श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु ॥ धरम अरथ अरु काम मोख मुकति पदारथ नाथ ॥ सगल मनोरथ पूरिआ नानक लिखिआ माथ ॥१॥ छंतु ॥ सगल इछ मेरी पुंनीआ मिलिआ निरंजन राइ जीउ ॥ अनदु भइआ वडभागीहो ग्रिहि प्रगटे प्रभ आइ जीउ ॥ ग्रिहि लाल आए पुरबि कमाए ता की उपमा किआ गणा ॥ बेअंत पूरन सुख सहज दाता कवन रसना गुण भणा ॥ आपे मिलाए गहि कंठि लाए तिसु बिना नही जाइ जीउ ॥ बलि जाइ नानकु सदा करते सभ महि रहिआ समाइ जीउ ॥४॥४॥ {पन्ना 927}

पद्अर्थ: अरु = और। सगल = सारे। मनोरथ = मन की मुरादें। माथ = माथे पर।1।

छंतु। इछ = मुरादें। पुंनीआ = पूरी हो गई। निरंजन = निर+अंजन, निर्लिप। राइ = पातिशाह। ग्रिहि = (जिसके) हृदय घर में। आइ = आ के। पुरबि कमाऐ = पूर्बले जनम में जिसने अच्छे कर्म किए। ता की = उस (परमात्मा) की। उपमा = वडिआई। गणा = मैं बताऊँ। सहज = आत्मिक अडोलता। रसना = जीभ से। कवन गुण = कौन कौन से गुण? भणा = मैं उचारूँ।

आपे = खुद ही। गहि = पकड़ के। कंठि = गले से। जाइ = जगह। करते = करतार से।

अर्थ: हे भाई! निर्लिप प्रभू पातशाह (जब से) मुझे मिला है, मेरी सारी मुरादें पूरी हो गई हैं।

हे अति भाग्यशाली सज्जनो! जिस मनुष्य के हृदय-गृह में प्रभू जी आ बसते हैं, उसके अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है। पर, हे भाई! उसी के हृदय-गृह में सोहाना पातशाह आ के बसता है जिसने पूर्बले जनम में नेक कर्म कमाए होते हैं। मैं उस प्रभू की कोई उपमा कहने योग्य नहीं हूँ। वह बेअंत है, सारे गुणों से भरपूर है, आत्मिक अडोलता के आनंद बख्शने वाला है। मैं अपनी जीभ से उसके कौन-कौन से गुण बयान करूँ?

हे भाई! वह स्वयं ही (किसी भाग्यशाली को अपने चरणों में) जोड़ता है, उसको पकड़ के अपने गले से लगाता है। हे भाई! उस प्रभू के बिना कोई और (मेरा) सहारा नहीं। नानक सदा उस करतार से बलिहार जाता है, वह सब जीवों में व्यापक है।4।4।

रागु रामकली महला ५ ॥ रण झुंझनड़ा गाउ सखी हरि एकु धिआवहु ॥ सतिगुरु तुम सेवि सखी मनि चिंदिअड़ा फलु पावहु ॥ {पन्ना 927}

नोट: करतार साहिब वाली बीड़ में और छपी हुई बीड़ों में इस छंत की सिर्फ यही दो तुकें हैं।

पद्अर्थ: रण = युद्ध। झुंझना = जीतना। रण झुंझनड़ा = वह सुंदर गीत जिससे इस जगत की रण भूमि में विवेक की सेना मोह की सेना पर विजय पा ले, परमात्मा की सिफत सालाह का गीत। सखी = हे सखी! सतिगुरु सेवि = गुरू के चरण पड़ो। मनि = मन में। चिंदिअड़ा = चितवा हुआ।

अर्थ: हे सहेलिहो! हे सत्संगियो! एक परमात्मा का ध्यान धरो; प्रभू की सिफत सालाह का (वह) सुंदर गीत गाओ (जिसकी बरकति से विकारों का मुकाबला कर सको)। हे सहेलियो! गुरू की शरण पड़ो, (इस तरह विकारों के मुकाबले में जीत प्राप्त करने का यह) मन-इच्छित फल प्राप्त कर लोगी।

रामकली महला ५ रुती सलोकु    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ करि बंदन प्रभ पारब्रहम बाछउ साधह धूरि ॥ आपु निवारि हरि हरि भजउ नानक प्रभ भरपूरि ॥१॥ किलविख काटण भै हरण सुख सागर हरि राइ ॥ दीन दइआल दुख भंजनो नानक नीत धिआइ ॥२॥ छंतु ॥ जसु गावहु वडभागीहो करि किरपा भगवंत जीउ ॥ रुती माह मूरत घड़ी गुण उचरत सोभावंत जीउ ॥ गुण रंगि राते धंनि ते जन जिनी इक मनि धिआइआ ॥ सफल जनमु भइआ तिन का जिनी सो प्रभु पाइआ ॥ पुंन दान न तुलि किरिआ हरि सरब पापा हंत जीउ ॥ बिनवंति नानक सिमरि जीवा जनम मरण रहंत जीउ ॥१॥ {पन्ना 927}

पद्अर्थ: बंदन = नमस्कार। बाछउ = मैं मांगता हूं। साधह धूरि = संत जनों की चरण धूड़। आपु = स्वै भाव। निवारि = दूर करके। भजउ = मैं जपता हूँ। भरपूरि = सर्व व्यापक।

किलविख = पाप। भै = ('भउ' का बहुवचन) भय। सुख सागर = सुखों का समुंद्र। दुख भंजनो = दुखों का नाश करने वाला। नीत = नित्य, सदा।2।

छंतु। जसु = सिफतसालाह के गीत। वडभगीहो = बड़े भाग्यों वालो! भगवंत = भगवान। रुती = ऋतुएं। माह = महीने। मूरत = महूरत (शब्द 'मूरत' और मूरति' में फर्क है)। दो घड़ियों जितना वक्त (यहाँ शब्द 'मूरत' बहुवचन है)। उचरत = उचारते हुए। सोभावंत = शोभा वाले। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए। धंनि = भाग्यों वाले। ते = वह (बहुवचन)। इक मनि = एक मन से, एकाग्र मन से। सफल = कामयाब। तुलि = बराबर। किरिआ = (मिथे हुए धार्मिक) कर्म। पापा हंत = पापों का नाश करने वाला। सिमरि = सिमर के। जीवा = मैं जीता हूँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। रहंत = रह जाता है।1।

अर्थ: हे नानक! (कह- हे भाई!) पारब्रहम प्रभू को नमस्कार करके मैं (उसके दर से) संत-जनों के चरणों की धूड़ माँगता हूँ, और स्वै भाव दूर करके मैं उस सर्व-व्यापक प्रभू का नाम जपता हूँ।1।

प्रभू पातशाह सारे पाप काटने वाला है, सारे डर दूर करने वाला है, सुखों का समुंद्र है, गरीबों पर दया करने वाला है, (गरीबों के) दुख नाश करने वाला है। हे नानक! उसको सदा सिमरते रहो।2।

छंतु। हे अति भाग्यशालियो! परमात्मा की सिफतसालाह के गीत गाते रहा करो। हे भगवान! (मेरे पर) मेहर कर (मैं भी) तेरा यश गाता रहूँ। हे भाई! जो ऋतुएं, जो महूरत, जो घड़ियाँ परमात्मा के गुण उचारते हुए बीतें, वह समय शोभा वाले होते हैं।

हे भाई! जो लोग परमात्मा के गुणों के प्यार-रंग में रंगे रहते हैं, जिन लोगों ने एक-मन हो परमात्मा का सिमरन किया है, वे लोग भाग्यशाली हैं। हे भाई! (सिमरन की बरकति से) जिन्होंने परमात्मा का मिलाप हासिल कर लिया है उनका मानस जीवन कामयाब हो गया है।

हे भाई! परमात्मा (का नाम) सारे पापों को नाश करने वाला है, कोई पुन्य-दान, कोई धार्मिक कर्म हरि-नाम सिमरन के बराबर नहीं है। नानक विनती करता है- हे भाई! परमात्मा का नाम सिमर के मैं आत्मिक जीवन प्राप्त करता हूँ। (सिमरन की बरकति से) जनम-मरन (के चक्कर) समाप्त हो जाते हैं।1।

सलोक ॥ उदमु अगमु अगोचरो चरन कमल नमसकार ॥ कथनी सा तुधु भावसी नानक नाम अधार ॥१॥ संत सरणि साजन परहु सुआमी सिमरि अनंत ॥ सूके ते हरिआ थीआ नानक जपि भगवंत ॥२॥ छंतु ॥ रुति सरस बसंत माह चेतु वैसाख सुख मासु जीउ ॥ हरि जीउ नाहु मिलिआ मउलिआ मनु तनु सासु जीउ ॥ घरि नाहु निहचलु अनदु सखीए चरन कमल प्रफुलिआ ॥ सुंदरु सुघड़ु सुजाणु बेता गुण गोविंद अमुलिआ ॥ वडभागि पाइआ दुखु गवाइआ भई पूरन आस जीउ ॥ बिनवंति नानक सरणि तेरी मिटी जम की त्रास जीउ ॥२॥ {पन्ना 927-928}

पद्अर्थ: उदमु = (all energy जिसमें कहीं रक्ती भर भी आलस ना हो)। अगमु = अपहुँच। अगोचरो = (अ+गो+चर) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों द्वारा पहुँच ना हो सके। कथनी सा = मैं वह बोल बोलूँ। तुधु = तुझे। अधार = आसरा।1।

साजन = हे सज्जनो! परहु = पड़े रहो। सिमरि = सिमर के। ते = से। जपि = जप के।2।

छंतु। सरस = रस वाली, रसीली, स्वादिष्ट। मासु = महीना। नाहु = नाथ, पति। मउलिआ = खिल उठा। सासु = सांस। घरि = हृदय घर में। निहचलु = सदा कायम रहने वाला। सखीऐ = हे सहेलिए! सुघड़ ु = सुंदर घाड़त वाला। बेता = (सब कुछ) जानने वाला। वडभागि = बड़ी किस्मत से। त्रास = डर।

अर्थ: हे प्रभू! तू उद्यम-स्वरूप है (तेरे में रक्ती भर भी आलस नहीं है), तू अपहुँच है, ज्ञान-इन्द्रियों की तेरे तक पहुँच नहीं, मैं तेरे सुंदर चरणों को नमस्कार करता हूँ। हे प्रभू! (मेहर कर) मैं (सदा) वह बोल बोलूँ जो तुझे अच्छे लगें। तेरा नाम ही नानक का आसरा बना रहे।1।

हे नानक! (कह-) हे सज्जनो! गुरू संत की शरण पड़े रहो। (गुरू के द्वारा) बेअंत मालिक प्रभू को सिमर के, भगवान का नाम जप के (मनुष्य) सूखे से हरा हो जाता है।2।

छंतु। (हे सज्जनो! जिस मनुष्य को) पति-प्रभू मिल जाता है, उसका मन उसका तन उसकी (हरेक) सांस खुशी सें महक उठती है, उसको बसंत की ऋतु आनंदमयी प्रतीत होती है, उसके लिए महीना चेत उसके लिए वैसाख महीना सुखों से भरपूर हो जाता है।

हे सहेलिए! जिस जीव-स्त्री के हृदय में प्रभू-पति के सुंदर चरण आ बसें, उसका हृदय खिल उठता है। जिसके हृदय-गृह में सदा कायम रहने वाला प्रभू-पति आ बसे, वहाँ सदा आनंद बना रहता है। हे सहेलिए! वह प्रभू सुंदर है, सोहना है, सुजान है, (सबके दिल की) जानने वाला है। उस गोबिंद के गुण किसी मूल्य पर नहीं मिल सकते।

हे सहेलियो! जिस जीव-स्त्री ने अच्छी किस्मत से उसका मिलाप प्राप्त कर लिया, उसने अपना सारा दुख दूर कर लिया, उसकी हरेक आस पूरी हो गई। नानक (भी उसके दर पर) विनती करता है (और कहता है- हे प्रभू! जो भी जीव) तेरी शरण आ गया, (उसके दिल से) मौत का सहम दूर हो गया।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh