श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Page 926 मिलि रहीऐ प्रभ साध जना मिलि हरि कीरतनु सुनीऐ राम ॥ दइआल प्रभू दामोदर माधो अंतु न पाईऐ गुनीऐ राम ॥ दइआल दुख हर सरणि दाता सगल दोख निवारणो ॥ मोह सोग विकार बिखड़े जपत नाम उधारणो ॥ सभि जीअ तेरे प्रभू मेरे करि किरपा सभ रेण थीवा ॥ बिनवंति नानक प्रभ मइआ कीजै नामु तेरा जपि जीवा ॥३॥ {पन्ना 926} पद्अर्थ: मिलि रहीअै = मिले रहना चाहिए। मिलि = मिल के। सुनीअै = सुनना चाहिए। दामोदर = (दाम = रससी। उदर = पेट। तगाड़ी) परमात्मा। माधो = (मा+धव। माया का पति) परमात्मा। गुनीअे = गुणों का। दइआल = दया का घर। दुख हर = दुखों का नाश करने वाला। सगल = सारे। दोख = पाप। निवारणो = दूर करने वाला। सोग = गम। बिखड़े = मुश्किल। उधारणो = बचाने वाला। सभि = सारे। जीअ = ('जीउ' का बहुवचन)। रेण = चरण धूड़। थीवा = मैं हो जाऊँ। प्रभ = हे प्रभू! मइआ = दया। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करूँ।3। अर्थ: हे भाई! प्रभू के भगतों की संगति में मिल के रहना चाहिए, भगत-जनों को मिल के परमात्मा का कीर्तन सुनना चाहिए। हे भाई! दया के श्रोत दामोदर माया के पति प्रभू के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। हे भाई! प्रभू दया का श्रोत है, दुखों का नाश करने वाला है, शरण-योग है, सबको दातें देने वाला है, सारे पापों का नाश करने वाला है। हे भाई! नाम जपने वालों को वह प्रभू मोह-सोग और मुश्किल विकारों से बचाने वाला है। हे मेरे प्रभू! सारे जीव तेरे (पैदा किए हुए हैं), मेहर कर, मैं सबके चरणों की धूल बना रहूँ। नानक विनती करता है- हे प्रभू! दया कर, मैं तेरा नाम जप-जप के आत्मिक जीवन हासिल करता रहूँ।3। राखि लीए प्रभि भगत जना अपणी चरणी लाए राम ॥ आठ पहर अपना प्रभु सिमरह एको नामु धिआए राम ॥ धिआइ सो प्रभु तरे भवजल रहे आवण जाणा ॥ सदा सुखु कलिआण कीरतनु प्रभ लगा मीठा भाणा ॥ सभ इछ पुंनी आस पूरी मिले सतिगुर पूरिआ ॥ बिनवंति नानक प्रभि आपि मेले फिरि नाही दूख विसूरिआ ॥४॥३॥ {पन्ना 926} पद्अर्थ: प्रभि = प्रभू ने। लाऐ = लगा के। सिमरह = आओ, हम सिमरें (वर्तमान काल, उक्तम पुरख, बहुवचन)। धिआऐ = ध्यान धर के। तरे = पार लांघ गए। भवजल = संसार समुंद्र। रहे = समाप्त हो गए। आवण जाणा = पैदा होना मरना। कलिआण = सुख आनंद। प्रभ भाणा = प्रभू की रजा। सभ इछ = हरेक मुराद। पुंनी = पूरी हो गई। मिले सतिगुर = जो मनुष्य गुरू को मिल गए। प्रभ = प्रभू ने। विसूरिआ = विसूरे, झोरे, चिंता फिक्र।4। अर्थ: (हे भाई! सदा से ही) प्रभू ने अपने चरणों में जोड़ के अपने भक्तों की रक्षा की है। सो, हे भाई! एक हरी नाम का ध्यान धर के, आओ, हम भी आठों पहर अपने प्रभू का सिमरन करते रहें। (हे भाई! अनेकों जीव) उस प्रभू का ध्यान धर के संसार-समुंद्र से पार लांघ गए, (उनके) जनम-मरण (के चक्कर) समाप्त हो गए। हे भाई! प्रभू की सिफत-सालाह करते हुए उनके अंदर सदा सुख-आनंद बना रहा, उनको प्रभू की रजा की रजा मीठी लगने लगी। नानक विनती करता है- हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरू को मिल गए, उनकी हरेक मुराद पूरी हो गई, उनकी हरेक आस पूरी हो गई। जिनको प्रभू ने स्वयं (अपने चरणों से) मिला लिया, उनको कोई दुख कोई चिंता-फिक्र फिर नहीं व्यापते।4।3। रामकली महला ५ छंत ॥ सलोकु ॥ चरन कमल सरणागती अनद मंगल गुण गाम ॥ नानक प्रभु आराधीऐ बिपति निवारण राम ॥१॥ छंतु ॥ प्रभ बिपति निवारणो तिसु बिनु अवरु न कोइ जीउ ॥ सदा सदा हरि सिमरीऐ जलि थलि महीअलि सोइ जीउ ॥ जलि थलि महीअलि पूरि रहिआ इक निमख मनहु न वीसरै ॥ गुर चरन लागे दिन सभागे सरब गुण जगदीसरै ॥ करि सेव सेवक दिनसु रैणी तिसु भावै सो होइ जीउ ॥ बलि जाइ नानकु सुखह दाते परगासु मनि तनि होइ जीउ ॥१॥ {पन्ना 926} पद्अर्थ: सलोकु। चरन कमल = (गुरू के) सुंदर चरण। सरणागती = शरण+आगती, शरण आ के। मंगल = खुशी। गुण गाम = गुण गाने। आराधीअै = आराधना चाहिए। बिपति = विपदा। निवारण = दूर करने वाला।1। छंतु। सिमरीअै = सिमरना चाहिए। जलि = जल में। थलि = थल में, धरती में। महीअलि = मही तल, धरती के तल पर, आकाश में, अंतरिक्ष में। पूरि रहिआ = व्यापक है। निमख = आँख झपकने जितना समय। मनहु = मन से। सभागे = भाग्ययशाली। जगदीसरै = जगत के ईश्वर के, जगत के मालिक के। सरब गुण = सारे गुण, सारी वडिआई, सारी मेहर। सेव सेवक = सेवकों के लिए सेवा। रैणी = रात। तिसु = उस (प्रभू) को। भावै = अच्छा लगता है। बलि जाइ = सदके जाता है। सुखह दाते = सुख देने वाले से। परगासु = (सही आत्मिक जीवन की) रौशनी। मनि = मन में। तनि = तन में।1। अर्थ: सलोकु। (हे भाई! जो मनुष्य गुरू के) सुंदर चरणों की शरण आ के (परमात्मा के) गुण गाते हैं, (उनके हृदय में सदा) आनंद-सुख बने रहते हैं। हे नानक! (कह- हे भाई!) परमात्मा की आराधना करनी चाहिए, परमात्मा हरेक विपदा दूर करने वाला है।1। छंत। (हे भाई!) परमात्मा ही (जीवों की हरेक) विपदा दूर करने वाला है, उसके बिना और कोई (ऐसी समर्था वाला) नहीं है। (हे भाई!) सदा ही सदा ही परमात्मा का सिमरन करना चाहिए, जल में, धरती में, आकाश में (हर जगह) वह परमात्मा ही मौजूद है। हे भाई! वह परमात्मा जल में धरती में अंतरिक्ष में (हर जगह) व्यापक है आँख झपकने जितने समय के लिए भी वह प्रभू हमारे मन से भूलना नहीं चाहिए। वह दिन भाग्यशाली (समझो, जब हमारा मन) गुरू के चरणों में जुड़ा रहे, (पर, ये हमारे अपने वश की बात नहीं, ये तब ही होता है जब) उस जगत के मालिक प्रभू की मेहर (हो)। हे भाई! दिन-रात सेवकों की तरह उस प्रभू की सेवा-भक्ति किया कर; जो कुछ उसको भाता है वही (जगत में) हो रहा है। नानक तो उस सुख-दाते प्रभू से सदके जाता है (उसकी मेहर से ही हमारे) मन में तन में (सही आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो सकता है।1। सलोकु ॥ हरि सिमरत मनु तनु सुखी बिनसी दुतीआ सोच ॥ नानक टेक गुोपाल की गोविंद संकट मोच ॥१॥ छंतु ॥ भै संकट काटे नाराइण दइआल जीउ ॥ हरि गुण आनंद गाए प्रभ दीना नाथ प्रतिपाल जीउ ॥ प्रतिपाल अचुत पुरखु एको तिसहि सिउ रंगु लागा ॥ कर चरन मसतकु मेलि लीने सदा अनदिनु जागा ॥ जीउ पिंडु ग्रिहु थानु तिस का तनु जोबनु धनु मालु जीउ ॥ सद सदा बलि जाइ नानकु सरब जीआ प्रतिपाल जीउ ॥२॥ {पन्ना 926} पद्अर्थ: सिमरत = सिमरते हुए। बिनसी = खत्म हो गई। दुतीआ = दूसरी, अन्य। सोच = चिंता फिक्र। टेक = आसरा। संकट = दुख कलेश। मोच = नाश करने वाला।1। गुोपाल: अक्षर 'ग' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द है 'गोपाल', यहां 'गुपाल' पढ़ना है। छंतु। भै = ('भउ' का बहुवचन) भय। दीनानाथ = कमजोरों का रक्षक। प्रतिपाल = पालनहार। अचुत = (अचॅुत। च्यु = जव सिंस, गिर जाना) कभी ना गिरने वाला, अविनाशी। सिउ = साथ। रंगु = प्रेम। कर = हाथ (बहुवचन)। मसतक = माथा। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जीउ = जिंद, जीवात्मा, प्राण। पिंडु = शरीर। ग्रिहु = घर। बलि जाइ = सदके जाता है।2। तिसहि: 'तिसु' की 'सु' की 'ु' मात्रा 'ही' क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने सारे संकट दूर करने वाले गोबिंद गोपाल का आसरा लिया, परमात्मा का नाम सिमरते हुए उसका मन सुखी हो गया उसका तन सुखी हो गया (क्योंकि प्रभू की याद के कारण उसके) अन्य सारे चिंता-फिक्र दूर हो गए।1। छंत। हे भाई! जिस मनुष्य ने दीनों के नाथ पालनहार हरी प्रभू के गुण गाने आरम्भ किए, दया के श्रोत नारायण ने उसके सारे डर और दुख-कलेश काट दिए। हे भाई! सबको पालने वाला अविनाशी सिर्फ अकाल-पुरख ही है, जिस मनुष्य का प्यार उसके साथ बन गया, जिसने अपने हाथों से अपना माथा उसके चरणों में रख दिया, प्रभू ने उसको अपने साथ जोड़ लिया, (माया के हमलों की तरफ से वह) सदा हर वक्त सचेत रहने लग पड़ा। हे भाई! (हमारी यह) जीवात्मा (हमारा ये) शरीर, घर, जगह, तन, जोबन और धन-माल सब कुछ उस परमात्मा का ही दिया हुआ है। वह प्रभू सारे जीवों को पालने वाला है। नानक उससे सदा ही सदके जाता है।2। सलोकु ॥ रसना उचरै हरि हरे गुण गोविंद वखिआन ॥ नानक पकड़ी टेक एक परमेसरु रखै निदान ॥१॥ छंतु ॥ सो सुआमी प्रभु रखको अंचलि ता कै लागु जीउ ॥ भजु साधू संगि दइआल देव मन की मति तिआगु जीउ ॥ इक ओट कीजै जीउ दीजै आस इक धरणीधरै ॥ साधसंगे हरि नाम रंगे संसारु सागरु सभु तरै ॥ जनम मरण बिकार छूटे फिरि न लागै दागु जीउ ॥ बलि जाइ नानकु पुरख पूरन थिरु जा का सोहागु जीउ ॥३॥ {पन्ना 926-927} पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। उचरै = उचारता है। टेक = आसरा। रखै = रक्षा करता है। निदान = अंत को। छंतु। सुआमी = मालिक। रखको = रक्षक। ता कै अंचलि = उसके पल्ले से। जीउ = हे जी! हे भाई! भजु = भजन कर। साधू संगि = गुरू की संगति में। मति = समझदारी। जीउ = जिंद, अपना स्वयं। धरणी धरै = धरती के आसरे प्रभू की। संगे = संगि। रंगे = रंगि। सभु = सारा। तरै = पार लांघ जाता है। छूटै = समाप्त हो गए। थिरु = सदा के लिए कायम। सोहागु = पति वाला सहारा।3। अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य अपनी जीभ से परमात्मा का नाम उचारता रहता है, गोबिंद के गुण बयान करता रहता है, सदा एक परमेश्वर का आसरा लिए रखता है, परमात्मा आखिर उसकी रक्षा करता है।1। छंतु। हे भाई! वही मालिक प्रभू जी (हम जीवों का) रखवाला है, सदा उसके लड़ लगा रह। अपने मन की समझदारी छोड़ दे, गुरू की संगति में टिक के उस दया-के-घर प्रभू का भजन किया कर। हे भाई! सिर्फ एक परमात्मा का आसरा लेना चाहिए, अपना आप उसके हवाले कर देना चाहिए, सारी सृष्टि के आसरे उस प्रभू की ही आस रखनी चाहिए। जो मनुष्य गुरू की संगत में रह के परमात्मा के नाम के प्यार में टिका रहता है, वह मनुष्य संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है। उस मनुष्य के जनम-मरण के चक्कर, उसके पिछले किए हुए सारे कुकर्म खत्म हो जाते हैं, दोबारा कभी उसको विकारों का दाग नहीं लगता। हे भाई! जिस परमात्मा का पति वाला सहारा सदा (जीवों के सिर पर) कायम रहता है, नानक उस सर्व-गुण-भरपूर सर्व-व्यापक प्रभू से बलिहार जाता है।3। |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |