श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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राजन राम रवै हितकारि ॥ रण महि लूझै मनूआ मारि ॥ राति दिनंति रहै रंगि राता ॥ तीनि भवन जुग चारे जाता ॥ जिनि जाता सो तिस ही जेहा ॥ अति निरमाइलु सीझसि देहा ॥ रहसी रामु रिदै इक भाइ ॥ अंतरि सबदु साचि लिव लाइ ॥१०॥ {पन्ना 931}

पद्अर्थ: हित कारि = हित करि, प्रेम करके, प्यार से। राजन = प्रकाश स्वरूप। रवै = सिमरता है। रण = जगत अखाड़ा। मनूआ = कोझा मन। लूझै = लड़ता है। रंगि = (परमात्मा के) रंग में, प्रेम में। राता = रंगा हुआ। जुग चारे = चारों युगों में मौजूद, सदा स्थिर रहने वाले को। जाता = पहचान लेता है, सांझ डाल लेता है। जिनि = जिस मनुष्य ने। निरमाइलु = निर्मल, पवित्र। देहा = शरीर। सीझसि = सफल हो जाता है। रहसी = रहस्य वाला, आनंद स्वरूप (रहस = आनंद)। इक भाइ = एक रस, लगातार, सदा। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। लिव लाइ = सुरति जोड़ के।

अर्थ: (जो मनुष्य) प्रकाश-स्वरूप परमात्मा को प्रेम से सिमरता है, वह अपने कोझे मन को वश में ला के इस जगत-अखाड़े में (कामादिक वैरियों के साथ) लड़ता है, वह मनुष्य दिन-रात परमात्मा के प्यार में रंगा रहता है, तीन भवनों में व्यापक और सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के साथ वह मनुष्य (पक्की) जान-पहचान डाल लेता है।

जिस मनुष्य ने परमात्मा के साथ जान-पहचान डाल ली, वह उस जैसा ही हो गया (भाव, वह माया की मार से ऊपर उठ गया), उसकी आत्मा बड़ी ही पवित्र हो जाती है, और उसका शरीर भी सफल हो जाता है, आनंद-स्वरूप परमात्मा सदा उसके हृदय में टिका रहता है, उसके मन में सतिगुरू का शबद बसता है और वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू में सुरति जोड़े रखता है।10।

रोसु न कीजै अम्रितु पीजै रहणु नही संसारे ॥ राजे राइ रंक नही रहणा आइ जाइ जुग चारे ॥ रहण कहण ते रहै न कोई किसु पहि करउ बिनंती ॥ एकु सबदु राम नाम निरोधरु गुरु देवै पति मती ॥११॥ {पन्ना 931}

पद्अर्थ: रोसु = रोष, नाराजगी। कीजै = करना चाहिए। रहणु = रहायश, बसेरा। संसारे = संसार में। राइ = अमीर। रंक = कंगाल। आइ जाइ = जो आया है उसने चले जाना है, जो पैदा हुआ है उसने मरना है। जुग चारे = (ये कुदरती नियम) चारों युगों में ही (चला आ रहा है)। कहण ते = कहने से। रहण कहण ते = ये कहने से कि मैंने जगत में रहना है, मरने से बचने के लिए तरले लेने से। किसु पहि = किस के पास? बिनंती = तरला, विनती। किस पहि करउ बिनंती = किसके पास तरले करूँ? (यहाँ जगत में सदा टिके रहने के लिए) किसी के आगे तरले लेने व्यर्थ हैं। निरोधरु = (सं: निरुध = विकारों से बचा के रखना) विकारों से बचा के रखने वाला। पति मती = पति परमात्मा के साथ मिलाने वाली मति।

अर्थ: (हे पांडे! गुरू के सन्मुख हो के गोपाल का नाम अपने मन की पट्टी पर लिख, उस गोपाल से) नाराजगी ही ना किए रखो, उसका नाम-अमृत पीयो। इस संसार में सदा के लिए बसेरा नहीं है। राजे हों, अमीर हो, चाहे कंगाल हों, कोई भी यहाँ सदा नहीं रह सकता। जो पैदा हुआ है उसने मरना है, (ये नियम) सदा के लिए (अटल) है। यहाँ सदा टिके रहने के लिए तरले करने से भी कोई टिका नहीं रह सकता, इस बात के लिए किसी के आगे तरले लेने व्यर्थ हैं।

(हाँ, हे पांडे! गुरू की शरण आओ) सतिगुरू परमात्मा के नाम की महिमा भरा शबद बख्शता है जो विकारों से बचा लेता है, और, सतिगुरू प्रभू-पति से मिलने की मति देता है।11।

नोट: पौड़ी 10 और 11 दोनों 'र' अक्षर से शुरू होती हैं। यहाँ संस्कृत के स्वर अक्षर 'रि' और 'री' लिए गए हैं।

नोट: राजे और कंगाल को मौत के सामने एक जैसा बेबस बता के सतिगुरू जी गरीब के मन पर से धनवानों का दबदबा उतारते हैं।

लाज मरंती मरि गई घूघटु खोलि चली ॥ सासु दिवानी बावरी सिर ते संक टली ॥ प्रेमि बुलाई रली सिउ मन महि सबदु अनंदु ॥ लालि रती लाली भई गुरमुखि भई निचिंदु ॥१२॥ {पन्ना 931}

पद्अर्थ: लाज = लज्जा। लाज मरंती = लोक लाज में मरने वाली, हर वक्त दुनिया में लोक लाज का ख्याल रखने वाली (बुद्धि)। मरि गई = मर जाती है। घूघटु खोलि = घूंघट खोल के, लोक लाज का घूंघट उतार के। चली = चलती है। सासु = सास, माया। बावरी = कमली। सिर ते = सिर पर से। संक = शंका, सहम। टली = टल जाता है, हट जाता है। प्रेमि = प्यार से। रली सिउ = चाव से। बुलाई = बुलाई जाती है, पति प्रभू बुलाता है। लालि = लाल में, प्रीतम पति में। रती = रंगी हुई। लाली भई = (मुँह पर) लाली चढ़ आती है। गुरमुखि = वह जीव स्त्री जो गुरू की शरण आती है। निचिंदु = चिंता रहित।

अर्थ: (हे पांडे!) जो जीव-स्त्री गुरू की शरण आती है उसको दुनियावी कोई भी चिंता नहीं सता सकती, प्रीतम पति (के प्रेम) में रंगी हुई के मुँह पर लाली आ जाती है। उसको प्रभू-पति प्यार और चाव से बुलाता है (भाव, अपनी याद की कशिश बख्शता है), उसके मन में (सतिगुरू का) शबद (आ बसता है, उसके मन में) आनंद (टिका रहता) है। (गुरू की शरण पड़ कर) दुनियावी लोक-लाज का हमेशा ध्यान रखने वाली (उसकी पहले वाली बुद्धि) खत्म हो जाती है, अब वह लोक-लाज का घूंघट उतार के चलती है; (जिस माया ने उसको पति-प्रभू में जुड़ने से रोका था, उस) झल्ली कमली माया का सहम उसके सिर पर से हट जाता है।12।

लाहा नामु रतनु जपि सारु ॥ लबु लोभु बुरा अहंकारु ॥ लाड़ी चाड़ी लाइतबारु ॥ मनमुखु अंधा मुगधु गवारु ॥ लाहे कारणि आइआ जगि ॥ होइ मजूरु गइआ ठगाइ ठगि ॥ लाहा नामु पूंजी वेसाहु ॥ नानक सची पति सचा पातिसाहु ॥१३॥ {पन्ना 931}

पद्अर्थ: जपि = (हे पांडे!) याद कर। लाहा = लाभ, कमाई। नामु रतनु = परमात्मा का नाम जो दुनिया के सारे पदार्थों से ज्यादा कीमती है। सारु = सार नाम, श्रेष्ठ नाम। बुरा = खराब, उपद्रवी। लाड़ी चाढ़ी = उतारने की बात और चढ़ाने की बात, निंदा और खुशामद। लाइतबार = ला+ऐतबार, वह ढंग जिससे किसी का ऐतबार गवाया जा सके, चुगली। मन मुखु = वह व्यक्ति जिसका रुख अपने मन की ओर है, मन मर्जी का व्यक्ति। मुगधु = मूर्ख। कारणि = वास्ते। जगि = जग में। होइ = बन के। गइआ ठगाइ = ठगा के गया, बाजी हार के गया। ठगि = ठॅग से, मोह के। वेसाहु = श्रद्धा। सची = सदा टिकी रहने वाली। पति = इज्जत।

अर्थ: (हे पांडे! परमात्मा का) श्रेष्ठ नाम जप, श्रेष्ठ नाम ही असल लाभ-कमाई है। जीभ का चस्का, माया का लालच, अहंकार, निंदा, खुशामद, चुगली- ये हरेक काम गलत है (बुरा है)। जो मनुष्य (परमात्मा का सिमरन छोड़ के) अपने मन के पीछे चलता है (और लब-लोभ आदि करता है) वह मूर्ख, मूढ़ और अंधा है (भाव, उसको जीवन का सही रास्ता नहीं दिखता)।

जीव जगत में कुछ कमाने की खातिर आता है, पर (माया का) चाकर बन के मोह के हाथों जीवन-खेल हार के जाता है। हे नानक! जो मनुष्य श्रद्धा को राशि पूँजी बनाता है और (इस पूँजी से) परमात्मा का नाम खरीदता-कमाता है, उसको सदा-स्थिर पातशाह सदा टिकी रहने वाली इज्जत बख्शता है।13।

नोट: पौड़ी नंबर 12 और 13 'ल' अक्षर से आरम्भ होती हैं। ये अक्षर संस्कृत के अक्षर 'ल्रि' और 'ल्री' हैं। ये अक्षर 'स्वर' ही गिने जाते हैं।

आइ विगूता जगु जम पंथु ॥ आई न मेटण को समरथु ॥ आथि सैल नीच घरि होइ ॥ आथि देखि निवै जिसु दोइ ॥ आथि होइ ता मुगधु सिआना ॥ भगति बिहूना जगु बउराना ॥ सभ महि वरतै एको सोइ ॥ जिस नो किरपा करे तिसु परगटु होइ ॥१४॥ {पन्ना 931}

पद्अर्थ: आइ = आ के, जनम ले के। विगूता = ख्वार होता है। जगु = जगत (भाव, जीव)। जम पंथु = मौत का रास्ता, आत्मिक मौत का रास्ता। आई = माया, माया की तृष्णा। आथि = माया। सैल = पहाड़। आथि सैल = माल धन के पर्वत, बहुत धन (जैसे, 'गिरहा सेती मालु धनु')। नीच = नीच मनुष्य। नीच घरि = गिरे हुए आदमी के घर में। जिसु आथि देखि = और उस (नीच) की माया को देख के। दोइ = दोनों (भाव, अमीर और गरीब)। बउराना = कमला, झल्ला। ऐको सोइ = वह (गोपाल) स्वयं ही। वरतै = मौजूद है।

अर्थ: (हे पांडे! गोपाल का नाम अपने मन की पट्टी पर लिख) वह (गोपाल) स्वयं ही सब जीवों में मौजूद है, पर ये सूझ उस मनुष्य को आती है जिस पर (गोपाल स्वयं) कृपा करता है।

(गोपाल की) भगती के बिना जगत (माया के पीछे) पागल हो रहा है। जीव (संसार में) जनम ले के (गोपाल की भक्ति की जगह माया की खातिर) दुखी होता है, माया की तृष्णा को मिटाने-योग्य नहीं होता और आत्मिक मौत का राह पकड़ लेता है। (जगत का पागल-पन देखिए कि) अगर बहुत सारी माया किसी दुष्ट व बुरे व्यक्ति के घर में हो तो उस माया को देख के (गरीब और अमीर) दोनों ही (उस दुष्ट बुरे व्यक्ति के आगे भी) झुकते हैं; अगर माया (पल्ले) हो तो मूर्ख व्यक्ति भी समझदार (माना जाता) है।14।

नोट: गुरू नानक देव जी के ख्याल के अनुसार धन-दौलत का लालच आत्मिक मौत का कारण बनता है। बुरे दुष्ट धनवान की खुशामद करना आत्मिक मौत की ही निशानी है।

जुगि जुगि थापि सदा निरवैरु ॥ जनमि मरणि नही धंधा धैरु ॥ जो दीसै सो आपे आपि ॥ आपि उपाइ आपे घट थापि ॥ आपि अगोचरु धंधै लोई ॥ जोग जुगति जगजीवनु सोई ॥ करि आचारु सचु सुखु होई ॥ नाम विहूणा मुकति किव होई ॥१५॥ {पन्ना 931}

पद्अर्थ: जुगि = युग में। जुगि जुगि = हरेक युग में, हर समय। थापि = स्थापित करके, टिका के, पैदा करके। जनमि = जनम में। मरणि = मरने में। धैरु = भटकना।

जनमि मरणि नही = (वह गोपाल) जनम में और मरने में नहीं (आता)। उपाइ = पैदा करके। घट = सारे शरीर। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान इन्द्रियां। चरु = पहुँच। अ = नहीं) जिस तक मनुष्य की ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं, अपहुँच। लोई = सृष्टि, जगत, लोक। जोग जुगति = (अपने साथ) मिलने की जाच। जग जीवनु = जगत का जीवन परमात्मा। सोई = खुद ही (बताता है)। आचारु = (अच्छा) कर्तव्य। सचु = प्रभू (का सिमरन)। मुकति = धंधों से मुक्ति। किव होई = कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती।

अर्थ: (हे पांडे! उस गोपाल का नाम अपने मन की पट्टी पर लिख) जो सदा ही (बहुरंगी दुनिया) पैदा करके खुद निर्वैर रहता है, जो जनम-मरण में नहीं है और (जिसके अंदर जगत का कोई) धंधा भटकना पैदा नहीं करता। वह गोपाल स्वयं ही (सृष्टि) पैदा करके स्वयं ही सारे जीव बनाता है, जो कुछ (जगत में) दिखाई दे रहा है वह गोपाल स्वयं ही स्वयं है (भाव, उस गोपाल का ही स्व्रूप है)।

(हे पांडे!) जगत भटकना में (फसा हुआ) है, जगत का सहारा वह अपहुँच गोपाल स्वयं ही (जीव को इस भटकना में से निकाल के) अपने साथ मिलने की जाच सिखाता है।

(हे पांडे!) उस सदा-स्थिर (गोपाल की याद) को अपना कर्तव्य बना, तब ही सुख मिलता है। उसके नाम से वंचित रह के धंधों से खलासी नहीं हो सकती।15।

विणु नावै वेरोधु सरीर ॥ किउ न मिलहि काटहि मन पीर ॥ वाट वटाऊ आवै जाइ ॥ किआ ले आइआ किआ पलै पाइ ॥ विणु नावै तोटा सभ थाइ ॥ लाहा मिलै जा देइ बुझाइ ॥ वणजु वापारु वणजै वापारी ॥ विणु नावै कैसी पति सारी ॥१६॥ {पन्ना 931}

पद्अर्थ: वेरोधु सरीर = शरीर का विरोध, ज्ञान इन्द्रियों का आत्मिक जीवन से विरोध (भाव, आँख, नाक, जीभ आदि इन्द्रियां पर = तन पराई निंदा आदि में पड़ के आत्मिक जीवन को गिराते हैं)। किउ न मिलहि = (हे पांडे!) तू क्यों (गोपाल को) नहीं मिलता? किउ न काटहि = (हे पांडे!) तू क्यों दूर नहीं करता? वटाऊ = राही, मुसाफिर। आवै = जगत में आता है, पैदा होता है। जाइ = मर जाता है। किआ लै आइआ = कुछ भी ले के नहीं आता। किआ पलै पाइ = कुछ भी नहीं कमाता। तोटा = घाटा। जा = अगर। देइ बुझाई = परमात्मा समझ बख्शे। कैसी पति सारी = कोई अच्छी इज्जत नहीं (मिलती)। पीर = पीड़ा, रोग।

अर्थ: (हे पांडे! तू क्यों गोपाल का नाम अपने मन की पट्टी पर नहीं लिखता?) तू क्यों (गोपाल की याद में) नहीं जुड़ता? और, क्यों अपने मन का रोग दूर नहीं करता? (गोपाल का) नाम सिमरन के बिना ज्ञान-इन्द्रियों का आत्मिक जीवन से विरोध पड़ जाता है। (गोपाल का नाम अपने मन की तख्ती पर लिखे बिना) जीव-यात्री जगत में (जैसा) आता है और (वैसा ही यहाँ से) चला जाता है, (नाम की कमाई के) बगैर ही यहाँ आता है और (यहाँ रह के भी) कोई आत्मिक कमाई नहीं कमाता।

नाम से टूटे रहने के कारण हर जगह घाटा ही घाटा होता है (भाव, मनुष्य प्रभू को बिसार के जो भी काम-काज करता है वह खोटी होने के कारण ऊँचे जीवन से परे-परे ही ले जाती है)। पर मनुष्य को प्रभू के नाम की कमाई तब ही प्राप्त होती है जब गोपाल खुद ये सूझ बख्शता है।

नाम से वंचित रह के जीव-बन्जारा और तरह के वणज-व्यापार करता है, और (परमात्मा की हजूरी में) इसकी अच्छी साख इज्जत नहीं बनती।16।

गुण वीचारे गिआनी सोइ ॥ गुण महि गिआनु परापति होइ ॥ गुणदाता विरला संसारि ॥ साची करणी गुर वीचारि ॥ अगम अगोचरु कीमति नही पाइ ॥ ता मिलीऐ जा लए मिलाइ ॥ गुणवंती गुण सारे नीत ॥ नानक गुरमति मिलीऐ मीत ॥१७॥ {पन्ना 931-932}

पद्अर्थ: गुण वीचारे = जो मनुष्य गोपाल के गुणों को विचारता है, अपने मन में जगह देता है। गिआनु = (परमात्मा से) जान पहचान। गिआनी = प्रभू के साथ जान पहचान रखने वाला। सोइ = वही मनुष्य। गुण महि = (गोपाल के) गुणों में (चिक्त जोड़ने से)। गुण दाता = (गोपाल के) गुणों के साथ सांझ पैदा करने वाला। संसारि = संसार में। गुर वीचारि = गुरू की दी हुई विचार के द्वारा। करणी = कर्तव्य। साची करणी = सदा-स्थिर प्रभू के गुण याद करने वाला काम। अगोचरु = अपहुँच। कीमति नही पाइ = (गुरू के बिना गोपाल के गुणों की) कद्र नहीं पड़ सकती। गुणवंती = वह जीव स्त्री जिसके अंदर अच्छे गुण हैं। सारे = संभालती है, याद करती है। गुरमति = सतिगुरू की मति ले के। मिलिअै मीत = मित्र प्रभू को मिल सकते हैं।

अर्थ: (हे पांडे!) वही मनुष्य गोपाल-प्रभू के साथ सांझ वाला होता है जो उसके गुणों को अपने मन में जगह देता है; गोपाल के गुणों में (चिक्त जोड़ने से ही) गोपाल के साथ सांझ बनती है। पर जगत में कोई विरला (महापुरख जीव की) गोपाल के साथ सांझ करवाता है; गोपाल के गुण याद करने का सच्चा कर्तव्य सतिगुरू के उपदेश से ही हो सकता है।

(हे पांडे!) वह गोपाल अपहुँच है, जीव की ज्ञान-इन्द्रियाँ उस तक नहीं पहुँच सकतीं, (सतिगुरू की दी हुई सूझ के बिना) उसके गुणों की कद्र नहीं पड़ सकती। उस प्रभू को तब ही मिला जा सकता है जब वह (सतिगुरू के द्वारा) खुद मिला ले।

हे नानक! कोई भाग्यशाली जीव-स्त्री गोपाल के गुण हमेशा याद रखती है, सतिगुरू की शिक्षा की बरकति से ही मित्र प्रभू को मिला जा सकता है।17।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh