श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 935 पापु बुरा पापी कउ पिआरा ॥ पापि लदे पापे पासारा ॥ परहरि पापु पछाणै आपु ॥ ना तिसु सोगु विजोगु संतापु ॥ नरकि पड़ंतउ किउ रहै किउ बंचै जमकालु ॥ किउ आवण जाणा वीसरै झूठु बुरा खै कालु ॥ मनु जंजाली वेड़िआ भी जंजाला माहि ॥ विणु नावै किउ छूटीऐ पापे पचहि पचाहि ॥३८॥ {पन्ना 935} पद्अर्थ: पापि = पाप से। पापे = पाप का ही। पापे पसारा = पाप का पसारा ही। परहरि = त्याग के। आपु = अपने आप को। विजोगु = विछोड़ा। नरकि = नर्क में। बंचे = ठगे, टाले। बुरा = खराब। झूठु बुरा = चंदरा झूठा। झूठु बुरा कालु = पाप रूपी बुरी मौत। खै = (आत्मिक जीवन का) नाश करता है। वेड़िआ = फसा हुआ, लपेटा हुआ, घिरा हुआ, ग्रसित। पचहि = जलते हैं। पचहि पचाहि = बार बार जलते हैं। अर्थ: (हे पांडे!) पाप बुरा (काम) है, पर पापी को प्यारा लगता है, वह (पापी) पाप के साथ लदा हुआ पाप का ही पसारा पसारता है। अगर मनुष्य पाप छोड़ के अपने असल को पहचाने तो उसको चिंता, विछोड़ा और दुख नहीं व्यापते। (जब तक) झूठ पाप-रूपी मौत (जीव के आत्मिक जीवन को) तबाह कर रही है, तब तक इसका पैदा होना मरना कैसे खत्म हो? और जमकाल (भाव, मौत के डर) को ये कैसे टाल सके? (जब तक) मन (पापों के) जंजालों से घिरा हुआ है, यह (इन पापों के) और-और जंजालों में पड़ता है, गोपाल के नाम के बिना (इन जंजालों से) बचा नहीं जा सकता, (बल्कि जीव) पापों में ही बार-बार दुखी होते हैं।38। फिरि फिरि फाही फासै कऊआ ॥ फिरि पछुताना अब किआ हूआ ॥ फाथा चोग चुगै नही बूझै ॥ सतगुरु मिलै त आखी सूझै ॥ जिउ मछुली फाथी जम जालि ॥ विणु गुर दाते मुकति न भालि ॥ फिरि फिरि आवै फिरि फिरि जाइ ॥ इक रंगि रचै रहै लिव लाइ ॥ इव छूटै फिरि फास न पाइ ॥३९॥ {पन्ना 935} पद्अर्थ: कऊआ = मूर्ख, काली करतूतों वाला मनुष्य। आखी = आँखों से। जम कालि = मौत के जाल में, मौत को लाने वाले जाल में। इक रंगि = एक गोपाल के प्यार में। इव = इस तरह। अर्थ: कालियां करतूतों वाला मनुष्य बार-बार जाल में फसता है, (फस के) फिर पछताता है कि ये क्या हो गया; फसा हुआ भी (जाल में फसाने वाला) चोगा ही चुगे जाता है और होश नहीं करता। अगर सतिगुरू (इसको) मिल जाए, तो आँखों से (अस्लियत) दिखाई दे जाती है। जैसे मछली मौत लाने वाले जाल में फस जाती है (वैसे ही जीव आत्मिक मौत लाने वाले पापों में फसता है)। (हे पांडे! गोपाल के नाम की) दाति देने वाले गुरू के बिना (इस जाल में से) छुटकारा (भी) ना तलाश (भाव, नहीं मिलता)। (इस जाल में फसा हुआ जीव) बार-बार पैदा होता है और मरता है। जो जीव एक गोपाल के प्यार में जुड़ता है और सुरति लगाए रखता है; वह इस तरह विकारों की जंजीरों में से निकल जाता है, और फिर उस को बँधन नहीं पड़ते।39। बीरा बीरा करि रही बीर भए बैराइ ॥ बीर चले घरि आपणै बहिण बिरहि जलि जाइ ॥ बाबुल कै घरि बेटड़ी बाली बालै नेहि ॥ जे लोड़हि वरु कामणी सतिगुरु सेवहि तेहि ॥ बिरलो गिआनी बूझणउ सतिगुरु साचि मिलेइ ॥ ठाकुर हाथि वडाईआ जै भावै तै देइ ॥ बाणी बिरलउ बीचारसी जे को गुरमुखि होइ ॥ इह बाणी महा पुरख की निज घरि वासा होइ ॥४०॥ {पन्ना 935} पद्अर्थ: बीरा = हे वीर! हे भाईया! बैराइ = बैराय, बेगाने। बहिण = बहन, ये काया। बिरहि = विरह, विछोड़ा। बाबुल = पिता। कै घरि = के घर में। बाबुल कै घरि = पेके घर में, इस जगत में। बेटड़ी = बालिका, अंजान बेटी। बाली बालै नेहि = गुड्डी गुड्डों के प्यार में। नेहि = प्यार में। हितेहि = हित से। कामणी = हे (जीव-) स्त्री! बूझणउ = समझ वाला। साचि = सच्चे प्रभू से, गोपाल की कृपा से। महा पुरख = सतिगुरू। निज घरि = अपने घर में। गिआनी = ज्ञानवान, जिसने परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल ली है। वडाईआ = गुण गाने। अर्थ: (हे पांडे!) ये काया (जीवात्मा को) 'वीर वीर' कहती रह जाती है (पर मौत के आने पर) वीर जी बेगाने हो जाते हैं, वीर (जी) (परलोक में) अपने घर चले जाते हैं और बहन (काया) विछोड़े में (भाव, मौत के आने पर) जल जाती है। (फिर भी यह) अंजान (काया) बच्ची पिता के घर में रहती हुई गुड्डे-गुड्डियों के प्यार में ही लगी रहती है (भाव, शरीर और जीवात्मा का मेल चार दिनों का जानते हुए भी जीव दुनियां के पदार्थों में मस्त रहता है)। (जीवात्मा को ये शिक्षा देनी चाहिए कि) हे (जीव-) स्त्री! अगर पति (-प्रभू) को मिलना चाहती है तो प्यार से सतिगुरू के बताए हुए राह पर चल। जिस जीव को गोपाल की कृपा से सतिगुरू मिलता है वह (इस बात को) समझता है। पर कोई विरला मनुष्य ही यह सूझ हासिल करता है। गोपाल-प्रभू के गुण गाने गोपाल के अपने हाथ में है, (यह दाति वह) उसको देता है जो उसको भाता है। कोई विरला गुरमुख सतिगुरू की बाणी को विचारता है, वह बाणी सतिगुरू की (ऐसी) है कि (इसकी विचार से) मनुष्य स्वै-स्वरूप में टिक जाता है।40। भनि भनि घड़ीऐ घड़ि घड़ि भजै ढाहि उसारै उसरे ढाहै ॥ सर भरि सोखै भी भरि पोखै समरथ वेपरवाहै ॥ भरमि भुलाने भए दिवाने विणु भागा किआ पाईऐ ॥ गुरमुखि गिआनु डोरी प्रभि पकड़ी जिन खिंचै तिन जाईऐ ॥ हरि गुण गाइ सदा रंगि राते बहुड़ि न पछोताईऐ ॥ भभै भालहि गुरमुखि बूझहि ता निज घरि वासा पाईऐ ॥ भभै भउजलु मारगु विखड़ा आस निरासा तरीऐ ॥ गुर परसादी आपो चीन्है जीवतिआ इव मरीऐ ॥४१॥ {पन्ना 935} पद्अर्थ: भनि भनि = बार बार तोड़ के। घड़ि घड़ि = बार बार बना के। उसरे = बने हुए। सोखै = सुखाता है। पोखै = नाकोनाक भरता है। भरमि = भरम में। किआ पाईअै = कुछ नहीं मिलता। प्रभि = प्रभू ने। जिन = जिन्होंने। जाईअै = (ले) जाता है। आस निरासा = आशाओं की तरफ से निराश हो के। आपो = अपने आप को। इव = इस तरह। नोट: हिन्दी अक्षरों को 'पा, फा, बा, भा' आदि कह के उच्चारते हैं, और गुरमुखी अक्षरों को 'पपा, फफा, बबा, भभा' कह के। गुरू नानक साहिब 'भभा' प्रयोग कर रहे हैं, जिससे ये स्पष्ट है कि वे अपनी बाणी हिन्दी व उर्दू लिपी में नहीं लिख रहे थे। अर्थ: (इस जगत की संरचना) बार-बार तोड़ी जाती है और बनाई जाती है, बार बार निर्माण और विनाश की प्रक्रिया चलती है। (वह गोपाल इस संसार-) सरोवर को भर के सुखा देता है, फिर और लबालब भर देता है। वह गोपाल प्रभू सब कुछ कर सकने योग्य है, बेपरवाह है। (हे पांडे! उस गोपाल प्रभू को भुला के) जो जीव भटकना में पड़ कर गलत राह पर पड़े हुए हैं वह (माया के पीछे ही) पागल हुए पड़े हैं, (उनको) भाग्यों के बगैर (उस बेपरवाह की सिफतसालाह के तौर पर) कुछ नहीं मिलता। सतिगुरू की ज्ञान-रूप डोरी प्रभू ने (अपने) हाथ में पकड़ रखी है, जिनको (इस डोरी से अपनी ओर) खींचता है वह (उसकी ओर) चल पड़ते हैं (भाव, जिन पर गोपाल प्रभू मेहर करता है वे गुरू के बताए हुए राह पर चल कर उसके चरणों में जुड़ते हैं) वह प्रभू के गुण गा के उसके प्यार में मस्त रहते हैं, फिर उन्हें पछताना नहीं पड़ता, वह (प्रभू की ही) तलाश करते हैं। (जब) सतिगुरू के द्वारा (रास्ता) समझ लेते हैं तो अपने (असल) घर में टिक जाते हैं (भटकने से हट जाते हैं)। यह संसार-समुंद्र (जीवों के वास्ते) मुश्किल रास्ता है, इसमें से तभी तैरा जा सकता है अगर (दुनिया वाली) आशाएं बाँधनी छोड़ दें, सतिगुरू की मेहर से अपने आप को (अपनी अस्लियत को) पहचानें; इस तरह जीते हुए मर जाना है (भाव, इसी जीवन में ही मन को विकारों से हटा लेना है)।41। माइआ माइआ करि मुए माइआ किसै न साथि ॥ हंसु चलै उठि डुमणो माइआ भूली आथि ॥ मनु झूठा जमि जोहिआ अवगुण चलहि नालि ॥ मन महि मनु उलटो मरै जे गुण होवहि नालि ॥ मेरी मेरी करि मुए विणु नावै दुखु भालि ॥ गड़ मंदर महला कहा जिउ बाजी दीबाणु ॥ नानक सचे नाम विणु झूठा आवण जाणु ॥ आपे चतुरु सरूपु है आपे जाणु सुजाणु ॥४२॥ {पन्ना 935-936} पद्अर्थ: डुमणो = दुचिक्ता (भाव, एक तरफ इधर माया में फसा हुआ है, दूसरी तरफ मौत बदोबदी ले के जा रही है)। नोट: फरीद जी सूही राग में लिखते हैं 'हंसु चलसी डुमणा'। गुरू नानक देव जी की तुक 'हंस चलै उठि डुमणो' को फरीद जी की तुक से मिला के देखो। ये शब्दों की समानता सबब से नहीं हो गई। स्पष्ट है, गुरू नानक देव जी के पास फरीद जी की बाणी मौजूद थी। आथि = है। भूली आथि = भूल जाती है, साथ छूट जाता है। झूठा = झूठे पदार्थों में फसा हुआ, साथ ना निभने वाली माया में फसा हुआ। जमि = जम ने। जोहिआ = देखा, ताड़ना की, डराया। उलटो = पलट के, माया से उलट के। मरै = 'अहं भाव' से मर जाता है। भालि = ढूँढ के। कहा = कहाँ गए? साथ छोड़ गए। बाजी = मदारी की खेल। दीबाणु = कचहरी, हकूमत। झूठा = व्यर्थ। गढ़ = किले। आवण जाणु = आना और जाना, (भाव,) सारा जीवन। नोट: तुक 'गढ़ मंदर महल कहा' पाठकों के सामने ऐमनाबाद का वह नजारा सामने ले आती है जो गुरू नानक देव जी ने राग आसा की अष्टपदी में यूँ बयान की है 'कहा सु घरु दरु मंडप महला, कहा सु बंक सराई'। क्या यह बाणी बाबरवाणी के बाद करतारपुर बैठ के लिखी गई थी? अर्थ: (बेअंत जीव) माया के लिए तरले लेते मर गए, पर माया किसी के साथ ना निभी, जब (जीव-) हंस दुचिक्ती में हो के (मौत आने पर) उठ चलता है तो माया का साथ छूट जाता है। जो मन माया में फसा होता है उसको जम की ओर से ताड़ना मिलती है (भाव, वह मौत का नाम सुन-सुन के डरता है), (माया तो यहीं ही रह गई, पर माया की खातिर किए हुए) अवगुण साथ चल पड़ते हैं। पर अगर मनुष्य के पल्ले में गुण हों तो मन माया की तरफ से पलट के अपने अंदर ही अहं भाव को मार लेता है (और इस तरह इसमें मोह आदि विकार नहीं रह जाते)। परमात्मा का 'नाम' भुला के (सिर्फ) माया को ही अपनी समझ के (इस तरह बल्कि) दुख ले के ही (बेअंत जीव) चले गए, किले, पक्के घर, महल-माढ़ियां और हकूमतें (सब) साथ छोड़ गए, ये तो (मदारी का) तमाशा ही था। हे नानक! प्रभू के नाम के बिना सारा जीवन व्यर्थ जाता है (पर जीव विचारों के भी क्या वश? ये बेसमझ है) प्रभू खुद ही समझदार है, स्वयं ही सब कुछ जानता है (वही समझाए तो जीव समझे)।42। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |