श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 910 बाणी लागै सो गति पाए सबदे सचि समाई ॥२१॥ काइआ नगरी सबदे खोजे नामु नवं निधि पाई ॥२२॥ मनसा मारि मनु सहजि समाणा बिनु रसना उसतति कराई ॥२३॥ लोइण देखि रहे बिसमादी चितु अदिसटि लगाई ॥२४॥ अदिसटु सदा रहै निरालमु जोती जोति मिलाई ॥२५॥ हउ गुरु सालाही सदा आपणा जिनि साची बूझ बुझाई ॥२६॥ नानकु एक कहै बेनंती नावहु गति पति पाई ॥२७॥२॥११॥ {पन्ना 910} पद्अर्थ: लागै = लगता है, सुरति जोड़ता है। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। सबदे = शबद से। सचि = सदा कायम रहने वाले प्रभू में।21। काइआ = शरीर। नवंनिधि = नौ खजाने (कुबेर देवते)।22। मनसा = मन का मायावी फुरना। मारि = मार के। सहिज = आत्मिक अडोलता में। रसना = जीभ।23। लोइण = आँखें। बिसमादी = हैरान (हो के), विस्माद अवस्था में पहुँच के। अदिसटि = अदृष्य प्रभू में।24। निरालमु = निर्लिप।25। हउ = मैं। सालाही = मैं सलाहता हूँ। जिनि = जिस (गुरू) ने। साची बूझ = सदा स्थिर प्रभू की सूझ।26। नावहु = प्रभू के नाम से ही। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।27। अर्थ: (हे संत जनो! जो मनुष्य गुरू की) बाणी में सुरति जोड़ता है, वह ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है; गुरू के शबद के द्वारा वह सदा-स्थिर प्रभू में लीन रहता है।21। (हे संत जनो! जो मनुष्य गुरू के) शबद के द्वारा अपने शरीर-नगर को खोजता है (अपने जीवन की पड़ताल करता रहता है, वह मनुष्य) परमात्मा का नाम-खजाना पा लेता है।22। वह मनुष्य मन के मायावी विचारों (फुरनों) को मार के अपने मन को आत्मिक अडोलता में टिका लेता है; वह मनुष्य जीभ को पदार्थों के रसों की ओर से हटा के परमात्मा की सिफत-सालाह में जोड़ता है।23। उस मनुष्य की आँखें (दुनियावी पदार्थों से हट के) आश्चर्य रूप परमात्मा को (हर जगह) देखती हैं, उसका चिक्त अदृश्य प्रभू में टिका रहता है।24। (हे संत जनो! उस मनुष्य की) ज्योति उस नूरो-नूर-प्रभू में मिली रहती है जो इन आँखों से नहीं दिखता, और सदा निर्लिप रहता है।25। हे संत जनो! मैं भी अपने उस गुरू की ही सदा महिमा गायन करता (वडिआई करता) रहता हॅूँ जिसने (मुझे) सदा कायम रहने वाले परमात्मा की सूझ बख्शी है।26। हे संतजनो! नानक एक यह विनती करता है (कि परमात्मा का नाम जपा करो) नाम से ही उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त होती है, नाम से ही (लोक-परलोक में) इज्जत मिलती है।27।2। रामकली महला ३ ॥ हरि की पूजा दुल्मभ है संतहु कहणा कछू न जाई ॥१॥ संतहु गुरमुखि पूरा पाई ॥ नामो पूज कराई ॥१॥ रहाउ ॥ हरि बिनु सभु किछु मैला संतहु किआ हउ पूज चड़ाई ॥२॥ हरि साचे भावै सा पूजा होवै भाणा मनि वसाई ॥३॥ पूजा करै सभु लोकु संतहु मनमुखि थाइ न पाई ॥४॥ सबदि मरै मनु निरमलु संतहु एह पूजा थाइ पाई ॥५॥ पवित पावन से जन साचे एक सबदि लिव लाई ॥६॥ बिनु नावै होर पूज न होवी भरमि भुली लोकाई ॥७॥ {पन्ना 910} पद्अर्थ: दुलंभ = दुर्लभ, जो बड़ी मुश्किल से मिले। संतहु = हे संत जनो! कछू न = कुछ भी नहीं। कहणा जाई = कहा जा सकता है।1। गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरू की शरण पड़ता है। पूरा = सारे गुणों से भरपूर प्रभू। नामो = नाम ही, नाम जपना ही। पूज = पूजा। कराई = (गुरू) करवाता है।1। रहाउ। किआ पूज = पूजा करने के लिए कौन सी चीज? हउ चढ़ाई = मैं भेटा करूँ।2। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। साचे भावै = अगर सदा कायम रहने वाले परमात्मा की रजा अच्छी लगने लग जाए। सा = वही, रजा मीठी लगनी ही। मनि = मन में। वसाई = बसाता है।3। सभु लोकु = सारा जगत। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। थाइ = जगह में, जगह पर। थाइ न पाई = कबूल नहीं होती।4। सबदि = गुरू के शबद से। मरै = (विकारों की प्रेरणा की ओर से) मरता है, अर्थात विकारों का प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ने देता। निरमलु = पवित्र।5। पवित = पवित्र। पावन = पवित्र। से = वह (बहुवचन)। साचे = सदा स्थिर प्रभू में लीन। लिव लाई = सुरति जोड़ी।6। न होवी = नहीं हो सकती। भरमि = भुलेखे में (पड़ कर)। भुली = गलत रास्ते पर पड़ी हुई है। लोकाई = दुनिया।7। अर्थ: (हे संत जनो!) जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है, वह सारे गुणों से भरपूर प्रभू को पा लेता है। नाम जपो, नाम ही जपो - गुरू ये पूजा कराता है।1। रहाउ। हे संत जनो! परमात्मा की पूजा-भगती बड़ी मुश्किल से मिलती है। प्रभू की पूजा कितनी दुर्लभ है- इस संबन्धी कुछ भी बताया नहीं जा सकता।1। (हे संत जनो! दुनिया के लोग फूल-पत्रों आदि से देवताओं की पूजा करते हैं, पर) हे संत जनो! मैं (परमात्मा की पूजा करने के लिए) कौन सी चीज उसके आगे भेटा करूँ? उस प्रभू के नाम के बिना (नाम के मुकाबले में) और हरेक चीज मैली है।2। हे संत जनो! अगर किसी मनुष्य को सदा कायम रहने वाले परमात्मा की रजा अच्छी लगने लग जाए तो उसकी तरफ से यही परमात्मा की पूजा है। (गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा की) रजा को ही अपने मन में बसाता है (रजा को ही ठीक समझता है)।3। हे संत जनो! सारा जगत (अपनी ओर से) पूजा करता है, पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य की की हुई कोई भी पूजा (परमात्मा की हजूरी में) कबूल नहीं होती।4। हे संत जनो! जो मनुष्य गुरू के शबद से विकारों का प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ने देता उसका मन पवित्र हो जाता है। उसकी यह पूजा प्रभू-दर पे प्रवान हो जाती है।5। हे संत जनो! ऐसे लोग पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, सदा स्थिर रहने वाले प्रभू के साथ एक-मेक हो जाते हैं; गुरू के शबद के द्वारा वह लोग एक परमात्मा में सुरति जोड़े रखते हैं।6। हे संत जनो! परमात्मा का नाम जपे बिना परमात्मा की किसी और किस्म की पूजा नहीं हो सकती। (नाम से टूट के) भुलेखे में पड़ के दुनिया गलत रास्ते पर पड़ी रहती है।7। गुरमुखि आपु पछाणै संतहु राम नामि लिव लाई ॥८॥ आपे निरमलु पूज कराए गुर सबदी थाइ पाई ॥९॥ पूजा करहि परु बिधि नही जाणहि दूजै भाइ मलु लाई ॥१०॥ गुरमुखि होवै सु पूजा जाणै भाणा मनि वसाई ॥११॥ भाणे ते सभि सुख पावै संतहु अंते नामु सखाई ॥१२॥ अपणा आपु न पछाणहि संतहु कूड़ि करहि वडिआई ॥१३॥ पाखंडि कीनै जमु नही छोडै लै जासी पति गवाई ॥१४॥ {पन्ना 910} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। आपु = अपने आप को, अपने जीवन को। पछाणै = परखता है, पड़तालता रहता है। नामि = नाम में।8। आपे = (प्रभू) खुद ही। निरमलु = पवित्र। गुर सबदी = गुरू के शबद द्वारा। थाइ पाई = कबूल करता है।9। करहि = करते हैं। परु = परन्तु। बिधि = तरीका। दूजै भाइ = (प्रभू के बिना) किसी और के प्यार में। भाइ = (शब्द 'भाउ' से अधिकरण कारक, एक वचन)। मलु = विकारों की मैल।10। सु = वह मनुष्य। मनि = मन में। भाणा = प्रभू की रजा। वसाई = बसाता है।11। ते = से। भाणे ते = भाणा (प्रभू की मर्जी) मानने से। सभि = सारे। अंते = आखिरी वक्त में। सखाई = मित्र।12। कूड़ि = झूठ में, माया के मोह में (फसे हुए)। करहि = करते हैं।13। पाखंडि = पाखण्ड के कारण। पाखंडि कीनै = पाखण्ड करने के कारण। लै जाई = ले जाएगा। पति = इज्जत। गवाई = गवा के।14। अर्थ: हे संत जनो! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य अपने जीवन को पड़तालता रहता है, और, परमात्मा के नाम में सुरति जोड़े रखता है।8। हे संत जनो! पवित्र प्रभू खुद ही (जीव को गुरू के शबद में जोड़ के उससे अपनी) पूजा-भगती कराता है, और, गुरू के शबद में उसकी लीनता के कारण उसकी की हुई पूजा परवान करता है।9। (हे संत जनो! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य प्रभू की) पूजा तो करते हैं, परन्तु (पूजा का) सही तरीका नहीं जानते। माया के प्यार में फस के (मनमुख मनुष्य अपने मन को विकारों की) मैल चिपकाए रखते हैं।10। (हे संत जनो!) जो मनुष्य गुरू के सन्मुख होता है वह परमात्मा की भगती करनी जानता है (वह जानता है कि प्रभू की रजा में राजी रहना ही प्रभू की भक्ति है, इस वास्ते वह प्रभू की) रजा को अपने मन में बसाता है।11। हे संत जनो! गुरमुख मनुष्य भाणा मानने (प्रभू की मर्जी मानने) से (ही इस लोक में) सारे सुख प्राप्त कर लेता है; आखिरी वक्त भी प्रभू का नाम ही उसका साथी बनता है।12। हे संत जनो! (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर) अपने जीवन को नहीं पड़तालते, माया के मोह में फंसे हुए वे मनुष्य अपने आप की ही शोभा करते रहते हैं।13। हे संत जनो! (धर्म का) पाखण्ड करने से मौत (के सहम से) निजात नहीं मिलती। जम (नाम-हीन लोगों को) यहाँ से उनकी इज्जत गवा के (परलोक) ले जाएगा।14। जिन अंतरि सबदु आपु पछाणहि गति मिति तिन ही पाई ॥१५॥ एहु मनूआ सुंन समाधि लगावै जोती जोति मिलाई ॥१६॥ सुणि सुणि गुरमुखि नामु वखाणहि सतसंगति मेलाई ॥१७॥ गुरमुखि गावै आपु गवावै दरि साचै सोभा पाई ॥१८॥ साची बाणी सचु वखाणै सचि नामि लिव लाई ॥१९॥ भै भंजनु अति पाप निखंजनु मेरा प्रभु अंति सखाई ॥२०॥ सभु किछु आपे आपि वरतै नानक नामि वडिआई ॥२१॥३॥१२॥ {पन्ना 910} पद्अर्थ: जिन = ('जिन' बहुवचन; जिनि = एक वचन)। अंतरि = अंदर। आपु = अपने आप को, अपने जीवन को। गति = हालत। मिति = पाप। गति मिति = परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा (बेअंत) है (ये समझ)।15। सुंन = शून्य, वह हालत जब माया के विचार ना उठें। जोति = जीवात्मा। जोती = प्रभू की ज्योति में।16। सुणि = सुन के। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले बंदे।17। आपु = स्वै भाव। गवावै = दूर करता है। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पे।18। साची बाणी = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की बाणी। सचु = सदा स्थिर प्रभू (का नाम)। सचि नामि = सदा स्थिर प्रभू के नाम में। लिव = लगन, सुरति।19। भैभंजन = भै+भंजन, सारे डरों का नाश करने वाला प्रभू। अति पाप निखंजनु = बड़े बड़े पापों का नाश करने वाला प्रभू। सखाई = साथी। अंति = आखिर को।20। सभु किछु = हरेक चीज। आपे = खुद ही। वरतै = मौजूद है। नामि = नाम में (जुड़ने से)।21। अर्थ: हे संत जनो! जिन लोगों के हृदय में गुरू का शबद बस जाता है, वे अपने जीवन को पड़तालते रहते हैं, उन्होंने ही ये बात समझी है कि परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा (बेअंत) है।15। (हे संत जनो! जिनके अंदर गुरू-शबद बसता है उनका) ये मन ऐसी एकाग्रता बनाता है जहाँ माया के फुरने नहीं उठते, उनकी जीवात्मा प्रभू की ज्योति में लीन है।16। (हे संत जनो!) गुरू के सन्मुख रहने वाले वे लोग साध-संगति में मिल बैठते हैं, (सत-संगियों से) प्रभू का नाम सुन-सुन के वे भी नाम उचारते रहते हैं।17। (हे संत जनो!) गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य प्रभू की सिफतसालाह के गीत गाता रहता है, अपने अंदर अहम्-अहंकार को दूर करता है, और, सदा-स्थिर प्रभू के दर पर शोभा पाता है।18। (हे संत जनो! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य) सदा-स्थिर हरी की सिफत-सालाह की बाणी उचारता है, सदा-स्थिर-प्रभू का नाम उचारता है, सदा-स्थिर-प्रभू के नाम में सुरति जोड़े रखता है।19। (हे संत जनो!) जीवों के सारे डर नाश करने वाला और घोर पाप दूर करने वाला परमात्मा आखिर (उनका) साथी बनता है (जो उसकी सिफत-सालाह में जुड़े रहते हैं)।20। हे संत जनो! ये सब कुछ (जो दिखाई दे रहा है, इस में) प्रभू स्वयं ही स्वयं हर जगह मौजूद है। हे नानक! उसके नाम में जुड़ने से लोक-परलोक में सम्मान मिलता है।21।3।12। रामकली महला ३ ॥ हम कुचल कुचील अति अभिमानी मिलि सबदे मैलु उतारी ॥१॥ संतहु गुरमुखि नामि निसतारी ॥ सचा नामु वसिआ घट अंतरि करतै आपि सवारी ॥१॥ रहाउ ॥ पारस परसे फिरि पारसु होए हरि जीउ अपणी किरपा धारी ॥२॥ इकि भेख करहि फिरहि अभिमानी तिन जूऐ बाजी हारी ॥३॥ इकि अनदिनु भगति करहि दिनु राती राम नामु उरि धारी ॥४॥ अनदिनु राते सहजे माते सहजे हउमै मारी ॥५॥ भै बिनु भगति न होई कब ही भै भाइ भगति सवारी ॥६॥ माइआ मोहु सबदि जलाइआ गिआनि तति बीचारी ॥७॥ आपे आपि कराए करता आपे बखसि भंडारी ॥८॥ तिस किआ गुणा का अंतु न पाइआ हउ गावा सबदि वीचारी ॥९॥ हरि जीउ जपी हरि जीउ सालाही विचहु आपु निवारी ॥१०॥ {पन्ना 910-911} पद्अर्थ: हम = हम संसारी जीव। कुचल = कु चाल चलन वाले। कुचील = गंदे। मिलि = मिल के। सबदे = गुरू के शबद में ही।1। संतहु = हे संत जनो! गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने से। नामि = परमात्मा के नाम से। निसतारी = पार उतारा हो जाता है। सचा = सदा कायम रहने वाला। घट अंतरि = हृदय में। करतै = करतार ने। सवारी = पैज रख ली।1। रहाउ। पारस = लोहे को सोना कर देने वाला पत्थर, विकारी मन को पवित्र कर देने वाला गुरू पारस। परसे = छू के।2। इकि = (शब्द 'इक' का बहुवचन)। तिन = उन्होंने। जूअै = जूए में।3। अनदिनु = हर रोज। उरि = हृदय में।4। राते = रंगे हुए। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। माते = मस्त।5। भै बिनु = प्रभू का डर रखे बिना। कब ही = कभी ही। भै = डर में। भाइ = प्रेम में।6। सबदि = गुरू के शबद से। गिआनि = आत्मिक जीवन की सूझ से। तति = जगत के मूल प्रभू में जुड़ के। बीचारी = विचारवान।7। आपे = स्वयं ही। करता = करतार। बखसि = बख्शता है। भंडारी = खजाने।8। तिस किआ गुणा का = उस प्रभू के गुणों का (संबंधक 'किआ' के कारण शब्द 'तिसु' की 'ु' मात्रा हट गई है)। हउ = मैं। गावा = मैं गाता हूँ।9। जपी = मैं जपता हूँ। सालाही = मैं सलाहता हूं। आपु = स्वै भाव।10। अर्थ: हे संत जनो! गुरू के सन्मुख रहने से परमात्मा के नाम से (संसार-समुंदर से) पार-उतारा हो जाता है। जिस मनुष्य के हृदय में सदा-स्थिर प्रभू का नाम बस जाता है, (समझ लो कि) ईश्वर ने स्वयं उसकी इज्जत रख ली।1। रहाउ। हे संत जनो! हम संसारी जीव (आम तौर पर) बद्-चलन, गंदे आचरण वाले अहंकारी बने रहते हैं। (किसी भाग्यशाली ने) गुरू के शबद में जुड़ के विकारों की मैल अपने मन से उतार दी होती है।1। जिस मनुष्य पर प्रभू जी अपनी कृपा करते हैं, वह मनुष्य गुरू-पारस को छू के खुद भी पारस बन जाता है।2। हे संत जनो! जो अनेकों जीव धार्मिक पहरावा पहने फिरते हैं और उस भेष के कारण अहंकारी हुए घूमते हैं, उन्होंने मानस जनम की खेल जूए में हार ली (समझो)।3। पर, हे संत जनो! कई लोग ऐसे हैं जो दिन-रात हर वक्त परमात्मा के नाम को अपने हृदय में टिका के परमात्मा की भक्ति करते रहते हैं।4। जो मनुष्य हर वक्त नाम-रंग में रंगे रहते हैं, वे आत्मिक अडोलता में मस्त रहते हैं, आत्मिक अडोलता में टिक के वे अपने अंदर से अहंकार दूर कर लेते हैं।5। हे संत जनो! प्रभू का डर-अदब हृदय में रखे बिना प्रभू की भक्ति नहीं हो सकती। डर-अदब-प्रेम और भगती में टिकने वालों ने अपनी जिंदगी खूबसूरत बना ली।6। प्रभू में जुड़ के आत्मिक जीवन की सूझ के द्वारा जो लोग विचारवान हो गए,? उन्होंने गुरू के शबद के द्वारा अपने अंदर से माया का मोह जला लिया।7। पर, हे संत जनो! प्रभू स्वयं ही (जीवों से) अपनी भक्ति करवाता है, खुद ही भक्ति के खजाने बख्शता है।8। हे संत जनो! मैं उस प्रभू के गुणों का अंत नहीं पा सकता। (उसकी मेहर से ही) मैं उसके गुण गाता हूँ, गुरू के शबद द्वारा (उसके गुणों की) विचार करता हूँ।9। हे संत जनो! (उसकी कृपा से ही) मैं उसका नाम जपता हूँ, उसकी सिफत-सालाह करता हूँ, और अपने अंदर से अहंकार दूर करता हूँ।10। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |