श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 916 अकाल मूरति अजूनी स्मभउ कलि अंधकार दीपाई ॥१८॥ अंतरजामी जीअन का दाता देखत त्रिपति अघाई ॥१९॥ एकंकारु निरंजनु निरभउ सभ जलि थलि रहिआ समाई ॥२०॥ भगति दानु भगता कउ दीना हरि नानकु जाचै माई ॥२१॥१॥६॥ {पन्ना 916} पद्अर्थ: अकाल = (अ+काल। स्त्री लिंग) मोह से रहित। मूरति = सरूप, हस्ती। अकाल मूरति = वह प्रभू जिसकी हस्ती मौत रहित है। संभउ = (स्वयंभु) अपने आप से प्रकट होने वाला। कलि = कलियुग, दुनिया, जगत। अंधकार = अंधेरा। दीपाई = (दीप = दीया) प्रकाश करता है।18। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। देखत = देखते ही। त्रिपति अघाई = पूरी तौर पर तृप्त हो जाता है।19। ऐकंकारु = सर्व व्यापक प्रभू। जलि = जल में। थलि = थल में, धरती में।20। कउ = को। नानकु जाचै = नानक मांगता है। माई = हे माँ!।21। अर्थ: (हे भाई! जो) परमात्मा मौत-रहत अस्तित्व वाला है, जो जूनियों में नहीं आता, जो अपने आप से प्रकट होता है, वह प्रभू (गुरू के) द्वारा जगत के (माया के मोह के) अंधेरे को (दूर करके) आत्मिक जीवन की रौशनी करता है।18। हे भाई! परमात्मा सबके दिलों की जानने वाला है, सब जीवों को दातें देने वाला है, (गुरू की शरण पड़ के उस के) दर्शन करने से (माया की तृष्णा की ओर से) पूरी तरह से तृप्त हो जाया जाता है।19। (हे भाई! गुरू के द्वारा ही ये बात समझ आती है कि) सर्व-व्यापक परमात्मा माया के प्रभाव से परे रहने वाला परमात्मा, किसी से भी ना डरने वाला परमात्मा, जल में थल में हर जगह मौजूद है।20। हे माँ! (गुरू के माध्यम से ही परमात्मा ने अपनी) भक्ति का दान (अपने) भक्तों को (सदा) दिया है। (दास) नानक भी (गुरू के माध्यम से ही) उस परमात्मा से (ये ख़ैर) माँगता है।21।1।6। रामकली महला ५ ॥ सलोकु ॥ सिखहु सबदु पिआरिहो जनम मरन की टेक ॥ मुखु ऊजलु सदा सुखी नानक सिमरत एक ॥१॥ मनु तनु राता राम पिआरे हरि प्रेम भगति बणि आई संतहु ॥१॥ सतिगुरि खेप निबाही संतहु ॥ हरि नामु लाहा दास कउ दीआ सगली त्रिसन उलाही संतहु ॥१॥ रहाउ ॥ खोजत खोजत लालु इकु पाइआ हरि कीमति कहणु न जाई संतहु ॥२॥ चरन कमल सिउ लागो धिआना साचै दरसि समाई संतहु ॥३॥ गुण गावत गावत भए निहाला हरि सिमरत त्रिपति अघाई संतहु ॥४॥ आतम रामु रविआ सभ अंतरि कत आवै कत जाई संतहु ॥५॥ आदि जुगादी है भी होसी सभ जीआ का सुखदाई संतहु ॥६॥ आपि बेअंतु अंतु नही पाईऐ पूरि रहिआ सभ ठाई संतहु ॥७॥ मीत साजन मालु जोबनु सुत हरि नानक बापु मेरी माई संतहु ॥८॥२॥७॥ {पन्ना 916} पद्अर्थ: सबदु = गुरू का शबद, गुरू की उचारी हुई प्रभू के सिफत सालाह की बाणी, परमात्मा की सिफत सालाह। सिखहु = आदत डालो, स्वभाव बनाओ। पिआरिहो = हे प्यारे सज्जनो! टेक = आसरा। ऊजल = उज्जवल, बेदाग।1। राता = रंगा गया। बणि आई = परमात्मा के साथ गहरी सांझ बन गई।1। सतिगुरि = गुरू ने। खेप = (क्षेप) व्यापार का माल, आपस में किया हुआ इकरार, सांझ। निबाही = निबाह दी। संतहु = हे संत जनो! लाहा = लाभ, कमाई। कउ = को। सगली = सारी। उलाही = उतार दी, दूर कर दी।1। रहाउ। खोजत खोजत = खोज करते करते। लालु = बड़ा ही कीमती पदार्थ।2। सिउ = साथ। चरन कमल सिउ = सुंदर चरणों से। साचै दरसि = सदा स्थिर प्रभू के दर्शन में। समाई = लीन हो गई।3। निहाला = प्रसन्न चिक्त। त्रिपति अघाई = पूरी तौर पर तृप्त हो गए।4। आतम रामु = सर्व व्यापक परमात्मा। कत = कहाँ?।5। आदि = शुरू से ही। जुगादि = जुगों के आरम्भ से। होसी = सदा के लिए कायम रहेगा।6। नही पाईअै = नहीं पाया जा सकता। पूरि रहिआ = व्यापक है, मौजूद है।7। मीत = मित्र। मालु = धन पदार्थ। जोबनु = जवानी। सुत = पुत्र। माई = माँ।8। अर्थ: हे प्यारे मित्रो! परमात्मा की सिफत सालाह करने की आदत बनाओ, ये सिफतसालाह ही (मनुष्य के लिए) सारी उम्र का सहारा है। हे नानक! (कह- हे मित्रो!) एक परमात्मा का नाम सिमरने से (लोक-परलोक में) मुख उज्जवल रहता है और सदा ही सुखी रहता है।1। हे संत जनो! जिस मनुष्य का तन और मन प्यारे प्रभू के प्रेम-रंग में रंगा रहता है, प्रभू की प्रेमा-भगती के कारण प्रभू से उसकी गहरी सांझ बन जाती है।1। हे संत जनो! जिस मनुष्य की प्रभू से सांझ गुरू ने बनवा दी, उस सेवक को गुरू ने परमात्मा के नाम का लाभ बख्श दिया, और, इस तरह उसकी सारी मायावी तृष्णा समाप्त कर दी।1। रहाउ। हे संत जनो! (गुरू की शरण पड़ कर खोजने वाले ने) खोज करते-करते परमात्मा का नाम-हीरा पा लिया। उस लाल का मूल्य नहीं पाया जा सकता।2। हे संत जनो! (गुरू की कृपा से जिस मनुष्य की) सुरति प्रभू के सुंदर चरणों में जुड़ गई, सदा-स्थिर प्रभू के दर्शन में उसकी सदा के लिए लीनता हो गई।3। हे संत जनो! परमात्मा की सिफत-सालाह के गीत गाते-गाते (हम) तन से मन से खिल उठते हैं, परमात्मा का सिमरन करते हुए (माया की तृष्णा की ओर से) पूरी तौर पर तृप्त हो जाते हैं।4। हे संत जनो! (गुरू की शरण पड़ कर जिस मनुष्य को) सर्व-व्यापक परमात्मा सब जीवों के अंदर बसता दिखाई दे जाता है, उसका जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है।5। हे संत जनो! (गुरू ने जिस मनुष्य की खेप सिरे चढ़ा दी, उसको ये दिखाई दे जाता है कि) परमात्मा सबका आदि है, परमात्मा जुगों के आरम्भ से है, परमात्मा इस वक्त भी मौजूद है, परमात्मा सदा के लिए कायम रहेगा। वह परमात्मा सब जीवों को सुख देने वाला है।6। हे संत जनो! परमात्मा बेअंत है, उसके गुणों का अंतिम छोर पाया नहीं जा सकता। वह प्रभू सब जगह व्यापक है।7। हे नानक! (कह-) हे संत जनो! वह परमात्मा ही मेरा मित्र है, मेरा सज्जन है, मेरा धन-माल है, मेरा जोबन है, मेरा पुत्र है, मेरा पिता है, मेरी माँ है (इन सब जगहों पर मुझे परमात्मा का ही सहारा है)।8।2।7। रामकली महला ५ ॥ मन बच क्रमि राम नामु चितारी ॥ घूमन घेरि महा अति बिखड़ी गुरमुखि नानक पारि उतारी ॥१॥ रहाउ ॥ अंतरि सूखा बाहरि सूखा हरि जपि मलन भए दुसटारी ॥१॥ जिस ते लागे तिनहि निवारे प्रभ जीउ अपणी किरपा धारी ॥२॥ उधरे संत परे हरि सरनी पचि बिनसे महा अहंकारी ॥३॥ साधू संगति इहु फलु पाइआ इकु केवल नामु अधारी ॥४॥ न कोई सूरु न कोई हीणा सभ प्रगटी जोति तुम्हारी ॥५॥ तुम्ह समरथ अकथ अगोचर रविआ एकु मुरारी ॥६॥ कीमति कउणु करे तेरी करते प्रभ अंतु न पारावारी ॥७॥ नाम दानु नानक वडिआई तेरिआ संत जना रेणारी ॥८॥३॥८॥२२॥ {पन्ना 916} पद्अर्थ: मन बच क्रमि = मन से, बोलों से और कर्मों से। चितारी = याद करता रह। घूमनघेरि = (विकारों की लहरों का) चक्कर, बवंडर। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। पारि उतारी = (अपनी जीवन = बेड़ी को) पार लंघा।1। रहाउ। अंतरि = हृदय में। सूखा = सुख। बाहरि = दुनिया के कार्य व्यवहार करते हुए। जपि = जप के। मलन भऐ = मले जाते हैं (शब्द 'मलन' व 'मलिन' में फर्क है। मलिन का अर्थ है 'मलीन')। दुसटारी = (दुष्ट+अरी) बुरे (कामादिक) वैरी।1। जिस ते: जिस परमात्मा से (संबंधक 'ते' के कारण 'जिसु' की 'ु' की मात्रा हट गई है)। लागे = चिपके। तिनहि = तिनि ही, उस (प्रभू) ने ही। धारी = धार के, कर के।2। उधरे = (बवंडर में से) बच गए। परे = पड़े। पचि = जल के।3। साधू = गुरू। अधारी = आसरा।4। सूरु = सूरमा। हीणा = कमजोर। सभ = हर जगह।5। समरथ = सब ताकतों का मालिक। अकथ = जिसके गुण बयान ना किए जा सकें। अगोचर = (अ+गो+चर, गो = ज्ञान इन्द्रियां। चर = पहुँच) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। रविआ = व्यापक। मुरारी = मुर+अरि, परमात्मा।6। करते = हे करतार! पारावारी = पार+अवार, इस पार उस पार का किनारा।7। रेणारी = चरण धूल।8। अर्थ: हे भाई! अपने मन से, अपने हरेक बोल से, अपने हरेक काम से परमात्मा का नाम याद रखा कर। हे नानक! (कह- हे भाई! जगत में विकारों की लहरों का) बड़ा भयानक बवण्डर है। गुरू की शरण पड़ कर (इसमें से अपनी जिंदगी की बेड़ी को) पार लंघा।1। हे भाई! परमात्मा का नाम जप-जप के (कामादिक) दुष्ट वैरी पराजित कर दिए जाते हैं, (तब) हृदय में सदा सुख बना रहता है, दुनिया के साथ व्यवहार करते हुए भी सुख ही टिका रहता है।1। हे भाई! जिस प्रभू की रजा के अनुसार (ये दुष्ट वैरी) चिपकते हैं, वही प्रभू जी अपनी कृपा करके इनको दूर करता है।2। हे भाई! संत जन तो परमात्मा की शरण पड़ जाते हैं वह तो (इन वैरियों की मार से) बच जाते हैं, पर बड़े अहंकारी मनुष्य (इनमें) जल के आत्मिक मौत मर जाते हैं।3। हे भाई! (संत जनों ने) गुरू की संगति में र हके परमात्मा का नाम-फल पा लिया, केवल हरी-नाम को ही उन्होंने अपनी जिंदगी का आसरा बना लिया है।4। पर, हे प्रभू! (अपने आप में) ना कोई जीव शक्तिशाली है ना ही कोई कमजोर। हरेक जीव में तेरी ही ज्योति प्रकट हो रही है।5। हे प्रभू! तू सब ताकतों का मालिक है, तेरी ताकतें बयान से परे हैं, ज्ञान-इन्द्रियों के द्वारा तेरे तक पहुँच नहीं हो सकती। हे प्रभू! तू स्वयं सब जीवों में व्यापक है।6। हे करतार! हे प्रभू! कोई जीव तेरी कीमत नहीं पा सकता। तेरा अंत तेरा इस पार उस पार को नहीं समझ सकता।7। हे नानक! (कह- हे प्रभू!) तेरे संत-जनों की चरण-धूड़ लेने से तेरे नाम की दाति मिलती है, (लोक-परलोक में) सम्मान मिलता है।8।3।8।22। असटपदीयां महला १---------------9 |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |