श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 907 रामकली दखणी महला १ ॥ जतु सतु संजमु साचु द्रिड़ाइआ साच सबदि रसि लीणा ॥१॥ मेरा गुरु दइआलु सदा रंगि लीणा ॥ अहिनिसि रहै एक लिव लागी साचे देखि पतीणा ॥१॥ रहाउ ॥ रहै गगन पुरि द्रिसटि समैसरि अनहत सबदि रंगीणा ॥२॥ सतु बंधि कुपीन भरिपुरि लीणा जिहवा रंगि रसीणा ॥३॥ मिलै गुर साचे जिनि रचु राचे किरतु वीचारि पतीणा ॥४॥ एक महि सरब सरब महि एका एह सतिगुरि देखि दिखाई ॥५॥ जिनि कीए खंड मंडल ब्रहमंडा सो प्रभु लखनु न जाई ॥६॥ दीपक ते दीपकु परगासिआ त्रिभवण जोति दिखाई ॥७॥ सचै तखति सच महली बैठे निरभउ ताड़ी लाई ॥८॥ मोहि गइआ बैरागी जोगी घटि घटि किंगुरी वाई ॥९॥ नानक सरणि प्रभू की छूटे सतिगुर सचु सखाई ॥१०॥८॥ {पन्ना 907} नोट: ये अष्टपदी दक्षिण में गाई जाने वाली रामकली में है। पद्अर्थ: साचु = सदा स्थिर प्रभू। सबदि = शबद से, सिफत सालाह की बाणी से। साच रसि = सदा स्थिर प्रभू के नाम रस में। लीणा = लीन, मस्त।1। दइआलु = दया का श्रोत। रंगि = रंग में, प्रेम में। अहि = दिन। निसि = रात। देखि = देख देख के।1। रहाउ। गगन = आकाश, चिक्त आकाश, दसम द्वार,ऊँची आत्मिक अवस्था। गगनपुरि = आकाश मण्डल में, उच्च आत्मिक अवस्था में। समै = सम, एक जैसी। सरि = बराबर। समै सरि = एक जैसी। अनहत सबदि = उस शबद (की धुन) में जो एक रस हो रहा है। अनहत = बिना बजाए बजने वाला, एक रस।2। सतु = ऊँचा आचरन। बंधि = बाँध के। कुपीन = लंगोटी। भरिपुरि = सर्व व्यापक प्रभू में। रसीणा = रसी हुई है।3। मिलै गुर साचे = सच्चे गुरू को मिला हुआ है। जिनि = जिस (परमातमा) ने। रचु राचे = जगत रचना रची है। किरतु वीचारि = हरी की किरत को विचार के।4। सतिगुरि = सतिगुरू ने। देखि = (खुद) देख के।5। जिनि = जिस (प्रभू) ने। लखनु न जाई = बयान नहीं किया जा सकता।6। दीपक ते = दीए से। त्रिभवण = तीन भवनों में।7। तखति = तख्त पर। निरभउ ताड़ी = निडरता की ताड़ी।8। मोहि गइआ = (हमें) मोह लिया है। किंगुरी वाई = किंगुरी बजा दी है, जिंदगी की रौंअ चला दी है।9। सखाई = साखी, मित्र। सतिगुर सखाई = गुरू का मित्र।10। अर्थ: मेरा गुरू दया का घर है, वह सदा प्रेम रंग में रंगा रहता है। (मेरे गुरू की) सुरति दिन-रात एक परमात्मा (के चरणों) में लगी रहती है, (मेरा गुरू) सदा-स्थिर परमात्मा का (हर जगह) दीदार करके (उस दीदार में) मस्त रहता है।1। रहाउ। (मेरा गुरू) परमात्मा की सिफतसालाह की बाणी के द्वारा सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम-रस में लीन रहता है मेरे गुरू ने मुझे ये यकीन करवा दिया है कि काम-वासना से बचे रहना, ऊँचा आचरण, इन्द्रियों को विकारों से रोकना, और सदा-स्थिर प्रभू का सिमरन- यही है सही जीवन।1। (मेरे गुरू) सदा ऊँची अडोल आत्मिक अवस्था में टिका रहता है, (मेरे गुरू की) (प्यार भरी) निगाह (सब ओर) एक जैसी ही है। (मेरा गुरू) उस शबद में रंगा हुआ है जिसकी धुनि उसके अंदर एक-रस हो रही है।2। ऊँचा आचरण (-रूप) लंगोट बाँध के (मेरा गुरू) सर्व-व्यापक परमात्मा (की याद) में लीन रहता है, उसकी जीभ (प्रभू के) प्रेम में रसी रहती है।3। कभी गलती ना खाने वाले (मेरे) गुरू को वह परमात्मा सदा मिला रहता है जिस ने जगत-रचना रची है, उसकी जगत-किरत को देख-देख के (मेरा गुरू उसकी सर्व-समर्था में) निश्चय रखता है।4। सृष्टि के सारे ही जीव एक परमात्मा में हैं (भाव, एक प्रभू ही सबकी जिंदगी का आधार है), सारे जीवों में एक परमात्मा व्यापक है- यह करिश्मा (मेरे) गुरू ने (खुद) देख के (मुझे) दिखा दिया है।5। (मेरे गुरू ने ही मुझे बताया है कि) जिस प्रभू ने सारे खंड-ब्रहमंड बनाए हैं उसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।6। (गुरू ने अपनी रौशन ज्योति के) दीए से (मेरे अंदर) दीया जला दिया है और मुझे वह (ईश्वरीय) ज्योति दिखा दी है, जो तीन भवनों में मौजूद है।7। (मेरा गुरू एक ऐसा नाथों का नाथ भी है जो) सदा अटल रहने वाले अडोलता के तख्त पर बैठा हुआ है जो सदा-स्थिर रहने वाले महल में बिराजमान है, (वहाँ आसन जमाए) बैठे (मेरे गुरू-जोगी) ने निडरता की समाधि लगाई हुई है।8। माया से निर्लिप मेरे जोगी गुरू ने (सारे संसार को) मोह लिया है, उसने हरेक के अंदर (आत्मिक जीवन की रौंअ) किंगुरी बजा दी है।9। हे नानक! सदा-स्थिर रहने वाला परमात्मा (मेरे) गुरू का मित्र है, गुरू के द्वारा प्रभू की शरण पड़ कर जीव (माया के मोह से) बच जाते हैं।10।8। रामकली महला १ ॥ अउहठि हसत मड़ी घरु छाइआ धरणि गगन कल धारी ॥१॥ गुरमुखि केती सबदि उधारी संतहु ॥१॥ रहाउ ॥ ममता मारि हउमै सोखै त्रिभवणि जोति तुमारी ॥२॥ मनसा मारि मनै महि राखै सतिगुर सबदि वीचारी ॥३॥ सिंङी सुरति अनाहदि वाजै घटि घटि जोति तुमारी ॥४॥ परपंच बेणु तही मनु राखिआ ब्रहम अगनि परजारी ॥५॥ पंच ततु मिलि अहिनिसि दीपकु निरमल जोति अपारी ॥६॥ रवि ससि लउके इहु तनु किंगुरी वाजै सबदु निरारी ॥७॥ सिव नगरी महि आसणु अउधू अलखु अगमु अपारी ॥८॥ काइआ नगरी इहु मनु राजा पंच वसहि वीचारी ॥९॥ सबदि रवै आसणि घरि राजा अदलु करे गुणकारी ॥१०॥ कालु बिकालु कहे कहि बपुरे जीवत मूआ मनु मारी ॥११॥ ब्रहमा बिसनु महेस इक मूरति आपे करता कारी ॥१२॥ काइआ सोधि तरै भव सागरु आतम ततु वीचारी ॥१३॥ गुर सेवा ते सदा सुखु पाइआ अंतरि सबदु रविआ गुणकारी ॥१४॥ आपे मेलि लए गुणदाता हउमै त्रिसना मारी ॥१५॥ त्रै गुण मेटे चउथै वरतै एहा भगति निरारी ॥१६॥ गुरमुखि जोग सबदि आतमु चीनै हिरदै एकु मुरारी ॥१७॥ मनूआ असथिरु सबदे राता एहा करणी सारी ॥१८॥ बेदु बादु न पाखंडु अउधू गुरमुखि सबदि बीचारी ॥१९॥ गुरमुखि जोगु कमावै अउधू जतु सतु सबदि वीचारी ॥२०॥ सबदि मरै मनु मारे अउधू जोग जुगति वीचारी ॥२१॥ माइआ मोहु भवजलु है अवधू सबदि तरै कुल तारी ॥२२॥ सबदि सूर जुग चारे अउधू बाणी भगति वीचारी ॥२३॥ एहु मनु माइआ मोहिआ अउधू निकसै सबदि वीचारी ॥२४॥ आपे बखसे मेलि मिलाए नानक सरणि तुमारी ॥२५॥९॥ {पन्ना 907-908} पद्अर्थ: अउहठि = हृदय में। अउहठ = (अवघट्ट) हृदय। हसत = (स्थ) टिका हुआ। अउहठि हसत = (अवघट्टस्थ) हृदय में टिका हुआ। मढ़ी = शरीर। छाइआ = बनाया। धरणि = धरती। कल = सक्ता। धारी = धारने वाला, आसरा देने वाला।1। केती = बेअंत दुनिया। उधारी = (परमात्मा ने अहंकार ममता आदि से) बचाई।1। रहाउ। सोखै = सुखा देता है। त्रिभवणि = तीन भवनों वाले संसार में।2। मनसा = मन का (मायावी) फुरना। मारि = मार के। मनै महि = मन ही में। सबदि = शबद से। वीचारी = विचारवान।3। सिंङी = सिंगी की शकल की छोटी सी तूती जो जोगी लोग सदा अपने पास रखते हैं। अनाहदि = (अन आहत) नाश रहित परमात्मा में। घटि घटि = हरेक घटि में।4। परपंच = जगत रचना। बेणु = वीणा। परपंच बेदु = वह परमात्मा जिस में जगत रचना की बाणी सदा बज रही है। तह = (शब्द 'तह' बताता है कि शब्द 'परपंचबेणु' के साथ शब्द 'जह' प्रयोग करना है) वहाँ, उस परमात्मा में। ब्रहम अगनि = ईश्वरीय तेज, ओज, परमात्मा की प्रकाया रूप आग। परजारी = अच्छी तरह जलाई हुई।5। पंच ततु = पाँच तत्वों से बना हुआ शरीर। पंच ततु मिलि = पंच तत्वी शरीर प्राप्त करके। अहि = दिन। निसि = रात। दीपकु = दीया।6। रवि = सूरज, ईड़ा नाड़ी। ससि = चंद्रमा, पिंगला नाड़ी, बाई सुर। लउका = तूंबा (किंगुरी का)। निरारी = निराली, अनोखा, आश्चर्य।7। सिव नगरी = शिव की नगरी में, कल्याण स्वरूप परमात्मा के देश में। अउधू = हे जोगी! अगंमु = अपहॅुंच प्रभू।8। राजा = कामादिक को वश में करने के समर्थ। पंच = पाँच ज्ञान इन्द्रियां। वीचारी = विचारवान (हो के)।9। रवै = सिमरता है। आसणि = (अडोलता के) आसन पर। घरि = घर में, हृदय में, अंतर आत्मे (टिक के)। गुणकारी = (दूसरों को) गुण देने वाला, परोपकारी। अदलु = न्याय।10। बिकालु = जनम। कालु बिकालु = जनम मरण। कहि = क्या? मारी = मार के। बपुरे = बिचारे।11। महेस = शिव। इक मूरति = एक परमात्मा का ही रूप।12। सोधि = शुद्ध करके। आतम ततु = आतम का मूल परमात्मा।13। अंतरि = अंदर, हृदय में। रविआ = याद रखा, बार बार बसाया। गुणकारी = आत्मिक गुण देने वाला।14। मारी = मार के।15। चउथै = चौथे दर्जे में, उस आत्मिक अवस्था में जहाँ माया के तीन गुण छू नहीं सकते।16। जोग सबदि = शबद रूप जोग से। चीनै = पहचानता है।17। सबदे = शबद ही, शबद में ही। सारी = श्रेष्ठ। करणी = (करणीय) करने योग्य काम।19। गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरू के सन्मुख है।20। मरै = विकारों से मरता है, ऐसी आत्मिक अवस्था में पहुँचता है जहाँ विकार छू नहीं सकते। वीचारी = विचार ली है, समझ ली है।21। भवजलु = संसार समुंदर, बवंडर।22। सूर = सूरमे। बाणी = वचन। भगति वीचारी = भक्ति की विचार वाले।23। निकसै = निकलता है। वीचारी = विचारवान हो के।24। मेलि = मेल में, संगति में।25। अर्थ: हे संत जनो! गुरू के सन्मुख कर के गुरू के शबद में जोड़ के परमात्मा बेअंत दुनिया को (अहंकार ममता कामादिक से) बचाता (चला आ रहा) है।1। रहाउ। धरती आकाश को अपनी सक्ता से टिका के रखने वाला परमात्मा (जिस जीव को माया-मोह आदि से बचाता है उसके) हृदय में टिक के उसके शरीर को अपने रहने के लिए घर बना लेता है (भाव, उसके अंदर अपना आप प्रकट करता है)।1। हे प्रभू! (गुरू के माध्यम से जिस मनुष्य का तू उद्धार करता है) वह अपनत्व को (अपने अंदर से) मार के अहंकार को भी खत्म कर लेता है, और उसको इस त्रिभवनी जगत में तेरी ही ज्योति नजर आती है।2। (हे प्रभू! जिस जीव को तू तैराता है) वह गुरू के शबद से ऊँचे विचारों का मालिक हो के अपने मन के मायावी फुरनों को खत्म करके (तेरी याद को) अपने मन में टिकाता है।3। (हे प्रभू! जिस पर तेरी मेहर होती है वह है असल जोगी, उसकी) सुरति तेरे नाश-रहत स्वरूप में टिकती है (ये मानो, उसके अंदर जोगियों वाली) सिंगी बजती है, उसको हरेक शरीर में तेरी ही ज्योति दिखाई देती है (वह किसी को त्याग के जंगलों-पहाड़ों में नहीं भटकता)।4। (गुरू के शबद में टिका हुआ मनुष्य असल जोगी है,) वह अपने मन को उस परमात्मा में जोड़े रखता है जिसमें जगत-रचना की वीणा बज रही है, वह अपने अंदर ईश्वरीय ज्योति अच्छी तरह जला लेता है।5। (हे अवधू! जिस मनुष्य को परमात्मा गुरू की शरण में लाकर आत्म-उद्धार के रास्ते पर डालता है) वह मनुष्य इस पंच-तत्वीय मानस शरीर को हासिल करके (जंगलों-पहाड़ों में जा के इसको राख में नहीं मिलाता, वह तो) बेअंत परमात्मा की पवित्र ज्योति का दीपक दिन-रात (अपने अंदर जगाए रखता है)।6। (हे अवधू!) प्रभू की कृपा का पात्र बना हुआ मनुष्य अपने इस शरीर को किंगुरी बनाता है, सांस-सांस नाम-जपने को इस शरीर-किंगुरी की तूंबी बनाता है, उसके अंदर गुरू का शबद अनोखे आकर्षण के साथ बजता है (भाव, गुरू का शबद उसके अंदर रसमयी प्रेम-राग पैदा करता है)।7। हे अवधू! (जिस मनुष्य का उद्धार परमात्मा गुरू के शबद द्वारा करता है, वह) उस आत्मिक अवस्था रूपी नगरी में अडोल-चिक्त हो के जुड़ता है जहाँ कल्याण-स्वरूप-प्रभू का ही प्रभाव है, जहाँ उसके अंदर अलख, अपहुँच और बेअंत परमात्मा प्रगट हो पड़ता है (वह ऊँची आत्मिक अवस्था ही गुरसिख जोगी की शिव-नगरी है)।8। (हे अवधू! प्रभू की कृपा प्राप्त मनुष्य का यह) शरीर (मानो, बसता हुआ) शहर बन जाता है जिसमें पाँचों ज्ञान-इन्द्रियां विचारवान हो के (ऊँची आत्मिक सूझ-बूझ वाली हो के) बसती है (भाव, विकारों के पीछे नहीं भटकती फिरतीं, कृपा के पात्र मनुष्य का) यह मन (शरीर-नगरी में) राजा बन जाता है (कामादिकों को वश में कर लेता है)।9। (हे अवधू! जिस मनुष्य का, परमात्मा गुरू के शबद द्वारा उद्धार करता है उसका मन कामादिक पर) बलवान हो के (आत्मिक अडोलता के) आसन पर बैठता है अपने अंदर ही टिका रहता है, गुरू के शबद में जुड़ के परमात्मा का सिमरन करता रहता है, न्याय करता है (भाव, सारी इन्द्रियों को अपनी-अपनी सीमा में बाँध के रखता है), और परोपकारी हो जाता है।10। (हे अवधू! जिस मनुष्य पर प्रभू की मेहर होती है वह धूणियाँ तपा-तपा के नहीं जलता, वह तो संसारिक जीवन) जीते हुए ही (अहंकार-ममता-कामादिक की ओर से) मर जाता है, वह अपने मन को (इनकी ओर से) मार देता है, (इस अवस्था में पहुँचे हुए का) बिचारे जनम-मरण कुछ बिगाड़ नहीं सकते।11। (हे अवधू! उस मनुष्य को यह समझ आ जाती है कि) ईश्वर स्वयं ही सब कुछ करने में समर्थ है, ब्रहमा-विष्णु और शिव उस एक परमात्मा (की एक-एक ताकत) के स्वरूप (मिथे गए) हैं।12। (हे अवधू! वह मनुष्य) हरेक आत्मा के मालिक परमात्मा (की याद) को अपने सोच-मण्डल में टिकाता है और (जंगलों और पहाड़ों में भटकने की जगह) अपने शरीर को (विकारों से) पवित्र रख के इस संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है।13। (हे अवधू! उस मनुष्य ने) गुरू की बताई हुई सेवा से ही सदा के लिए आत्मिक आनंद पा लिया है, उसके अंदर (पवित्र) आत्मिक गुण पैदा करने वाला गुरू का शबद सदा टिका रहता है।14। (हे अवधू! जिस पर प्रभू कृपा करता है उसको) आत्मिक गुण पैदा करने वाला परमात्मा स्वयं ही (गुरमुखों की) संगति में मिलाता है, उसके अंदर से अहंकार और माया की तृष्णा समाप्त कर देता है।15। (वह मनुष्य गुरू के शबद की बरकति से) माया के तीन गुणों का प्रभाव मिटा लेता है, उस उच्च आत्मिक अवस्था में टिका रहता है जहाँ इन तीनों का जोर नहीं चलता, (जंगलों पहाड़ों में भटकने के बजाय उसको) यह भक्ति ही आकर्षित करती है।16। (हे अवधू!) गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ने के योग (-साधन) के द्वारा अपने आत्मिक जीवन को परखता रहता है और अपने हृदय में एक परमात्मा (की याद और प्रीत) को बसाए रखता है।17। (हे अवधू! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य का मन सदा) गुरू के शबद में रंगा रहता है। (इस वास्ते उसका) मन (विकारों में डोलने की जगह प्रभू-प्रीति में) टिका रहता है। (मानस जीवन में) ये ही करने-योग्य काम उसको श्रेष्ठ लगता है।18। हे अवधू! वेद (आदि धर्म-पुस्तकों) को (पढ़ के उनकी) चर्चा को (वह मनुष्य) नहीं कबूलता (पसंद नहीं करता, आत्मिक जीवन के राह में इसको वह) पाखण्ड (समझता है)। वह तो गुरू की शरण पड़ के गुरू के शबद की बरकति से ऊँची आत्मिक विचार का मालिक बनता है।19। हे अवधू! (जिस मनुष्य का उद्धार परमात्मा करता है वह) गुरू के बताए हुए राह पर चलता है, यही जोग (वह) कमाता है, गुरू के शबद में जुड़ के वह ऊँची आत्मिक विचार का मालिक बनता है, यही है उसका जत और सत (कायम रखने का तरीका)।20। हे अवधू! उस मनुष्य ने जोग की (परमात्मा के साथ जुड़ने की) ये जुगति समझी है कि वह गुरू के शबद में जुड़ के (अहंकार-ममता आदि से) मुर्दा हो जाता है अपने मन को (विकारों से) काबू में रखता है।21। हे अवधू! माया का मोह बवण्डर है (जिस मनुष्य का परमात्मा उद्धार करता है वह) गुरू के शबद में जुड़ के (इसमें से) पार लांघ जाता है और अपनी कुलों का भी उद्धार कर लेता है।22। हे अवधू! जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ते हैं वे चारों युगों में ही सूरमे हैं, (भाव, किसी भी समय में कामादिक विकार उन पर जोर नहीं डाल सकते)। गुरू की बाणी की बरकति से वे परमात्मा की भक्ति को अपनी सोच-मण्डल में टिकाए रखते हैं।23। हे अवधू! मनुष्य का ये मन माया के मोह में फंस जाता है (पर इसमें से निकलने का ये तरीका नहीं कि मनुष्य जंगलों में या पहाड़ों की गुफाओं में जा छिपे, इसमें से) वही मनुष्य निकलता है जो गुरू के शबद में जुड़ के परमात्मा की सिफतसालाह को अपने सोच-मंडल में टिकाता है।24। सो, हे नानक! (प्रभू के दर पर अरदास कर- हे प्रभू!) मैं तेरी शरण आया हूँ (मुझे माया के मोह में फसने से बचा ले)। (माया के मोह से बचना जीवों के अपने वश की बात नहीं, अरदास सुन के) परमात्मा स्वयं ही कृपा करता है और अपनी संगति में मिलाता है।25।9। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |