श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 919 जिउ तू चलाइहि तिव चलह सुआमी होरु किआ जाणा गुण तेरे ॥ जिव तू चलाइहि तिवै चलह जिना मारगि पावहे ॥ करि किरपा जिन नामि लाइहि सि हरि हरि सदा धिआवहे ॥ जिस नो कथा सुणाइहि आपणी सि गुरदुआरै सुखु पावहे ॥ कहै नानकु सचे साहिब जिउ भावै तिवै चलावहे ॥१५॥ {पन्ना 919} पद्अर्थ: चलह = हम जीव चलते हैं। होरु = और भेद। किआ जाणा = मैं नहीं जानता। मारगि = (आनंद के) रास्ते पर। पावहे = तू पाता है। लाइहि = तू लगाता है। सि = वे लोग। धिआवे = ध्याते हैं। सुखु = आत्मिक आनंद। तिवै = उसी तरह, वैसे ही। अर्थ: हे मालिक प्रभू! जैसे तू (हम जीवों को जीवन-मार्ग पर) चलाता है, वैसे ही हम चलते हैं (बस! मुझे इतनी ही समझ पड़ी है), तेरे गुणों का और भेद मैं नहीं जानता। (मैंने यही समझा है कि) जिस राह पर तू हमें चलाना चाहता है, उसी राह पर हम चलते हैं। जिन लोगों को (आत्मिक आनंद भोगने के) रास्ते पर चलाता है, जिन पर मेहर करके अपने नाम में जोड़ता है, वह लोग सदा हरी-नाम सिमरते हैं। जिस जिस मनुष्य को तू अपनी सिफत-सालाह की बाणी सुनाता है (सुनने की ओर प्रेरित करता है), वे लोग गुरू के दर पर (पहुँच के) आत्मिक आनंद भोगते हैं। नानक कहता है- हे सदा-स्थिर रहने वाले मालिक! जैसे तुझे अच्छा लगता है, उसी तरह तू (हम जीवों को) जीवन-राह पर चलाता है।15। भाव: आत्मिक आनंद की दाति निरोल परमात्मा के अपने हाथ में है। जिस मनुष्य को मेहर करके परमात्मा अपने नाम-सिमरन की ओर प्रेरित करता है, वह मनुष्य गुरू के दर पर पहुँच के सिमरन की बरकति से आत्मिक आनंद पाता है। एहु सोहिला सबदु सुहावा ॥ सबदो सुहावा सदा सोहिला सतिगुरू सुणाइआ ॥ एहु तिन कै मंनि वसिआ जिन धुरहु लिखिआ आइआ ॥ इकि फिरहि घनेरे करहि गला गली किनै न पाइआ ॥ कहै नानकु सबदु सोहिला सतिगुरू सुणाइआ ॥१६॥ {पन्ना 919} पद्अर्थ: सोहिला = खुशी के गीत, आनंद देने वाला गीत। सुहावा = सुंदर। ऐहु = ये सोहिला। मंनि = मन में (यहाँ 'मन' पर 'ं' मात्रा सिर्फ काव्य छंदाबंदी की मात्रा के लिए ही है)। इकि = कई जीव। गली = सिर्फ बातें करने से। अर्थ: (सतिगुरू का) ये सोहाना शबद (आत्मिक) आनंद देने वाला गीत है, (यकीन जानो कि) सतिगुरू ने सुंदर शबद सुनाया है वह सदा आत्मिक आनंद देने वाला है। पर ये गुरू-शबद उनके मन में बसता है जिनके माथे पर धुर से लिखे लेख उघड़ते हैं। बहुत सारे अनेकों ऐसे लोग घूम रहे हैं (जिनके मन में गुरू-शबद तो नहीं बसा, पर ज्ञान की) बातें करते हैं। सिर्फ बातें करने से आत्मिक आनंद किसी को नहीं मिला। नानक कहता है- सतिगुरू का सुनाया हुआ शबद ही आत्मिक आनंद-दाता है।16। भाव: सतिगुरू की बाणी ही आत्मिक आनंद प्राप्त करने का एक मात्र तरीका है। पर गुरबाणी उनके ही हृदय में बसती है जिनके भाग्यों में धुर से ये लेख लिखा होता है। पवितु होए से जना जिनी हरि धिआइआ ॥ हरि धिआइआ पवितु होए गुरमुखि जिनी धिआइआ ॥ पवितु माता पिता कुट्मब सहित सिउ पवितु संगति सबाईआ ॥ कहदे पवितु सुणदे पवितु से पवितु जिनी मंनि वसाइआ ॥ कहै नानकु से पवितु जिनी गुरमुखि हरि हरि धिआइआ ॥१७॥ {पन्ना 919} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। सहित सिउ = समेत। कुट्रब = परिवार। सबाईआ = सारी ही। मंनि = मन में। अर्थ: (गुरू के शबद के सदका) जिन लोगों ने परमात्मा का नाम सिमरा (उनके अंदर ऐसा आनंद पैदा हुआ कि माया वाले रसों के प्रति उनमें आकर्षण ही ना रहा, और) वे लोग पवित्र जीवन वाले बन गए। गुरू की शरण पड़ कर जिन-जिन ने हरी का नाम सिमरा वे शुद्ध आचरण वाले हो गए! (उनकी लाग से) उनके माता-पिता-परिवार के जीव पवित्र जीवन वाले बने, जिस जिस ने उनकी संगति की वह सारे पवित्र हो गए। हरी-नाम (एक ऐसा आनंद का श्रोत है कि इस को) जपने वाले भी पवित्र और सुनने वाले भी पवित्र हो जाते हैं, जो इसको मन में बसाते हैं वे भी पवित्र हो जाते हैं। नानक कहता है- जिन लोगों ने गुरू की शरण पड़ कर हरी-नाम सिमरा है वे शुद्ध-आचरण वाले हो गए हैं।17। भाव: गुरू की शरण पड़ कर जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरते हैं, उनके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है, इसकी बरकति से माया के होछे रस उनको आकर्षित नहीं कर सकते। उनका जीवन ऊँचा हो जाता है, और अनकी संगति से औरों का आचरण भी पवित्र हो जाता है। करमी सहजु न ऊपजै विणु सहजै सहसा न जाइ ॥ नह जाइ सहसा कितै संजमि रहे करम कमाए ॥ सहसै जीउ मलीणु है कितु संजमि धोता जाए ॥ मंनु धोवहु सबदि लागहु हरि सिउ रहहु चितु लाइ ॥ कहै नानकु गुर परसादी सहजु उपजै इहु सहसा इव जाइ ॥१८॥ {पन्ना 919} पद्अर्थ: करमी = (बाहर से धार्मिक लगने वाले) कामों से, कर्म काण्डों से। सहजु = अडोलता, आत्मिक आनंद। सहसा = (माया के मोह से पैदा हुए) चिंता सहम। कितै संजमि = किसी जुगती से। रहे = थक गए। मलीणु = मैला। कितु = किस से? कितु संजमि = किस तरीके से। मंनु = मन। इव = इस तरह। अर्थ: माया के मोह में फंसे रहने से मन में तौख़ला-सहम बना रहता है, (यह) तौखला-सहम आत्मिक आनंद के बिना दूर नहीं होता, (और,) आत्मिक आनंद बाहर से धार्मिक प्रतीत होते कर्म करने से पैदा नहीं हो सकता। अनेकों लोग (ऐसे) कर्म कर-कर के हार गए हैं, पर मन का तौख़ला-सहम ऐसे किसी तरीके से नहीं जाता। (जब तक) मन सहम में (है तब तक) मैला रहता है, मन की यह मैल किसी (बाहरी) जुगति से नहीं धुलती। (हे भाई!) गुरू के शबद में जुड़ो, परमात्मा के चरणों में सदा चिक्त जोड़े रखो, (अगर) मन (धोना है तो इस तरह) धोवो। नानक कहता है- गुरू की कृपा से ही (मनुष्य के अंदर) आत्मिक आनंद पैदा होता है, और इस तरह मन का तौख़ला-सहम दूर हो जाता है।18। भाव: माया के मोह में फंसे रहने से मन में डर-सहम बना रहता है। इस डर-सहम का इलाज है आत्मिक आनंद, और, आत्मिक आनंद प्राप्त होता है गुरू की कृपा से। सो, गुरू के शबद में सुरति जोड़े रखो, और परमात्मा की याद में सदा जुड़े रहो। जीअहु मैले बाहरहु निरमल ॥ बाहरहु निरमल जीअहु त मैले तिनी जनमु जूऐ हारिआ ॥ एह तिसना वडा रोगु लगा मरणु मनहु विसारिआ ॥ वेदा महि नामु उतमु सो सुणहि नाही फिरहि जिउ बेतालिआ ॥ कहै नानकु जिन सचु तजिआ कूड़े लागे तिनी जनमु जूऐ हारिआ ॥१९॥ {पन्ना 919} पद्अर्थ: जीअहु = जिंद से, मन में से। तिनी = उन लोगों ने। मरणु = मौत। बेताले = भूतने, ताल से टूटे हुए। जिन = जिन्होंने। अर्थ: (सिर्फ बाहर से धार्मिक दिखते कर्म करने वाले लोग) मन में (विकारों से) मैले रहते हैं और सिर्फ देखने में ही पवित्र लगते हैं। पर, जो बाहर से पवित्र दिखें, वैसे मन में विकार हों, उन्होंने अपना जीवन यूँ व्यर्थ गवा लिया समझो जैसे कोई जुआरी जूए में धन हार के आता है। (उनको अंदर-अंदर से) माया की तृष्णा का भारी रोग खाए जाता है, (माया के लालच में) मौत को उन्होंने भुलाया होता है। (लोगों की नजरों में धार्मिक दिखने के लिए वे बाहर से धार्मिक दिखाई देते कर्मों की महिमा बताने के लिए वेद आदि धार्मिक-पुस्तकों में से हवाले देते हैं, पर) वेद आदिक धर्म-पुस्तकोंमें जो प्रभू का नाम जपने का उक्तम उपदेश है उस तरफ वे ध्यान नहीं करते, और भूतों की तरह ही जगत में विचरते रहते हैं (जीवन-ताल से विछुड़े रहते हैं)। नानक कहता है- जिन्होंने परमात्मा का नाम (-सिमरन) छोड़ा हुआ है, और जो माया के मोह में फसे हुए हैं, उन्होंने अपनी जीवन-खेल जूए में हार ली समझो। भाव: सिर्फ बाहर से दिखाई देते धार्मिक कर्म करने से मन की विकारों की मैल टिकी रहती है, मन को माया के मोह का रोग चिपका रहता है। जहाँ रोग है वहाँ आनंद कहाँ? सो, सदा हरी-नाम सिमरते रहो। यही है मन की अरोग्यता का वसीला, और आत्मिक आनंद देने वाला। जीअहु निरमल बाहरहु निरमल ॥ बाहरहु त निरमल जीअहु निरमल सतिगुर ते करणी कमाणी ॥ कूड़ की सोइ पहुचै नाही मनसा सचि समाणी ॥ जनमु रतनु जिनी खटिआ भले से वणजारे ॥ कहै नानकु जिन मंनु निरमलु सदा रहहि गुर नाले ॥२०॥ {पन्ना 919} पद्अर्थ: सतिगुर ते = गुरू से (मिली हुई), जिसका उपदेश गुरू से मिला है। करणी = आचरण, करने योग्य काम। कमाणी = कमाई है। कूड़ = माया का मोह। सोइ = खबर। मनसा = मन का फुरना, मन में माया के मोह का विचार। सचि = प्रभू के सिमरन में। वणजारे = (जगत में भगती का) व्यापार करने आए लोग। मंनु = मन। अर्थ: जो लोग (आचरण-निर्माण की) वह कमाई करते हैं जिसकी हिदायत गुरू से मिलती है, वे मन से भी पवित्र होते हैं, और बाहर से भी पवित्र होते हैं (भाव, उनका जगत से व्यवहार भी सत्य पर आधारित सुचॅजा होता है), वे बाहर से भी पवित्र और अंदर से भी स्वच्छ रहते हैं। उनके मन का मायावी विचार सिमरन में समाप्त हो जाता है, (उनके अंदर इतना आत्मिक आनंद बनता है कि) माया के मोह की खबर तक उनके मन तक नहीं पहुँचती। (जीव जगत में आत्मिक आनंद का व्यापार करने आए हैं) वही जीव-व्यापारी बढ़िया कहे जाते हैं जिन्होंने (गुरू के बताए हुए राह पर चल कर नाम-कमाई करके) श्रेष्ठ मानस जन्म को सफल कर लिया। नानक कहता है- जिन लोगों का मन पवित्र हो जाता है (जिनके अंदर आत्मिक आनंद बन जाता है) वह (अंतरात्मे) सदा गुरू के चरणों में रहते हैं।20। भाव: मनुष्य जगत में आत्मिक आनंद का व्यापार करने आता है जो मनुष्य गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलता है, माया का मोह उसके नजदीक नहीं फटकता। उसका मन विकारों से बचा रहता है, बाहर दुनिया से भी उसका व्यवहार साफ-सुथरा सुचॅजा होता है। उसकी जिंदगी कामयाब समझो। जे को सिखु गुरू सेती सनमुखु होवै ॥ होवै त सनमुखु सिखु कोई जीअहु रहै गुर नाले ॥ गुर के चरन हिरदै धिआए अंतर आतमै समाले ॥ आपु छडि सदा रहै परणै गुर बिनु अवरु न जाणै कोए ॥ कहै नानकु सुणहु संतहु सो सिखु सनमुखु होए ॥२१॥ {पन्ना 919-920} पद्अर्थ: सेती = साथ। सनमुख = सामने मुँह रखने वाला, सुर्खरू। होवै = होना चाहे। जीअहु = दिल से। गुर नाले = गुरू के चरणों में। समाले = याद रखे, टिकाए रखे। आपु = स्वै भाव। परणै = आसरे। अर्थ: जो कोई सिख गुरू के सामने सुर्खरू होना चाहता है, जो सिख ये चाहता है कि किसी छुपे हुए खोट के कारण उसको गुरू के सामने आँखें ना झुकानी पड़ें (तो रास्ता एक ही है कि) वह सच्चे दिल से गुरू के चरणों में टिके। सिख गुरू के चरणों को अपने हृदय में जगह दे, अपनी अंत आत्मा के अंदर संभाल के रखे, स्वै भाव छोड़ के सदा गुरू के आसरे, गुरू के बिना किसी और को (अपने आत्मिक जीवन का, आत्मिक आनंद की वसीला) ना समझे। नानक कहता है- हे संत जनो! सुनो, वह सिख (ही) खुश रह सकता है (उसके अंदर ही आत्मिक आनंद हो सकता है)।21। भाव: वह मनुष्य खुश रह सकता है, वही मनुष्य सदा आत्मिक आनंद भोग सकता है, जो सच्चे दिल से गुरू के चरणों में टिका रहता है जो स्वै भाव छोड़ के गुरू को ही अपना आसरा बनाए रखता है। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |