श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ३ असटपदीआ    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सरमै दीआ मुंद्रा कंनी पाइ जोगी खिंथा करि तू दइआ ॥ आवणु जाणु बिभूति लाइ जोगी ता तीनि भवण जिणि लइआ ॥१॥ ऐसी किंगुरी वजाइ जोगी ॥ जितु किंगुरी अनहदु वाजै हरि सिउ रहै लिव लाइ ॥१॥ रहाउ ॥ सतु संतोखु पतु करि झोली जोगी अम्रित नामु भुगति पाई ॥ धिआन का करि डंडा जोगी सिंङी सुरति वजाई ॥२॥ मनु द्रिड़ु करि आसणि बैसु जोगी ता तेरी कलपणा जाई ॥ काइआ नगरी महि मंगणि चड़हि जोगी ता नामु पलै पाई ॥३॥ इतु किंगुरी धिआनु न लागै जोगी ना सचु पलै पाइ ॥ इतु किंगुरी सांति न आवै जोगी अभिमानु न विचहु जाइ ॥४॥ भउ भाउ दुइ पत लाइ जोगी इहु सरीरु करि डंडी ॥ गुरमुखि होवहि ता तंती वाजै इन बिधि त्रिसना खंडी ॥५॥ हुकमु बुझै सो जोगी कहीऐ एकस सिउ चितु लाए ॥ सहसा तूटै निरमलु होवै जोग जुगति इव पाए ॥६॥ {पन्ना 908}

पद्अर्थ: सरम = मेहनत (ऊँचा आत्मिक जीवन बनाने के लिए मेहनत)। जोगी = हे जोगी! खिंथा = कफनी, गोदड़ी। करि = बना। आवणु जाणु = जनम मरन का चक्कर (जनम मरन के चक्कर का डर)। बिभूति = राख। तीनि भवण = तीन भवन, (आकाश, पाताल, मातृ लोक), सारा जगत, जगत का मोह। जिणि लइआ = जीत लिया।1।

किंगुरी = वीणा। जितु किंगुरी = जिस किंगुरी से, जिस वीणा के बजाने से। अनहदु = बिना बजाए बजता राग, एक रस हो रहा राग, ऊँचे आत्मिक जीवन का एक रस आनंद। वाजै = बजने लग जाता है। लिव = लगन।1। रहाउ।

सतु = दान, सेवा। पतु = पात्र, खप्पर। करि = बना। हे जोगी = हे जोगी! अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। भुगति = चूरमा, भोजन। सिंङी = छोटा सा सींग जो भण्डारा बाँटने के समय जोगी बजाता है।2।

द्रिढ़ ु = दृढ़, पक्का। आसणि = आसन पर। बैसु = बैठ। कलपणा = मन की खिझ। काइआ = शरीर। मंगणि चढ़हि = मांगने के लिए चल पड़ें। पलै पाई = पल्ले पड़ता है, मिलता है।3।

इतु = इससे। इतु किंगुरी = इस किंगुरी से (जो तू बजा रहा है)। विचहु = मन में से।4।

भउ = डर। भाउ = प्यार। दुइ = दोनों। पत = (देखें बंद 2। 'पतु' एकवचन है) तूंबे = (जो किंगुरी की लंबी डंडी पर लगे होते हैं)। डंडी = किंगरी की डंडी। गुरमुख = गुरू के सन्मुख। तंती = तार, वीणा की तार। इन बिधि = इस तरीके से। खंडी = नाश हो जाता है।5।

बुझै = समझ ले, के अनुसार चल पड़े। ऐकस सिउ = एक परमात्मा से ही। सहसा = सहम। निरमलु = पवित्र। जोग जुगती = जोग की जुगति, प्रभू मिलाप का ढंग। इव = इस तरह।6।

अर्थ: हे जोगी! तू ऐसी वीणा बजाया कर, जिस वीणा के बजाने से (मनुष्य के अंदर) ऊँचे आत्मिक जीवन का एक-रस आनंद पैदा हो जाता है, और मनुष्य परमात्मा में सुरति जोड़े रखता है।1। रहाउ।

हे जोगी! (इस काँच की मुंद्राओं की जगह) तू अपने कानों में (ऊँचा आत्मिक जीवन बनाने के लिए) मेहनत की मुंद्राएं डाल ले और दया को तू अपनी गोदड़ी बना। हे जोगी! जनम-मरन के चक्कर का डर याद रख - ये राख तू अपने शरीर पर मल। (जब तू ऐसा उद्यम करेगा, तो समझ लेना कि) तूने जगत का मोह जीत लिया।1।

हे जोगी! (दूसरों की) सेवा (किया कर, और अपने अंदर) संतोख (धारण कर, इन दोनों) को खप्पर और झोली बना। आत्मिक जीवन देने वाला नाम (अपने हृदय में बसाए रखो) ये चूरमा (तू अपने खप्पर में) डाल। हे जोगी! प्रभू चरणों में चिक्त जोड़े रखने को तू (अपने हाथ का) डंडा बना; प्रभू में सुरति टिकाए रख- ये सिंगी बजाया कर।2।

हे जोगी! (प्रभू की याद में) अपने मन को पक्का कर- (इस) आसन पर बैठा कर, (इस अभ्यास से) तेरे मन की खिझ दूर हो जाएगी। (तू आटा मांगने के लिए नगर की ओर चल पड़ता है, इसकी जगह) अगर तू अपने शरीर नगर के अंदर ही (टिक के परमात्मा के दर से उसके नाम का दान) मांगना शुरू कर दे, तो, हे जोगी! तुझे (परमात्मा का) नाम प्राप्त हो जाएगा।3।

हे जोगी! (जो किंगरी तू बजा रहा है) इस किंगरी से प्रभू के चरणों में ध्यान नहीं जुड़ सकता, ना ही इस तरह सदा-स्थिर प्रभू का मिलाप हो सकता है। हे जोगी! (तेरी) इस किंगरी से मन में शांति नहीं पैदा हो सकती, ना ही मन में से अहंकार खत्म हो सकता है।4।

हे जोगी! तू अपने इस शरीर को (किंगरी की) डंडी बना और (इस शरीर-डंडी को) डर और प्यार के दो तूंबे जोड़ (भाव, अपने अंदर प्रभू का भय और प्यार पैदा कर)। हे जोगी! अगर तू हर वक्त गुरू के सन्मुख हुआ रहे तो (हृदय की प्रेम-) तार बज पड़ेगी, इस तरह (तेरे अंदर से) तृष्णा समाप्त हो जाएगी।5।

हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की रजा के अनुसार चलता है और एक परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़े रखता है वह मनुष्य (असल) जोगी कहलवाता है, (उसके अंदर से) सहम दूर हो जाता है, उसका हृदय पवित्र हो जाता है, और, इस तरह वह मनुष्य परमात्मा के मिलाप का तरीका तलाश लेता है।6।

नदरी आवदा सभु किछु बिनसै हरि सेती चितु लाइ ॥ सतिगुर नालि तेरी भावनी लागै ता इह सोझी पाइ ॥७॥ एहु जोगु न होवै जोगी जि कुट्मबु छोडि परभवणु करहि ॥ ग्रिह सरीर महि हरि हरि नामु गुर परसादी अपणा हरि प्रभु लहहि ॥८॥ इहु जगतु मिटी का पुतला जोगी इसु महि रोगु वडा त्रिसना माइआ ॥ अनेक जतन भेख करे जोगी रोगु न जाइ गवाइआ ॥९॥ हरि का नामु अउखधु है जोगी जिस नो मंनि वसाए ॥ गुरमुखि होवै सोई बूझै जोग जुगति सो पाए ॥१०॥ जोगै का मारगु बिखमु है जोगी जिस नो नदरि करे सो पाए ॥ अंतरि बाहरि एको वेखै विचहु भरमु चुकाए ॥११॥ विणु वजाई किंगुरी वाजै जोगी सा किंगुरी वजाइ ॥ कहै नानकु मुकति होवहि जोगी साचे रहहि समाइ ॥१२॥१॥१०॥ {पन्ना 908-909}

पद्अर्थ: सभु किछु = हरेक चीज, सब कुछ। बिनसै = नाशवंत है। सेती = साथ। लाइ = जोड़े रख। भावनी = श्रद्धा, प्यार।7।

जोगी = हे जोगी! जि = जो, कि। छोडि = छोड़ के। परभवणु = देश रटन, जगह जगह भटकते फिरना। करहि = तू करता है। ग्रिह सरीर महि = शरीर घर में। गुर परसादी = गुरू की कृपा से। लहहि = तू पा लेगा।8।

इसु महि = इस (मिट्टी के पुतले) में। करै = करता है।9।

अउखधु = दवाई। मंनि = मन में। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला। सोई = वही मनुष्य। जोग जुगति = जोग की युक्ति, प्रभू मिलाप का ढंग।10।

जिस नो: 'जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है।

मारगु = रास्ता। बिखमु = मुश्किल। नदरि = कृपा की दृष्टि, मेहर की निगाह। अंतरि = अपने अंदर। बाहरि = सारे संसार में। विचहु = अपने मन में से। भरमु = भेद भाव, मेर तेर। चुकाऐ = दूर करता है।11।

वाजै = बजती है। सा किंगुरी = वह वीणा। कहै = कहता है। मुकति = विकारों से मुक्ति (वाला)। होवहि = तू हो जाएगा। साचे = सदा स्थिर प्रभू में। रहहि समाइ = तू लीन रहेगा।12।

अर्थ: (हे जोगी! जगत में जो कुछ) आँखों से दिखाई दे रहा है (ये) सब कुछ नाशवंत है (इसका मोह त्याग के) तू परमात्मा के साथ अपना चिक्त जोड़े रख। (पर, हे जोगी!) ये समझ तब ही पड़ेगी जब गुरू के साथ तेरी श्रद्धा बनेगी।7।

हे जोगी! तू ये जो अपना परिवार छोड़ के देश-रटन करता फिरता है, इसको जोग नहीं कहते। इस शरीर-घर में ही परमात्मा का नाम (बस रहा है। हे जोगी! अपने अंदर ही) गुरू की कृपा के साथ तू अपने परमात्मा को पा सकेगा।8।

हे जोगी! ये संसार (मानो) मिट्टी का बुत है, इसमें माया की तृष्णा का बड़ा रोग लगा हुआ है। हे जोगी! अगर कोई मनुष्य (त्यागियों वाले) भेष आदि के अनेकों यत्न करता रहे, तो भी ये रोग दूर नहीं किया जा सकता।9।

हे जोगी! (इस रोग को दूर करने के लिए) परमात्मा का नाम (ही) दवाई है (पर यह दवाई वही मनुष्य इस्तेमाल करता है) जिस पर (मेहर करके उसके) मन में (ये दवाई) बसाता है। (इस भेद को) वही मनुष्य समझता है जो गुरू के सन्मुख रहता है, वही मनुष्य प्रभू-मिलाप का ढंग सीखता है।10।

हे जोगी! (जिस जोग का हम वर्णन कर रहे हैं उस) रोग का रास्ता मुश्किल है, ये रास्ता उस मनुष्य को मिलता है जिस पर (प्रभू) मेहर की निगाह करता है। वह मनुष्य अपने अंदर से मेर-तेर दूर कर लेता है, अपने अंदर और सारे संसार में सिर्फ एक परमात्मा को ही देखता है।11।

हे जोगी! तू (अमृत नाम की) वह वीणा बजाया कर जो (अंतरात्मा में) बिना बजाए बजती है। नानक कहता है- हे जोगी! (अगर तू हरी-नाम सिमरन की वीणा बजाएगा, तो) तू विकारों से मुक्ति (का मालिक) हो जाएगा, और सदा कायम रहने वाले परमात्मा में टिका रहेगा।12।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh