श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जे को गुर ते वेमुखु होवै बिनु सतिगुर मुकति न पावै ॥ पावै मुकति न होर थै कोई पुछहु बिबेकीआ जाए ॥ अनेक जूनी भरमि आवै विणु सतिगुर मुकति न पाए ॥ फिरि मुकति पाए लागि चरणी सतिगुरू सबदु सुणाए ॥ कहै नानकु वीचारि देखहु विणु सतिगुर मुकति न पाए ॥२२॥ {पन्ना 920}

पद्अर्थ: वेमुख = जिसने मुँह दूसरी तरफ किया हुआ है। मुकति = विकारों से खलासी, माया के प्रभाव से मुक्ति। होरथै = किसी और जगह से। बिबेकी = परख वाला आदमी, विचारवान। जाऐ = जा के। भरमि आवै = भटक के आता है।

अर्थ: (जहाँ माया के मोह के कारण सहम है वहाँ आत्मिक आनंद नहीं फल-फूल सकता, पर) यदि कोई मनुष्य गुरू की और से मुँह मोड़ ले (उसको आत्मिक आनंद नसीब नहीं हो सकता क्योंकि) गुरू के बिना माया के प्रभाव से निजात नहीं मिलती। बेशक, किन्हीं विचारवानों से जा के पूछ लो (और तसल्ली कर लो, ये बात पक्की है कि गुरू के बिना) किसी भी और जगह से मायावी बँधनों से खलासी नहीं मिलती। (माया के मोह में फंसा हुआ मनुष्य) अनेकों जूनियों में से भटकता आता है, गुरू की शरण पड़े बिना इस मोह से निजात नहीं मिलती। आखिर, गुरू के चरण लग के ही माया के मोह से छुटकारा मिलता है। क्योंकि गुरू (सही जीवन-मार्ग का) उपदेश सुनाता है।

नानक कहता है-विचार के देख लो, गुरू के बिना माया के बँधनों से आजादी नहीं मिलती, (और इस मुक्ति के बिना आत्मिक आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती)।22।

भाव: माया का मोह और आत्मिक आनंद - ये दोनों एक ही हृदय में इकट्ठे नहीं टिक सकते। और, माया के मोह से जान तभी छूटती है जब मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है। गुरू मनुष्य को जीवन का सही रास्ता बताता है।

आवहु सिख सतिगुरू के पिआरिहो गावहु सची बाणी ॥ बाणी त गावहु गुरू केरी बाणीआ सिरि बाणी ॥ जिन कउ नदरि करमु होवै हिरदै तिना समाणी ॥ पीवहु अम्रितु सदा रहहु हरि रंगि जपिहु सारिगपाणी ॥ कहै नानकु सदा गावहु एह सची बाणी ॥२३॥ {पन्ना 920}

पद्अर्थ: सची बाणी = परमात्मा की सिफतसालाह वाली बाणी, सदा स्थिर रहने वाले प्रभू में जोड़ने वाली बाणी। सिर = सिरपर, सबसे श्रेष्ठ। नदरि = मेहर की नजर। करमु = बख्शिश। हरि रंगि = हरी के प्यार में। सारगि पाणी = धर्नुधारी प्रभू। केरी = की। अंम्रित = आत्मिक आनंद देने वाला नाम जल।

अर्थ: हे सतिगुरू के प्यारे सिखो! आओ, सदा स्थिर परमात्मा में जोड़ने वाली बाणी (मिल के) गाओ। अपने गुरू की बाणी गाओ, ये बाणी और सब बाणियों से सर्वोपरि है (शिरोमणि है)। ये बाणी उन मनुष्यों के हृदय में ही टिकती है जिन पर परमात्मा की मेहर की नजर हो, बख्शिश हो।

(हे प्यारे गुरसिखो!) परमात्मा का नाम सिमरो, परमात्मा के प्यार में सदा जुड़े रहो, ये (आनंद देने वाला, आत्मिक हिलैरे देने वाला) नाम-जल पीयो।

नानक कहता है- (हे गुरसिखो!) परमात्मा की सिफत-सालाह वाली ये बाणी सदा गाओ (इसी में आत्मिक आनंद है)।23।

भाव: जिन मनुष्यों पर परमात्मा की मेहर की निगाह होती है, वे परमात्मा की सिफतसालाह वाली गुरबाणी अपने हृदय में बसाए रखते हैं। गुरबाणी के द्वारा वे आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल सदा पीते रहते हैं।

सतिगुरू बिना होर कची है बाणी ॥ बाणी त कची सतिगुरू बाझहु होर कची बाणी ॥ कहदे कचे सुणदे कचे कचीं आखि वखाणी ॥ हरि हरि नित करहि रसना कहिआ कछू न जाणी ॥ चितु जिन का हिरि लइआ माइआ बोलनि पए रवाणी ॥ कहै नानकु सतिगुरू बाझहु होर कची बाणी ॥२४॥ {पन्ना 920}

पद्अर्थ: सतिगुरू बिना = गुरू आशय के उलट। कची = हलके मेल वाली, मन को छोटा करने वाली, उच्च आत्मिक आनंद को नीचे लाने वाली। कचे = वे लोग जिनका मन कमजोर है, जो माया के प्रभाव के सामने थिड़क सकते हैं। सुणदे कचे = सुनने वालों के मन भी थिड़क जाते हैं (डोल जाते हैं)। कहिआ = जो कुछ मुँह से कहते हैं। हिरि लइआ = चुरा लिया। रवाणी = जबानी जबानी, ऊपर ऊपर से। कचीं = कच्चों ने, कमजोर मन वालों ने।

अर्थ: गुरू आशय के उलट बाणी (माया) की झलक के सामने थिड़का देने वाली होती है। ये बात पक्की है कि गुरू आशै के उलट जाने वाली बाणी को सुनने वालों के मन कमजोर हो जाते हैं, और जो ऐसी बाणी पढ़-पढ़ के व्याख्या करते हैं, वे भी कमजोर मन के हो जाते हैं।

यदि वे लोग जीभ से हरी-नाम भी बोलें तो भी जो कुछ वे बोलते हैं उससे उनकी गहरी समीपता (सांझ गुरू से परमेश्वर से) नहीं पड़ती, क्योंकि उनके मन को माया ने मोह रखा है, वे जो कुछ बोलते हैं ऊपर ऊपर से ही बोलते हैं।

नानक कहता है- गुरू आशै के उलट बाणी मनुष्य के मन को आत्मिक आनंद के ठिकाने से नीचे गिराती है।24।

भाव: गुरू आशय से उलट जाने वाली बाणी, परमात्मा की सिफत-सालाह से सूनी बाणी मन को कमजोर करती है, माया की झलक के सामने डावाँडोल कर देती है। ऐसी बाणी नित्य पढ़ने-सुनने वालों के मन माया के प्रभाव के समक्ष कमजोर पड़ जाते हैं। ऐसे कमजोर हो चुके मन में आत्मिक आनंद का स्वाद नहीं बन सकता। वह मन तो माया के मोह में फसा होता है।

गुर का सबदु रतंनु है हीरे जितु जड़ाउ ॥ सबदु रतनु जितु मंनु लागा एहु होआ समाउ ॥ सबद सेती मनु मिलिआ सचै लाइआ भाउ ॥ आपे हीरा रतनु आपे जिस नो देइ बुझाइ ॥ कहै नानकु सबदु रतनु है हीरा जितु जड़ाउ ॥२५॥ {पन्ना 920}

पद्अर्थ: रतंनु = रतन, अमोलक दाति। जितु = जिस (शबद) में। हीरे = परमात्मा के गुण। जड़ाउ = जड़े हुए। मंनु = मन। ऐहु समाउ = ऐसी लीनता। सचै = सदा स्थिर प्रभू में। भाउ = प्यार। बुझाइ देइ = सूझ देता है। हीरा = परमात्मा का नाम। आपे = स्वयं ही।

अर्थ: सतिगुरू का शबद एक ऐसी अमूल्य दाति है जिसमें परमात्मा की महिमाएं भरी हुई हैं। शबद, मानो, (ऐसा) रतन है, कि उसके द्वारा (मनुष्य का) मन (परमात्मा की याद में) टिक जाता है (परमात्मा में) एक आश्चर्यजनक लीनता बनी रहती है।

अगर शबद में (मनुष्य का) मन जुड़ जाए, तो (इसकी बरकति से) सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू में (उसका) प्रेम बन जाता है। (उसके अंदर परमात्मा का) हीरा-नाम ही टिका रहता है, (परमात्मा की सिफतसालाह का) रतन-शबद ही टिका रहता है। (पर ये दाति उसको ही मिलती है) जिसको (प्रभू आप ये) सूझ बख्शता है।

नानक कहता है- गुरू का शबद, मानो, एक रतन है जिसमें प्रभू का नाम-रूप हीरा जड़ा हुआ है।25।

भाव: सतिगुरू की बाणी परमात्मा की ओर से एक अमूल्य दाति है, इसमें परमात्मा की सिफतसालाह भरी हुई है। जो मनुष्य इस बाणी से अपना मन जोड़ता है उसके अंदर परमात्मा का प्यार बन जाता है, और, जहाँ प्रभू-प्रेम है वहाँ ही आत्मिक आनंद है।

सिव सकति आपि उपाइ कै करता आपे हुकमु वरताए ॥ हुकमु वरताए आपि वेखै गुरमुखि किसै बुझाए ॥ तोड़े बंधन होवै मुकतु सबदु मंनि वसाए ॥ गुरमुखि जिस नो आपि करे सु होवै एकस सिउ लिव लाए ॥ कहै नानकु आपि करता आपे हुकमु बुझाए ॥२६॥ {पन्ना 920}

पद्अर्थ: सिव = (शिव) चेतन सक्ता, जीवात्मा। सकति = (शक्ति) माया। आपे = स्वयं ही। हुकमु = (ये) हुकम (कि जीवों पर) माया का प्रभाव बना रहे। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। किसै = किसी (विरले) को। बुझाऐ = सूझ देता है। मुकतु = माया के प्रभाव से आजाद स्वतंत्र। मंनि = मन में। गुरमुखि = गुरू के राह पर चलने वाला।

अर्थ: जीवात्मा और माया पैदा करके परमात्मा स्वयं ही (ये) हुकम लागू करवाता है कि (माया का जोर जीवों पर पड़ा रहे) प्रभू सवयं ही ये हुकम बनाए रखता है, स्वयं ही ये खेल (-तमाशा) देखता है (कि किस तरह जीव माया के हाथों पर नाच रहे हैं), किसी-किसी विरले को गुरू के द्वारा (इस खेल की) सूझ देता है। (जिसको समझ बख्शता है उसके) माया (के मोह) के बँधन तोड़ देता है, वह सख्श माया के बँधनों से स्वतंत्र हो जाता है (क्योंकि) गुरू का शबद अपने मन में बसा लेता है। गुरू के बताए हुए मार्ग पर चलने योग्य वही मनुष्य होता है जिसको प्रभू ये समर्थता देता है, वह मनुष्य एक परमात्मा के चरणों में सुरति जोड़ता है (उसके अंदर आत्मिक आनंद बनता है, और वह माया के मोह में से निकलता है)।

नानक कहता है- परमात्मा खुद ही (जीवात्मा और माया की) रचना करता है और खुद ही (किसी विरले को यह) सूझ बख्शता है (कि माया का प्रभाव भी उसका अपना ही) हुकम (जगत में बरत रहा) है।26।

भाव: परमात्मा की रजा के अनुसार जीव माया के हाथों पर नाच रहे हें। जिस किसी को गुरू के बताए हुए राह पर चलने के काबिल बनाता है, वह मनुष्य माया के बँधनों से स्वतंत्र हो जाता है, उसकी सुरति परमात्मा के चरणों में जुड़ी रहती है, उसके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है।

सिम्रिति सासत्र पुंन पाप बीचारदे ततै सार न जाणी ॥ ततै सार न जाणी गुरू बाझहु ततै सार न जाणी ॥ तिही गुणी संसारु भ्रमि सुता सुतिआ रैणि विहाणी ॥ गुर किरपा ते से जन जागे जिना हरि मनि वसिआ बोलहि अम्रित बाणी ॥ कहै नानकु सो ततु पाए जिस नो अनदिनु हरि लिव लागै जागत रैणि विहाणी ॥२७॥ {पन्ना 920}

पद्अर्थ: ततै सार = तत्व की सूझ, अस्लियत की समझ, जो असल ग्रहण योग्य वस्तु है उसकी समझ, आत्मिक आनंद की समझ। तिही गुणी = माया के तीन स्वभावों में। भ्रमि = भटक भटक के। रैणि = उम्र, रात। से = वह लोग। मनि = मन में। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली बाणी। जगत = विकारों की तरफ से सचेत रहते हुए।

अर्थ: स्मृतियाँ व शास्त्र आदि पढ़ने वाले पण्डित सिर्फ यही विचारें करते हैं कि (इन पुस्तकों के अनुसार) पाप क्या है और पुन्य क्या है, उनको आत्मिक आनंद का रस नहीं आ सकता। (ये बात यकीनी जानिए कि) सतिगुरू की शरण आए बिना आत्मिक आनंद का रस नहीं आ सकता, जगत तीन गुणों में ही भटक-भटक के गाफिल हुआ पड़ा है, माया के मोह में सोए हुए की ही सारी उम्र गुजर जाती है (स्मृतियों-शास्त्रों की विचारें इस नींद में से जगा नहीं सकतीं)।

(मोह की नींद में से) गुरू की कृपा से (सिर्फ) वे मनुष्य जागते हैं जिनके अंदर परमात्मा का नाम बसता है जो परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी उचारते हैं।

नानक कहता है- वही मनुष्य आत्मिक आनंद भोगता है जो हर वक्त प्रभू की याद की लगन में टिका रहता है, और जिसकी उम्र (इस तरह मोह की नींद में से) जागते हुए बीतती है।27।

भाव: कर्म-काण्ड के अनुसार कौन सा पुन्य कर्म है और कौन सा पाप कर्म - सिर्फ ये विचार मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद पैदा नहीं कर सकती। गुरू की कृपा से जो मनुष्य सदा हरी-नाम सिमरता है सिफत सालाह की बाणी उचारता है, वह विकारों की ओर से सचेत रहता है, और, आत्मिक आनंद पाता है।

माता के उदर महि प्रतिपाल करे सो किउ मनहु विसारीऐ ॥ मनहु किउ विसारीऐ एवडु दाता जि अगनि महि आहारु पहुचावए ॥ ओस नो किहु पोहि न सकी जिस नउ आपणी लिव लावए ॥ आपणी लिव आपे लाए गुरमुखि सदा समालीऐ ॥ कहै नानकु एवडु दाता सो किउ मनहु विसारीऐ ॥२८॥ {पन्ना 920-921}

पद्अर्थ: उदर = पेट। मनहु = मन से। किउ विसारीअै = बिसारना नहीं चाहिए। ऐवडु = इतना बड़ा। अगनि = आग। आहारु = खुराक। ओस ने = उस व्यक्ति ने। किहु = कुछ। लिव = प्रीत। गुरमुखि = गुरू से। समालीअै = सिमरना चाहिए, हृदय में बसाना चाहिए।

अर्थ: (अगर आत्मिक आनंद प्राप्त करना है तो) उस परमात्मा को कभी भुलाना नहीं चाहिए, जो माँ के पेट में (भी) पालना करता है, इतने बड़े दाते को मन से भुलाना नहीं चाहिए जो (माँ के पेट की) आग में (भी) खुराक पहुँचाता है।

(ये मोह ही है जो आनंद से तोड़ के रखता है, पर) उस व्यक्ति को (मोह आदिक) कुछ भी छू नहीं सकता जिसको प्रभू अपने चरणों की प्रीति बख्शता है। ( पर, जीव के भी क्या वश?) प्रभू स्वयं ही अपनी प्रीति की दाति बख्शता है। (हे भाई!) गुरू की शरण पड़ कर उसको सिमरते रहना चाहिए।

नानक कहता है- (अगर आत्मिक आनंद की आवश्यक्ता है तो) इतने बड़े दातार प्रभू को कभी भुलाना नहीं चाहिए।28।

भाव: परमात्मा जिस मनुष्य को अपने चरणों का प्यार बख्शता है, उस मनुष्य पर कोई भी विकार अपना जोर नहीं डाल सकता। गुरू की शरण पड़ कर, गुरू के बताए हुए मार्ग पर चल के सदा परमात्मा की याद अपने दिल में टिकाए रखनी चाहिए। आत्मिक आनंद की प्राप्ति का यही है तरीका।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh