से निजात मिलती है।11। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है वह (घटित होने वाले) दुख-सुख को एक जैसा ही जानता है, वह खुशी-ग़मी से निर्लिप रहता है। हे नानक! गुरू की शरण पड़ने से मनुष्य स्वैभाव मार के परमात्मा से मिल जाता है और अडोल आत्मिक अवस्था में रहता है।12।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |