श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Page 912 इकि दाते इकि मंगते कीते आपे भगति कराई ॥८॥ से वडभागी जिनी एको जाता सचे रहे समाई ॥९॥ आपि सरूपु सिआणा आपे कीमति कहणु न जाई ॥१०॥ आपे दुखु सुखु पाए अंतरि आपे भरमि भुलाई ॥११॥ वडा दाता गुरमुखि जाता निगुरी अंध फिरै लोकाई ॥१२॥ जिनी चाखिआ तिना सादु आइआ सतिगुरि बूझ बुझाई ॥१३॥ इकना नावहु आपि भुलाए इकना गुरमुखि देइ बुझाई ॥१४॥ {पन्ना 912} पद्अर्थ: इकि = ('इक' का बहुवचन) कई (जीव)। दाते = जरूरतमंदों की मदद कर सकने वाले।8। से = (बहुवचन) वह (लोग)। जाता = पहजाना। सचे = सदा स्थिर प्रभू में। रहे समाई = सदा टिके रहे।9। सरूपु = रूप वाला, सुंदर। आपे = स्वयं ही।10। अंतरि = (हरेक जीव के) अंदर। भरमि = भटकना में। भुलाई = गलत रास्ते डाल देता है।11। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले ने। अंध = अंधी।12। सादु = स्वाद, आनंद। सतिगुरि = गुरू ने। बूझ = सूझ। बुझाई = समझाई।13। इकना = कई जीवों को। नावहु = (अपने) नाम से। देइ बुझाई = समझ देता है।14। अर्थ: हे संत जनो! जगत में परमात्मा ने कई जीवों को दूसरों की मदद करने के समर्थ बना दिया है, कई जीव उसने कंगाल-मंगते बना दिए हैं। (वह जिन पर मेहर करता है उनसे) अपनी भक्ति परमात्मा स्वयं ही करवाता है।8। हे संत जनो! जिन लोगों ने एक परमात्मा के साथ जान-पहचान बना ली है वे बहुत भाग्यशाली हैं, वे सदा कायम रहने वाले प्रभू (की याद) में लीन रहते हैं।9। हे संत जनो! परमात्मा स्वयं (सबसे) सुंदर है (सबसे ज्यादा) समझदार (भी) खुद ही है। (उसके सौन्दर्य व समझदारी का) मूल्य बयान नहीं किया जा सकता।10। हे संत जनो! हरेक जीव के अंदर परमात्मा खुद ही दुख पैदा करता है। आप ही सुख (भी) देता है। वह स्वयं ही जीव को भटकना में डाल के उसको गलत राह पर डाल देता है।11। हे संत जनो! जिस मनुष्य ने गुरू की शरण ली, उसने उस बड़े दातार प्रभू के साथ सांझ डाल ली; पर माया के मोह में अंधी हुई दुनिया भटकती फिरती है।12। हे संत जनो! जिनको गुरू ने (नाम-अमृत की) कद्र बख्शी, जिन्होंने (इस तरह नाम-अमृत) चख लिया, उन्हें उसका आनंद आ गया (और, वे उस सदा नाम में जुड़े रहे)।13। (हे संत जनो! जीवों के वश की बात नहीं) कई जीवों को परमात्मा खुद हीअपने नाम से तुड़वा देता है, और कई जीवों को गुरू की शरण में ला के (अपने नाम की) सूझ बख्श देता है।14। सदा सदा सालाहिहु संतहु तिस दी वडी वडिआई ॥१५॥ तिसु बिनु अवरु न कोई राजा करि तपावसु बणत बणाई ॥१६॥ निआउ तिसै का है सद साचा विरले हुकमु मनाई ॥१७॥ तिस नो प्राणी सदा धिआवहु जिनि गुरमुखि बणत बणाई ॥१८॥ सतिगुर भेटै सो जनु सीझै जिसु हिरदै नामु वसाई ॥१९॥ सचा आपि सदा है साचा बाणी सबदि सुणाई ॥२०॥ नानक सुणि वेखि रहिआ विसमादु मेरा प्रभु रविआ स्रब थाई ॥२१॥५॥१४॥ {पन्ना 912} पद्अर्थ: सालाहिहु = सिफत सालाह करते रहा करो। तिस की = उस (परमात्मा) की (संबंधक 'दी' के कारण 'तिस' की 'ु' की मात्रा हट गई है)। वडिआई = महानता, शोभा, प्रसिद्धि।15। राजा = हाकम, बादशाह। करि = कर के। तपावसु = न्याय। बणत = मर्यादा, सिफतसालाह करने की मर्यादा।16। निआउ = इन्साफ। सद = सदा। साचा = अटल, सदा कायम रहने वाला। मनाई = मनाता है, मानने के लिए प्रेरित करता है।17। प्राणी = हे प्राणी! जिनि = जिस (परमात्मा) ने। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहना। गुरमुखि बणत = गुरू के सन्मुख की रीति।18। तिस नो: संबंधक 'नो' के कारण्र 'तिसु' की 'ु' मात्रा हट गई है। भेटै = मिलता है। सतिगुर भैटै = (जो मनुष्य) गुरू को मिलता है । जिसु हिरदे = जिस के हृदय में।19। (नोट: 'सतिगुरु भैटै'- जिस मनुष्य को गुरू मिलता है)। सीझै = कामयाब हो जाता है। सचा = सदा कायम रहने वाला। बाणी = बाणी के द्वारा। सबदि = शबद से। सुणाई = (गुरू) सुनाता है।20। सुणि वेखि रहिआ = सुन रहा देख रहा, (हरेक जीव की बात) सुन रहा है (हरेक जीव के काम को) देख रहा है। विसमादु = आश्चर्य रूप परमात्मा। रविआ = व्यापक है। स्रब = सब, सारे। थाई = जगहों में।21। अर्थ: हे संत जनो! उस परमात्मा की सिफत सालाह करते रहा करो सदा करते रहा करो। उस (प्रभू) की महानता बहुत बड़ी है।15। हे संत जनो! प्रभू के बिना (उसके बराबर का) और कोई बादशाह नहीं है। उसने पूरा इन्साफ करके सिफत-सालाह करने की ये रीति चलाई है।16। हे संत जनो! उस परमात्मा का ही न्याय (करने वाला हुकम) सदा अटल है, किसी विरले (भाग्यशाली) को वह प्रभू (यह) हुकम मानने की प्रेरणा करता है।17। हे प्राणियो! जिस परमात्मा ने (लोगों के लिए) गुरू के सन्मुख रहने की मर्यादा चलाई हुई है, सदा उसका ध्यान धरते रहा करो।18। हे संत जनो! (जो मनुष्य) गुरू को मिलता है (भाव, गुरू की शरण पड़ता है), जिस मनुष्य के हृदय में (गुरू, परमात्मा का) नाम बसाता है वह मनुष्य (जिंदगी की खेल में) कामयाब हो जाता है।19। हे संत जनो! (गुरू अपनी) बाणी के द्वारा (अपने) शबद से (शरण आए सिखों को ये उपदेश) सुनाता रहता है कि परमात्मा सदा कायम रहने वाला है परमात्मा कायम रहने वाला है।20। हे नानक! (कह- हे संत जनो! ) परमात्मा आश्चर्यरूप है, मेरा परमात्मा सब जगह मौजूद है (हरेक जीव में व्यापक हो के) वह (हरेक के दिल की) सुन रहा है, (हरेक का काम) देख रहा है।21।1।5। रामकली महला ५ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ किनही कीआ परविरति पसारा ॥ किनही कीआ पूजा बिसथारा ॥ किनही निवल भुइअंगम साधे ॥ मोहि दीन हरि हरि आराधे ॥१॥ तेरा भरोसा पिआरे ॥ आन न जाना वेसा ॥१॥ रहाउ ॥ किनही ग्रिहु तजि वण खंडि पाइआ ॥ किनही मोनि अउधूतु सदाइआ ॥ कोई कहतउ अनंनि भगउती ॥ मोहि दीन हरि हरि ओट लीती ॥२॥ किनही कहिआ हउ तीरथ वासी ॥ कोई अंनु तजि भइआ उदासी ॥ किनही भवनु सभ धरती करिआ ॥ मोहि दीन हरि हरि दरि परिआ ॥३॥ {पन्ना 912} पद्अर्थ: किन ही = (किनि ही। 'किनि' की 'नि' की 'ि' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है) किसी ने। परविरति = (प्रवृति = active life, taking an active part in world affairs) दुनियादारी, गृहस्त जीवन। पसारा = खिलारा। बिरथारा = विस्तार। निवल = निउली कर्म, पेट साफ रखने के लिए आँतों को घुमाने की यौगिक क्रिया। भुइअंगम = सांप, सांप की शकल की कुंडलनी नाड़ी, इस नाड़ी में से सांस गुजार के दसम द्वार में पहुँचाने की क्रिया। साधे = साधना की। मोहि = मैं। मोहि दीन = मैं गरीब ने। आराधे = सिमरा है।1। भरोसा = आसरा। आन = कोई और, अन्य। जाना = मैं जानता। वेस = भेष।1। रहाउ। ग्रिह = घर, गृहस्त। तजि = छोड़ के। वण खंडि = जंगल के हिस्से में, बन ख्ण्ड में। मोनि = सदा चुप रहने वाला। अउधूतु = त्यागी। कहतउ = कहता है। अनंनि = (न+अन्य) कोई और आसरा ना देखने वाला। भगउती = भगवान की भक्ति करने वाला।2। हउ = मैं। वासी = बसने वाला। उदासी = उपराम। भवनु = रटन। हरि दरि = हरी के दर पर।3। अर्थ: हे मेरे प्यारे प्रभू! मुझे सिर्फ तेरा आसरा है। मैं कोई भेख करना नहीं जानता।1। रहाउ। (हे भाई!) किसी ने (सिर्फ) दुनियादारी का पसारा बिखेरा हुआ है, किसी ने (देवताओं आदि की) पूजा का आडंबर रचा हुआ है। किसी ने निउली कर्म और कुंडलनी नाड़ी के साधनों में रुची रखी हुई है। पर मैं गरीब परमात्मा का ही सिमरन करता हूँ।1। (हे भाई!) किसी ने घर छोड़ के जंगल के कोने में जा के डेरा डाला हुआ है, किसी ने अपने आप को मौन धारी त्यागी साधू कहलवाया हुआ है। कोई यह कहता है कि मैं अनन्य भगवती हूँ (अन्या सारे आसरे छोड़ कर सिर्फ भगवान का भक्त हूँ)। पर मुझ गरीब ने सिर्फ परमात्मा का आसरा लिया है।2। (हे भाई!) किसी ने कहा है कि मैं तीर्थों पर ही निवास रखता हूँ। कोई मनुष्य अन्न छोड़ के (दुनियादारी से) उपराम हुआ बैठा है। किसी ने सारी धरती का रटन करने का बीड़ा उठाया हुआ है। पर मैं गरीब सिर्फ परमात्मा के दर पर ही आ पड़ा हुआ हूँ।3। |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |