श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 909

रामकली महला ३ ॥ भगति खजाना गुरमुखि जाता सतिगुरि बूझि बुझाई ॥१॥ संतहु गुरमुखि देइ वडिआई ॥१॥ रहाउ ॥ सचि रहहु सदा सहजु सुखु उपजै कामु क्रोधु विचहु जाई ॥२॥ आपु छोडि नाम लिव लागी ममता सबदि जलाई ॥३॥ जिस ते उपजै तिस ते बिनसै अंते नामु सखाई ॥४॥ सदा हजूरि दूरि नह देखहु रचना जिनि रचाई ॥५॥ सचा सबदु रवै घट अंतरि सचे सिउ लिव लाई ॥६॥ सतसंगति महि नामु निरमोलकु वडै भागि पाइआ जाई ॥७॥ {पन्ना 909}

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले ने। जाता = पहचाना, कद्र पाई। सतिगुरि = सतिगुरू ने। बूझि = (आप) समझ के। बुझाई = समझ दी (सिख को)।1।

देइ = देता है। वडिआई = इज्जत मान।1। रहाउ।

सचि = सदा स्थिर प्रभू में। सहजु सुखु = आत्मिक अडोलता वाला सुख। विचहु = मन के अंदर से।2।

आपु = स्वै भाव। नाम लिव = नाम की लगन। ममता = मैं मेरी का स्वभाव। सबदि = गुरू के शबद से।3।

जिस ते, तिस ते = जिस परमात्मा से, उस प्रभू के हुकम से (संबंधक 'ते' के कारण 'जिस' और 'तिसु' की 'ु' की मात्रा हटा दी गई है)। उपजै = पैदा होता है। सखाई = साथी।4।

हजूरि = हाजर नाजर, अंग संग। जिनि = जिस (परमात्मा) ने।5।

सचा = सदा स्थिर। सचा सबदु = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह का शबद। रवै = मौजूद रहता है। घटि अंतरि = हृदय में। सिउ = साथ। लिव = लगन।6।

निरमोलकु = जिसके बराबर का कोई दुनियावी पदार्थ नहीं है। वडै भागि = बड़ी किस्मत से।7।

अर्थ: हे संत जनो! (परमात्मा लोक-परलोक में) उस मनुष्य को इज्जत देता है जो सदा गुरू के सन्मुख रहता है।1। रहाउ।

हे संत जनो! गुरू के सन्मुख रहने वाले ने ही परमात्मा की भक्ति के खजाने की कद्र को समझा है। गुरू ने (स्वयं ये कद्र) समझ (सिख को) बख्शी है।1।

(हे संत जनो! गुरू के सन्मुख रह के ही) तुम सदा-स्थिर प्रभू में लीन रह सकते हो, (तुम्हारे अंदर) आत्मिक अडोलता वाला सुख पैदा हो सकता है और (तुम्हारे) अंदर से काम-क्रोध दूर हो सकता है।2।

(हे संत जनो! गुरू के सन्मुख मनुष्य ने ही) स्वै भाव छोड़ के (अपने अंदर परमात्मा के) नाम की लगन बनाई है और (अपने अंदर से) मैं-मेरी की आदत गुरू के शबद द्वारा जला दी है।3।

(हे संत जनो! गुरमुख को ही ये समझ आती है कि) जीव जिस परमात्मा से पैदा होता है उसी के हुकम के अनुसार ही नाश हो जाता है, और आखिरी समय में सिर्फ प्रभू का नाम ही साथी बनता है।4।

(हे संत जनो!) जिस परमात्मा ने ये जगत की खेल बनाई है उसको इसमें हर जगह हाजिर-नाजिर देखो, इसमें अलग दूर ना समझो।5।

(हे संत जनो! गुरू के सन्मुख हो के ही) सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह का शबद मनुष्य के हृदय में बस सकता है और सदा-स्थिर प्रभू के साथ लगन लग सकती है।6।

(हे संत जनो! जो) हरी-नाम किसी दुनियावी पदार्थ के बदले नहीं मिल सकता वह गुरू की साध-संगति में बड़ी किस्मत से मिल जाता है।7।

भरमि न भूलहु सतिगुरु सेवहु मनु राखहु इक ठाई ॥८॥ बिनु नावै सभ भूली फिरदी बिरथा जनमु गवाई ॥९॥ जोगी जुगति गवाई हंढै पाखंडि जोगु न पाई ॥१०॥ सिव नगरी महि आसणि बैसै गुर सबदी जोगु पाई ॥११॥ धातुर बाजी सबदि निवारे नामु वसै मनि आई ॥१२॥ एहु सरीरु सरवरु है संतहु इसनानु करे लिव लाई ॥१३॥ नामि इसनानु करहि से जन निरमल सबदे मैलु गवाई ॥१४॥ {पन्ना 909}

पद्अर्थ: भरमि = भटकना में (पड़ कर), भुलेखे में। इक ठाई = एक ही जगह (प्रभू के चरणों में)।8।

भूली फिरदी = गलत जीवन राह पर पड़ी हुई है। बिरथा = व्यर्थ।9।

हंढै = भटकता फिरता है। पाखंडि = पाखण्ड (करने) से, (बाहरी भेष के) पाखंड से। जोगु = प्रभू मिलाप।10।

सिव नगरी महि = परमात्मा के शहर में, साध-संगति में। आसणि = आसन पर।ै बैसै = बैठता है। सबदी = शबद से। जोगु = परमात्मा से मिलाप।11।

धातुर बाजी = (माया की खातिर) दौड़ने भागने वाली खेल, भटकते फिरने की खेल। सबदि = गुरू के शबद से। मनि = मन में।12।

सरवरु = सुंदर तालाब। लिव = लगन, प्रेम की लगन। लाई = लगा के।13।

नामि = नाम में। करहि = जो लोग करते हैं। सबदे = शबद के द्वारा ही।14।

अर्थ: (हे संत जनो!) भटक के गलत रास्ते पर ना पड़े रहो, गुरू के दर-घर में बने रहो, (अपने मन को प्रभू-चरणों में ही) एक ही जगह टिकाए रखो।8।

(हे संत जनो! परमात्मा के) नाम के बिना सारी दुनिया गलत रास्ते पर पड़ी हुई है, और अपना मानस जनम व्यर्थ गवा रही है।9।

(हे संत जनो! धार्मिक भेष के) पाखण्ड से प्रभू का मिलाप हासिल नहीं होता; (जो जोगी निरा इस पाखण्ड में पड़ा हुआ है, उस) जोगी ने प्रभू-मिलाप की जुगती (हाथों से) गवा ली है, वह (व्यर्थ में) भटकता-फिरता है।10।

(हे संत जनो! जो जोगी गुरू के शबद में जुड़ता है, उसने) गुरू-शबद की बरकति से प्रभू मिलाप हासिल कर लिया है, वह जोगी साध-संगति में टिका हुआ (मानो) आसन पर बैठा हुआ है।11।

(हे संत जनो! जिस मनुष्य के) मन में परमात्मा का नाम आ बसता है, वह गुरू के शबद द्वारा अपने मन की, माया के पीछे भटकने की खेल समाप्त कर लेता है।12।

(हे संत जनो!) यह मनुष्य का शरीर एक सुंदर तालाब है, जो मनुष्य प्रभू-चरणों में सुरति जोड़े रखता है, (वह, मानो, इस तालाब में) स्नान कर रहा है।13।

(हे संत जनो!) जो मनुष्य प्रभू के नाम में स्नान करते हैं वे पवित्र जीवन वाले हैं, उन्होंने गुरू के शबद के द्वारा (अपने मन की विकारों वाली) मैल दूर कर ली है।14।

त्रै गुण अचेत नामु चेतहि नाही बिनु नावै बिनसि जाई ॥१५॥ ब्रहमा बिसनु महेसु त्रै मूरति त्रिगुणि भरमि भुलाई ॥१६॥ गुर परसादी त्रिकुटी छूटै चउथै पदि लिव लाई ॥१७॥ पंडित पड़हि पड़ि वादु वखाणहि तिंना बूझ न पाई ॥१८॥ बिखिआ माते भरमि भुलाए उपदेसु कहहि किसु भाई ॥१९॥ भगत जना की ऊतम बाणी जुगि जुगि रही समाई ॥२०॥ {पन्ना 909}

पद्अर्थ: त्रै गुण = (माया के रजो, तमो, सतो) तीन गुण (के प्रभाव) के कारण। अचेत = गाफल, प्रभू की याद की ओर से बेपरवाह। बिनसि जाई = जीव आत्मिक मौत मर जाता है।15।

महेसु = शिव। त्रै मूरति = तीन गुणों से मिली हुई, तीन गुणों के पूर्ण प्रभाव में। भरमि = भ्रम में, भटकना में। भुलाई = गलत राह पर पड़ जाता है।16।

गुर परसादी = गुरू की कृपा से। त्रिकुटी = (त्रि+कुटी = तीन टेढ़ी लकीरें जो मन की खीझ के वक्त मनुष्य के माथे पर पड़ जाती हैं) त्यौड़ी। पदि = दर्जे में। चउथै पदि = माया के तीन गुणों के प्रभाव से ऊपर चौथी आत्मिक अवस्थामें। लिव = सुरति।17।

पढ़हि = पढ़ते हैं (बहुवचन)। पढ़ि = (वेद आदि धार्मिक पुस्तकें) पढ़ के। वादु = झगड़ा, (देवताओं आदि का परस्पर) लड़ाई झगड़ा। वखाणहि = बयान करते हैं, श्रोताओं को सुनाते हैं। बूझ = (आत्मिक जीवन की) सूझ। तिंना = उन (पण्डितों) ने।18।

बिखिआ = माया। माते = मस्त। किसु = और किसको? भाई = हे भाई!।19।

जुगि = जुग में। जुगि जुगि = हरेक युग में, हरेक समय में। रही समाई = (सबके दिलों में) रहती है, (सब पर) प्रभाव डालती है। भगत जना की बाणी = परमात्मा की भगती करने वाले लोगों के बोले हुए वचन।20।

अर्थ: (हे संत जनो! प्रभू की माया बड़ी प्रबल है) माया के तीन गुणों के कारण (जीव प्रभू की याद से) बेपरवाह रहते हैं, (प्रभू का) नाम याद नहीं करते। (हे संत जनो! परमात्मा के) नाम के बिना हरेक जीव आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।15।

(हे संत जनो! कोई बड़े से बड़ा भी हो) ब्रहमा (हो), विष्णू (हो), शिव (हो) (परमात्मा के नाम के बिना हरेक जीव माया के) तीन गुणों के पूर्ण प्रभाव तले रहता है। माया के तीन गुणों के प्रभाव के कारण (प्रभू-चरणों से टूटा हुआ हरेक जीव) भटकना में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ जाता है।16।

(हे संत जनो!) गुरू कृपा से (प्रभू-नाम से जिस मनुष्य की) त्योड़ी (भाव, मन की खीझ) दूर होती है, (वह माया के तीनों गुणों के प्रभाव से ऊपर रह के) चौथी आत्मिक अवस्था में टिक के प्रभू-चरणों में सुरति जोड़ता है।17।

(हे संत जनो!) पण्डित लोग (पुराण आदि पुस्तकें) पढ़ते हैं, इनको पढ़ के (श्रोताओं को देवताओं आदि के परस्पर) लड़ाई-झगड़े सुनाते हैं, (पर इस तरह) उनको (अपने आपको) ऊँचे आत्मिक जीवन की सूझ नहीं पड़ती।18।

माया के मोह में फसे हुए (वे पण्डित लोग) भटकना के कारण (खुद) गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं। फिर, हे भाई! वे और किस को शिक्षा देते हैं? (उनकी शिक्षा से किसी और को कोई लाभ नहीं हो सकता)।19।

हे संत जनो! परमात्मा की भक्ति करने वालों के बोल श्रेष्ठ हुआ करते हैं। वे बोल हरेक युग में (हरेक समय में ही सब पर) अपना असर डालते हैं।20।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh