श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रामकली महला ३ अनंदु {पन्ना 917}

पउड़ी वार भाव:

गुरू से परमात्मा के सिफतसालाह की दाति मिलती है, और, सिफतसालाह की बरकति से मनुष्य के मन में आत्मिक आनंद (पूर्ण खिलाव) पैदा हो जाता है।

जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ा रहता है, परमात्मा उसके सारे दुख दूर कर देता है, उसके सारे काम सँवारता है। वह मनुष्य सारे काम करने योग्य है।

जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, वह मनुष्य परमात्मा की सिफतसालाह परमात्मा का नाम अपने मन में बसाता है। नाम की बरकति से मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा हुआ रहता है।

गुरू की मेहर से परमात्मा का नाम मिलता है। परमात्मा का नाम जिस मनुष्य की जिंदगी का आसरा बन जाता है, उसके अंदर से माया के सारे लालच दूर हो जाते हैं, और उसके अंदर शांति पैदा हो जाती है, आत्मिक आनंद पैदा हो जाता है।

परमात्मा धुर-दरगाह से जिन मनुष्यों के भाग्यों में नाम-सिमरन के लेख लिख देता है, वे मनुष्य नाम में जुड़ते हैं। नाम की बरकति से कामादिक पाँचों वैरी उन पर अपना जोर नहीं डाल सकते। इस तरह उनके अंदर आत्मिक आनंब बना रहता है।

अगर मनुष्य के मन में परमात्मा के चरणों का प्यार ना बने,तो ये सदा माया के प्रभाव में दुखी सा ही रहता है। मनुष्य की सारी ज्ञान-इन्द्रियां माया की दौड़-भाग में लगी रहती हैं। परमात्मा खुद मेहर करे, तो गुरू के शबद में लग के ये सुधर जाता है।

जिस मनुष्य को असल आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, उसका जीवन इतने प्यार वाला बन जाता है कि वह सदा मीठे बोल बोलता है। यह आत्मिक आनंद गुरू से ही मिलता है। गुरू उस मनुष्य के अंदर से विकार दूर कर देता है, उसको आत्मिक आनंद की सूझ बख्शता है।

अपने प्रयासों से कोई भी व्यक्ति आत्मिक आनंद नहीं पा सकता, क्योंकि माया के मुकाबले में किसी का वश नहीं चलता। जिन पर परमात्मा मेहर करता है उनको गुरू से मिलाता है। (और) गुरू के बताए हुए रास्ते पर चल कर वे विकारों से बचते हैं, और, हरी-नाम में जुड़ते हैं। उनके अंदर सदा शांति और शीतलता ही बनी रहती है।

आत्मिक आनंद के दाते परमात्मा से मिलने का सिर्फ एक ही रास्ता है, वह ये है कि मनुष्य अपना-आप गुरू के हवाले करदे। बस! गुरू के बताए हुए रास्ते पर चले, और परमात्मा के सिफत-सालाह के गीत गाता रहे। अंदर आनंद ही आनंद बना रहेगा।

अगर मनुष्य अंदर से माया के मोह में फसा रहे, और, बाहर से सिर्फ चतुराई भरी बातों से आत्मिक आनंद की प्राप्ति चाहे, ये नहीं हो सकता।

सदा के लिए आनंद का एक मात्र तरीका है कि मनुष्य दुनिया वाले मोह में फसे रहने की जगह अपने मन में परमात्मा की याद बसाए रखे। बस! यही है गुरू की शिक्षा जो कभी भी भुलाई नहीं जानी चाहिए।

आत्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए सदा प्रभू के दर पर इस प्रकार अरदास करते रहना चाहिए - हे प्रभू! तू बेअंत है, हरेक जीव के अंदर तू ही बोल रहा है, हरेक जीव की तू ही संभाल कर रहा है।

जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसको गुरू मिलता है। गुरू से उसको आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल मिलता है। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रखता है। उसके अंदर से लब-लोभ-अहंकार आदि सारे विकार दूर हो जाते हैं।

आत्मिक आनंद भोगने वालों की जीवन-जु्रगति दुनिया के लोगों से अलग होती है। वे विकारों से बचे रहते हैं, वे अपनी शोभा नहीं करवाते। पर इस रास्ते पर चलना बहुत ही मुश्किल काम है। गुरू की ही मेहर हो तभी स्वैभाव मिटाया जा सकता है।

आत्मिक आनंद की दाति निरोल परमात्मा के अपने हाथ में है। जिस मनुष्य को मेहर करके परमात्मा अपने नाम सिमरन की तरफ प्रेरित करता है, वह मनुष्य गुरू के दर पर पहुँच के सिमरन की बरकति से आत्मिक आनंद भोगता है।

सतिगुरू की बाणी ही आत्मिक आनंद प्राप्त करने की वसीला है। पर गुरबाणी उनके ही हृदय में बसती है जिनके भाग्यों में धुर से ये लेख लिखे होते हैं।

गुरू की शरण पड़ कर जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरते हैं, उनके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है जिसकी बरकति से माया वाले होछे रस उनको लुभा नहीं पाते। (इस तरह) उनका जीवन ऊँचा हो जाता है, और, उनकी संपर्क में आकर और का आचरण भी पवित्र हो जाता है।

माया के मोह में फंसे रहने से मन में अशांति सहम बने रहते हैं। इस अशांति और सहम का इलाज है आत्मिक आनंद। और, आत्मिक आनंद प्राप्त होता है गुरू की कृपा से। सो, गुरू के शबद में सुरति जोड़े रखो, और परमात्मा की याद में सदा जुड़े रहो।

सिर्फ बाहर से दिखाई देते कर्म करने से मन में विकारों की मैल टिकी रहती है, मन को माया के मोह का रोग चिपका रहता है। जहाँ रोग है वहाँ आनंद कहाँ? सो, सदा हरी-नाम सिमरते रहो। यही है मन की आरोग्यता का ढंग, और आत्मिक आनंद देने वाला।

मनुष्य जगत में आत्मिक आनंद का व्यापार करने आता है। जो मनुष्य गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलता है, माया का मोह उसके नजदीक नहीं फटकता। उसका मन विकारों से बचा रहता है। बाहर दुनिया के साथ भी उसका बर्ताव सही रहता है। उसकी जिंदगी कामयाब समझो।

वह मनुष्य खिले माथे रह सकता है, वही मनुष्य सदा आत्मिक आनंद पा सकता है जो मनुष्य सच्चे दिल से गुरू के चरणों में टिका रहता है, जो स्वै-भाव छोड़ के गुरू को ही अपना आसरा बनाए रखता है।

माया के मोह और आत्मिक आनंद - ये दोनों एक ही हृदय में एक साथ नहीं रह सकते। और माया के मोह से खलासी तभी मिलती है जब मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है। गुरू मनुष्य को जीवन का सही रास्ता बताता है।

जिन मनुष्यों पर परमात्मा की मेहर भरी निगाह होती है, वे परमात्मा की सिफतसालाह वाली गुरबाणी अपने दिल में बसाए रखते हैं। गुरबाणी से वे आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल सदा पीते रहते हैं।

मायावी रसों वाली कविता, गुरू आशय से उलटी जाने वाली बाणी, परमात्मा की सिफतसालाह से वंचित बाणी, मन को मायावी पदार्थों की तरफ आकर्षित करने वाली बाणी मन को कमजोर करती है, माया की झलक के सामने थिरका देती है। ऐसी बाणी रोजाना पढ़ने-सुनने वालों के मन माया के मुकाबले में कमजोर पड़ जाते हैं। ऐसे कमजोर हो चुके मन में आत्मिक आनंद का स्वाद नहीं बन सकता। वह मन तो माया के मोह में फंसा होता है।

सतिगुरू की बाणी परमात्मा की ओर से अमोलक दाति है, इसमें परमात्मा की सिफतसालाह भरी पड़ी है। जो मनुष्य इस बाणी से अपना मन जोड़ता है, उसके अंदर परमात्मा का प्यार बन जाता है, और जहाँ प्रभू-प्रेम हैवहीं आत्मिक आनंद है।

परमात्मा की रज़ा के अनुसार जीव माया के हाथों में नाच रहे हैं। जिस किसी को गुरू द्वारा बताए हुए रास्ते पर चलने के लायक बनाता है, वह मनुष्य माया के बँधनों से स्वतंत्र हो जाता है, उसकी सुरति परमात्मा के चरणों में जुड़ी रहती है, उसके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है।

कर्म-काण्ड के अनुसार कौन सा पुन्य-कर्म है और कौन सा पाप-कर्म है - सिर्फ ये विचार मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा नहीं कर सकती। गुरू की कृपा से ही जो मनुष्य सदा हरी-नाम सिमरता है, सिफत-सालाह की बाणी उचारता है, वह विकारों की ओर से सचेत रहता है और, आत्मिक आनंद पाता है।

परमात्मा जिस मनुष्य को अपने चरणों का प्यार बख्शता है, उस मनुष्य पर कोई भी विकार अपना जोर नहीं डाल सकता। गुरू की शरण पड़ कर, गुरू के बताए हुए राह पर चल के सदा परमात्मा की याद अपने हृदय में टिकाए रखनी चाहिए। आत्मिक आनंद की प्राप्ति का यही है वसीला।

गुरू की कृपा से जिन मनुष्यों की सुरति दुनियावी कार्य-व्यवहार करते हुए भी प्रभू-चरनों में जुड़ी रहती है उनके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है। जगत बका हाल तो यह है कि जीव के पैदा होते ही माता-पिता के प्यार से माया प्रभू-चरणों से विछोड़ लेती है।

किसी दुनियावी पदार्थ के बदले परमात्मा का मिलाप नहीं हो सकता। और, जिस हृदय में प्रभू के प्रति प्यार नहीं, वहाँ आत्मिक आनंद कहाँ? हाँ, जिस मनुष्य को परमात्मा गुरू के साथ लगा देता है, उसके भाग्य जाग उठते हैं।

गुरू से ही ये समझ आती है कि आत्मिक आनंद की कमाई कमाने के लिए परमात्मा का नाम ही मनुष्य की राशि-पूँजी बननी चाहिए। ये सरमाया उन्हीं को मिलता है जिन पर प्रभू मेहर करता है।

कई तरह के खाने खाने से भी मनुष्य की जीभ का चस्का खत्म नहीं होता। बहुत दुखी होता है मनुष्य इस चस्के में। पर जब इसको हरी-नाम-सिमरन का आनंद आने लग जाता है, जीभ का चस्का खत्म हो जाता है। परमात्मा की मेहर से जिसको गुरू मिल जाए, उसको हरी-नाम का आनंद प्राप्त होता है।

सुख-आनंद का दाता है भी परमात्मा स्वयं ही; पर मनुष्य जगत में मायावी पदार्थों में से आनंद तलाशता रहता है। गुरू की मेहर से समझ पड़ती है कि ये जगत तो मदारी का तमाशा ही है, इसमें से सदा टिके रहने वाला आत्मिक आनंद नहीं मिल सकता।

मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद तब ही बनता है, जब उसके हृदय में परमात्मा का प्रकाश होता है। तब मनुष्य का हृदय विकारों से पवित्र हो जाता है, कोई चिंता कोई दुख उस पर अपना जोर नहीं डाल सकते। पर ये प्रकाश गुरू के द्वारा ही होता है।

पिछले किए कर्मों के संस्कारों से प्रेरित मनुष्य बार-बार वैसे ही कर्म करता रहता है। परमात्मा का नाम सिमरने की ओर अपने आप नहीं पलट सकता। फिर आत्मिक आनंद कैसे मिले? अच्छे भाग्यों से जब मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है तब इसकी जिंदगी सफल होती है।

जब तक मनुष्य जगत में किसी को वैर भाव से देखता है किसी को मित्रता के भाव से, तब तक उसके अंदर मेर-तेर है। जहाँ मेर-तेर है, वहाँ आत्मिक आनंद नहीं हो सकता। गुरू को मिल के मनुष्य की आँखें खुलती हैं, फिर इसे हर जगह परमात्मा ही परमात्मा दिखाई देता है। यही दीदार है आनंद का मूल।

जिस मनुष्य के कानों को अभी निंदा-चुगली सुनने का चस्का है, उसके हृदय में अभी आत्मिक आनंद पैदा नहीं हुआ। आत्मिक आनंद की प्राप्ति उसी मनुष्य को है, जिसके कान, जिसकी जीभ जिसकी सारी ज्ञान-इन्द्रियां परमात्मा के सिफतसालाह में मगन रहते हैं। वही ज्ञान-इन्द्रियाँ पवित्र हैं।

माया के प्रभाव के कारण ज्ञान-इन्द्रियां मनुष्य को माया की ओर ही भगाए फिरतीं हैं ये रास्ता ठीक है अथवा गलत - ये विचार करने वाली शक्ति दबी ही रहती है। जिस मनुष्य को परमात्मा गुरू के दर पर पहुँचाता है, उसकी विचार-समर्था जाग उठती है। वह मनुष्य प्रभू के नाम में जुड़ता है और आत्मिक आनंद पाता है।

जिन मनुष्यों पर परमात्मा की मेहर होती है, वह गुरू के बताए रास्ते पर चल के साध-संगति में टिक के परमात्मा की सिफत-सालाह की बाणी गाते हैं,? और आत्मिक आनंद पाते हैं।

आत्मिक आनंद के लक्षण: जिस मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है, उसकी भटकना दूर हो जाती है, उसके सारे चिंता-फिक्र मिट जाते हैं, कोई दुख, कोई विकार, कोई कलेश उस पर प्रभाव नहीं डाल सकते।

आनंद की ये अवस्था सतिगुरू की बाणी से ही प्राप्त होती है। इस बाणी को गाने वालों, सुनने वालों के जीवन ऊँचे हो जाते हैं। इस बाणी में उन्हें सतिगुरू ही प्रत्यक्ष दिखता है।

समूचा भाव:

(1 से 6) सिफतसालाह की बरकति से मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है, उसके सारे दुख दूर हो जाते हैं, उसके अंदर से माया के सारे लालच दूर हो जाते हैं, कामादिक पाँचों वैरी उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। पर प्रभू-चरणों से विछुड़ा हुआ मनुष्य दुखी ही रहता है, उसकी सारी ज्ञान-इन्द्रियाँ माया की दौड़-भाग में ही लगी रहती हैं।

(7 से 15) आत्मिक आनंद गुरू से ही मिलता है। अपने प्रयासों से आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि माया के मुकाबले किसी की भी पेश नहीं चलती। एक ही रास्ता है मनुष्य अपना-आप गुरू के हवाले कर दे। सिर्फ चतुराई की बातें मदद नहीं करतीं। गुरू की ये शिक्षा सदा याद रखो कि मन में परमात्मा की याद टिकी रहे। प्रभू दर पर सदा अरदास करते रहना चाहिए।

गुरू मिलता है परमात्मा की मेहर से। जिसको गुरू मिल जाता है, उसका जीवन स्वच्छ हो जाता है, वह विकारों से बचा रहता है।

(16 से 25) बाणी ही गुरू है। जीवन-यात्रा में बाणी के बताए हुए रास्ते पर चलो - यही है अपने आप को गुरू के हवाले करना। इस तरह माया वाले होछे रस आकर्षित नहीं कर पाऐंगे। बाहर से धार्मिक दिखने वाले कर्म करने से मन विकारों के मुकाबले में अडोल नहीं रह सकेगा। इस राह पर पड़ने से तो जीव-बाजी हार जाई जाती है। अपनी समझदारी छोड़ के बाणी की अगुवाई में जीवन-चाल चलते रहो। माया के मोह और आत्मिक आनंद - ये दोनों एक जगह पर इकट्ठे नहीं रह सकते। साध-संगति में जा के गुरबाणी गाया करो।

मनुष्य दुनिया के रंग-तमाशों वाली कविता में खुशी तलाशता फिरता है, पर ये कविता मन को विकारों के मुकाबले में कमजोर करती जाती है। अगर आत्मिक आनंद पाना है तो गुरू का शबद ही गुरू की बाणी ही एक अमूल्य दाति है।

(26 से 39) जीव और माया ये परमात्मा के ही पैदा किए हुए हैं। पर उसकी रज़ा ऐसी है कि जीव माया के हाथों में नाच रहे हैं, और, दुखी हो रहे हैं। कर्म-काण्ड के अनुसार पुन्य कर्म कौन सा है और पाप कर्म कौन सा - ये विचार भी मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा नहीं होने देते। अजब खेल है, जीव के पैदा होते ही माता-पिता के प्यार के द्वारा माया प्रभू-चरणों से विछोड़ लेती है। किसी दुनियावी पदार्थ के बदले में ये विछोड़ा हटाया नहीं जा सकता। आत्मिक आनंद की कमाई कमाने के लिए परमात्मा का नाम ही मनुष्य का सरमाया बनना चाहिए। ये नाम मिलता है गुरू से।

जीभ के चस्के में फंसा हुआ मनुष्य मायावी पदार्थां में से सुख तलाशता फिरता है। मनुष्य के वश में भी क्या? पिछले किए कर्मों के संस्कारों का प्रेरित हुआ बार-बार वैसे ही कर्म किए जा रहा है। आँखें मिली हैं हर जगह परमात्मा को देखने के लिए, पर ये आँखें अंधी हुई रहती हैं माया के मोह में। कान मिले हैं परमात्मा की सिफतसालाह सुनने के लिए, पर ये काम निंदा-चुगली में मस्त रहते हैं। इस तरह सारी ही ज्ञान-इन्द्रियाँ मनुष्य को मायावी पदार्थों की तरफ ही भगाए फिरती हैं।

जिन मनुष्यों पर परमात्मा की मेहर होती है वह गुरू की शरण पड़ कर साध-संगति में टिक के परमात्मा की सिफत-सालाह की बाणी गाते-सुनाते हैं, और आत्मिक आनंद पाते हैं।

(40) आत्मिक आनंद का स्वरूप- इस आत्मिक अवस्था में पहुँचे हुए मनुष्य की मायावी भटकना दूर हो जाती है, कोई दुख विकार उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता।

ये आत्मिक अवस्था प्राप्त होती है सतिगुरू की बाणी में मन जोड़ने से। बाणी पढ़ने से मनुष्य का जीवन पवित्र हो जाता है।

मुख्य भाव:

जीव के पैदा होते ही माता-पिता आदि के प्यार के द्वारा माया आ घेरती है। सारी उम्र माया के हाथों में नाचता रहता है और दुखी रहता है। जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसको गुरू मिलाता है। गुरू की बाणी की बरकति से मनुष्य की मायावी भटकना दूर हो जाती है, कोई दुख-विकार उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता। हर वक्त उसका मन खिला रहता है। हर वक्त उसके अंदर आनंद बना रहता है।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अनंदु भइआ मेरी माए सतिगुरू मै पाइआ ॥ सतिगुरु त पाइआ सहज सेती मनि वजीआ वाधाईआ ॥ राग रतन परवार परीआ सबद गावण आईआ ॥ सबदो त गावहु हरी केरा मनि जिनी वसाइआ ॥ कहै नानकु अनंदु होआ सतिगुरू मै पाइआ ॥१॥ {पन्ना 917}

पद्अर्थ: अनंदु = परी तरह खिलना। पाइआ = प्राप्त कर लिया। सहज = आत्मिक अडोल अवस्था। सहज सेती = अडोल अवस्था से। मनि = मन में। वाधाई = चढ़दीकला, उत्साह पैदा करने वाला गीत। परीआ = रागों की परीयाँ, रागनियाँ। राग रतन = सुंदर राग। केरा = का।

अर्थ: हे भाई माँ! (मेरे अंदर) पूर्ण खिड़ाव (आनंद) पैदा हो गया है (क्योंकि) मुझे गुरू मिल गया है। मुझे गुरू मिला है, और साथ ही अडोल अवस्था भी प्राप्त हो गई है (भाव, गुरू के मिलने से मेरा मन डोलने से हट गया है); मेरे मन में (मानो) खुशी के बाजे बज उठे हें, सुंदर राग अपने परिवार और रागनियों सहित (मेरे मन में, जैसे) प्रभू की सिफत-सालाह के गीत गाने आ गए हैं।

(हे भाई! तुम भी) प्रभू की सिफत-सालाह के गीत गाओ। जिस-जिस ने सिफत-सालाह के शबद मन में बसाए हैं (उनके अंदर सम्पूर्ण आनंद पैदा हो जाता है)।

नानक कहता है (मेरे अंदर भी) आनंद बन गया है (क्योंकि) मुझे सतिगुरू मिल गया है।1।

भाव: गुरू से परमात्मा के सिफत-सालाह की दाति मिलती है, और सिफत-सालाह की बरकति से मनुष्य के मन (आनंद से) पूर्ण पुल्कित हो उठता है।

ए मन मेरिआ तू सदा रहु हरि नाले ॥ हरि नालि रहु तू मंन मेरे दूख सभि विसारणा ॥ अंगीकारु ओहु करे तेरा कारज सभि सवारणा ॥ सभना गला समरथु सुआमी सो किउ मनहु विसारे ॥ कहै नानकु मंन मेरे सदा रहु हरि नाले ॥२॥ {पन्ना 917}

पद्अर्थ: मंन मेरे = हे मेरे मन! सभि = सारे। विसारणा = दूर करने वाला। अंगीकारु = पक्ष, सहायता। समरथु = करने योग्य। मनहु = मन से। विसरे = बिसरता है।

अर्थ: हे मेरे मन! तू सदा प्रभू के साथ जुड़ा रह। हे मेरे मन! तू सदा प्रभू को याद रख। वह प्रभू सारे दुख दूर करने वाला है। वह सदा तेरी सहायता करने वाला है तेरे सारे काम सफल करने के समर्थ है।

(हे भाई!) उस मालिक को क्यों (अपने) मन से भुलाता है जो सारे काम करने योग्य है?

नानक कहता है- हे मेरे मन! तू सदा प्रभू के चरणों में जुड़ा रह।2।

भाव: जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ा रहता है, परमात्मा उसके सारे दुख दूर कर देता है, उसके सारे काम सँवारता है। वह मालिक सारे काम करने योग्य है।

साचे साहिबा किआ नाही घरि तेरै ॥ घरि त तेरै सभु किछु है जिसु देहि सु पावए ॥ सदा सिफति सलाह तेरी नामु मनि वसावए ॥ नामु जिन कै मनि वसिआ वाजे सबद घनेरे ॥ कहै नानकु सचे साहिब किआ नाही घरि तेरै ॥३॥ {पन्ना 917}

पद्अर्थ: घरि तेरै = तेरे घर में। त = तो सभु किछु = हरेक चीज। देहि = तू देता है। सु = वह मनुष्य। पावऐ = पा लेता है, हासिल करता है। सिफति सालाह = महिमा, वडिआई। मनि = मन में। वसावऐ = बसाता है। जिन कै मनि = जिन के मन में। वाजे = बजते हैं। सबद = साजों की आवाज, रागों की सुरें। घनेरे = बेअंत। सचे = सदा कायम रहने वाले!

अर्थ: हे सदा कायम रहने वाले मालिक (-प्रभू)! (मैं तेरे दर से मन का आनंद माँगता हूं, पर) तेरे घर में कौन सी चीज नहीं है? तेरे घर में तो हरेक चीज मौजूद है, वही मनुष्य प्राप्त करता है जिसको तू स्वयं देता है (फिर, वह मनुष्य) तेरा नाम और तेरी सिफत सालाह (अपने) मन में बसाता है (जिसकी बरकति से उसके अंदर आनंद पैदा हो जाता है)। जिन लोगों के मन में (तेरा) नाम बसता है (उनके अंदर, मानो) बेअंत साजों की (मिली जुलीं) सुरें बजने लग पड़ती हैं (भाव, उनके मन में वह खुशी का चाव पैदा होता है जो कई साजों का मिश्रित राग सुन के पैदा होता है)।

नानक कहता है- हे सदा कायम रहने वाले मालिक! तेरे घर में किसी चीज की कमी नहीं है (और, मैं तेरे दर से आनंद का दान माँगता हूँ)।3।

भाव: जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, वह मनुष्य परमात्मा की सिफत सालाह परमात्मा का नाम अपने मन में बसाता है। नाम की बरकति से मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा हुआ रहता है।

साचा नामु मेरा आधारो ॥ साचु नामु अधारु मेरा जिनि भुखा सभि गवाईआ ॥ करि सांति सुख मनि आइ वसिआ जिनि इछा सभि पुजाईआ ॥ सदा कुरबाणु कीता गुरू विटहु जिस दीआ एहि वडिआईआ ॥ कहै नानकु सुणहु संतहु सबदि धरहु पिआरो ॥ साचा नामु मेरा आधारो ॥४॥ {पन्ना 917}

पद्अर्थ: आधारो = आसरा। जिनि = जिस (नाम) से। भुख = लालच। करि = (पैदा) पैदा करके। मनि = मन में। इछा = मन की कामना। सभि = सारियां। कुरबाणु = सदके। विटहु = से।

अर्थ: (प्रभू की मेहर से उसका) सदा-स्थिर रहने वाला नाम मेरी जिंदगी का आसरा (बन गया) है।

जिस (हरी-नाम) ने मेरे सारे लालच दूर कर दिए हैं, जिस (हरी-नाम) ने मेरे मन की सारी कामनाएं पूरी कर दी हैं, जो हरी-नाम (मेरे अंदर) शांति और सुख पैदा करके मेरे मन में आ टिका है, वह सदा कायम रहने वाला नाम मेरी जिंदगी का आसरा बन गया है।

मैं (अपने आप को) अपने गुरू से सदके करता हूँ, क्योंकि ये सारी बरकतें गुरू की ही हैं।

नानक कहता है- हे संत जनो! (गुरू का शबद) सुनो, गुरू के शबद में प्यार बनाओ। (सतिगुरू की मेहर से ही प्रभू का) सदा कायम रहने वाला नाम मेरी जिंदगी का आसरा (बन गया) है।4।

भाव: गुरू की मेहर से परमात्मा का नाम मिलता है। जिस मनुष्य को नाम प्राप्त हो जाता है, उसके अंदर से माया के सारे लालच दूर हो जाते हैं, और उसके अंदर शांति पैदा हो जाती है आत्मिक आनंद पैदा हो जाता है।

वाजे पंच सबद तितु घरि सभागै ॥ घरि सभागै सबद वाजे कला जितु घरि धारीआ ॥ पंच दूत तुधु वसि कीते कालु कंटकु मारिआ ॥ धुरि करमि पाइआ तुधु जिन कउ सि नामि हरि कै लागे ॥ कहै नानकु तह सुखु होआ तितु घरि अनहद वाजे ॥५॥ {पन्ना 917}

पद्अर्थ: वाजे = बजते हैं। पंच सबद = पाँच किस्मों के साजों की मिश्रित सुरें। तितु = उस में। तितु घरि = उस हृदय घर में। तितु सभागै घरि = उस भाग्यशाली हृदय घर में। कला = सक्ता। जितु घरि = जिस घर में। धारीआ = तूने डाली है। पंच दूत = कामादिक पाँच वैरी। कंटकु = काँटा। कंटकु कालु = डरावना काल, मौत का डर। धुरि = धुर से। करमि = मेहर से। सि = वह लोग। नामि = नाम में। अनहद = बिना बजाए बजने वाले, एकरस, लगातार।

अर्थ: जिस (हृदय-) घर में (हे प्रभू! तूने) सक्ता डाली है, उस भाग्यशाली (हृदय-) घर में (मानो) पाँच किस्मों के साजों की मिश्रित सुरें बज पड़ती हैं (भाव, उस हृदय में पूर्ण आनंद बन जाता है), (हे प्रभू!) उसके पाँचों कामादिक वैरी तू काबू कर देता है, और डराने वाला काल (भाव, मौत का डर) दूर कर देता है। पर, सिर्फ वही मनुष्य हरी-नाम में जुड़ते हैं जिनके भाग्यों में तूने धुर से ही अपनी मेहर से (सिमरन के लेख लिख के) रख दिए हैं।

नानक कहता है- उस हृदय-घर में सुख पैदा होता है, उस हृदय में (मानो) एकरस (बाजे) बजते हैं।5।

भाव: परमात्मा धुर दरगाह से जिन मनुष्यों के भाग्यों में नाम-सिमरन के लेख लिख देता है, वे मनुष्य नाम में जुड़ते हैं। नाम की बरकति से पाँचों कामादिक वैरी उन पर अपना जोर नहीं डाल सकते। इस तरह उनके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है।

साची लिवै बिनु देह निमाणी ॥ देह निमाणी लिवै बाझहु किआ करे वेचारीआ ॥ तुधु बाझु समरथ कोइ नाही क्रिपा करि बनवारीआ ॥ एस नउ होरु थाउ नाही सबदि लागि सवारीआ ॥ कहै नानकु लिवै बाझहु किआ करे वेचारीआ ॥६॥ {पन्ना 917}

पद्अर्थ: साची लिव = सच्ची लगन, सदा कायम रहने वाली लगन, सदा स्थिर प्रभू से प्रीत। देह = शरीर। निमाणी = निआसरी सी। किआ करे = क्या करती है? जो कुछ करती है नकारे काम करती है। बनवारी = हे जगत वाड़ी के मालिक! सवारीआ = सही तरफ लगाई जा सकती हैं। वेचारीआ = पराधीन, निमाणी सी, माया के प्रभाव से।

अर्थ: सदा-स्थिर प्रभू के चरणों की लगन (के आनंद) के बिना ये (मनुष्य) शरीर निआसरा सा ही रहता है। प्रभू-चरनों की प्रीति के बिना निआसरा होया हुआ ये शरीर जो कुछ भी करता है नकारे काम ही करता है।

हे जगत के मालिक! तेरे बिना और कोई जगह नहीं जहाँ ये शरीर सही तरफ लग सके, कोई और इस को सही दिशा में लगाने के लायक ही नहीं। तू ही कृपा कर, ता कि ये गुरू के शबद में लग के सुधर जाए।

नानक कहता है- प्रभू-चरणों की प्रीति के बिना पराधीन (भाव, माया के प्रभाव तले) है और जो कुछ करता है निकम्मे काम ही करता है।6।

भाव: अगर मनुष्य के मन में परमात्मा के चरनों का प्यार ना बने, तो यह सदा माया के प्रभाव में दुखी सा ही रहता है। मनुष्य की सारी ज्ञान-इन्द्रियां माया की दौड़-भाग में लगे रहते हैं। परमात्मा स्वयं कृपा करे, तो गुरू के शबद में लग के ये सुधर जाता है।

आनंदु आनंदु सभु को कहै आनंदु गुरू ते जाणिआ ॥ जाणिआ आनंदु सदा गुर ते क्रिपा करे पिआरिआ ॥ करि किरपा किलविख कटे गिआन अंजनु सारिआ ॥ अंदरहु जिन का मोहु तुटा तिन का सबदु सचै सवारिआ ॥ कहै नानकु एहु अनंदु है आनंदु गुर ते जाणिआ ॥७॥ {पन्ना 917}

पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। पिआरिआ = हे प्यारे भाई! क्रिपा करे = जब गुरू कृपा करता है। किलविख = पाप। अंजनु = सुरमा। सारिआ = (आँखों में) डालता है। अंदरहु = मन में से। सचै = सदा स्थिर (परमात्मा) ने। सबदु = बोल। सबदु सवारिआ = बोल सवार दिए (भाव, कड़वे बोल निंदा आदि के बोल नहीं बोलता)। ऐहु अनंदु है = असल आत्मिक आनंद ये है (कि मनुष्य का कड़वा और निंदा आदि वाला स्वभाव ही नहीं रहता)।

अर्थ: कहने को तो हर कोई कह देता है कि मुझे आनंद प्राप्त हो गया है, पर (असल) आनंद की सूझ गुरू से ही मिलती है।

हे प्यारे भाई! (असल) आनंद की सूझ सदा गुरू से ही मिलती है। (वह मनुष्य असल आनंद पाता है, जिस पर गुरू) कृपा करता है। गुरू मेहर करके (उसके) (अंदर से) पाप काट देता है, और (उसकी विचार वाली आँखों में) आत्मिक जीवन की सूझ का सुरमा डालता है।

जिन मनुष्यों के मन में से माया का मोह समाप्त हो जाता है, अकाल-पुरख उनके बोल ही अच्छे और मीठे कर देता है।

नानक कहता है- असल आनंद ही यही है, और यह आनंद गुरू से ही समझा जा सकता है।7।

भाव: जिस मनुष्य को असल आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, उसका जीवन इतना प्यार वाला बन जाता है कि वह सदा मीठे बोल बोलता है। ये आत्मिक आनंद गुरू से मिलता है। गुरू उस मनुष्य के अंदर से सारे विकार दूर कर देता है, और उस को आत्मिक जीवन की समझ बख्शता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh