श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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णा को मेरा किसु गही णा को होआ न होगु ॥ आवणि जाणि विगुचीऐ दुबिधा विआपै रोगु ॥ णाम विहूणे आदमी कलर कंध गिरंति ॥ विणु नावै किउ छूटीऐ जाइ रसातलि अंति ॥ गणत गणावै अखरी अगणतु साचा सोइ ॥ अगिआनी मतिहीणु है गुर बिनु गिआनु न होइ ॥ तूटी तंतु रबाब की वाजै नही विजोगि ॥ विछुड़िआ मेलै प्रभू नानक करि संजोग ॥३२॥ {पन्ना 934}

पद्अर्थ: णा = ना। गही = मैंने पकड़ी। किस गही = मैं किसको पकड़ूं? किस का आसरा लूँ? होगु = होगा। आवणि = आने में। जाणि = जाने में। दुबिधा = दो+विधा, दो किस्म का, दो-चिक्ता पन। णाम = नाम। रसातलि = पाताल में, नर्क में। अखरी = अक्षरों से। तंतु = तार। विजोगि = वियोग के कारण। करि = कर के। संजोग = मेल।

अर्थ: (गोपाल के बिना मैं) और किस का आसरा लूँ? (जगत में) ना कोई इस वक्त मेरा (असल साथी) है, ना कोई पिछले समय (साथी बना) और ना ही कभी कोई बनेगा। (इस झूठी ममता के कारण, माया को साथी बनाने के कारण) जनम-मरण (के चक्कर) में ही दुखी होना पड़ता है, और दुचिक्तापन का रोग (हम पर) दबाव बनाए रखता है।

'नाम' से टूटे हुए लोग ऐसे गिरते हैं (भाव, सांसे व्यर्थ ही गवाते जाते हैं) जैसे कॅलर की दीवार (किरती रहती है)। 'नाम' के बिना (ममता से) बचा भी नहीं जा सकता, (मनुष्य) आखिर नर्क में ही गिरता है। (इसका ये भाव नहीं कि प्रभू के गुण याद करने से प्रभू के गुणों का अंत पाया जा सकता है) सदा कायम रहने वाला प्रभू लेखे से परे है (बयान नहीं किया जा सकता, पर जो) मनुष्य उस (के सारे गुणों) को अक्षरों के द्वारा वर्णन करता है, (वह) अंजानी है मति से हीन है। गुरू (की शरण) के बिना (यह बात) समझ भी नहीं आती (कि प्रभू अगणत है)।

रबाब की तार टूट जाए तो विजोग के कारण (भाव, टूट जाने के कारण) वह बज नहीं सकती (राग पैदा नहीं कर सकती; इसी तरह जो जीवात्मा प्रभू से विछुड़ी हुई है उसके अंदर जीवन-राग पैदा नहीं हो सकता, पर) हे नानक! परमात्मा (अपने साथ) मिलाने के सबब बना के विछड़े हुओं को भी मिला लेता है।32।

तरवरु काइआ पंखि मनु तरवरि पंखी पंच ॥ ततु चुगहि मिलि एकसे तिन कउ फास न रंच ॥ उडहि त बेगुल बेगुले ताकहि चोग घणी ॥ पंख तुटे फाही पड़ी अवगुणि भीड़ बणी ॥ बिनु साचे किउ छूटीऐ हरि गुण करमि मणी ॥ आपि छडाए छूटीऐ वडा आपि धणी ॥ गुर परसादी छूटीऐ किरपा आपि करेइ ॥ अपणै हाथि वडाईआ जै भावै तै देइ ॥३३॥ {पन्ना 934}

पद्अर्थ: तरवरु = वृक्ष। पंखि = पक्षी। तरवरि = वृक्ष पर। ततु = अस्लियत रूप फल, नाम। मिलि ऐकसे = एक प्रभू के साथ मिल के। रंच = रक्ती भर भी। बेगुल बेगुले = जल्दबाजी में, जल्दी जल्दी। चोग घणी = बहुत सारा चोगा, कई पदार्थ। अवगुणि = अवगुणों के कारण, बहुत सारी चोग देखने के कारण। करमि = बख्शिश। मणी = माथे के लेख। धणी = मालिक।

अर्थ: (मनुष्य का) शरीर (एक) वृक्ष (के समान) है, (इस) वृक्ष पर मन-पंछी की पाँच (ज्ञान-इन्द्रियां) पंछी (बैठे) हुए हैं। (जिन मनुष्यों के ये पंछी) एक प्रभू के साथ मिल के 'नाम'-रूप फल खाते हैं, उनको रक्ती भर भी (माया की) जंजीरें नहीं पड़ती। (पर जो) जल्दी-जल्दी उड़ते हैं और बहुत सारे चोगे (भाव, बहुत सारे पदार्थ) ताकते-फिरते हैं, (उनके) पंख टूट जाते हैं, (उन पर माया के) जाल आ पड़ते हैं और (बहुत सारी चोग की लालच के) अवगुण के बदले उन पर ये बिपता आ पड़ती है।

(इस विपक्ति से) प्रभू (के गुण गायन) के बिना बचा नहीं जा सकता, और प्रभू के गुणों का माथे पर लेख (प्रभू की) बख्शिश से ही (लिखा जा सकता) है। वह स्वयं (सबसे) बड़ा मालिक है; स्वयं ही (माया के जाल से) बचाए तो ही बचा जा सकता है। अगर (गोपाल) खुद मेहर करे तो सतिगुरू की कृपा से (इस मुसीबत से) निकला जा सकता है। (गुण गाने की) ये बख्शिशें उसके अपने हाथ में हैं, उसे ही देता है जो उसको भाता है।33।

थर थर क्मपै जीअड़ा थान विहूणा होइ ॥ थानि मानि सचु एकु है काजु न फीटै कोइ ॥ थिरु नाराइणु थिरु गुरू थिरु साचा बीचारु ॥ सुरि नर नाथह नाथु तू निधारा आधारु ॥ सरबे थान थनंतरी तू दाता दातारु ॥ जह देखा तह एकु तू अंतु न पारावारु ॥ थान थनंतरि रवि रहिआ गुर सबदी वीचारि ॥ अणमंगिआ दानु देवसी वडा अगम अपारु ॥३४॥ {पन्ना 934}

पद्अर्थ: जीअड़ा = निमाणा जीव, निमाणी जीवात्मा।

(नोट: 'जीव' शब्द से 'जीअड़ा' अल्पार्थक संज्ञा है)।

थानु = आसरा। थानि = आसरा देने वाला। मनि = मान देने वाला। फीटै = बिगड़ता है। थिरु = अटल, सदा कायम रहने वाला। सुरि = देवते। नाथहु नाथु = नाथों का भी पति। थान थनंतरी = हर जगह में। रवि रहिआ = व्यापक है। वीचारि = विचार से।

अर्थ: (जब यह) निमाणी जीवात्मा (गोपाल का) सहारा गवा बैठती है तो थर-थर काँपती है; (हर वक्त सहमी रहती है) (पर जिसको, हे गोपाल!) सहारा देने वाला और आदर देने वाला तू सच्चा खुद है उसका काज (जिंदगी का मनोरथ) नहीं बिगड़ता, (उसके सिर पर तू) प्रभू कायम है, गुरू रखवाला है, तेरे गुणों की विचार उसके हृदय में टिकी हुई है; उसके वास्ते देवताओं, मनुष्यों और नाथों का भी तू नाथ है तू ही निआसरों का आसरा है।

(हे गोपाल!) तू हर जगह मौजूद है, तू दातों का दाता है; मैं जिधर देखता हूँ तू ही तू है, तेरा अंत तेरा इस पार उस पार का छोर पाया नहीं जा सकता। (हे पांडे!) सतिगुरू के शबद की विचार में (जुड़ने से) हर जगह वह गोपाल ही मौजूद (दिखाई देता है); बगैर मांगे भी वह (हरेक जीव को) दान देता है, वह सबसे बड़ा है, अगंम है और बेअंत है।34।

दइआ दानु दइआलु तू करि करि देखणहारु ॥ दइआ करहि प्रभ मेलि लैहि खिन महि ढाहि उसारि ॥ दाना तू बीना तुही दाना कै सिरि दानु ॥ दालद भंजन दुख दलण गुरमुखि गिआनु धिआनु ॥३५॥ {पन्ना 934}

पद्अर्थ: दाना = जानने वाला। बीना = पहचानने वाला। सिरि = सिर पर। दानु = दाना, जानने वाला। दालद = दरिद्र, गरीबी। दलण = नाश करने वाला। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। गिआनु = गहरी सांझ, जान पहचान। धिआनु = ठहरी हुई सुरति।

अर्थ: (हे गोपाल!) तू दयालु है, तू (जीवों पर) दया करके बख्शिश करके देख रहा है (भाव, खुश होता है)। हे गोपाल-प्रभू! (जिस पर तू) मेहर करता है उसको अपने (चरणों) में जोड़ लेता है, तू एक पल में गिरा के उसारने में समर्थ है।

(हे गोपाल!) तू (जीवों के दिल की) जानने वाला है और परखने वाला है, तू दानियों का दाना है, दरिद्रता और दुखों का विनाश करने वाला है; तू अपने साथ गहरी सांझ (और अपने चरणों की) सुरति सतिगुरू के द्वारा देता है।35।

धनि गइऐ बहि झूरीऐ धन महि चीतु गवार ॥ धनु विरली सचु संचिआ निरमलु नामु पिआरि ॥ धनु गइआ ता जाण देहि जे राचहि रंगि एक ॥ मनु दीजै सिरु सउपीऐ भी करते की टेक ॥ धंधा धावत रहि गए मन महि सबदु अनंदु ॥ दुरजन ते साजन भए भेटे गुर गोविंद ॥ बनु बनु फिरती ढूढती बसतु रही घरि बारि ॥ सतिगुरि मेली मिलि रही जनम मरण दुखु निवारि ॥३६॥ {पन्ना 934}

पद्अर्थ: धनि गइअै = अगर धन चला जाय। चीतु गवार = गवार का चिक्त। विरली = विरलों से, किसी एक आध ने। संचिआ = इकट्ठा किया। पिआरि = प्यार से। राचहि = तू रचा रहे। रंगि ऐक = एक गोपाल के रंग में। टेक = आसरा। भेटे = मिले। बसतु = 'नाम' रूपी (असल) चीज। घरि = घर में। बारि = दरवाजे के अंदर। सतिगुरि = गुरू ने।

अर्थ: मूर्ख मनुष्य का मन (सदा) धन में (रहता) है, (इसलिए) यदि धन चला जाए तो बैठा चिंतातुर होता है, विरले लोगों ने प्यार से (गोपाल का) पवित्र नाम-रूप सच्चा धन इकट्ठा किया है।

(हे पांडे! गोपाल के साथ चिक्त जोड़ने से) अगर धन गायब होता है तो गायब होने दे (पर हाँ) अगर तू एक प्रभू के प्यार में जुड़ सके (तो इसकी खातिर) मन भी देना चाहिए, सिर भी अर्पित कर देना चाहिए; (ये सब कुछ दे के) फिर भी करतार की (मेहर की) आस रखनी चाहिए।

जिन मनुष्यों के मन में (सतिगुरू का) शबद (बस जाता) है (राम-नाम का) आनंद (आ जाता) है, वे (माया के) धंधों में भटकने से बच जाते हैं, (क्योंकि) गुरू परमात्मा को मिल के वे बुरे अच्छे बन जाते हैं।

(जो जीव-स्त्री उस प्रभू-नाम की खातिर) जंगल-जंगल ढूँढती फिरी (उसे ना मिला, क्योंकि) वह (नाम-) वस्तु तो हृदय में थी, घर के अंदर ही थी। जब सतिगुरू ने (प्रभू से) मिला दिया तब (वह उसके नाम में) जुड़ बैठी, और उस का जनम-मरण का दुख मिट गया।36।

नाना करत न छूटीऐ विणु गुण जम पुरि जाहि ॥ ना तिसु एहु न ओहु है अवगुणि फिरि पछुताहि ॥ ना तिसु गिआनु न धिआनु है ना तिसु धरमु धिआनु ॥ विणु नावै निरभउ कहा किआ जाणा अभिमानु ॥ थाकि रही किव अपड़ा हाथ नही ना पारु ॥ ना साजन से रंगुले किसु पहि करी पुकार ॥ नानक प्रिउ प्रिउ जे करी मेले मेलणहारु ॥ जिनि विछोड़ी सो मेलसी गुर कै हेति अपारि ॥३७॥ {पन्ना 934-935}

पद्अर्थ: नाना = अनेकों कर्म। जम पुरि = जम की पुरी में। जाहि = जाते हैं। तिसु = उस मनुष्य को। ऐहु = ये लोक। ओहु = परलोक। धिआनु = ऊँची सुरति। कहा = कहाँ? (भाव, नहीं मिलता)। किआ जाणा = समझा नहीं जा सकता। हाथ = (अभिमान का) हाथ, बाँह। रंगुले = रंगे हुए, प्रभू के प्यार में रंगे हुए।

प्रिउ = प्यारा। करी = मैं करूँ। मेलणहारु = जो मिलाने में समर्थ है। जिनि = जिस (प्रभू) ने। हेति = हित से। अपारि हेति = बेअंत प्यार से।

अर्थ: नाना प्रकार के (धार्मिक) कर्म करने से (अहंकार से) खलासी नहीं हो सकती, गोपाल के गुण गाए बिना (इस अहंकार के कारण) नर्क में ही जाया जाता है। (जो मनुष्य सिर्फ 'कर्मों' का ही आसरा लेते हैं) उसे ना ये लोक मिला ना ही परलोक (भाव, उसने ना 'दुनिया' सवारी ना ही 'दीन', ऐसे लोग कर्म-काण्ड के) अवगुण में फसे रहने के कारण पछताते ही हैं। ऐसे मनुष्य की ना गोपाल के साथ गहरी सांझ होती है, ना ही ऊँची सुरति, और ना ही धर्म।

(इस अहंकार के कारण) 'नाम' के बिना 'निर्भय' प्रभू की प्राप्ति नहीं हो सकती, 'अहंकार' को समझा नहीं जा सकता (भाव, अहंकार में टिके रहने से ये समझ भी नहीं आती कि हमारे ऊपर अहंकार की काठी पड़ी हुई है)। (ये एक ऐसा समुंद्र है कि) इसकी गहराई का परला सिरा नहीं मिल सकता, मैं यतन कर-कर के थक गई हूँ, पर नहीं पा सकी; गोपाल के नाम में रंगे हुए गुरमुखों के बिना और किसी के आगे ये दुख बताया भी नहीं जा सकता।

हे नानक! अगर मैं उस प्यारे प्रभू को बार-बार याद करूँ तो वह मिलाने में समर्थ प्यारा स्वयं ही मिला लेता है। जिस प्रभू ने ('अभिमान' की दूरी बना के) विछोड़ा हुआ है वह गुरू के अथाह प्यार के माध्यम से ही मिलाएगा।37।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh