श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 930 सुणि पाडे किआ लिखहु जंजाला ॥ लिखु राम नाम गुरमुखि गोपाला ॥१॥ रहाउ ॥ {पन्ना 930} नोट: इस बाणी 'ओअंकार' की 54 पउड़ियां हैं। इस लंबी बाणी का केन्द्रिय भाव इस 'रहाउ' वाली तुक में है। शब्द 'रहाउ' का अर्थ है 'ठहर जाओ', यदि सारी बाणी सार तत्व दो-शब्दों में सुनना है तो इन दो तुकों पर खड़े हो जाओ। पद्अर्थ: किआ लिखहु = लिखने का तुझे क्या लाभ? लिखने का कोई फायदा नहीं है। जंजाला = सिर्फ दुनिया के झमेले। नोट: 'रहाउ' की इस तुक के साथ 'ओअंकार' की आखिरी पउड़ी को मिला के पढ़ो: पाधा गुरमुखि आखीअै, चाटड़िआ मति देइ॥ नामु समालहु नामु संगरहु, लाहा जग महि लेइ॥ सची पटी सचु मनि पढ़ीअै सबदु सु सारु॥ नानक सो पढ़िआ सो पंडितु बीना, जिस रामनामु गलिहारु॥५४॥ नोट: मंदिरों के साथ खुले हुए पाठशालाओं में पढ़ाई जा रही सांसारिक विद्या को पढ़ने और पढ़ाने वाले लोग इसे धार्मिक काम समझ रहे हैं। सतिगुरू जी इस भुलेखे को दूर कर रहे हैं। वैसे सतिगुरू जी विद्या पढ़ने और पढ़ाने के विरुद्ध नहीं थे। अर्थ: हे पांडे! सुन, निरी (वाद-विवाद और सांसारिक) झमेलों वाली लिखाई लिखने से (कोई आत्मिक) लाभ नहीं हो सकता। (अगर तूने अपना जीवन सफल करना है तो) गुरू के सन्मुख हो के सृष्टि के मालिक परमात्मा का नाम (भी अपने मन में) लिख।1। रहाउ। ससै सभु जगु सहजि उपाइआ तीनि भवन इक जोती ॥ गुरमुखि वसतु परापति होवै चुणि लै माणक मोती ॥ समझै सूझै पड़ि पड़ि बूझै अंति निरंतरि साचा ॥ गुरमुखि देखै साचु समाले बिनु साचे जगु काचा ॥२॥ {पन्ना 930} नोट: पांधा (पंण्डित व अध्यापक) विद्यार्थी की तख्ती पर 'ओं नम:' लिख के आगे बतौर आर्शीवाद 'सिद्धं आइअै' लिखते हैं, जिसका भाव ये है कि 'तुझे इसमें सिद्धि प्राप्त हो'। पढ़ने के वक्त अक्षर 'ध' के ( ं) मात्रा 'अ' के साथ मिल के 'ङ' की तरह उचारी जाएगी। इसलिए सतिगुरू जी ने पहले अक्षर 'स, ध, ङ, और इ' लेकर पउड़ियां उचारी हैं। पद्अर्थ: ससै = 'स' अक्षर के द्वारा। सहजि = सहज ही, बिना किसी विशेष उद्यम के। तीनि भवन = तीनों भवनों में, आकाश पाताल मातृ लोक में, सारे संसार में। इक जोति = एक परमात्मा की ज्योति। गुरमुखि = गुरू की ओर मुँह है जिसका, गुरू के बताए हुए राह पर चलने वाला मनुष्य। वसतु = गोपाल का राम नाम। (नोट: 'रहाउ' की केन्द्रिय तुक में 'वसतु' को स्पष्ट शब्दों 'राम नाम' में बता दिया है)। चुणि लै = (गुरमुखि मनुष्य) चुन लेता है। माणक मोती = परमात्मा का नाम रूपी कीमती धन। अंति = आखिर को। निरंतरि = (निर+अंतर) एक रस, हर जगह मौजूद। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। साचु समाले = सदा कायम रहने वाले परमात्मा को याद करता है। काचा = नाशवंत। अर्थ: जिस परमात्मा ने किसी विशेष उद्यम के बिना ही ये संसार पैदा किया है उसकी ज्योति सारे जगत में पसर रही है। जो मनुष्य गुरू के बताए हुए रास्ते पर चलता है उसको उस परमात्मा का नाम-पदार्थ मिल जाता है, गुरमुखि मनुष्य परमात्मा का नाम-रूपी कीमती धन इकट्ठा कर लेता है। वह मनुष्य सतिगुरू (की बाणी) के दृष्टिकोण से ही समझता और सोचता है, सतिगुरू की बाणी बार-बार पढ़ के उसको ये भेद खुल जाता है कि सारी सृष्टि में व्यापक परमात्मा ही अंत में सदा स्थिर रहने वाला है। गुरू के राह पर चलने वाला मनुष्य उस सदा-स्थिर परमात्मा को ही (हर जगह) देखता है और अपने हृदय में बसाता है, परमात्मा के अलावा बाकी सारा जगत उसको नाशवंत दिखाई देता है।2। नोट: संस्कृत और हिन्दी के अक्षर 'सा, धा' आदि बोल के उचारे जाते हैं। पर गुरमुखी में इन अक्षरों को 'ससा, धधा' कह के उचारते हैं। गुरू नानक देव जी भी 'ससा', धधा' कह के ही लिखते हैं। इससे यहाँ यही नतीजा निकलता है कि हजूर गुरमुखी लिपी में लिख रहे थे, देवनागरी लिपी में नहीं। धधै धरमु धरे धरमा पुरि गुणकारी मनु धीरा ॥ धधै धूलि पड़ै मुखि मसतकि कंचन भए मनूरा ॥ धनु धरणीधरु आपि अजोनी तोलि बोलि सचु पूरा ॥ करते की मिति करता जाणै कै जाणै गुरु सूरा ॥३॥ {पन्ना 930} पद्अर्थ: धरमापुरि = धरम की पुरी में, सत्संग में। धरमु धरे = (सतिगुरू) धरम का उपदेश करता हैं। गुणकारी = गुणों को पैदा करने वाला। धीरा = टिका हुआ। धूलि = धूड़, चरण धूल। मुखि मसतकि = (जिसने) मुँह पर, माथे पर। मनूर = जला हुआ लोहा। धरणीधरु = धरती का आसरा परमात्मा। अजोनी = जनम रहत प्रभू। तोलि = तोल में। बोलि = बोल में। मिति = माप, बुजुर्गी, महिमा। कै = या। आपि = आप ही आप, जिसका कोई शरीका नहीं। तोलि बोलि सचु पूरा = (भाव, गुरू की रहणी भी चालिस सेर शुद्ध है, और गुरू की कथनी भी सोलह आने खरी होती है)। अर्थ: (हे पांडे! गुरू की शरण पड़ कर करतार का नाम अपने मन की तख्ती पर लिख, वह बड़ा ही बेअंत है) करतार की वडिआई करतार स्वयं ही जानता है, या शूरवीर सतिगुरू जानता है (भाव, सतिगुरू ही परमात्मा की महिमा की कद्र करता है) सतिगुरू सत्संग में (उस करतार के सिमरन रूप) धर्म का उपदेश करता है। (सिमरन की बरकति से) सतिगुरू का अपना मन टिका रहता है, और वह औरों में भी (ये) गुण पैदा करता है। जिस मनुष्य के मुँह-माथे पर गुरू के चरणों की धूड़ पड़े, वह नकारे सड़े हुए लोहे से सोना बन जाता है। सतिगुरू तोल में बोल में सच्चा और पूर्ण होता है। और जो परमात्मा सृष्टि का आसरा है जिसका कोई शरीक नहीं है और जो जनम-रहत है वही सतिगुरू का धन है। ङिआनु गवाइआ दूजा भाइआ गरबि गले बिखु खाइआ ॥ गुर रसु गीत बाद नही भावै सुणीऐ गहिर ग्मभीरु गवाइआ ॥ गुरि सचु कहिआ अम्रितु लहिआ मनि तनि साचु सुखाइआ ॥ आपे गुरमुखि आपे देवै आपे अम्रितु पीआइआ ॥४॥ {पन्ना 930} पद्अर्थ: ङिआनु = ज्ञान, गुरू का दिया हुआ उपदेश। दूजा = गुरू उपदेश के बिना कुछ और। भाइआ = (जिस मनुष्य को) अच्छा लगा। गरबि = अहंकार में। गले = गल गए। बिखु = जहर (जो आत्मिक मौत ले आया)। गुर रसु गीत = गुरू की बाणी का आनंद। बाद = कथन, गुरू के वचन। नही भावै सुणीअै = सुना अच्छा नहीं लगता, सुनने को जी नहीं करता। गहिर गंभीरु = अथाह परमात्मा,बेअंत गुणों का मालिक प्रभू। गुरि = सतिगुरू के द्वारा। सचु कहिआ = (जिसने) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को सिमरा। लहिआ = (उसने) पा लिया। मनि = मन में। तनि = तन में। साचु = सदा कायम रहने वाला प्रभू। सुखाइआ = प्यारा लगा। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख करके, गुरू के द्वारा। आपे = प्रभू स्वयं ही। नोट: इस पौड़ी में शब्छ 'सवाइआ, भाइआ, खाइआ', आदि सारे भूतकाल में हैं। इनका भाव वर्तमान काल में लेना है। सो, टीका वर्तमान में किया जाएगा। अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरू का उपदेश विसार देता है व किसी और जीवन-राह को पसंद करता है, वह अहंकार में रसातल की ओर चला जाता है, और वह (आत्मिक मौत का मूल अहंकार-रूपी) जहर खाता है। उस मनुष्य को (दूसरे भाव के कारण) सतिगुरू की बाणी का आनंद और गुरू के वचन नहीं भाते। वह मनुष्य अथाह गुणों के मालिक परमात्मा से विछुड़ जाता है। जिस मनुष्य ने सतिगुरू के द्वारा सदा-स्थिर प्रभू को सिमरा है, उसने नाम-अमृत हासिल कर लिया है, फिर उसको वह परमात्मा मन-तन में प्यारा लगता है। (पर, ये उसकी बख्शिश ही है) वह स्वयं ही गुरू की शरण डाल के (सिमरन की दाति) देता है और खुद ही नाम-अमृत पिलाता है।4। एको एकु कहै सभु कोई हउमै गरबु विआपै ॥ अंतरि बाहरि एकु पछाणै इउ घरु महलु सिञापै ॥ प्रभु नेड़ै हरि दूरि न जाणहु एको स्रिसटि सबाई ॥ एकंकारु अवरु नही दूजा नानक एकु समाई ॥५॥ {पन्ना 930} पद्अर्थ: ऐको ऐकु = सिर्फ एक (परमात्मा) ही। सभु कोई = हरेक जीव। गरबु = अहंकार। विआपै = छाया रहता है, प्रभाव बनाए रखता है। इउ = (भाव) इस तरह अहंकार गर्व का साया दूर करके। घरु महलु = परमात्मा का स्थान। सिञापै = पहचाना जाता है। दूरि न जाणहु = (हे पांडे!) प्रभू को कहीं दूर ना समझ। ऐको = एक प्रभू ही। सबाई = सारी। ऐकंकारु = सर्व व्यापक परमात्मा। समाई = हर जगह मौजूद है। अर्थ: (वैसे तो) हर कोई कहता है कि एक परमात्मा ही परमात्मा है, पर (जिस मन पर परमात्मा का नाम लिखना है, उस पर) अहम्-अहंकार का प्रभाव बनाए रखता है। अगर मनुष्य (अहंकार का साया दूर करके) अपने हृदय में और सारी सृष्टि में एक परमात्मा को पहचान ले, तो इस तरह उसको परमात्मा के स्थान का ज्ञान हो जाता है। (हे पांडे!) परमात्मा (तेरे) नजदीक (भाव, हृदय में बस रहा) है, उसको (अपने से) दूर ना समझ, एक परमात्मा ही सारी सृष्टि में मौजूद है। हे नानक! एक सर्व-व्यापक परमात्मा ही (हर जगह) समाया हुआ है, उसके बिना और कोई दूसरा नहीं है।5। इसु करते कउ किउ गहि राखउ अफरिओ तुलिओ न जाई ॥ माइआ के देवाने प्राणी झूठि ठगउरी पाई ॥ लबि लोभि मुहताजि विगूते इब तब फिरि पछुताई ॥ एकु सरेवै ता गति मिति पावै आवणु जाणु रहाई ॥६॥ {पन्ना 930} पद्अर्थ: इसु करते कउ = इस नजदीक बसते करतार को (भाव, चाहे करतार मेरे अंदर बस रहा है)। गहि राखउ = पकड़ के रखूँ, हृदय में टिकाए रखूँ। अफरिओ = पकड़ा नहीं जा सकता, हृदय में बसाया नहीं जा सकता। तुलिओ न जाई = तोला नहीं जा सकता, उसकी उपमा आँकी नहीं जा सकती। किउ = कैसे? (भाव, जब तक अंदर 'अहंकार गर्व' है तब तक नहीं)। दीवाने = मतवाले को। झूठि = झूठ को। ठगउली = ठग बूटी, जादू। लबि = चस्के में। लोभि = लालच में। मुहताजि = मुथाजी में। इब तब फिरि = अह तब बार बार, सदा ही। सरेवै = सिमरे। गति = परमात्मा की गति, प्रभू के साथ जान पहचान। मिति = परमात्मा की मिति, परमात्मा की महानता की सीमा। रहाई = समाप्त होती है। अर्थ: (हे पांडे!) चाहे करतार मेरे अंदर ही बस रहा है (जब तक मेरे अंदर अहम्-अहंकार है) मैं उसको अपने मन में नहीं बसा सकता, (जब तक मन में अहंकार है तब तक वह करतार) मन में बसाया नहीं जा सकता, उसकी वडिआई को नहीं आँका जा सकता। माया के मतवाले जीव को (जब तक) झूठ ने ठॅग-बूटी चिपकाई हुई है, (जब तक जीव) चस्के में लालच में और पराई मुहताजी में दुखी हो रहा है, तब तक हर वक्त इसको सहम ही बना रहता है। जब मनुष्य (अहंकार दूर करके) एक परमात्मा को सिमरता है तब परमात्मा के साथ इसकी जान-पहचान हो जाती है, परमात्मा की महिमा की इसको कद्र पड़ती है, और इसका जनम-मरण खत्म हो जाता है।6। एकु अचारु रंगु इकु रूपु ॥ पउण पाणी अगनी असरूपु ॥ एको भवरु भवै तिहु लोइ ॥ एको बूझै सूझै पति होइ ॥ गिआनु धिआनु ले समसरि रहै ॥ गुरमुखि एकु विरला को लहै ॥ जिस नो देइ किरपा ते सुखु पाए ॥ गुरू दुआरै आखि सुणाए ॥७॥ {पन्ना 930} पद्अर्थ: ऐकु, इकु = एक परमात्मा ही। आचारु = कार व्यवहार। असरूपु = (सरूप) स्वरूप। ऐको भवरु = एक ही आत्मा, एक परमात्मा की ही ज्योति। भवै = पसर रही है, व्यापक है। तिहु लोइ = तीन लोकों में, सारे जगत में। पति = आदर। गिआनु = ज्ञान, परमात्मा के साथ जान पहचान। धिआनु = परमात्मा में टिकी हुई सुरति। ले = प्राप्त कर के। समसरि = बराबर। धीरा = अहंकार रहित। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख मनुष्य। इकु = एक परमात्मा को। किरपा ते = (प्रभू अपनी) कृपा से। देइ = देता है। गुरू दुआरे = सतिगुरू के द्वारा। आखि = कह के, मति दे के। अर्थ: (हे पांडे! उस गोपाल का नाम अपने मन की पट्टी पर लिख जो) एक खुद ही (हर जगह व्यापक हो के जगत की ये सारी) किरत-कार (कर रहा) है, (जो) एक स्वयं ही (संसार का यह सारा) रूप-रंग (अपने आप से प्रगट कर रहा) है, और (जगत के यह तत्व) हवा-पानी-आग (जिसका अपना ही) स्वरूप हैं, जिस गोपाल की ज्योति ही सारे जगत में पसर रही है। जो मनुष्य उस एक परमात्मा को (हर जगह व्यापक) समझता है, जिसको हर जगह परमात्मा ही दिखाई देता है, वह आदर सत्कार हासिल करता है। कोई विरला मनुष्य सतिगुरू के द्वारा परमात्मा के साथ जान-पहचान डाल के, और, उसमें सुरति टिका के धैर्य भरे जीवन वाला बनता है, ऐसा मनुष्य उस परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। जिस मनुष्य को प्रभू अपनी मेहर से ये दाति देता है, जिसको गुरू के द्वारा (अपनी सर्व-व्यापकता का उपदेश) सुनाता है वह मनुष्य सुख पाता है।7। नोट: अक्षर 'इ' की तीन पौड़ियां नंबर 5,6,7 में एक ही मिश्रित भाव है कि गुरू के द्वारा अहंकार दूर करने से वह परमात्मा हर जगह व्यापक दिखता है। ऊरम धूरम जोति उजाला ॥ तीनि भवण महि गुर गोपाला ॥ ऊगविआ असरूपु दिखावै ॥ करि किरपा अपुनै घरि आवै ॥ ऊनवि बरसै नीझर धारा ॥ ऊतम सबदि सवारणहारा ॥ इसु एके का जाणै भेउ ॥ आपे करता आपे देउ ॥८॥ {पन्ना 930} पद्अर्थ: ऊरम = (सं: उरवी) धरती। धूरम = (सं: धूम्र) धूआँ, आकाश। उजाला = प्रकाश, रौशनी। गुर = सबसे बड़ा। गोपाल = पृथ्वी का पालनहार। ऊगविआ = प्रकट हो के। असरूपु = (स्व+रूप) अपना सरूप। घरि आवै = (वह मनुष्य) भटकना से बच जाता है, टिक जाता है। घरि = घर में। ऊनवि = झुक के, नजदीक आ के। नीझर धारा = झड़ी लगा के, एक तार। ऊतम सबदि = गुरू के श्रेष्ठ शबद के द्वारा। सवारणहारा = जगत को सोहणा बनाने वाला परमात्मा। इसु ऐके का = जगत को सवारने वाले एक प्रभू का। भेउ = (यह) भेद (कि)। आपे = आप ही, स्वयं ही। देउ = रौशनी देने वाला। अर्थ: (हे पांडे! उस गोपाल का नाम अपने मन की पट्टी पर लिख, जो) सबसे बड़ा गोपाल तीन भवनों में व्यापक है, धरती और आकाश में जिसकी ज्योति का प्रकाश है। वह गोपाल अपनी कृपा करके (गुरू के द्वारा) प्रकट हो के जिसको अपना (सर्व-व्यापक) स्वरूप् दिखाता है, वह मनुष्य (भटकना से बच के) अपने आप में टिक जाता है। जगत को सुंदर बनाने वाला प्रभू सतिगुरू के श्रेष्ठ शबद द्वारा (जिस मनुष्य के हृदय में) नजदीक हो के (अपनी सिफत-सालाह की) झड़ी लगा के बरसता है, वह मनुष्य (जगत को सवारणहार) इस प्रभू का ये भेद जान लेता है कि प्रभू स्वयं ही सारे जगत को पैदा करने वाला है और खुद ही (अपनी ज्योति से इसको) रौशनी देने वाला है (भाव, प्रभू खुद ही इस जगत को जीवन-राह सिखाने वाला) है।8। उगवै सूरु असुर संघारै ॥ ऊचउ देखि सबदि बीचारै ॥ ऊपरि आदि अंति तिहु लोइ ॥ आपे करै कथै सुणै सोइ ॥ ओहु बिधाता मनु तनु देइ ॥ ओहु बिधाता मनि मुखि सोइ ॥ प्रभु जगजीवनु अवरु न कोइ ॥ नानक नामि रते पति होइ ॥९॥ {पन्ना 930-931} पद्अर्थ: सूरु = सूरज, रौशनी, प्रकाश, गुरू के ज्ञान की रौशनी। असुर = दैत्य, कामादिक विकार। संघारै = खत्म कर देता है। ऊचउ = सबसे ऊँचे हरी को। सबदि = गुरू के शबद द्वारा। आदि अंति = शुरू से आखिर तक, जब तक दुनिया कायम है। तिहु लोइ = तीन लोकों में, सारे संसार में। आपे = स्वयं ही। सोइ = वह परमात्मा ही। बिधाता = पैदा करने वाला प्रभू। देइ = देता है। मनि = मन में। (नोट: 'मनु' और 'मनि' का अंतर स्मरणीय है। 'मनु देइ', यहाँ 'मनु' कर्मकारक है और क्रिया 'देइ' का कर्म है)। मुखि = मुँह में। मनि सुख सोइ = वह प्रभू ही जीवों के मन में बसता है और मुँह में बसता है, हरेक के अंदर बैठ के वह खुद ही बोलता है। जग जीवन = जगत का जीवन, जगत का आसरा। नामि = नाम में। अर्थ: (जिस मनुष्य के अंदर सतिगुरू के बख्शे हुए ज्ञान की) रौशनी पैदा होती है वह (अपने अंदर से) कामादिक विकारों को मार देता है। सतिगुरू के शबद की बरकति से परम पुरख का दीदार करके (वह मनुष्य फिर यॅूँ) सोचता है (कि) जब तक सृष्टि कायम है वह परमात्मा सारे जगत में (हरेक के सिर) पर खुद (रखवाला) है, वह स्वयं ही (सब जीवों में व्यापक हो के) काम-काज करता है, बोलता है और सुनता है, वह सृजनहार (सब जीवों) को जीवात्मा और शरीर देता है, सब जीवों के अंदर बैठ के वह खुद ही बोलता है, और, परमात्मा (ही) जगत का आसरा है, (उसके बिना) कोई और (आसरा) नहीं है। हे नानक! (उस) परमात्मा के नाम में रंगीज के (ही) आदर-मान मिलता है।9। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |