श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 925 रामकली महला ५ ॥ हरि हरि धिआइ मना खिनु न विसारीऐ ॥ राम रामा राम रमा कंठि उर धारीऐ ॥ उर धारि हरि हरि पुरखु पूरनु पारब्रहमु निरंजनो ॥ भै दूरि करता पाप हरता दुसह दुख भव खंडनो ॥ जगदीस ईस गुोपाल माधो गुण गोविंद वीचारीऐ ॥ बिनवंति नानक मिलि संगि साधू दिनसु रैणि चितारीऐ ॥१॥ {पन्ना 925} पद्अर्थ: मना = हे मन! न विसारीअै = भुलाना नहीं चाहिए। रमा = सुंदर। कंठि = गले में। उर = हृदय। पुरखु = सर्व व्यापक। पूरनु = सब गुणों के मालिक। निरंजनो = निर+अंजन, (माया के मोह की) कालख से रहत, निर्लिप। भै = सारे डर ('भउ' का बहुवचन)। करता = करने वाला। हरता = नाश करने वाला। दुसह = मुश्किल से सहे जा सकने वाला। भव खंडनो = जन्मों के चक्कर नाश करने वाला। जगदीस = जगत के मालिक के। ईस = मालिक के। माधो = (मा+धव) माया का पति। वीचारीअै = विचार करना चाहिए, चिक्त में बसाना चाहिए। बिनवंति = विनती करता है। मिलि = मिल के (शब्द 'मिलि' और 'मिलु' में फर्क है)। संगि साधू = गुरू की संगति में। रैणि = रात।1। गुोपाल: अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'गोपाल', यहां 'गुपाल' पढ़ना है। अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा ही परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए, रक्ती भर समय के लिए भी उसको भुलाना नहीं चाहिए। हे भाई! उस सुंदर राम को हमेशा ही गले से हृदय में परो के रखना चाहिए। हे भाई! सब गुणों के मालिक पारब्रहम निर्लिप रही सर्व-व्यापक हरी को सदा अपने हृदय में परोए रख। वह हरी सारे डरों को दूर करने वाला है, सारे पाप नाश करने वाला है, जनम-मरण के चक्करों को खत्म करने वाला है, उन दुखों को नाश करने वाला है जो बहुत मुश्किल से बर्दाश्त किए जा सकते हैं। नानक विनती करता है- (हे भाई!) जगत के मालिक, सबके मालिक, सृष्टि के पालनहार, माया के पति प्रभू के गुणों को सदा चिक्त में बसाए रखना चाहिए; गुरू की संगति में मिल के दिन-रात उसको याद करते रहना चाहिए।1। चरन कमल आधारु जन का आसरा ॥ मालु मिलख भंडार नामु अनंत धरा ॥ नामु नरहर निधानु जिन कै रस भोग एक नराइणा ॥ रस रूप रंग अनंत बीठल सासि सासि धिआइणा ॥ किलविख हरणा नाम पुनहचरणा नामु जम की त्रास हरा ॥ बिनवंति नानक रासि जन की चरन कमलह आसरा ॥२॥ {पन्ना 925} पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। आधारु = आसरा, सहारा। जन का = भगत जनों के लिए। मिलख = भूमि की मल्कियत। भंडार = खजाने। नामु अनंत = बेअंत प्रभू का नाम। धरा = हृदय का टिकाव। नरहर नामु = परमात्मा का नाम। निधानु = खजाना। जिन कै = जिन के हृदय में। अनंत बीठल = बेअंत और निर्लिप (प्रभू) का (नाम)। बीठल = वि+स्थल, माया के प्रभाव से परे टिका रहने वाला। (ये शब्द गुरू अरजन देव जी ने बरता है। भगत नामदेव किसी मूर्ति के पुजारी नहीं थे)। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। किलविख = पाप। हरणा = दूर करने वाला। पुनह चरणा = किसी कार्य की सिद्धि के लिए दुखों-कलेशों-रोगों को दूर करने के लिए किसी देवते के सन्मुख हो के किसी मंत्र का जाप करना, प्रायश्चित कर्म। त्रास = डर। हरा = दूर करने वाला। रासि = पूँजी, सरमाया। जन की = भगत जन वास्ते।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सुंदर चरण ही भगत-जनों के वास्ते जीवन का सहारा हैं आसरा हैं। बेअंत प्रभू का नाम हृदय में टिकाना ही भक्त-जनों के लिए धन-पदार्थ है जमीन की मल्कियत है, खजाना है। हे भाई! जिनके हृदय में परमात्मा का नाम-खजाना बस रहा है, उनके लिए नारायण का नाम जपना ही दुनियां के रसों-भोगों का आनंद है। हे भाई! बेअंत और निर्लिप प्रभू का नाम हरेक सांस के साथ जपते रहना ही उनके लिए दुनिया के रूप-रस और रंग-तमाशे हैं। हे भाई! परमात्मा का नाम सारे पाप दूर करने वाला है, प्रभू का नाम ही भक्त-जनों के लिए प्रायश्चित कर्म है, नाम ही मौत का डर दूर करने वाला है। नानक विनती करता है- (हे भाई!) परमात्मा के सुंदर चरणों का आसरा ही भगत-जनों के लिए (जिंदगी का) सरमाया है।2। गुण बेअंत सुआमी तेरे कोइ न जानई ॥ देखि चलत दइआल सुणि भगत वखानई ॥ जीअ जंत सभि तुझु धिआवहि पुरखपति परमेसरा ॥ सरब जाचिक एकु दाता करुणा मै जगदीसरा ॥ साधू संतु सुजाणु सोई जिसहि प्रभ जी मानई ॥ बिनवंति नानक करहु किरपा सोइ तुझहि पछानई ॥३॥ {पन्ना 925} पद्अर्थ: सुआमी = हे मालिक प्रभू! जानई = (जानाति) जानै, जानता। देखि = देख के। चलत = चलित्र, चोज तमाशे। सुणि = सुन के। सुणि भगत = भक्तों से सुन के। वखानई = बखाने, बयान करता है (एकवचन)। सभि = सारे। तुझे = तुझे। धिआवहि = (बहुवचन) ध्याते हैं। पुरखपति = हे पुरखों के पति! हे जीवों के मालिक! सरब = सारे। जाचिक = मंगते (बहुवचन)। ऐकु = (एक वचन) तू एक। करुणामै = करुणा+मय, हे तरस स्वरूप! जगदीसरा = हे जगत के मालिक! सुजाणु = समझदार। सोई = वही। जिसहि = जिसको ('जिसु' की 'सु' की 'ु' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है)। मानई = माने, आदर मान देता है। करहु = तुम करते हो। पछानई = पहचानता है।3। अर्थ: हे मेरे स्वामी! तेरे गुण बेअंत हैं, कोई भी जीव (तेरे गुणों का अंत) नहीं जानता। (जो भी कोई मनुष्य तेरे कुछ गुणों का बयान करता है, वह) तुझ दयालु के करिश्में देख के (अथवा) भगत-जनों से सुन के (ही) बयान करता है। हे जीवों के मालिक! हे परमेश्वर! सारे जीव-जंतु तुझे ध्याते हैं। हे तरस-रूप प्रभू! हे जगत के ईश्वर! तू अकेला ही दाता है, सारे जीव (तेरे दर से) मांगते हैं। हे भाई! जिस मनुष्य को प्रभू स्वयं आदर बख्शता है वही साधू है वही सुजान संत है। नानक विनती करता है - हे प्रभू! जिस जीव पर तू कृपा करता है, वही तुझे पहचानता है (तेरे साथ गहरी सांझ डालता है)।3। मोहि निरगुण अनाथु सरणी आइआ ॥ बलि बलि बलि गुरदेव जिनि नामु द्रिड़ाइआ ॥ गुरि नामु दीआ कुसलु थीआ सरब इछा पुंनीआ ॥ जलने बुझाई सांति आई मिले चिरी विछुंनिआ ॥ आनंद हरख सहज साचे महा मंगल गुण गाइआ ॥ बिनवंति नानक नामु प्रभ का गुर पूरे ते पाइआ ॥४॥२॥ {पन्ना 925} पद्अर्थ: मोहि = मैं। निरगुण = गुण हीन। अनाथु = निआसरा। बलि = बलिहार, सदके, कुर्बान। जिनि = जिस (गुरदेव) ने। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया है। गुरि = गुरू ने। कुसलु = आनंद। सरब = सारी। इछा = मुरादें। जलने = जलन, ईष्या। चिरी = बहुत समय से, चिरों से। विछुंनिआ = बिछुड़े हुए। हरख = खुशी। ते = से।4। अर्थ: हे भाई! मैं गुण-हीन था, मैं निआसरा था (गुरू की कृपा से मैं प्रभू की) शरण आ पड़ा हूँ। (उस) गुरू से सदके जाता हूँ, लिहार जाता हूँ, कुर्बान जाता हूँ, जिसने (मेरे हृदय में प्रभू का) नाम पक्का कर दिया है। गुरू ने (जिस किसी को भी परमात्मा का) नाम दिया (उसके अंदर) आत्मिक आनंद बन गया, (उसकी) सारी मुरादें पूरी हो गई; (गुरू ने उसके अंदर से) ईष्या खत्म कर दी, (उसके अंदर) ठंड पड़ गई, वह (प्रभू से) चिरों से विछुड़ा हुआ (दोबारा) मिल गया। (हे भाई! जिसने भी गुरू की शरण पड़ कर) बड़ा आनंद पैदा करने वाले हरी-गुण गाने आरम्भ किए, उसके अंदर अटल आत्मिक अडोलता की खुशियां और आनंद बन गए। नानक विनती करता है- हे भाई! परमात्मा का (ऐसा) नाम पूरे गुरू से (ही) मिलता है।4।2। रामकली महला ५ ॥ रुण झुणो सबदु अनाहदु नित उठि गाईऐ संतन कै ॥ किलविख सभि दोख बिनासनु हरि नामु जपीऐ गुर मंतन कै ॥ हरि नामु लीजै अमिउ पीजै रैणि दिनसु अराधीऐ ॥ जोग दान अनेक किरिआ लगि चरण कमलह साधीऐ ॥ भाउ भगति दइआल मोहन दूख सगले परहरै ॥ बिनवंति नानक तरै सागरु धिआइ सुआमी नरहरै ॥१॥ {पन्ना 925} पद्अर्थ: रुणझुणो = रुण झुण, (रुण = बारीक गाने की आवाज। झुण = झांझर की झनकार की आवाज) मीठी मीठी सुर। रुणझुणो सबदु = मीठी मीठी सुर वाला शबद। अनाहदु = बिना बजाए बजने वाला, एक रस, लगातार। उठि = उठ के। गाईअै = गाया जाना चाहिए। संतन कै = संतन कै घरि, साध-संगति में। किलविख = पाप। सभि = सारे। जपीअै = जपना चाहिए। गुर मंतन कै = गुरू की बाणी के द्वारा। लीजै = लिआ जाना चाहिए। अमिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पीजै = पीना चाहिए। रैणि = रात। जोग = जोग के साधन। दान = दान पुन्य। लगि = लग के। साधीअै = साधन किया जाता है। भाउ = प्रेम। परहरै = दूर कर देता है। तरै = पार लांघ जाता है। सागरु = (संसार-) समुंदर। परहरै = परमात्मा को।1। अर्थ: हे भाई! नित्य उठ के (उद्यम करके) साध-संगति में जा के परमात्मा की सिफतसालाह की मीठी-मीठी सुर वाली बाणी एक-रस गानी चाहिए। हे भाई! परमात्मा का नाम सारे पापों और ऐबों का नाश करने वाला है, यह हरी-नाम गुरू की शिक्षा पर चल कर जपना चाहिए। हे भाई! परमात्मा का नाम जपना चाहिए, आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम-जल पीना चाहिए, दिन-रात परमात्मा की आराधना करनी चाहिए। प्रभू के सुंदर-चरणों में जुड़ के (मानो) अनेकों योग-साधनों का, अनेकों दान-पुन्यों का, अनेकों ऐसी और क्रियाओं का साधन हो जाता है। हे भाई! दया के श्रोत मोहन-प्रभू का प्यार प्रभू की भक्ति सारे दुख दूर कर देती है। नानक कहता है- हे भाई! मालिक प्रभू को सिमर के मनुष्य संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है।1। सुख सागर गोबिंद सिमरणु भगत गावहि गुण तेरे राम ॥ अनद मंगल गुर चरणी लागे पाए सूख घनेरे राम ॥ सुख निधानु मिलिआ दूख हरिआ क्रिपा करि प्रभि राखिआ ॥ हरि चरण लागा भ्रमु भउ भागा हरि नामु रसना भाखिआ ॥ हरि एकु चितवै प्रभु एकु गावै हरि एकु द्रिसटी आइआ ॥ बिनवंति नानक प्रभि करी किरपा पूरा सतिगुरु पाइआ ॥२॥ {पन्ना 925} पद्अर्थ: सुख सागर = हे सुखों के समुंद्र! गवहि = गाते हैं (बहुवचन)। अनद मंगल = अनेकों सुख और खुशियां। लागे = लग के। घनेरे = अनेकों, बहुत। सुख निधानु = सुखों के खजाने। हरिआ = दूर हो जाता है। प्रभि = प्रभू ने। भ्रमु = वहम, भटकना। रसना = जीभ (से)। भाखिआ = उचारा, जपा। चितवै = याद रखता है। द्रिसटी = नजरों में।2। अर्थ: हे सुखों के समुंद्र गोबिंद! (तेरे) भगत (तेरा) सिमरन (करते हैं), तेरे गुण गाते हैं; गुरू के चरणों में लग के उनको अनेकों आनंद खुशियां और सुख प्राप्त हो जाते हैं। (हे भाई! जिसको गुरू मिल जाता है उसको) सुखों का खजाना हरी-नाम मिल जाता है। प्रभू ने कृपा करके जिस मनुष्य की (दुख आदि से) रक्षा की, उसके सारे दुख निर्वित हो गए। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के चरणों में जुड़ गया, जिसने परमात्मा का नाम अपनी जीभ से उचारना शुरू कर दिया, उसका हरेक किस्म का भरम-वहम और डर दूर हो गया। नानक विनती करता है- हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभू ने कृपा की, उसको पूरा गुरू मिल गया, वह मनुष्य (फिर) एक परमात्मा को ही याद करता रहता है एक परमात्मा (के गुणों) को ही गाता रहता है, एक परमात्मा ही उसको हर जगह बसता नजर आता है। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |