श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 915

रामकली महला ५ ॥ जीअ जंत सभि पेखीअहि प्रभ सगल तुमारी धारना ॥१॥ इहु मनु हरि कै नामि उधारना ॥१॥ रहाउ ॥ खिन महि थापि उथापे कुदरति सभि करते के कारना ॥२॥ कामु क्रोधु लोभु झूठु निंदा साधू संगि बिदारना ॥३॥ नामु जपत मनु निरमल होवै सूखे सूखि गुदारना ॥४॥ भगत सरणि जो आवै प्राणी तिसु ईहा ऊहा न हारना ॥५॥ सूख दूख इसु मन की बिरथा तुम ही आगै सारना ॥६॥ तू दाता सभना जीआ का आपन कीआ पालना ॥७॥ अनिक बार कोटि जन ऊपरि नानकु वंञै वारना ॥८॥५॥ {पन्ना 915}

पद्अर्थ: सभि = सारे। पेखीअहि = देखे जा रहे हैं (करम वाच, वर्तमान काल, बहुवचन, अंनपुरख)। प्रभू = हे प्रभू! धारना = आसरा।1।

हरि कै नाम = परमात्मा के नाम से। उधारना = पार उतारा, निस्तारा।1। रहाउ।

थापि = बना के। उथापे = नाश करता है। कुदरति = रचना। करते के = करतार के। कारना = ढंग।2।

साधू संगि = गुरू की संगति में। बिदारना = नाश किए जा सकते हैं।3।

जपत = जपते हुए। सूखे सूखि = सुख में ही सुख में ही। गुदारना = गुज़ारना, गुजारी जा सकती है ('ज़' की जगह पर 'द' का प्रयोग और भी जगहों पर किया गया है = काज़ी, कादी; कागज़, कागद। अरबी में भी ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं- 'ज़ुआद' को 'दुआद' पढ़ना)।4।

ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में।5।

बिरथा = (व्यथा) दुख, फरयाद। सारना = गुजारी जा सकती है।6।

कीआ = किया हुआ, पैदा किया हुआ जगत।7।

अनिक बार कोटि = अनेकों बार, करोड़ों बार। वंञै वारना = सदके जाता है। नानकु = (कर्ता करक, एकबचन)। नानकु वंञै = नानक जाता है।8।

अर्थ: (हे भाई! काम-क्रोध-लोभ-झूठ-निंदा आदि से) इस मन को परमात्मा के नाम से ही बचाया जा सकता है।1। रहाउ।

हे भाई! ये सारे जीव-जंतु जो दिखाई दे रहे हैं, ये सारे तेरे ही आसरे हैं।1।

हे भाई! परमात्मा इस रचना को एक-छिन में पैदा करके फिर नाश भी कर सकता है। ये सारे करतार के ही खेल हैं।2।

हे भाई! काम-क्रोध-लोभ-झूठ-निंदा आदि विकारों को गुरू की संगति में रह के (अपने मन में से चीर-फाड़ के) दूर कर सकते हैं।3।

हे भाई! परमात्मा का नाम जपते हुए (मनुष्य का) मन पवित्र हो जाता है। (मनुष्य की उम्र) निरोल आत्मिक आनंद में ही बीतती है।4।

हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की बँदगी करने वाले लोगों की शरण में आता है, वह मनुष्य इस लोक में और परलोक में भी (विकारों के हाथों अपनी मनुष्य जीवन की बाजी) हारता नहीं।5।

हे भाई! इस मन की सुखों की माँग और दुखों की तरफ से पुकार, प्रभू तेरे आगे ही की जा सकती है।6।

हे प्रभू! तू सारे जीवों को ही दातें देने वाला है, अपने पैदा किए जीवों को तू स्वयं ही पालने वाला है।7।

हे प्रभू! (तेरा दास) नानक तेरे भक्तों (के चरणों) से अनेकों बार करोड़ों बार बलिहार जाता है।8।5।

रामकली महला ५ असटपदी    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ दरसनु भेटत पाप सभि नासहि हरि सिउ देइ मिलाई ॥१॥ मेरा गुरु परमेसरु सुखदाई ॥ पारब्रहम का नामु द्रिड़ाए अंते होइ सखाई ॥१॥ रहाउ ॥ सगल दूख का डेरा भंना संत धूरि मुखि लाई ॥२॥ पतित पुनीत कीए खिन भीतरि अगिआनु अंधेरु वंञाई ॥३॥ करण कारण समरथु सुआमी नानक तिसु सरणाई ॥४॥ {पन्ना 915}

पद्अर्थ: भेटत = मिलते हुए, प्राप्त होते। सभि = सारे (बहुवचन)। नासहि = (बहुवचन) नाश हो जाते हैं। सिउ = साथ। देइ = देता है। देइ मिलाई = मिलाय देय, जोड़ देता है।1।

सुखदाई = सुखों का दाता। द्रिढ़ाऐ = हृदय में पक्का कर देता है। अंते = आखिरी समय में भी। सखाई = साथी, मित्र।1। रहाउ।

सगल = सारे। भंना = गिर गया। संत धूरि = गुरू के चरणों की धूड़। मुखि = मुँह पर।2।

पतित = विकारों में गिरे हुए लोग। पुनीत = पवित्र। खिन भीतरि = छिन में। अगिआन = आत्मिक जीवन की तरफ से बेसमझी। अंधेरु = अंधेरा। वंञाई = दूर करता है।3।

करण कारण = जगत का मूल। समरथु = सभ ताकतों का मालिक।4।

अर्थ: हे भाई! मेरा गुरू परमेश्वर (का रूप) है, सारे सुख देने वाला है। हे भाई! गुरू परमात्मा का नाम (मनुष्य के हृदय में) पक्का कर देता है (और इस तरह) आखिरी वक्त भी (मनुष्य का) मित्र बनता है।1। रहाउ।

हे भाई! गुरू के दर्शन प्राप्त होने से सारे पाप नाश हो जाते हैं, (गुरू मनुष्य को) परमात्मा के साथ जोड़ देता है।1।

हे भाई! (जो मनुष्य) गुरू के चरणों की धूल (अपने) माथे पर लगाता है (उसके अंदर से) सारा ही दुखों का अड्डा ही समाप्त हो जाता है।2।

हे भाई! (गुरू ने) अनेकों विकारियों को एक छिन में पवित्र कर दिया, (गुरू मनुष्य के अंदर से) आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी (का) अंधकार दूर कर देता है।3।

हे नानक! (कह- हे भाई!) मालिक-प्रभू सारे जगत का मूल है और सभ ताकतों का मालिक है (गुरू के द्वारा ही) उसकी शरण पड़ा जा सकता है।4।

बंधन तोड़ि चरन कमल द्रिड़ाए एक सबदि लिव लाई ॥५॥ अंध कूप बिखिआ ते काढिओ साच सबदि बणि आई ॥६॥ जनम मरण का सहसा चूका बाहुड़ि कतहु न धाई ॥७॥ नाम रसाइणि इहु मनु राता अम्रितु पी त्रिपताई ॥८॥ संतसंगि मिलि कीरतनु गाइआ निहचल वसिआ जाई ॥९॥ पूरै गुरि पूरी मति दीनी हरि बिनु आन न भाई ॥१०॥ नामु निधानु पाइआ वडभागी नानक नरकि न जाई ॥११॥ {पन्ना 915}

पद्अर्थ: तोड़ि = तोड़ के। चरन कमल = परमात्मा के सुंदर चरण। द्रिढ़ाऐ = (हृदय में) पक्के टिका देता है। सबदि = शबद से। लिव = लगन।5।

कूप = कूँआ। बिखिआ = माया। ते = से, में से। साच सबदि = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद में। बणि आई = मन को भा जाता है।6।

सहसा = सहम। चूका = समाप्त हो जाता है। बाहुड़ि = दोबारा, फिर। कतहु = किसी और तरफ से। धाई = दौड़ता, भटकता।7।

रसाइणि = (रस+आसन = रसों का घर, सबसे श्रेष्ठ रस) सबसे श्रेष्ठ रस में। राता = रंगा जाता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पी = पी के। त्रिपताई = अघा जाता है।8।

गुरि = गुरू ने। आन = अन्य, कोई और। भाई = भाता है, अच्छा लगता।10।

निधानु = खजाना। वडभागी = बहुत भाग्यों से। नरकि = नर्क में। न जाई = नहीं जाता।11।

अर्थ: (हे भाई! गुरू मनुष्य के माया के) बँधन तोड़ के (उसके अंदर) प्रभू के सुंदर चरणों को पक्की तरह से टिका देता है, (गुरू की कृपा से वह मनुष्य) गुरू-शबद के द्वारा एक प्रभू में ही सुरति जोड़े रखता है।5।

(हे भाई! गुरू जिस मनुष्य को) माया (के मोह) के अंधे कूएं में से निकाल लेता है, सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी में उसकी प्रीति बन जाती है।6।

(हे भाई! गुरू की कृपा से उस मनुष्य का) जनम-मरण के चक्कर का सहम समाप्त हो जाता है, वह फिर और कहीं (किसी जून में) नहीं भटकता फिरता।7।

(हे भाई! गुरू की मेहर से जिस मनुष्य का) ये मन सब रसों से श्रेष्ठ नाम-रस में रंगा जाता है, वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पी के (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाता है।8।

(हे भाई!) गुरू-संत की संगत में मिल के जिस मनुष्य ने परमात्मा की सिफत-सालाह के गीत गाने शुरू कर दिए, वह कभी ना डोलने वाले आत्मिक ठिकाने में टिक जाता है।9।

(हे भाई! जिस मनुष्य को) पूरे गुरू ने (आत्मिक जीवन के बारे में) पूरी समझ बख्श दी, उसको परमात्मा के नाम के बिना कोई और (दुनियावी वस्तु) प्यारी नहीं लगती।10।

हे नानक! जिस भाग्यशाली ने (गुरू की शरण पड़ कर) नाम-खजाना पा लिया, वह (दुनियां के दुखों के) नर्क में नहीं पड़ता।11।

घाल सिआणप उकति न मेरी पूरै गुरू कमाई ॥१२॥ जप तप संजम सुचि है सोई आपे करे कराई ॥१३॥ पुत्र कलत्र महा बिखिआ महि गुरि साचै लाइ तराई ॥१४॥ अपणे जीअ तै आपि सम्हाले आपि लीए लड़ि लाई ॥१५॥ साच धरम का बेड़ा बांधिआ भवजलु पारि पवाई ॥१६॥ बेसुमार बेअंत सुआमी नानक बलि बलि जाई ॥१७॥ {पन्ना 915-916}

पद्अर्थ: घाल = तप आदि की मेहनत। उकति = दलील, युक्ति, शास्त्रार्थ। पूरै गुरू = पूरे गुरू की। कमाई = बख्शिश, खजाना।12।

संजम = इन्द्रियों को काबू में रखने के यतन। सुचि = (शरीर आदि की बाहरी) पवित्रता। सोई = वह गुरू ही, गुरू की शरण पड़े रहना ही। आपे = (गुरू) स्वयं ही। कराई = करता है।13।

कलत्र = स्त्री। बिखिआ = माया। गुरि = गुरू ने। साचै = सदा कायम रहने वाले परमात्मा (के नाम) में। लाइ = लाय, लगा के। तराई = तैराता है, पार लंघाता है।14।

जीअ = ('जीउ' का बहुवचन)। तै = (हे प्रभू!) तू। सम्हाले = संभालता है। लड़ि = पल्ले से।15।

साच धरम = सदा स्थिर प्रभू का नाम सिमरन रूप् धरम। बांधिआ = तैयार किया। भवजलु = संसार समुंद्र।16।

बेसुमार = जिसके गुणों की गिनती ना हो सके (शुमार = गिनती)। जाई = मैं जाता हॅू। बलि जाई = मैं बलिहार जाता हूँ।17।

अर्थ: हे भाई! तप आदिक की किसी मेहनत, विद्या आदि की किसी चतुराई, किसी शास्त्रार्थ की मुझे टेक-ओट नहीं है। यह तो पूरे गुरू की बख्शिश है (कि उसने मुझे परमात्मा के नाम की दाति बख्शी है)।12।

हे भाई! पूरे गुरू की शरण पड़ना ही मेरे लिए जप-तप-संजम और शारीरिक पवित्रता का साधन है। (पूरा गुरू) स्वयं ही (मेरे ऊपर मेहर) करता है (और मुझसे प्रभू की सेवा-भक्ति) करवाता है।13।

(हे भाई! जो भी मनुष्य गुरू की शरण पड़ा) उसको पुत्र-स्त्री और बलवान माया के मोह में से गुरू ने सदा-स्थिर प्रभू (के नाम) में जोड़ के पार लंघा लिया।14।

हे प्रभू! (हम तेरे पैदा किए हुए जीव हैं) अपने पैदा किए हुए जीवों की तूने स्वयं खुद ही संभाल की है, तू खुद ही इनको अपने पल्ले से लगाता है।15।

(हे प्रभू! तेरी मेहर से ही जिन्होंने) तेरे सदा-स्थिर-नाम के सिमरन का जहाज तैयार कर लिया, तूने उनको संसार-समुंदर से पार लंघा दिया।16।

हे नानक! (कह- हे भाई!) वह मालिक-प्रभू बेअंत गुणों का मालिक है बेअंत है। मैं उससे सदके जाता हूँ, सदा बलिहार जाता हूँ।17।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh