श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक ॥ हरि धनु पाइआ सोहागणी डोलत नाही चीत ॥ संत संजोगी नानका ग्रिहि प्रगटे प्रभ मीत ॥१॥ नाद बिनोद अनंद कोड प्रिअ प्रीतम संगि बने ॥ मन बांछत फल पाइआ हरि नानक नाम भने ॥२॥ छंतु ॥ हिमकर रुति मनि भावती माघु फगणु गुणवंत जीउ ॥ सखी सहेली गाउ मंगलो ग्रिहि आए हरि कंत जीउ ॥ ग्रिहि लाल आए मनि धिआए सेज सुंदरि सोहीआ ॥ वणु त्रिणु त्रिभवण भए हरिआ देखि दरसन मोहीआ ॥ मिले सुआमी इछ पुंनी मनि जपिआ निरमल मंत जीउ ॥ बिनवंति नानक नित करहु रलीआ हरि मिले स्रीधर कंत जीउ ॥७॥ {पन्ना 929}

पद्अर्थ: सोहागणी = (सौभागिनी) भाग्यशाली जीव-स्त्री ने। संत संजोगी = संतो के संजोग से, संतों की संगति की बरकति से। ग्रिहि = हृदय घर में।1।

नाद = रागों के गाने। बिनोद = तमाशे। कोड = करिश्मे। संगि = साथ, संगति में। भने = उचार के। मन बांछत = मन मांगी।2।

छंतु। हिम = बर्फ। हिमकर = बरफानी, बरफ पैदा करने वाली। मनि = मन में। गुणवंत = गुणों वाले, खूबियों वाले। सखी सहेली = हे सखी सहेली! मंगलो = खुशी के गीत, मंगल, सिफत सालाह का गीत। सेज = हृदय सेज। सुंदरि = ('सुंदर' से स्त्रीलिंग)। सोहीआ = मस्त हो गई। पुंनी = पूरी हुई। निरमल = पवित्र। मंत = नाम मंत्र। रलीआ = खुशियां। स्री धर = श्री धर, लक्ष्मी का पति, लक्ष्मी का आसरा, परमात्मा।7।

अर्थ: हे नानक! संतों की संगति की बरकति से जिस जीव-स्त्री के हृदय-घर में मित्र प्रभू जी प्रकट हो गए, जिस भाग्यशाली जीव-स्त्री ने प्रभू का नाम-धन हासिल कर लिया, उसका चिक्त (कभी माया की तरफ) नहीं डोलता।1।

हे नानक! परमात्मा का नाम उचारते हुए मन-मांगी मुरादें मिल जाती हैं, प्यारे प्रीतम-प्रभू के चरणों में जुड़ने से (मानो, अनेकों) रागों-तमाशों के करिश्मों के आनंद (पा लेते हैं)।2।

छंत। (हे सहेलियो!) माघ (का महीना) फागुन (का महीना, ये दोनों ही बड़ी) खूबियों वाले हैं, (इन महीनों की) बर्फानी ऋतुएं मनों की भाती हैं, (इस तरह जिस हृदय में ठंडक का पुँज प्रभू आ बसता है, वहॉ। भी विकारों की तपस समाप्त हो जाती है)। हे सहेलियो! तुम (शांति के श्रोत परमात्मा की) सिफत-सालाह के गीत गाया करो। (जो जीव-स्त्री ये उद्यम करती है, उसके) हृदय-घर में प्रभू-पति आ प्रकट होता है।

हे सहेलियो! (जिस जीव-स्त्री के हृदय-गृह में) प्रीतम-प्रभू जी आ बसते हैं, (जो जीव-स्त्री अपने) मन में प्रभू-पति का प्यार बनाए रखती है, (उसके हृदय की) सेज सुंदर हो जाती है। वह जीव-स्त्री (उस सर्व-व्यापक का) दर्शन करके मस्त रहती है, उसको जंगल, घास-बूटिआं व सारी ही त्रिभवण हरा-भरा दिखता है।

हे सहेलियो! जिस जीव-स्त्री को प्रभू-पति मिल जाता है, जो जीव-स्त्री अपने मन में उस पवित्र का नाम-मंत्र जपती है, उसकी हरेक मनो-कामना पूरी हो जाती है। नानक विनती करता है- हे सहेलियो! तुम भी माया के आसरे प्रभू पति को मिल के सदा आत्मिक आनंद लिया करो।7।

सलोक ॥ संत सहाई जीअ के भवजल तारणहार ॥ सभ ते ऊचे जाणीअहि नानक नाम पिआर ॥१॥ जिन जानिआ सेई तरे से सूरे से बीर ॥ नानक तिन बलिहारणै हरि जपि उतरे तीर ॥२॥ छंतु ॥ चरण बिराजित सभ ऊपरे मिटिआ सगल कलेसु जीउ ॥ आवण जावण दुख हरे हरि भगति कीआ परवेसु जीउ ॥ हरि रंगि राते सहजि माते तिलु न मन ते बीसरै ॥ तजि आपु सरणी परे चरनी सरब गुण जगदीसरै ॥ गोविंद गुण निधि स्रीरंग सुआमी आदि कउ आदेसु जीउ ॥ बिनवंति नानक मइआ धारहु जुगु जुगो इक वेसु जीउ ॥८॥१॥६॥८॥ {पन्ना 929}

पद्अर्थ: जीअ के = जिंद के। सहाई = मददगार। भवजल = संसार समुंद्र। तारणहार = पार लंघाने की समर्था वाले। ते = से। जाणीअहि = पहचाने जाते हैं (वर्तमान काल, कर्म वाच, अन्न पुरख, बहुवचन)।2।

जानिआ = सांझ डाली, जाना, जान पहचान बनाई। सेई = वही लोग। तरे = पार लांघ गए। सूरे = सूरमे। बीर = बहादर। जपि = जप के। तीर = (परले) किनारे।2।

छंतु। बिराजित = बस रहे हैं। सभ ऊपरै = और सब ख्यालों से ऊपर। कलेसु = दुख। हरे = दूर हो गए। रंगि = प्यार रंग में। रातै = रंगे हुए। सहजि = आत्मिक अडोलता में। माते = मस्त। ते = तो। तिलु = रक्ती भर समय भी। तजि = छोड़ के। आपु = स्वै भाव, अहंकार। सरब गुण = सारे गुणों के मालिक। जगदीसर = जगत का ईश्वर। गुण निधि = गुणों का खजाना। स्री रंग = माया का पति। आदेसु = नमस्कार। मइआ = दया। जुगु जुगो = जुग जुग, हरेक युग में। इक वेस = एक तरह का।8।

अर्थ: हे भाई! संत जन (जीवों की) जिंद के मददगार (बनते हैं), (जीवों को) संसार-समुंद्र से पार लंघाने की समर्थता रखते हैं। हे नानक! परमात्मा के नाम से प्यार करने वाले (गुरमुख जगत में और) सब प्राणियों से श्रेष्ठ माने जाते हैं।1।

हे भाई! जिन मनुष्यों ने परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाली, वे संसार-समुंद्र से पार लांघ गए, वही (असल) सूरमे हैं, वह (असल) बहादर हैं। हे नानक! (कह-) जो मनुष्य परमात्मा का नाम जप के (संसार-समुंद्र से) परले किनारे पर पहुँच गए, मैं उनसे बलिहार जाता हूँ।2।

छंतु। (हे भाई! जिन मनुष्यों के हृदय में सदा प्रभू के) चरण टिके रहते हैं, व और मायावी संकल्प प्रभू की याद से नीचे बने रहते हैं (अर्थात प्रभू के प्रति प्रेम सर्वोपरि रहता है, उनके अंदर से हरेक किस्म का) सारा दुख मिट जाता है। जिनके अंदर परमात्मा की भक्ति आ बसती है, उनके जनम-मरण के दुख कलेश खत्म हो जाते हैं। वे मनुष्य प्रभू के प्रेम-रंग में (सदा) रंगे रहते हैं, वे आत्मिक अडोलता में (सदा) मस्त रहते हैं, परमात्मा का नाम उनके मन से रक्ती भर पल के लिए भी नहीं बिसरता। वे मनुष्य अहंकार त्याग के सब गुणों के मालिक परमात्मा के चरणों की शरण पड़े रहते हैं।

नानक विनती करता है- हे भाई! गुणों के खजाने, माया के पति, सारी सृष्टि के आदि मूल स्वामी गोबिंद को सदा नमस्कार किया कर, (और अरदास करा कर- हे प्रभू! मेरे पर) मेहर कर (मैं भी तेरा नाम जपता रहूँ), तू हरेक युग में एक ही अटल स्वरूप वाला रहता है।8।1।6।8।

नोट: अंक 8 इस छंद के 'बंदों' का नंबर है।

अंक 1 बताता है कि ये आठ 'बंदों' वाला एक ही साबत छंद है।

अंक 6 का भाव है कि महला ५ के सारे छंदों की गिनती 6 है। 'रण झुंझनड़ा' वाली दो तुकों को भी संपूर्ण छंद गिना गया है।

अंक-8 अनंद----1
सद---------------1
छंत---------------6
कुल जोड़---------8

नोट: आखिरी अंक 6 और 8 श्री करतारपुर वाली 'आदि बीड़' में नहीं हैं। छपी हुई बीड़ में ही मिलते हैं।


रामकली महला १ दखणी ओअंकारु {पन्ना 929}

बाणी 'ओअंकार' का भाव:

पौड़ी-वार

ओअंकार वह सर्व व्यापक परमात्मा है जिससे ये सारी सृष्टि और समय का विभाजन बना, जिससे ब्रहमा आदि देवते और वेद आदिक धर्म-पुस्तकें बने। जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के 'ओअं' को सिर झुकाते हैं वे संसार के विकारों से बच निकलते हैं।

सतिगुरू की बाणी बार-बार पढ़ के ये भेद खुलता है कि परमात्मा सारी सृष्टी में व्यापक है और वही सदा-स्थिर रहने वाला है, जगत नाशवंत है।

सतिगुरू ही करतार की वडिआई की कद्र जानता है। यदि मनुष्य सतिगुरू की शरण पड़ता है, वह सत्संग में परमात्मा का नाम सिमर के नकारे सड़े हुए लोहे से सोना बन जाता है।

परमात्मा की मेहर सदका जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चल के परमात्मा का नाम सिमरता है, उसको परमात्मा प्यारा लगने लगता है। पर गुरू से टूटा हुआ मनुष्य आत्मिक मौत सहेड़ता है।

हरेक मनुष्य कहने भर को ये कह देता है कि परमात्मा हर जगह मौजूद है। पर इस सच्चाई की असल सूझ तब ही पड़ती है जब मनुष्य अपने अंदर से अहम्-अहंकार दूर करता है।

हलांकि परमात्मा हरेक के हृदय में बसता है, जब तक अंदर अहम्-अहंकार है, ये सूझ नहीं आ सकती। अहंकार दूर करके उसको याद करने से उसके साथ जान-पहचान और उसकी महानता की कद्र पड़ती है।

सारी सृष्टि परमात्मा का दिखता-रूप है, पर ये समझ उसी मनुष्य को होती है, जो सतिगुरू के द्वारा अहम्-अहंकार दूर करके परमात्मा में सुरति जोड़ता है।

गुरू के शबद द्वारा परमात्मा जिस मनुष्य के हृदय में अपनी सिफतसालाह बसाता है, उसको ये समझ आ जाती है कि परमात्मा स्वयं ही इस जगत को बनाने वाला है और स्वयं ही इसको जीवन-राह सिखाने वाला है।

गुरू-शबद के द्वारा नाम में रंगा हुआ मनुष्य पवित्र जीवन वाला हो जाता है, उसको हरेक जीव में बोलता सुनता किरत करता परमात्मा ही दिखता है।

गुरू-शबद का आसरा ले के आनंद-स्वरूप सर्व-व्यापक सदा-स्थिर परमात्मा के साथ सिमरन के द्वारा पक्की जान-पहचान डालने से मनुष्य के अंदर कामादिक विकारों का मुकाबला करने की हिम्मत पैदा हो जाती है।

मनुष्य दुनिया के धन-माल की खातिर परमात्मा को बिसार बैठता है और जीने के लिए और ही चीजों के पीछे भागता फिरता है। पर, सतिगुरू, सिमरन के द्वारा ईश्वरीय-लगन सिखाता है और दुनिया की प्रभुता के बेअर्थ राह से हटाता है।

सतिगुरू के बताए जीवन-राह पर चल कर प्रभू का नाम सिमरने से मन बेफिक्र और खिला हुआ (आनंदित) रहता है, और लोक-दिखावे का दबाव हट जाता है।

अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य लब-लोभ-अहंकार आदि का नौकर बन के जीवन-खेल हार के जाता है, क्योंकि वह परमात्मा के नाम की असल पूँजी गवा बैठता है।

परमात्मा के सिमरन से टूट के मनुष्य माया के पीछे पागल हो जाता है, माया की तृष्णा में फस के आत्मिक मौत के राह पकड़ लेता है, क्योंकि बुरे लोगों की भी सिर्फ इसलिए खुशामद करने लग जाता है क्योंकि वे माया-धारी होते हैं।

चाहे ये जगत निर्वेर-अजोनी-निर्लिप परमात्मा का अपना बनाया हुआ है और अपना स्वरूप है, पर मनुष्य उसकी याद भुला के माया की भटकना में पड़ जाता है। इस भटकना से खलासी तब ही हो सकती है सुख तब ही मिल सकता है जब प्रभू के सिमरन में जुड़ें।

परमात्मा की याद भुलाने के कारण मनुष्य के आँख-कान-जीभ आदि इन्द्रियाँ पर-तन, पराई निंदा आदि में पड़ कर आत्मिक जीवन को गिरा देते हैं। मनुष्य यहाँ कोई आत्मिक कमाई नहीं कमाता। जो भी किरत-कार ये करता है, वह खोटी होने के कारण इसको ऊँचे जीवन से और परे और परे ले जाती है।

जो मनुष्य गुरू की बताई हुई मति पर चल कर परमात्मा के गुणों में चिक्त जोड़ता है, परमात्मा के साथ उसकी गहरी जान-पहचान बन जाती है, और प्रभू की बख्शिशों की उसको कद्र पड़ जाती है

परमात्मा की रची मर्यादा के अनुसार अहंकार मनुष्य के आत्मिक जीवन का नाश कर देता है और मनुष्य काम-क्रोध आदि का शिकार हो जाता है। पर, काम-क्रोध में आत्मिक मौत मरा मनुष्य भी प्रभू की मेहर से जब गुरू के बताए हुए राह की मेहनत-कमाई करता है और शिक्षा पर पूरा उतरता है, तो वह सुंदर आचार वाला बन के परमात्मा की नजर में कबूल होता है।

निरे दुनियावी भोग आत्मिक मौत लाते हैं। सतिगुरू का शबद काम-क्रोध आदि की ओर से अडोल कर देता है, स्वार्थ-खुदगर्जी हटाने की ओर प्रेरित करता है, और परमात्मा के नाम के साथ गहरी सांझ पैदा करता है। जिसने गुरू-शबद में मन जोड़ा है वह स्वच्छ और श्रेष्ठ बन जाता है।

सतिगुरू की मति ही मनुष्य-जीवन के लिए श्रेष्ठ रास्ता है। सतिगुरू के राह पर चल कर यदि मनुष्य परमात्मा की राह में अपनी सुरति जोड़े तो इसका मन माया में डोलने से बच जाता है।

गुरू की मति वाला राह पकड़े बिना भटकना के कारण जीव जनम-मरण के चक्कर में पड़ता है। गुरू के राह पर चलने से परमात्मा ही जिंद को आसरा-सहारा दिखता है और अंदर हृदय में मिल जाता है।

जो मनुष्य गुरू के बताए हुए मार्ग पर चलता है, वह अपने मन को परमात्मा की सिफत-सालाह में जोड़ता है, और जगत के बुरे कर्मों के बँधन नहीं सहेड़ता, स्वच्छ आचरण ही उसके लिए तीर्थ-स्नान है। गुरू-शबद का आसरा ले के वह विकारों की लहरों से बच निकलता है।

प्रभू की याद से टूट के चंचल मन बार-बार मायावी भोगों की तरफ दौड़ता है और दुख गले पड़वा लेता है। नाम की बरकति से मायावी भोगों से खलासी होती है और मन में सुख-आनंद पैदा होता है।

नित्य मौत के निमंत्रण आते देख के भी जगत होछी माया के मोह में फसा रहता है, जवानी गुजर जाती है, बुढ़ापा आ जाता है, मौत सिर पर आई खड़ी प्रतीत होती है, फिर भी माया का मोह खत्म नहीं होता।

सतिगुरू के बताए हुए राह पर चल कर अगर परमात्मा से उसकी सिफतसालाह की दाति माँगते रहें, तो इस तरह माया के हमलों की ओर सचेत रहा जा सकता है।

माया की खातिर जगत से झगड़े मोल लेने से स्वच्छ आत्मिक जीवन की आस नहीं की जा सकती। पर, प्रभू के नाम की बरकति से धरती की सारी दौलत की परवाह नहीं रहती।

गुरू की बताई हुई कार से परे ना जाना, गुरू के बताए हुए उपदेश को हृदय में बसाना - यही तरीका है स्वच्छ पवित्र जीवन बनाने का, यही ढंग है परमात्मा में जुड़ने का। गुरू परमात्मा के गुणों का अथाह समुंद्र है।

अहंकार, डोलती श्रद्धा, गिले-गुजारिशें और दुर्मति के कारण परमात्मा से टूटते जाने की गाँठ बँधती जाती है। यह गाँठ तभी खुलती है जब मनुष्य सतिगुरू के शबद की सहायता से मन के विकारों को शुद्ध कर ले।

माया की खातिर जीव भिड़-भिड़ के मरते और दुखी होते हैं। माया के पीछे दौड़ते चंचल मन को सतिगुरू के शबद के द्वारा ही रोका जा सकता है।

माया की तृष्णा दुखों का मूल है। जो मनुष्य परमात्मा की मेहर से गुरू के शबद को हृदय में बसाता है, उसकी ये प्यास मिट जाती है।

तृष्णा के भार से लदे हुए जीव कई तरह के विकारों में गिरते हैं। जो मनुष्य अपना मन गुरू के हवाले करता है वह सत्संग में नाम सिमर के विकारों की लहरों में डूबने से बच जाता है।

माया को जीवन-साथी समझना और बनान, दोनों से दुखी ही हुआ जाता है। असल साथी परमात्मा है। जो जीव प्रभू से विछुड़ा हुआ है उसके अंदर जीवन-राग नहीं हो सकता। सो, प्रभू के गुण गाओ। पर, इसका ये मतलब नहीं कि कोई जीव प्रभू के गुणों का अंत पा सकता है। हमने उसके गुण गाने हैं अपनी विछुड़ी हुई रूह को उससे मिलाने के लिए।

जो जीव ज्यादा से ज्यादा माया के पीछे दौड़ता फिरता है वह माया के जाल में फस जाता है, प्रभू की याद की ओर उसकी सुरति ऊँची नहीं हो सकती। जिस मनुष्य पर परमात्मा कृपा करे, वह गुरू की शरण पड़ कर प्रभू के गुण गाता है, और इस तरह माया की तृष्णा के जाल से बच जाता है।

परमात्मा का आसरा छोड़ने से जिंद सहमी रहती है। जो मनुष्य गुरू की बाणी में जुड़ के सोचता है उसको ये यकीन बनता है कि परमात्मा ऐसा दाता है जो ना माँगने पर भी हरेक जीव को रिजक देता है। प्रभू की बँदगी ही जीवन का असल काज है।

हरेक के दिल की जानने वाला प्रभू जिस मनुष्य पर मेहर करता है उसको गुरू मिलाता है। गुरू के बताए हुए राह पर चल कर मनुष्य सिमरन की बरकति से प्रभू-चरणों में सुरति जोड़ता है और प्रभू के साथ गहरी जान-पहचान डालता है।

अगर परमात्मा के नाम-धन की खातिर दुनियावी धन अपना मन और अपनी जीवत्मा भी देने पड़ जाएं, तो भी ये सौदा सस्ता है, क्योंकि प्रभू का नाम हृदय में बसाने से माया की तृष्णा मिट जाती है। परमात्मा का नाम मिलता अपने अंदर से ही है, पर मिलता है गुरू के बताए हुए रास्ते पर चल के।

परमात्मा ने अहंकार की दूरी बना के खुद ही जीवों को अपने से विछोड़ा हुआ है। कोई करम-धरम जीव की इस दूरी (इस विछोड़े) को मिटा नहीं सकता। प्रभू स्वयं कृपा करके गुरू मिलाता है, और गुरू के सन्मुख हो के नाम सिमरने से ये दूरी मिट जाती है।

विकारों में ग्रसे हुए जीव के आत्मिक जीवन को विकार तबाह करते जाते हैं, इसलिए विकार ही उसको मीठे लगते हैं, विकारों के जंजाल में वह घिरा और सदा दुखी रहता है। इस जंजाल में से सिर्फ परमात्मा का नाम ही निकाल सकता है।

विकारों में फसा हुआ जीव दुखी भी होता है, पछताता भी है, पर बेबस हो के बार-बार विकारों की चोग चुगता रहता है। आत्मिक मौत लाने वाले इस जाल में से इसको सतिगुरू ही परमात्मा के नाम का प्यार दे के निकालता है।

ये जानते हुए भी कि शरीर और जीवात्मा का मेल सिर्फ चार दिनों का है, जीव दुनियाँ के पदार्थों में मस्त रहता है। किसी विरले भाग्यशाली को गुरू के दर पर पड़ कर प्रभू के सिफतसालाह की सूझ पड़ती है। वह सौभाग्यशाली जीव गुरू की बाणी के द्वारा शारीरिक मोह और विकारों की ओर से पलट के सदा प्रभू में टिका रहता है।

संसार एक समुंद्र की तरह है जिसमें आशा तृष्णा की लहरें उठ रही हैं। माया के पीछे भटकते जीवों के लिए इसमें से पार गुजरना बहुत ही मुश्किल खेल है। जिन पर मेहर हो, वे सतिगुरू की मति ले कर सिफत-सालाह में जुड़ते हैं, और जगत के कार्य-व्यवहार करते हुए ही विकारों से बचे रहते हैं।

सारी उम्र सिर्फ माया के पीछे भटकते हुए जीवन व्यर्थ चला जाता है। मौत आने से माया से तो साथ खत्म हो जाता है, पर इसकी खातिर किए हुए अवगुण जीव के साथ चल पड़ते हैं, और माया छोड़ने के वक्त मन छटपटाता भी बहुत है। यदि सिफत-सालाह की राशि-पूँजी पल्ले हो, तो ये मुश्किल नहीं होती, मन स्वार्थ की ओर पलटने से बचा रहता है।

ममता बँधे जीव पैदा होने-मरने के चक्करों में पड़े रहते हैं और दुखी होते हैं। फिर भी माया के उस चक्र में से निकलने को जी नहीं करता। जिस मनुष्य के मन को गुरू-शबद की ठोकर बजती है, उसके अंदर से स्वार्थ मिटता है। सिफत-सालाह की बरकति से वह माया की बजाए प्रभू से प्यार बनाता है।

कोई अमीर हो चाहे गरीब, एक तो किसी ने भी सदा यहाँ टिक नहीं सकना, दूसरा, हरेक को जीवन-यात्रा की उन मुश्किलों में से गुजरना पड़ता है जहाँ अनेकों अवगुण मनुष्य को आ घेरते हैं, और उसके गुण, अवगुणों के नीचे दब के रह जाते हैं। गुणों की समझ तब ही पड़ती है जब गुरू-शबद की विचार में मन जुड़ता है।

जगत एक रण-भूमि है जहाँ विकारों से मुकाबला करना पड़ता हैं मालिक-प्रभू की रजा में चलने से इन विकारों से मार नहीं खानी पड़ती। पर ये खेल आसान नहीं, जीवन-संग्राम में मनुष्य कई बार सही पैंतरे से टूट के रजा से सिर फेर देता है। जिस सौभाग्यवान पर दाते की मेहर होती है, वह ही रजा में रहके सिफतसालाह में जुड़ता है।

जंगल-बियाबान में तलाशने से परमात्मा नहीं मिलता। प्रभू की सिफत सालाह का खजाना सतिगुरू के हाथ में है। जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चलता है, उसका जीवन पवित्र हो जाता है, वह परमात्मा के प्यार में जुड़ के जीवन की कमाई कमा लेता है।

मनुष्य का मन सतिगुरू के शबद के द्वारा ही विकारों से रुक सकता है, और जब मन बस में आ जाए तब ही इसमें परमात्मा का प्रकाश होता है। ये बात पक्की समझ लो कि सतिगुरू के पास ही प्रभू के नाम की राशि-पूँजी है, ये पूँजी तब ही मिलती है, जब गुरू के बताए हुए राह पर चल कर स्वैभाव दूर हो जाए और अहंकार का रोग काटा जाय।

जीव जगत में प्रभू का नाम-धन का व्यापार करने के लिए बन्जारा बन के आया है, पर गलत रास्ते पर पड़ कर दुनियाँ का धन-दौलत ही एकत्र करता रहता है और मेर-तेर में फस के दुखी रहता है। समझदार व्यापारी वह है जो नाम-धन जोड़ता है, उसी को ही प्रभू का प्यार व आदर नसीब होता है। माया को जिंदगी का मनोरथ बनाने के बजाए माया को पैदा करने वाले प्रभू को हृदय में बसाओ।

ज्यों-ज्यों मनुष्य माया की मंजिलें सर करता है, त्यों-त्यों यह तुच्छ दर्शी और तंग-दिल होता जाता है। इसके अंदर, साथी लोगों के लिए दया-प्यार नहीं रह जाता। भेद-भाव का एक शोला भड़क उठता है जिसमें मंजिलें सर करने वाला भी जलता है और जीव भी दुखी होते हैं। पर जो मनुष्य प्रभू को याद रखता है वह धैर्य और जिगरे वाला होता है, तंग-दिली उसके नजदीक नहीं फटकती।

धन-पदार्थ की खातिर मनुष्य कई तरीके अपनाता रहता है, परमात्मा के आगे तरले करता है, दूसरों की चाकरी करता है, ठॅगी-ठोरी भी कर लेता है पर मौत आने पर ये धन यहीं का यहीं ही रह जाता है, और मनुष्य अपने मालिक प्रभू की नजरों में भी हल्का पड़ जाता है। परमात्मा की बँदगी ही मनुष्य को धन और मोह से बचा सकती है।

धन-सम्पक्ति इकट्ठी करने से सिर्फ अहंकार में ही वृद्धि होती है जो मनुष्य को तुच्छ दर्शी व तंग दिल बना के दुख ही पैदा करती है। हरेक मनुष्य अपनी जिंदगी के तजरबे से ये बात जानता है। अगर सुख ढूँढना है तो सतिगुरू के शबद में जुड़ के परमात्मा के साथ सांझ बनाओ, परमात्मा के साथ प्रीति जोड़े। सिमरन के बिना और कोई कर्म-काण्ड ना अहंकार मिटा सकता है और ना ही सुख दे सकता है।

पर जब तक जीव परमात्मा से विछुड़ा हुआ है, तब तक अपनी अलग 'मैं' में फसा रहता है, कोई समझदारी-चतुराई इसको 'मैं' की तंग-दिली और दुख में से निकाल नहीं सकती। प्रभू की मेहर हो, सतिगुरू के शबद द्वारा अपनी सिफतसालाह की दाति बख्शे, तो प्रभू से विछोड़ा दूर हो के 'मैं' समाप्त हो जाती है और जीवन सुखी हो जाता है।

उस अध्यापक (पांधे) को विद्वान जानो जो विद्या की सहायता से ठंडे स्वभाव वाला बनता है, और परमात्मा के नाम में सुरति जोड़ के जीवन का लाभ कमाता है। पर जो मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चलनें की जगह अपने मन के पीछे चलता है, उसको अनपढ़ ही समझो, वह निरी आजीविका की खातिर ही विद्या बेच रहा है, उसमें से कोई आत्मिक गुण ग्रहण नहीं कर रहा।

वही पढ़ा लिखा पण्डित विद्वान व अध्यापक है पंडित है समझदार है जो सतिगुरू के बताए हुए राह पर चल कर खुद भी परमात्मा का नाम सिमरता है, और अपने चेलों, विद्यार्थियों को भी प्रभू का नाम जपने की प्रेरणा करता है। वही पढ़ा लिखा पण्डित इस जीवन से कोई कमाई कमाता है।

लड़ी-वार भाव:

(पउड़ी नंबर 1 से 12 तक)

इस बेअंत सृष्टि को बनाने वाला परमात्मा हर जगह व्यापक है और सदा कायम रहने वाला है। उसको किसी मूर्ति के द्वारा किसी मंदिर में स्थापित नहीं किया जा सकता।

जब तक मनुष्य अपनी तुच्छ सी 'मैं' के साथ घिरा हुआ है, तब तक निरा जबानी-जबानी परमात्मा को सर्व-व्यापक कह देने से मनुष्य को उसकी सर्व-व्यापकता की सूझ नहीं पड़ती। परमात्मा की महिमा की असल कद्र सतिगुरू जानता है। मनुष्य ने गुरू के बताए हुए राह पर चल कर, गुरू के शबद में जुड़ कर अपने संकुचित स्वार्थी जीवन की सीमा में से निकलना है बस! फिर इस को हरेक जीव में बोलता-सुनता किरत करता परमात्मा ही दिखेगा।

पर जब तक गुरू से टूटा हुआ है, तब तक संकुचित है, स्वार्थी है, इसको हर वक्त अपनी ही 'मैं' दिखती-सूझती है, तब तक ये आत्मिक मौत मरा हुआ है।

सतिगुरू परमात्मा के सिमरन के द्वारा मनुष्य की परमात्मा के साथ पक्की जान-पहचान बना देता है, फिर ये आत्म-बली बन के विकारों का मुकाबला करने के योग्य हो जाता है, और और तरह के जीने की इच्छाएं रखनी छोड़ देता है, और लोक-दिखावे की भावना भी नहीं रहती।

(पउड़ी नंबर 13 से 16 तक)

गुरू का रास्ता छोड़ के अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य लब लोभ अहंकार आदि का नौकर बन जाता है, माया के पीछे पागल हो जाता है बुरे शातिर लोगों की भी खुशामद करता फिरता है। उसकी आँख कान जीभ आदि सारी ज्ञान-इन्द्रियां उसको पराए रूप पराई निंदा आदि की तरफ धकेल के आत्मिक जीवन से गिरा देती हैं। फिर इसके जीवन को जीवन नहीं कह सकते, ये असल में आत्मिक मौत है।

(पउड़ी नंबर 17 से 22 तक)

काम-क्रोध आदि में आत्मिक मौत मरा मनुष्य भी जब प्रभू की मेहर से गुरू के बताए हुए राह की मेहनत-कमाई करता है परमात्मा की सिफत-सालाह में जुड़ता है, तो प्रभू के साथ गहरी जान-पहचान हो जाने के कारण प्रभू की बख्शिशों की उसको कद्र पड़ती है, स्वार्थ-खुदगर्जी से वह संकोच करता है और माया की जगह परमात्मा ही उसको अपनी जीवात्मा का आसरा-सहारा दिखने लग जाता है।

(पउड़ी नंबर 23 से 26 तक)

प्रभू की याद से टूट के मनुष्य का चंचल मन बार-बार मायावी भोगों की तरफ दौड़ता है, नित्य मौत के निमंत्रण आते देख के भी मनुष्य माया के मोह में फसा रहता है, और माया की खातिर जगत से झगड़े सहेड़ता रहता है, जवानी गुजर जाती है, बुढ़ापा आ जाता है, मौत सिर पर आ खड़ी होती प्रतीत होती है फिर भी माया का मोह नहीं खत्म होता। पर जब मनुष्य गुरू के बताए हुए राह पर चल कर नाम सिमरता है तो धरती की सारी दौलत की भी परवाह नहीं रह जाती।

(पउड़ी नंबर 27 से 31 तक)

माया की खातिर जीव भिड़-भिड़ के मरते और दुखी होते हैं, तृष्णा के भार से लदे हुए कई विकारों में गिरते हैं; अहंकार, रजा से इनकार गिले-शिकवे आदि के कारण प्रभू से विछोड़े की गाँठ बँधती जाती है और जीवन गँदा होता है। इसका एक मात्र इलाज है- गुरू के बताए हुए राह पर चल कर सत्संग में नाम सिमरना।

(पउड़ी नंबर 32 से 34 तक)

माया को जीवन-साथी समझने और बनाने से दुखी ही हुआ जाता है, खूब सारी माया जोड़ने की लालच करके इसके जाल में फसते जाना है। गुरू की बाणी का अभ्यास पक्का करो, इस तरह ये यकीन बन जाएगा कि प्रभू ऐसा दाता है जो ना माँगने पर भी हरेक जीव को रिजक देता है।

(पउड़ी नंबर 35 से 37 तक)

कोई भी करम-धरम मनुष्य को तृष्णा के इस जाल में से नहीं निकाल सकता; प्रभू की याद का धन ही तृष्णा को मिटाता है। इस नाम-धन की खातिर हरेक तरह की कुर्बानी कर देनी चाहिए। यह धन मिलता है उस प्रभू की मेहर से और मिलता है गुरू से।

(पउड़ी नंबर 38 से 47 तक)

संसार-समुंद्र की आशा-तृष्णाओं की लहरों में फस के जीव बेबसा हो के विकारों से प्यार डाल लेता है, दुख भोगते हुए भी विकारों की चोग चुगे जाता है, चार दिनों के जीवन के बाद माया के त्याग के समय बड़ा छटपटाता है, इसके कारण किए हुए अवगुणों का भार उठाना पड़ जाता है। कोई अमीर हो चाहे गरीब, इस जगत-रणभूमि में हरेक जीव का विकारों से सामना होता है, सही पैंतरे से टूट के जीव आत्मिक मौत खरीद लेता है। दाते प्रभू की मेहर हो, गुरू-शबद में मन जुड़े, तो सिफत-सालाह की बरकति से गुणों की सूझ पड़ती है और माया के जंजाल में से खलासी हो जाती है। किरत-कार छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ती, जंगल-बियाबान में तलाशने से ईश्वर नहीं मिलता। एक बात पक्की जानो कि प्रभू के नाम की राशि-पूँजी सतिगुरू के पास ही है।

(पउड़ी नंबर 48 से 52 तक)

परमात्मा की याद को भुला के जीव-बनजारा अपनी अलग 'मैं' में फस जाता है; दुनियाँ के मैदान सर करने के आहर लग के संकुचित और तंग-दिल होता जाता है, साथियों से भी कई तरह की ठॅगियाँ करता रहता है, भेदभाव की आग में खुद भी जलता है व औरों को भी दुखी करता है। हरेक मनुष्य अपनी जिंदगी के तजरबे से ये बात जानता है। कोई कर्म-काण्ड कोई चतुराई-समझदारी इस 'मैं' में से निकालने में समर्थ नहीं है। प्रभू की मेहर हो, गुरू के शबद के द्वारा अपनी सिफतसालाह की दाति बख्शे, तब ही यह 'मैं' खत्म होती है और जीवन सुखी होता है।

(पउड़ी नंबर 53 से 54 तक)

कितना ही पढ़ा लिखा पण्डित व अध्यापक हो, पर अगर जीवन सफर में अपने मन के पीछे चल रहा है तो उसका अनपढ़ ही जानो, वह अपनी विद्या सिर्फ आजीविका के लिए ही इस्तेमाल करता है, उसने कोई आत्मिक गुण नहीं कमाया, पढ़ा-लिखा उसको ही समझो जो गुरू के बताए हुए राह पर चल के खुद भी प्रभू का नाम सिमरता है और अपने चेलों को भी प्रेरता है।

समूचा भाव:

(पउड़ी नंबर 1 से 16 तक)

जो मनुष्य जबानी-जबानी तो यह कहता रहे कि परमात्मा हरेक जीव में व्यापक है, पर उसकी रोजाना की करतूत ये हो कि हर वक्त अपनी ही 'मैं' सामने रख के संकुचित, स्वार्थी, और लालच, अहंकार आदि का नौकर बना रहे, माया की खातिर बुरे-शातिर लोगों की खुशामद करने से ना झिझके, उसको जीवित ना समझो, वह आत्मिक मौत मरा हुआ है।

(पउड़ी नंबर 17 से 37 तक)

पर ये आत्मिक मौत ला-इलाज नहीं है। परमात्मा की याद से टूट के ही मनुष्य माया का चाकर बनता है और बढ़ते लालच के कारण दूसरों से छीना-झपटी के तारीके ढूँढता रहता है। जिस मनुष्य पर प्रभू की मेहर हो, वह गुरू के बताए हुए राह पर चल के प्रभू की याद में जुड़ता है। ज्यों-ज्यों प्रभू के साथ जान-पहचान बढ़ती है, स्वार्थ खुदगर्जी से संकोच होता जाता है। बस! यही एक ही इलाज है। और कोई करम-धरम मनुष्य को तृष्णा के जाल में से नहीं निकाल सकता।

(पउड़ी नंबर 38 से 54 तक)

अगर मनुष्य एक बार धन-संपक्ति जोड़ने की राह पकड़ ले, तो ये चस्का इतना बलवान है कि मनुष्य अपने-आप इसमें से नहीं निकल सकता। संकुचित-पना और भेदभाव वृक्ति बढ़ती ही जाती है। हरेक मनुष्य अपनी जिंदगी के तजरबे से ये बात जानता है। खुद भी दुखी होता है औरों को भी दुखी करता है। कोई कर्म-काण्ड कोई चतुराई इस तृष्णा की आग में से निकालने में सक्षम नहीं। गुरू-शबद के द्वारा सिफतसालाह ही इसमें से निकालती है। काम-काज छोड़ के जंगल-बियाबान तलाशने की आवश्यक्ता नहीं पड़ती। पढ़ा-लिखा पण्डित उसी को जानो जो गुरू के बताए हुए राह पर चलके खुद भगती करता है और औरों को भी प्रेरता है।

मुख्य भाव: सिर्फ माया की खातिर पढ़ी और इस्तेमाल विद्या मनुष्य को बल्कि माया-जंजाल में फसा के संकुचित व स्वार्थी बना देती है। काम-काज करते हुए ही गुरू के बताए हुए राह पर चल के प्रभू की याद में जुड़ो।

रामकली महला १ दखणी ओअंकारु    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ ओअंकारि ब्रहमा उतपति ॥ ओअंकारु कीआ जिनि चिति ॥ ओअंकारि सैल जुग भए ॥ ओअंकारि बेद निरमए ॥ ओअंकारि सबदि उधरे ॥ ओअंकारि गुरमुखि तरे ॥ ओनम अखर सुणहु बीचारु ॥ ओनम अखरु त्रिभवण सारु ॥१॥ {पन्ना 929-930}

नोट: इस बाणी का नाम 'ओअंकारु' है, 'दखणी ओअंकारु' नहीं है। शब्द 'दखणी' का संबंध 'रामकली' राग से है। 'रामकली दखणी' रागिनी 'रामकली की एक किस्म है। इस विचार की प्रोढ़ता में श्री गुरू ग्रंथ साहिब में कई और प्रमाण मिलते हैं; जैसे:

(पन्ना १०३३) मारू महला १ दखणी, भाव मारू दखणी म: १।

(पन्ना ८४३) बिलावल म:१ छंत दखणी, भाव बिलावल दखणी म:१।

(पन्ना १५२) गउड़ी महला १ दखणी, भाव, गउड़ी दखणी म: १।

(पन्ना ५८०) वडहंसु महला १ दखणी, भाव वडहंस दखणी म: १।

(पन्ना १३४३) प्रभाती महला १ दखणी, भाव, प्रभाती दखणी म: १।

पद्अर्थ: ओअंकारि = ओअंकार से।

(नोट: 'ओअंकारु', 'कार' संस्कृत का एक 'पिछेतर' है, इसका अर्थ है 'एक रस, लगातार, व्यापक' जैसे शब्द 'धुनि' का अर्थ है 'ध्यनि' 'आवाज' और, शब्द 'धुनिकार' का अर्थ है 'एक रस आवाज') ओअं+कार, एक रस ओअं, सर्व व्यापक ओअं, सर्व व्यापक परमात्मा।

उतपति = उत्पक्ति, पैदायश, जनम। ब्रहमा उत्पक्ति = ब्रहमा की उत्पक्ति। जिनि = जिस ने, जिस ब्रहमा ने। चिति = चिक्त में। ओअंकारु...चिति = जिनि ओअंकारु चिति कीआ, जिस ब्रहमा ने सर्व व्यापक परमात्मा को (अपने) चिक्त में (बसाया)। सैल = (बेअंत) पहाड़, (भाव,) सृष्टि। जुग = समय का बटवारा। बेद = वेद आदि धर्म पुस्तकें। निरमऐ = बने, प्रकट हुए। ओअंकारि = ओअंकार से, सर्व प्यापक परमात्मा से। सबदि = शबद से, शबद में जुडत्र के। उधरे = (जीव डूबने से) बच गए। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख मनुष्य, वह मनुष्य जिनका मुँह गुरू की ओर होता है। ओनम अखर बीचारु = ओनम अक्षर का विचार।

(नोट: इस तुक के शब्द 'अखर' और अगली तुक के शब्द 'अखरु' का फर्क स्मरणीय है। 'अखर बीचारु' में शब्द 'अखर' संबंध कारक में है भाव 'अक्षर का विचार'। अगली तुक में शब्द 'अखरु' कर्ता कारक एक वचन है, भाव, 'ओनम-अखरु त्रिभवण-सारु है')।

ओनम: (पाठशाला में अध्यापक विद्यार्थियों को पढ़ाने के समय उनकी पट्टी व तख़्ती व स्लेट पर शब्द 'ओं नम:' लिख देते हैं, जिसका अर्थ है 'ओअं को नमस्कार है, परमात्मा को नमस्कार है'। पहली उदासी में गुरू नानक देव जी जब सिंगलाद्वीप से वापिस सोमनाथ द्वारिका होते हुए नर्बदा नदी के किनारे-किनारे उस जगह पहुँचे जहाँ ओअंकार का मन्दिर है, उन्होंने देखा कि लोग मन्दिर में स्थापित शिव मूर्ति को 'ओअंकार मिथ के पूजा करते हैं मन्दिर की पाठशाला में विद्यार्थी पट्टियों पर 'ओं नम:' लिखते -लिखाते हैं, पर वे भी उस 'शिव मूर्ति' को ही 'ओअं' समझ रहे हैं। इस पहली पौड़ी में ये दोनों भुलेखे समझाए गए हैं)

ओअं नम: = ओं को नमस्कार। ओनत अखर = वह हस्ती जिसके लिए शब्द 'ओनम' का प्रयोग किया गया है। ओनम अखर बीचारु = उस हस्ती का विचार जिस के लिए शब्द 'ओनम' का प्रयोग कर रहे हो। त्रिभवण सारु = तीन भवनों का तत्व, तीन भवनों का मूल, सारी सृष्टि का कर्ता।

नोट: 'रहाउ' की तुक में सतिगुरू जी किसी 'पांडे' को संबोधन करते हैं। इस पहली पउड़ी में भी उस 'पांडे' को कहते हैं, 'हे पांडे! ओनम अखर बीचारु सुणहु'।

अर्थ: (हे पांडे! तुम मन्दिर में स्थापित की हुई मूर्ति को 'ओंकार' मिथ रहे हो, और कहते हो सृष्टि को ब्रहमा ने पैदा किया था। 'ओअंकार' वह सर्व-व्यापक परमात्मा है जिस) सर्व-व्यापक परमात्मा से ब्रहमा का (भी) जन्म हुआ, उस ब्रह्मा ने भी उस सर्व-व्यापक प्रभू को अपने मन में बसाया। यह सारी सृष्टि और समय के बँटवारे उस सर्व-व्यापक परमात्मा से ही हुए हैं, वेद भी ओअंकार से ही बने। जीव गुरू के शबद में जुड़ के उस सर्व-व्यापक परमात्मा की सहायता से ही संसार के विकारों से बचते हैं, और गुरू के बताए हुए राह पर चल के संसार-समुंद्र से पार लांघते हैं।

(हे पांडे! तुम अपने विद्यार्थियों की पट्टियों पर 'ओं नमह्' लिखते हो, पर इस मूर्ति को ही 'ओअं' समझ रहे हो) उस महान हस्ती की बाबत भी बात सुनो जिसके लिए तुम शब्द 'ओं नम:' लिखते हो। यह शब्द 'ओं नम:' उस (अकाल-पुरख) के लिए है जो सारी सृष्टि का कर्ता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh