श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 911

नामु पदारथु गुर ते पाइआ अखुट सचे भंडारी ॥११॥ अपणिआ भगता नो आपे तुठा अपणी किरपा करि कल धारी ॥१२॥ तिन साचे नाम की सदा भुख लागी गावनि सबदि वीचारी ॥१३॥ जीउ पिंडु सभु किछु है तिस का आखणु बिखमु बीचारी ॥१४॥ सबदि लगे सेई जन निसतरे भउजलु पारि उतारी ॥१५॥ बिनु हरि साचे को पारि न पावै बूझै को वीचारी ॥१६॥ जो धुरि लिखिआ सोई पाइआ मिलि हरि सबदि सवारी ॥१७॥ काइआ कंचनु सबदे राती साचै नाइ पिआरी ॥१८॥ काइआ अम्रिति रही भरपूरे पाईऐ सबदि वीचारी ॥१९॥ जो प्रभु खोजहि सेई पावहि होरि फूटि मूए अहंकारी ॥२०॥ {पन्ना 911}

पद्अर्थ: पदारथु = कीमती वस्तु। ते = से। अखुट = कभी ना खत्म होने वाली। सचे = सदा स्थिर प्रभू के।11।

नो = को। तुठा = दयावान होता है। करि = कर कर के। कल = सक्ता। धारी = टिकाता है।12।

गावनि = गाते हैं। सबदि = शबद से। वीचारी = विचारवान हो के।13।

जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। तिस का = उस (प्रभू) का (संबंधक 'का' के कारण 'तिसु' की 'ु' मात्रा हटा दी गई है)। बिखमु = मुश्किल, कठिन। आखणु = बयान करना।14।

सबदि = शबद में। सेई = वह (लोग)। निसतरे = पार लांघ गए। भउजलु = संसार समुंदर।15।

बिनु साचे = सदा स्थिर प्रभू (की मेहर) के बिना। को = कोई विरला। वीचारी = विचारवान।16।

धुरि = धुर दरगाह से। मिलि = मिल के। सबदि = शबद से। सवारी = संवार ली।17।

काइआ = शरीर। कंचनु = सोना। साचै नाइ = सदा स्थिर प्रभू के नाम में।18।

अंम्रिति = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल से।19।

खोजहि = ढूँढते हैं। होरि = और लोग। फूटि मूऐ = आफर के आत्मिक मौत मर गए।20।

अर्थ: हे संत जनो! सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम खजाने कभी खत्म होने वाले नहीं हैं, पर ये नाम-पदार्थ गुरू से ही मिलता है।11।

हे संत जनो! अपने भक्तों पर प्रभू स्वयं ही दयावान होता है और उनके अंदर खुद ही कृपा करके (नाम जपने की) सक्ता टिकाए रखता है।12।

(इसका नतीजा ये निकलता है कि) उन (भक्तजनों) को सदा-स्थिर प्रभू के नाम की हमेशा भूख लगी रहती है, वह ऊँची विचार के मालिक लोग गुरू के शबद द्वारा प्रभू के गुण गाते रहते हैं।13।

हे संत जनो! ये जीवात्मा ये शरीर (जीवों को) सब कुछ उस परमात्मा का ही दिया हुआ है, (उसकी बख्शिशों का) विचार करना (बहुत) मुश्किल है।14।

हे संत जनो! जो मनुष्य गुरू के शबद में सुरति जोड़ते हैं, वही संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं, तैर जाते हैं।15।

हे संत जनो! कोई विरला विचारवान ये बात समझता है कि सदा-स्थिर प्रभू के नाम के बिना कोई और (इस संसार-समुंदर से) पार नहीं लांघ सकता।16।

(पर, हे संत जनो! यह नाम की दाति जीवों के बस की खेल नहीं है, प्रभू ने) धुर-दरगाह से (जीवों के) माथे पर जो लेख लिख दिया वही प्राप्त होता है, और जीव प्रभू-चरणों में जुड़ के गुरू के शबद के द्वारा अपना जीवन संवारता है।17।

हे संत जनो! जो शरीर गुरू के शबद-रंग में रंगा रहता है और सदा-स्थिर प्रभू के नाम में प्यार करता है वह शरीर सोना बन जाता है (शुद्ध सोने जैसा विकार-रहित पवित्र हो जाता है)।18।

(हे संत जनो! वह शरीर पवित्र है) जो आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल (अमृत) से नाको-नाक भरा रहता है, पर ये नाम-अमृत गुरू के शबद द्वारा प्रभू के गुणों की विचार करके ही प्राप्त होता है।19।

(हे संत जनो!) जो मनुष्य (अपने इस शरीर में ही) प्रभू को तलाशते हैं वही उसका मिलाप हासिल कर लेते हैं। (शरीर से बाहर ढूँढने वाले) और लोग (भेष आदि के) गुमान में आफर-आफर के (अहंकार की हवा ले ले के) आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं।20।

बादी बिनसहि सेवक सेवहि गुर कै हेति पिआरी ॥२१॥ सो जोगी ततु गिआनु बीचारे हउमै त्रिसना मारी ॥२२॥ सतिगुरु दाता तिनै पछाता जिस नो क्रिपा तुमारी ॥२३॥ सतिगुरु न सेवहि माइआ लागे डूबि मूए अहंकारी ॥२४॥ जिचरु अंदरि सासु तिचरु सेवा कीचै जाइ मिलीऐ राम मुरारी ॥२५॥ अनदिनु जागत रहै दिनु राती अपने प्रिअ प्रीति पिआरी ॥२६॥ तनु मनु वारी वारि घुमाई अपने गुर विटहु बलिहारी ॥२७॥ माइआ मोहु बिनसि जाइगा उबरे सबदि वीचारी ॥२८॥ आपि जगाए सेई जागे गुर कै सबदि वीचारी ॥२९॥ नानक सेई मूए जि नामु न चेतहि भगत जीवे वीचारी ॥३०॥४॥१३॥ {पन्ना 911}

पद्अर्थ: बादी = (वादु = झगड़ा, बहस, चर्चा) निरी चर्चा करने वाले। बिनसहि = आत्मिक मौत ले लेते हैं। सेवहि = सेवा करते हैं, प्रभू की सेवा भक्ति करते हैं। गुर कै हेति = गुरू के (दिए) प्रेम से। पिआरी = प्यार से।21।

ततु = जगत का मूल प्रभू। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। मारी = मार के।22।

दाता = (नाम की दाति) देने वाला। तिनै = तिनि ही, उस (मनुष्य) ने। जिस नो = जिस पर (संबंधक 'नो' के कारण 'तिसु' की 'ु' की मात्रा हट गई है)।23।

न सेवहि = सेवा नहीं करते हैं, शरण नहीं पड़ते। डूबि = (माया के मोह में) डूब के। मूऐ = आत्मिक मौत सहेड़ बैठे।24।

जिचरु = जब तक। कीचै = करनी चाहिए। मुरारी = (मुर+अरि। 'मुर' दैत्य का वैरी। श्री कृष्ण) परमात्मा।25।

अनदिनु = हर रोज। प्रिअ = प्यारे की। पिआरी = प्यार में।26।

वारी = मैं वार दूँ। वारि घुमाई = वार के सदके कर दूँ। विटहु = से।27।

उबरे = बच गए। सबदि = शबद से। वीचारी = (प्रभू के गुणों की) विचार करके।28।

सोई = वही लोग। गुर कै सबदि = गुरू के शबद से। वीचारी = विचारवान।29।

जि = जो लोग। जीवे = आत्मिक जीवन वाले हो गए।30।

अर्थ: हे संत जनो! निरी फोकी बातें करने वाले मनुष्य आत्मिक तौर पर मर जाते हैं, पर भक्तजन गुरू के द्वारा मिले प्रेम-प्यार से परमात्मा की भक्ति करते हैं।21।

हे संत जनो! वही मनुष्य जोगी है (प्रभू चरणों में जुड़ा हुआ है) जो अपने अंदर से अहंकार मार के तृष्णा दूर करके उच्च आत्मिक जीवन से सांझ डालता है जगत के मूल प्रभू के गुणों को विचारता रहता है।22।

(हे प्रभू! जीवों के बस की बात नहीं) जिस मनुष्य पर तेरी दया होती है, उसने ये बात समझी होती है कि गुरू (ही तेरे नाम की दाति) देने वाला है।23।

हे संत जनो! जो मनुष्य गुरू के दर पर नहीं आते, वह मनुष्य माया (के मोह) में फसे रहते हैं, (माया के कारण) अहंकारी हुए वे मनुष्य (माया के मोह में) डूब के आत्मिक मौत मरे रहते हैं।24।

हे संत जनो! जब तक शरीर में सांस चल रही है तब तक प्रभू की सेवा-भक्ति करते रहना चाहिए। (प्रभू की भक्ति की बरकति से ही) प्रभू को जा मिलते हैं।25।

हे संत जनो! अपने प्यारे प्रभू के साथ प्रीत-प्यार से मनुष्य दिन-रात हर वक्त (माया के मोह के हमलों से) सचेत रह सकता है।26।

(हे संत जनो! तभी तो) मैं अपने गुरू से बलिहार जाता हूँ, गुरू से अपना तन-मन कुर्बान करता हूँ, वार वार जाता हूँ।27।

हे संत जनो! गुरू के शबद द्वारा परमात्मा के गुणों की विचार करने वाले लोग (संसार-समुंद्र से) बच निकलते हैं। (जो भी मनुष्य ये उद्यम करता रहता है,? उसके अंदर से) माया का मोह नाश हो जाता है।28।

(हे संत जनो! ये कोई आसान खेल नहीं है। माया के मोह की नींद में से) वही मनुष्य जागते हैं, जिन्हें प्रभू स्वयं जगाता है, ऐसे मनुष्य गुरू के शबद की बरकति से विचारवान हो जाते हैं।29।

हे नानक! (कह- हे संत जनो!) जो मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं सिमरते, वही मनुष्य आत्मिक तौर पर मरे रहते हैं। परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे परमात्मा के गुणों के विचार सदका आत्मिक जीवन वाले हो गए हैं।30।4।13।

रामकली महला ३ ॥ नामु खजाना गुर ते पाइआ त्रिपति रहे आघाई ॥१॥ संतहु गुरमुखि मुकति गति पाई ॥ एकु नामु वसिआ घट अंतरि पूरे की वडिआई ॥१॥ रहाउ ॥ आपे करता आपे भुगता देदा रिजकु सबाई ॥२॥ जो किछु करणा सो करि रहिआ अवरु न करणा जाई ॥३॥ आपे साजे स्रिसटि उपाए सिरि सिरि धंधै लाई ॥४॥ तिसहि सरेवहु ता सुखु पावहु सतिगुरि मेलि मिलाई ॥५॥ आपणा आपु आपि उपाए अलखु न लखणा जाई ॥६॥ आपे मारि जीवाले आपे तिस नो तिलु न तमाई ॥७॥ {पन्ना 911-912}

पद्अर्थ: गुर ते = गुरू से। त्रिपति रहे = (माया की तृष्णा की ओर से) अघा गए। आघाई रहे = पूरी तौर पर तृप्त हो गए।1।

संतहु = हे संत जनो! गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। मुकति = विकारों से निजात। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। घट अंतरि = हृदय में। पूरे की = सारे गुणों के मालिक प्रभू की। वडिआई = महानता, मेहर।1। रहाउ।

आपे = (प्रभू) स्वयं ही। करता = (जीवों को) पैदा करने वाला। भुगता = (जीवों में बैठ के) भोगने वाला। सबाई = सारी दुनिया को।2।

न करणा जाई = नहीं किया जा सकता। अवरु = कुछ और।3।

साजे = बनाता है, पैदा करता है। सिरि = सिर पर। सिरि सिरि = हरेक के सिर पर। धंधै = (माया के) जंजाल की (पोटली)। लाई = चिपकी हुई है।4।

तिसहि = (तिस ही) उस प्रभू को ही। सरेवहु = सेवा भक्ति करो। सतिगुरि = गुरू ने। मेलि = प्रभू के मिलाप में।5।

आपु = स्वै को। उपाऐ = प्रकट करता है। अलखु = जिसका सही स्वरूप बताया ना जा सके।6।

मारि = मार के, आत्मिक मौत दे के। जीवाले = आत्मिक जीवन देता है। तिलु = रक्ती भर भी। तमाई = तमा, लालच।7।

तिस नो: संबंधक 'नो8 के कारण 'तिसु' की 'ु' मात्रा हट गई है।

अर्थ: हे संत जनो! जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहता है, वह विकारों से निजात हासिल कर लेता है, वह उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेता है, उसके हृदय में परमात्मा का नाम ही बसा रहता है, (पर गुरू भी तब ही मिलता है जब) सारे गुणों के मालिक प्रभू की मेहर हो।1। रहाउ।

हे संत जनो! परमात्मा का नाम-खजाना गुरू के पास से मिलता है, (जिनको ये खजाना मिल जाता है, वे माया की तृष्णा की ओर से) पूरी तौर से तृप्त हो जाते हैं।1।

(हे संत जनो!) परमात्मा स्वयं ही सब जीवों को पैदा करने वाला है, (सब जीवों में व्यापक हो के) स्वयं ही (सारे भोग) भोगने वाला है, सारी दुनिया को (स्वयं ही) रिज़क देने वाला है।2।

हे संत जनो! वह प्रभू स्वयं ही जो कुछ करना चाहता है कर रहा है, किसी जीव द्वारा उसके विपरीत कुछ और नहीं किया जा सकता।3।

हे संत जनो! प्रभू खुद ही (सब जीवों की) घाड़त घड़ता है, खुद ही ये जगत पैदा करता है, हरेक जीव के सिर पर उसने खुद ही (माया के) जंजाल की (पोटली) चिपकाई हुई है।4।

हे संत जनो! उस परमात्मा को ही सिमरते रहो, तब ही आत्मिक आनंद कर सकोगे। (पर सिमरता वही है जिसको) गुरू ने परमात्मा के चरणों में जोड़ा है।5।

हे संत जनो! प्रभू खुद ही अपना आप (किसी जीव के हृदय में) प्रकट करता है, वह अलख है, उसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।6।

(हे संत जनो! जीवों को) आत्मिक मौत दे के (फिर) खुद ही प्रभू आत्मिक जीवन देता है। उसको किसी तरह का कोई रक्ती भर लालच नहीं है।7।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh